Monday, 30 April 2018

patr vishesh

ताजमहल हो या लाल किला .... यहाँ देशभर से लाखों पर्यटक आते हैं.... इनके रहने घुमने की सुविधा के लिये सरकार पैसे खर्च करती थी... रखरखाव का सारा खर्चा सरकार पर आता था.... टैक्स पेयर का पैसा बरबाद होता है.... जितना मुनाफा नहीं उससे ज्यादा लागत ... उपर से सरकारी कर्मचारियों का रखरखाव तो पुरे दुनिया में फेमस है...इनके भरोसे अगर ऐसे ही राष्ट्रीय धरोहरें छोड़ी तो यह बरबाद हो जायेंगी ... ना जाने कितने एक से बढकर एक किले हैं जो सरकार के भरोसे हैं और जीर्ण हालात में जा चुके हैं.... गिरने के कगार पर है...
इसका सरकार ने एक बेहतरीन उपाय निकाला है.... इसके रखरखाव का प्राइवटाइजेशन कर दिया है.... डालमिया ग्रुप को लालकिले के रखरखाव की जिम्मेदारी सौंपी जा रही है.... अब डालमिया ग्रुप वहाँ झाडू लगायेगा .. सिक्युरीटी देगा.. पर्यटन को बढावा देने के लिये तरह-तरह के प्रचार करेगा... कार्यक्रम आयोजित करवायेगा... दुकानें लगवायेगा... इसकी एंट्री फिस और किराया लेगा... जाहिर सी बात है कमा कर कुछ हिस्सा भारत सरकार को देगा.... तो यह फायदे का सौदा है या घाटे का???.. सरकार ने एक बोझ अपने से उतार कर किसी नागरिक को सौंप दिया ... ले भाई कमा ... और कुछ हिस्सा मुझे दे... मेरे पास और भी काम है।
लेकिन हम ठहरे पैदाइशी अल्पबुद्धी.... हमें करना है मोदी विरोध ... बात चाहे बुरी हो या अच्छी ... रखरखाव के लिये किले को किसी के हाथ में लीज पर सौंपना और किले को बेच देना दो अलग-अलग मामले हैं?.... लेकिन हमें उससे क्या? हम तो फैलायेंगे की देखो मोदी ने किला बेच दिया... राष्ट्रीय धरोहर निलाम कर दी.... हाय-हाय मार डाला ...
भाई, सरकार का काम व्यापार करना नहीं है... उसका काम है व्यवस्था बनाये रखना... नीतियाँ बनाना... कानून का पालन करवाना वगैरह वगैरह... प्राइवाइटाजेशन जरूरी है.... प्राइवेट हाथ में होने से सरकारी अस्पताल और प्राइवेट अस्पताल की हालत देख लो... सरकारी स्कूलों और प्राइवेट स्कूलों की हालत देख लो... अरे BSNL और एयरटेल+आइडीया+जीओ की हालत देख लो....।
देश को गति देना है... बिना आरक्षण हटाये अन्य वर्गों को भी अवसर देना है... नागरिकों का जीवन स्तर सुधारना है तो प्राइवेटाइजेशन जरूरी है... रोना बंद करो।
By Abhinav Pandey
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आखिर ये #पाकिस्तान प्रेम #कर्नाटक चुनाव में क्यो
कर्नाटक के निवर्तमान #काँग्रेसी मुख्यमंत्री #सिद्धारमैया कर्नाटक विधानसभा चुनावों के #मध्यमें क्या करने पाकिस्तान गए थे?
क्या सलमान खुर्शीद ने पाकिस्तान जाकर जो डील किया था मोदी जी को हटाने का और मणिशंकर आईय्यर ने जो डील किया था पाकिस्तान जाकर भाजपा को हटाकर काँग्रेस को सत्ता में लाने का क्या वही डील फाइनल करने गए थे सिद्धारमैया पाकिस्तान?
या फिर राहुल गाँधी ने डोकलाम वाली घटना के समय जो चाइना एम्बेसी में जाकर डील किया था वह फाइनल हो रहा था पाकिस्तान के रास्ते?
या फिर काँग्रेसियों की राष्ट्रमाता सोनिया ने रसिया जाकर पाकिस्तानी सेना के अधिकारियों से अभी अभी जो वार्ता किया है उसका ही फॉलोअप है यह पाकिस्तान की यात्रा?
आखिर क्या रहस्य है सिद्धारमैया की विधानसभा चुनाव मध्य में पाकिस्तान यात्रा का? आखिर काँग्रेस कौन सा गुल खिलाने वाली है आने वाले दिनों में कर्नाटक में? क्या कर्नाटक किसी बड़े संकट का सामना करने वाला है? विषय चिंतनीय है। काँग्रेसी करामात का नमूना। -- Manish Soni
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तमिलनाडु की एक जाति है, पल्लर या "देवेंद्रकुल्ला वेल्लर", वैसे तो ये किसान और मज़दूरों की पिछड़ी जाती है, जिसे Sc St केटेगरी का आरक्षण प्राप्त है।
पर एक काबिले तारीफ कदम इस समुह के करीब 1 लाख लोग उठाने जा रहे है।
वो अपनी जाति को आरक्षण से बाहर करना चाहते है।
कारण?
आरक्षण उन्हें, एक गाली की तरह लगता है, जिसे वो अपना अपमान समझते है।
इनका कहना है,आरक्षण के चलते, समाज मे इन्हें सम्मान नही मिल रहा और राजनीतिक पार्टियां इनका दुरुपयोग कर रही है।
इस लिए 6 मई 2018 को इस जाति के 1 लाख लोग एक यात्रा निकाल कर अपनी जाति को आरक्षण मुक्त करने की शुरुवात करेंगे।
ये खबर, अभी तक मैन स्ट्रीम मीडिया में नही आई है, और शायद आएगी भी नही।
पर ये एक स्वाभिमान से भरा सराहनीय कदम है, जिससे देवेंद्रकुल्ला वेल्लार, के लोगो ने मेरे दिल मे एक सम्मान का स्थान प्राप्त किया है।  --  

देवेश कुमार त्यागी
प्राचीन भारत की आर्थिक संस्थाएं
सच होने के बावजूद यह तथ्य बहुत-से लोगों को चौंका सकता है कि प्राचीन भारत औद्योगिक विकास के मामले में शेष विश्व के बहुत से देशों से कहीं अधिक आगे था। रामायण और महाभारत काल से पहले ही भारतीय व्यापारिक संगठन न केवल दूर-देशों तक व्यापार करते थे, बल्कि वे आर्थिकरूप से इतने मजबूत एवं सामाजिक रूप से इतने सक्षम संगठित और शक्तिशाली थे कि उनकी उपेक्षा कर पाना तत्कालीन राज्याध्यक्षों के लिए भी असंभव था। रामायण के एक उल्लेख के अनुसार राम जब चौदह वर्ष का वनवास काटकर अयोध्या वापस लौटते हैं तो उनके स्वागत के लिए आए प्रजाजनों में श्रेणि प्रमुख भी होते हैं।
प्राचीन ग्रंथों में इस तथ्य का भी अनेक स्थानों उल्लेख हुआ है कि उन दिनों व्यक्तिगत स्वामित्व वाली निजी और पारिवारिक व्यवसायों के अतिरिक्त तत्कालीन भारत में कई प्रकार के औद्योगिक एवं व्यावसायिक संगठन चालू अवस्था में थे, जिनका व्यापार दूरदराज के अनेक देशों तक विस्तृत था। उनके काफिले समुद्री एवं मैदानी रास्तों से होकर अरब और यूनान के अनेक देशों से निरंतर संपर्क बनाए रहते थे। उनके पास अपने अपने कानून होते थे। संकट से निपटने के लिए उन्हें अपनी सेनाएं रखने का भी अधिकार था। सम्राट के दरबार में उनका सम्मान था। महत्त्वपूर्ण अवसरों पर सम्राट श्रेणि-प्रमुख से परामर्श लिया करता था। उन संगठनों को उनके व्यापार-क्षेत्र एवं कार्यशैली के आधार पर अनेक नामों से पुकारा जाता था। गण, पूग, पाणि, व्रात्य, संघ, निगम अथवा नैगम, श्रेणि जैसे कई नाम थे, जिनमें श्रेणि सर्वाधिक प्रचलित संज्ञा थी। ये सभी परस्पर सहयोगाधारित संगठन थे, जिन्हें उनकी कार्यशैली एवं व्यापार के आधार पर अलग-अलग नामों से पुकारा जाता था।
भारतीय धर्मशास्त्रों में प्राचीन समाज की आर्थिकी का भी विश्लेषण किया गया है। उनमें उल्लिखित है कि हाथ से काम करने वाले शिल्पकार, व्यवसाय चलाने वाली जातियां व्यवस्थित थीं। सामूहिक हितों के लिए संगठित व्यापार को अपनाकर उन्होंने अपनी सूझबूझ का परिचय दिया था। इसी कारण वे आर्थिक एवं सामाजिक रूप से काफी समृद्ध भी थीं। आचार्य पांडुरंग वामन काणे ने उस समय के विभिन्न व्यावसायिक संगठनों की विशेषताओं का अलग-अलग वर्णन किया है। कात्यायन ने श्रेणि, पूग, गण, व्रात, निगम तथा संघ आदि को वर्ग अथवा समूह माना है। 1 लेकिन आचार्य काणे उनकी इस व्याख्या से सहमत नहीं थे। उनके अनुसार ये सभी शब्द पुराने हैं। यहां तक कि वैदिक साहित्य में भी ये प्रयुक्त हुए हैं। यद्यपि वहां उनका सामान्य अर्थ दल अथवा वर्ग ही है। 2 इसी प्रकार कौषीतकिब्राह्मण उपनिषद् में पूग को रुद्र की उपमा दी गई है। 3 आपस्तंब धर्मसूत्र में संघ को पारिभाषित करते हुए उसकी कार्यविधि और भविष्य को देखने हुए, अन्य संगठनों के संदर्भ में उसके अंतर को समझा जा सकता है। 4
पाणिनिकाल तक संघ, व्रात, गण, पूग, निगम आदि नामों के विशिष्ट अर्थ ध्वनित होने लगे थे। उन्होंने श्रेणि के पर्यायवाची अथवा विभिन्न रूप माने जाने वाले उपर्युक्त नामों की व्युत्पत्ति आदि की विस्तृत चर्चा की है। इस तथ्य का उल्लेख हम पहले ही कर चुके हैं कि श्रेणियों की पहुंच केवल आर्थिक कार्यकलापों तक ही सीमित नहीं थीं, बल्कि उनकी व्याप्ति धार्मिक, राजनीति और सामाजिक सभी क्षेत्रों में थी। इसलिए कार्यक्षेत्र को देखते हुए उन्हें विभिन्न संबोधनों से पुकारा जाना भी स्वाभाविक ही था। दूसरी ओर यह भी सच है कि पूग, व्रात्य, निगम, श्रेणि इत्यादि विभिन्न नामों से पुकारे जाने के बावजूद सहयोगाधारित संगठनों के बीच उनके कार्यकलापों अथवा श्रेणिधर्म के आधार पर कोई स्पष्ट सीमारेखा नहीं थी। दूसरे शब्दों में ये नाम विशिष्ट परिस्थितियों में कार्यशैली एवं कार्यक्षेत्र के अनुसार अपनाए तो जाते थे, परंतु उनके बीच स्पष्ट कार्य-विभाजन का अभाव था। संगठन के विभिन्न नामों के कारण उनके बीच अनौपचारिक-से भेद एवं उनसे ध्वनित होने प्रचलित अर्थ को आगे के अनुच्छेदों में स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है-
व्रात्य
यह नाम प्राचीन काल से ही संघ अथवा वैकल्पिक सरकार के रूप में प्रचलित रहा है। इसमें आंतरिक लोकतंत्र की भावना प्रधान होती थी। पाणिनी ने अपने महाभाष्य में ऐसे लोगों को व्रात्य माना है, जिनका कोई विशिष्ट व्यवसाय नहीं था, जो अपने तात्कालिक हितों के लिए किसी भी प्रकार का व्यवसाय अपना सकते थे। दूसरे शब्दों में उन्हें कई व्यवसायों का कार्यसाधक ज्ञान होता था। और समय तथा उपयोगिता के अनुसार वे अपना कोई भी व्यवसाय चुन सकते थे। व्रात्य प्रायः अपने शारीरिक बल से ही अपनी जीविका चलाते थे। वे विविध जातियों से आए हुए दक्ष शिल्पकार थे और अपने आर्थिक हितों की सुरक्षा के लिए आपस में संगठित होकर रहना आवश्यक मानते थे। कात्यायन ने व्रात्यों को विचित्र अस्त्रधारी सैनिकों का झुंड माना है। इससे कुछ विभिन्न विक्रमादित्य खन्ना ने किरन कुमार थपल्याल एवं मजुमदार के हवाले से एक ही परिक्षेत्र में रहने वाले, आर्थिक हितों के लिए प्रयासरत, समूह को व्रात्य एवं पूग की संज्ञा दी है। उनके अनुसार— ‘व्रात्य एवं पूग एक ही नगर अथवा गांव के निवासियों के सामान्यतः एक ही व्यवसाय में लगे, समान आर्थिक हितों के लिए गठित समूह थे।’5 स्पष्ट है कि व्रात्य समानधर्मा लोग थे, जिनको एकाधिक व्यवसायों की जानकारी होती थी। अपने परंपरागत उद्यम में अनुकूल अवसर न देख वे सहयोगी संगठन के गठन की ओर उन्मुख होते थे। उनके संगठन अधिक लोकतांत्रिक और उदार होते थे।
पूग
आचार्य काणे ने अपने वृहद् ग्रंथ ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ में उल्लेख किया है कि व्रात्य की भांति पूग भी विभिन्न जातियों से आए हुए लोग थे। वे आवश्यकता पड़ने पर मिस्त्री से लेकर श्रमिक तक, कुछ भी काम कर सकते थे। कशिका के अनुसार वे धनलोलुप और कामी थे, जिनका कोई स्थिर व्यवसाय नहीं था। कात्यायन ने पूग को व्यापारियों का समुदाय स्वीकार किया है। कौटिल्य ने भी अपने अर्थशास्त्र में एक स्थान पर सैनिकों एवं श्रमिकों में अंतर दर्शाया गया है। उनके अनुसार सौराष्ट्र एवं कांबोज राज्य के सैनिकों की श्रेणियां अलग-अलग वर्गों में विभाजित थीं। उनमें से कुछ आयुध के सहारे अपनी आजीविका चलाने वाली थीं, तो कुछ की आजीविका का माध्यम कृषि था— पूग एक स्थान की विभिन्न जातियों एवं विभिन्न व्यवसाय वाले लोगों का समुदाय है और श्रेणि विभिन्न जातियों के लोगों का समुदाय है—जैसे हेलाबुकों, तांबूलिकों, कुविंदों (जुलाहों) एवं चर्मकारों की श्रेणियां. चाहमान विग्रहराज के प्रस्तरलेख में हेलाबुकों को प्रत्येक घोड़े के लिए एक द्रम्म देने का वृत्तांत मिलता है।’6 पूग संभवतः ऐसे व्यक्तियों का संगठन होता था, जिनका पैत्रिक व्यवसाय युद्ध अथवा सेवाकर्म था; अर्थात ऐसे लोग जो वर्ण-विभाजन की दृष्टि से वाणिज्यकर्म के लिए अधिकृत नहीं थे। कृषक एवं सैनिक जातियों के लोग अपने व्यवसाय से हताश होकर, परिवर्तन अथवा अपेक्षाकृत अधिक आर्थिक लाभ के लिए संगठन का निर्माण करते थे। इस बात की भी पर्याप्त संभावना है कि वाणिज्यिक अनुभव की कमी तथा शिल्पकलाओं के ज्ञान के अभाव में शूद्रवर्ग एवं सेना से निकाले गए लोगों के संगठन को पूग माना गया हो. ऐसे लोग युद्धक अथवा गैरव्यावसायिक श्रेणियों के गठन को प्राथमिकता देते थे। इस तरह पूग एवं व्रात्य कहे जाने वाले संगठनों में सैद्धांतिक दृष्टि से कोई खास अंतर नहीं था।
प्राचीन भारत की आर्थिक संस्थायें : भाग 2
व्रात्य
यह नाम प्राचीन काल से ही संघ अथवा वैकल्पिक सरकार के रूप में प्रचलित रहा है। इसमें आंतरिक लोकतंत्र की भावना प्रधान होती थी। पाणिनी ने अपने महाभाष्य में ऐसे लोगों को व्रात्य माना है, जिनका कोई विशिष्ट व्यवसाय नहीं था, जो अपने तात्कालिक हितों के लिए किसी भी प्रकार का व्यवसाय अपना सकते थे। दूसरे शब्दों में उन्हें कई व्यवसायों का कार्यसाधक ज्ञान होता था। और समय तथा उपयोगिता के अनुसार वे अपना कोई भी व्यवसाय चुन सकते थे। व्रात्य प्रायः अपने शारीरिक बल से ही अपनी जीविका चलाते थे। वे विविध जातियों से आए हुए दक्ष शिल्पकार थे और अपने आर्थिक हितों की सुरक्षा के लिए आपस में संगठित होकर रहना आवश्यक मानते थे। कात्यायन ने व्रात्यों को विचित्र अस्त्रधारी सैनिकों का झुंड माना है। इससे कुछ विभिन्न विक्रमादित्य खन्ना ने किरन कुमार थपल्याल एवं मजुमदार के हवाले से एक ही परिक्षेत्र में रहने वाले, आर्थिक हितों के लिए प्रयासरत, समूह को व्रात्य एवं पूग की संज्ञा दी है। उनके अनुसार— ‘व्रात्य एवं पूग एक ही नगर अथवा गांव के निवासियों के सामान्यतः एक ही व्यवसाय में लगे, समान आर्थिक हितों के लिए गठित समूह थे।’5 स्पष्ट है कि व्रात्य समानधर्मा लोग थे, जिनको एकाधिक व्यवसायों की जानकारी होती थी। अपने परंपरागत उद्यम में अनुकूल अवसर न देख वे सहयोगी संगठन के गठन की ओर उन्मुख होते थे। उनके संगठन अधिक लोकतांत्रिक और उदार होते थे।
पूग
आचार्य काणे ने अपने वृहद् ग्रंथ ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ में उल्लेख किया है कि व्रात्य की भांति पूग भी विभिन्न जातियों से आए हुए लोग थे। वे आवश्यकता पड़ने पर मिस्त्री से लेकर श्रमिक तक, कुछ भी काम कर सकते थे। कशिका के अनुसार वे धनलोलुप और कामी थे, जिनका कोई स्थिर व्यवसाय नहीं था। कात्यायन ने पूग को व्यापारियों का समुदाय स्वीकार किया है। कौटिल्य ने भी अपने अर्थशास्त्र में एक स्थान पर सैनिकों एवं श्रमिकों में अंतर दर्शाया गया है। उनके अनुसार सौराष्ट्र एवं कांबोज राज्य के सैनिकों की श्रेणियां अलग-अलग वर्गों में विभाजित थीं। उनमें से कुछ आयुध के सहारे अपनी आजीविका चलाने वाली थीं, तो कुछ की आजीविका का माध्यम कृषि था— पूग एक स्थान की विभिन्न जातियों एवं विभिन्न व्यवसाय वाले लोगों का समुदाय है और श्रेणि विभिन्न जातियों के लोगों का समुदाय है—जैसे हेलाबुकों, तांबूलिकों, कुविंदों (जुलाहों) एवं चर्मकारों की श्रेणियां. चाहमान विग्रहराज के प्रस्तरलेख में हेलाबुकों को प्रत्येक घोड़े के लिए एक द्रम्म देने का वृत्तांत मिलता है।’6 पूग संभवतः ऐसे व्यक्तियों का संगठन होता था, जिनका पैत्रिक व्यवसाय युद्ध अथवा सेवाकर्म था; अर्थात ऐसे लोग जो वर्ण-विभाजन की दृष्टि से वाणिज्यकर्म के लिए अधिकृत नहीं थे। कृषक एवं सैनिक जातियों के लोग अपने व्यवसाय से हताश होकर, परिवर्तन अथवा अपेक्षाकृत अधिक आर्थिक लाभ के लिए संगठन का निर्माण करते थे। इस बात की भी पर्याप्त संभावना है कि वाणिज्यिक अनुभव की कमी तथा शिल्पकलाओं के ज्ञान के अभाव में शूद्रवर्ग एवं सेना से निकाले गए लोगों के संगठन को पूग माना गया हो. ऐसे लोग युद्धक अथवा गैरव्यावसायिक श्रेणियों के गठन को प्राथमिकता देते थे। इस तरह पूग एवं व्रात्य कहे जाने वाले संगठनों में सैद्धांतिक दृष्टि से कोई खास अंतर नहीं था।
संघ
संघ को सामान्यतः विशिष्ट लोगों के संगठन का पर्याय माना गया है। प्राचीन भारत में गणतांत्रिक सत्ता के ध्रुवों को संघ के नाम से पुकारने की परंपरा रही है। संघों के सदस्यों का चयन बहुमत के आधार पर किया जाता था। तथापि वह सीमित गणतंत्र था। उनके सदस्य प्रायः वर्णव्यवस्था में ऊपर के क्रम पर आने वाली जातियों से संबद्ध होते थे, जो अपने आर्थिक, राजनीतिक एवं धार्मिक हितों की प्राप्ति हेतु संगठन का निर्माण करते थे। लगभग यही आशय गण का भी रहा है। प्रारंभ में इन दोनों के बीच कोई सैद्धांतिक विभाजन था भी नहीं. प्रकारांतर में गण और संघ में भेद अवश्य किया जाने लगा था। लेकिन गण को एकवचन के रूप में भी स्वीकारा जाता रहा है, जबकि संघ की संज्ञा विवेकवान लोगों के समूह के लिए सुरक्षित रही है, जो अपने निर्णय सिद्धांततः आमसहमति के आधार पर लेते हों. विशेषकर बौद्धधर्म के अभ्युध्य के पश्चात ब्राह्मणों ने स्वयं को उनसे अलग दिखाने के लिए, उनके संगठनों को संघ कहना प्रारंभ कर दिया था। मनु ने संघ का प्रयोग संगठित समाज के लिए किया है। जबकि कात्यायन के अनुसार संघ बौद्धों तथा जैनों का समाज है। डा॓. रमेशचंद्र मजुमदार एवं डा॓. किरन कुमार थपल्याल, दोनों ने इसी मत की संस्तुति की है। इन दोनों के हवाले से विक्रमादित्य खन्ना लिखते हैं कि— ‘संघ का संबोधन सामान्यतः राजनीतिक संगठनों के लिए था। यद्यपि कभी-कभी उसका इस शब्द का प्रयोग शैक्षिक एवं धर्मिक गतिविधियों के विकास को समर्पित संगठनों, विशेषकर बौद्ध भिक्षुओं के दल, के लिए भी कर लिया जाता था।’7 इस वर्गीकरण से संघ की आर्थिक विशेषताओं का कोई बोध नहीं होता. यह भी हो सकता है कि बौद्धों के धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक हितों के लिए गठित समूहों को संघ की संज्ञा दी जाती हो. लेकिन लोकपंरपरा में व्यापारियों के समूहों को भी संघ कहने का चलन था।
गण
प्राचीन भारतीय वांङमय में गण शब्द का उल्लेख अनेकार्थी है। गण का सामान्य अभिप्राय सुसंस्कृत नागरिक से भी है। गांवों एवं नगरों में सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए, समाज के जिन विशिष्ट व्यक्तियों को यह जिम्मेदारी सौंपी जाती थी, उन्हें ‘गण’ कहा जाता था। कई बार धार्मिक एवं राजनीतिक उद्देश्यों के लिए मनोनीत व्यक्ति भी ‘गण’ की संज्ञा से विभूषित कर दिए जाते थे। कालांतर में इस संज्ञा का उपयोग आर्थिक उद्देश्यों के गठित संगठनों के लिए भी किया जाने लगा. वसिष्ठ धर्मसूत्र में ‘गण’ का उल्लेख संगठित समाज के रूप में किया गया है। कुछ इसी प्रकार का अर्थ मनु ने भी बताया है; यानी पूरा समाज गण अथवा गणसमूह है। कात्यायन ने वर्ण-विभाजन को आधार बनाकर इसे और भी विशेषीकृत करते हुए, ब्राह्मणों के संगठन को गण की संज्ञा दी है। मिताक्षरा के अनुसार गण व्यापारियों के समूह थे, जिनका प्रमुख व्यवसाय हेलाबूक अर्थात घोड़े का व्यवसाय करना था। विक्रमादित्य खन्ना ने गण को धार्मिक एवं राजनीतिक संगठन मानते हुए उसको संघ के समक्ष रखा है। डाॅ. मजुमदार का संदर्भ देते हुए वे लिखते हैं कि— ‘प्रारंभ में गण का अभिप्राय व्यापारियों के समूह से था, मगर कालांतर में उन्हें राजनीतिक एवं धार्मिक संगठन के रूप में भी मान्यता मिलने लगी.’8 सामान्य नागरिकताबोध की प्रस्तुति के लिए भी गण का उपयोग आम नागरिकों के लिए मान्य रहा है। गणतंत्र उसी शब्द की व्युत्पत्ति है। यही अर्थ सहस्राब्दियों तक विद्वानों को मान्य रहा है। लेकिन यह भी सत्य है कि समय के साथ संज्ञाएं एवं उनके संदर्भ बदलते रहते हैं। कई बार स्वार्थी लोग भी शब्दों को उनके मूल संदर्भों से काटकर मनमानी व्याख्याएं करते रहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि गण का उपयोग प्रारंभ में नागरिक और नागरिक-समूहों के लिए सुरक्षित था। बाद में यही संज्ञा व्यापारी-समूहों को भी दी जाने लगी. लेकिन कालांतर में, बौद्ध धर्म के उद्भव के बाद ब्राह्मणों ने उनके संगठनों को संघ तथा अपने समूहों को गण कहना आरंभ कर दिया था।
क्रमशः.....
(विकिपीडिया से)
महान इतिहासकार अर्नाल्ड जे टायनबी ने कहा था – विश्व के इतिहास में अगर किसी देश के इतिहास के साथ सर्वाधिक छेड़ छाड़ की गयी है, तो वह भारत का इतिहास ही है.
भारतीय इतिहास का प्रारंभ सिन्धु घाटी की सभ्यता से होता है, इसे हड़प्पा कालीन सभ्यता या सारस्वत सभ्यता भी कहा जाता है. बताया जाता है कि वर्तमान सिन्धु नदी के तटों पर 3500 BC (ईसा पूर्व) में एक विशाल नगरीय सभ्यता विद्यमान थी. मोहनजोदारो, हड़प्पा, कालीबंगा, लोथल आदि इस सभ्यता के नगर थे.
पहले इस सभ्यता का विस्तार सिंध, पंजाब, राजस्थान और गुजरात आदि बताया जाता था, किन्तु अब इसका विस्तार समूचा भारत, तमिलनाडु से वैशाली बिहार तक, पूरा पाकिस्तान व अफगानिस्तान तथा ईरान का हिस्सा तक पाया जाता है. अब इसका समय 7000 BC से भी प्राचीन पाया गया है.
इस प्राचीन सभ्यता की सीलों, टेबलेट्स और बर्तनों पर जो लिखावट पाई जाती है उसे सिन्धु घाटी की लिपि कहा जाता है. इतिहासकारों का दावा है कि यह लिपि अभी तक अज्ञात है और पढ़ी नहीं जा सकी. जबकि सिन्धु घाटी की लिपि से समकक्ष और तथाकथित प्राचीन सभी लिपियां जैसे – इजिप्ट, चीनी, फोनेशियाई, आर्मेनिक, सुमेरियाई, मेसोपोटामियाई आदि सब पढ़ ली गयी हैं.
आजकल कम्प्यूटरों की सहायता से अक्षरों की आवृत्ति का विश्लेषण कर मार्कोव विधि से प्राचीन भाषा को पढना सरल हो गया है.
सिन्धु घाटी की लिपि को जानबूझ कर नहीं पढ़ा गया और न ही इसको पढने के सार्थक प्रयास किये गए. भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद (Indian Council of Historical Research) जिस पर पहले अंग्रेजो और फिर कम्युनिस्टों का कब्ज़ा रहा, ने सिन्धु घाटी की लिपि को पढने की कोई भी विशेष योजना नहीं चलायी.
आखिर ऐसा क्या था सिन्धु घाटी की लिपि में? अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकार क्यों नहीं चाहते थे कि सिन्धु घाटी की लिपि को पढ़ा जाए?
अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकारों की नज़रों में सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में निम्नलिखित खतरे थे –
1. सिन्धु घाटी की लिपि को पढने के बाद उसकी प्राचीनता और अधिक पुरानी सिद्ध हो जायेगी. इजिप्ट, चीनी, रोमन, ग्रीक, आर्मेनिक, सुमेरियाई, मेसोपोटामियाई से भी पुरानी. जिससे पता चलेगा कि यह विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता है. भारत का महत्व बढेगा जो अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकारों को बर्दाश्त नहीं होगा.
2. सिन्धु घाटी की लिपि को पढने से अगर वह वैदिक सभ्यता साबित हो गयी तो अंग्रेजो और कम्युनिस्टों द्वारा फैलाये गए आर्य- द्रविड़ युद्ध वाले प्रोपगंडा के ध्वस्त हो जाने का डर है.
3. अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकारों द्वारा दुष्प्रचारित ‘आर्य बाहर से आई हुई आक्रमणकारी जाति है और इसने यहाँ के मूल निवासियों अर्थात सिन्धु घाटी के लोगों को मार डाला व भगा दिया और उनकी महान सभ्यता नष्ट कर दी, वे लोग ही जंगलों में छुप गए, दक्षिण भारतीय (द्रविड़) बन गए, शूद्र व आदिवासी बन गए’, आदि आदि गलत साबित हो जायेगा.
कुछ फर्जी इतिहासकार सिन्धु घाटी की लिपि को सुमेरियन भाषा से जोड़ कर पढने का प्रयास करते रहे तो कुछ इजिप्शियन भाषा से, कुछ चीनी भाषा से, कुछ इनको मुंडा आदिवासियों की भाषा, और तो और, कुछ इनको ईस्टर द्वीप के आदिवासियों की भाषा से जोड़ कर पढने का प्रयास करते रहे. ये सारे प्रयास असफल साबित हुए.
सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में निम्लिखित समस्याए बताई जाती है – सभी लिपियों में अक्षर कम होते है, जैसे अंग्रेजी में 26, देवनागरी में 52 आदि, मगर सिन्धु घाटी की लिपि में लगभग 400 अक्षर चिन्ह हैं.
सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में यह कठिनाई आती है कि इसका काल 7000 BC से 1500 BC तक का है, जिसमे लिपि में अनेक परिवर्तन हुए साथ ही लिपि में स्टाइलिश वेरिएशन बहुत पाया जाता है. लेखक ने लोथल और कालीबंगा में सिन्धु घाटी व हड़प्पा कालीन अनेक पुरातात्विक साक्षों का अवलोकन किया.
भारत की प्राचीनतम लिपियों में से एक लिपि है जिसे ब्राह्मी लिपि कहा जाता है. इस लिपि से ही भारत की अन्य भाषाओँ की लिपियां बनी. यह लिपि वैदिक काल से गुप्त काल तक उत्तर पश्चिमी भारत में उपयोग की जाती थी. संस्कृत, पाली, प्राकृत के अनेक ग्रन्थ ब्राह्मी लिपि में प्राप्त होते है.
सम्राट अशोक ने अपने धम्म का प्रचार प्रसार करने के लिए ब्राह्मी लिपि को अपनाया. सम्राट अशोक के स्तम्भ और शिलालेख ब्राह्मी लिपि में लिखे गए और सम्पूर्ण भारत में लगाये गए.
सिन्धु घाटी की लिपि और ब्राह्मी लिपि में अनेक आश्चर्यजनक समानताएं है. साथ ही ब्राह्मी और तमिल लिपि का भी पारस्परिक सम्बन्ध है. इस आधार पर सिन्धु घाटी की लिपि को पढने का सार्थक प्रयस सुभाष काक और इरावाथम महादेवन ने किया.
सिन्धु घाटी की लिपि के लगभग 400 अक्षर के बारे में यह माना जाता है कि इनमे कुछ वर्णमाला (स्वर व्यंजन मात्रा संख्या), कुछ यौगिक अक्षर और शेष चित्रलिपि हैं. अर्थात यह भाषा अक्षर और चित्रलिपि का संकलन समूह है. विश्व में कोई भी भाषा इतनी सशक्त और समृद्ध नहीं जितनी सिन्धु घाटी की भाषा.
जिस प्रकार सिन्धु घाटी की लिपि पशु के मुख की ओर से अथवा दाएं सेबाएं लिखी जाती है, उसी प्रकार ब्राह्मी लिपि भी दाएं से बाएं लिखी जाती है. सिन्धु घाटी की लिपि के लगभग 3000 टेक्स्ट प्राप्त हैं.
इनमे वैसे तो 400 अक्षर चिन्ह हैं, लेकिन 39 अक्षरों का प्रयोग 80 प्रतिशत बार हुआ है. और ब्राह्मी लिपि में 45 अक्षर है. अब हम इन 39 अक्षरों को ब्राह्मी लिपि के 45 अक्षरों के साथ समानता के आधार पर मैपिंग कर सकते हैं और उनकी ध्वनि का पता लगा सकते हैं.
ब्राह्मी लिपि के आधार पर सिन्धु घाटी की लिपि पढने पर सभी संस्कृत के शब्द आते है जैसे – श्री, अगस्त्य, मृग, हस्ती, वरुण, क्षमा, कामदेव, महादेव, कामधेनु, मूषिका, पग, पंच मशक, पितृ, अग्नि, सिन्धु, पुरम, गृह, यज्ञ, इंद्र, मित्र आदि.
निष्कर्ष यह है कि –
1. सिन्धु घाटी की लिपि ब्राह्मी लिपि की पूर्वज लिपि है.
2. सिन्धु घाटी की लिपि को ब्राह्मी के आधार पर पढ़ा जा सकता है.
3. उस काल में संस्कृत भाषा थी जिसे सिन्धु घाटी की लिपि में लिखा गया था.
4. सिन्धु घाटी के लोग वैदिक धर्म और संस्कृति मानते थे.
5. वैदिक धर्म अत्यंत प्राचीन है, 7000 BC से भी अधिक पुराना.
हिन्दू सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीन व मूल सभ्यता है, हिन्दुओं का मूल निवास सप्त सैन्धव प्रदेश ( सिन्धु सरस्वती क्षेत्र ) था जिसका विस्तार ईरान से सम्पूर्ण भारत देश था.
वैदिक धर्म को मानने वाले कहीं बाहर से नहीं आये थे और न ही वे आक्रमणकारी थे. आर्य-द्रविड़ जैसी कोई भी दो पृथक जातियाँ नहीं थीं जिनमे परस्पर युद्ध हुआ हो ।
🌹🌹हार्दिक आमंत्रण🌹🌹
मिट्टीकूल सूरत दूसरी ब्रांच,दुकान नंबर 28,सेंट्रल बाजार,रिलायंस मार्केट के पास, वेसु,सूरत खोल रहे आप सभी का स्वागत है,।स्वदेशी विनोद प्रजापति 9724935679

mediya

 
ये कांग्रेसी #शिन्दे#दिग्विजय #सुरजेवाला लोग
#बगदादी#ओसामा और #हाफीज तक को पूजते रहे है
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JNU में लेनिन, AMU में जिन्नाऔर मदरसों में लादेन की तस्वीर

सेक्युलर का मतलब ही गद्दार
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मुल्ला जी ने आवेश में आकर 'अरे काफ़िर' कहकर मेरी गर्दन पर चाक़ू रख दिया।
मैंने कहा,"अरे भाई, मेरा क्या दोष है जो गर्दन पर चाक़ू रख लिए हो।"
मुल्ला जी बोले,"तू काफ़िर है। तुझे मारकर जन्नत जाऊंगा।"
मैं बोला,"किसने कहा ऐसा आपसे? किसी ने आपको बहका दिया है।"
मुल्ला जी बोले,"नहीं, मुझे किसी ने नही बहकाया। यह तो ख़ुदा का कलमा है, खुदा का आदेश है।"
मैंने झट से अपनी बन्दूक निकाली और मुल्ला जी के सर पर रख दी।
मुल्ला जी हंसने लगे और बोले,"अरे भाई मैं तो मजाक कर रहा था। हमारी 'कुरआन' में लिखा है 'एक आदमी को मार दिया मतलब इन्सानियत को मार दिया।' समझे?"
जी हां..
भारत का मुस्लिम और विश्व का मुस्लिम यही कर रहा है।
जहां उनकी आबादी कम है, वहां "एक आदमी को मार दिया मतलब इन्सानियत का कत्ल" वाली आयत चलाओ..
और जहां उनकी आबादी अधिक है, वहां "अल्लाह का हुकुम" कहकर गैर मुस्लिमों को मार दो और जन्नत ले लो।
जैसी परिस्थिति हो, वैसे बन जाओ।
अभी जिन राज्यो में कम हैं, वहां आजकल 'इन्सानियत' वाली आयत सुना रहे हैं। जहां अधिक हैं, वहां 'अल्लाह का आदेश' मानकर जन्नत जा रहे हैं।
सेक्युलर हिंदू भाई अगर अब जल्दी ही ये बात ना समझे, तो आपकी आने वाली पीढ़ियां 'नमाज पढ़ती, अपनी ही बहन-बेटियों से रंगरेलियाँ मनाती और गौ-भक्षण करती' नज़र आएँगी!
धर्मो रक्षति रक्षित:
Navneet Mittal
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दो दिन पहले जब कि मैं जयपुर में था , एक मित्र ने एक Video Clip भेजा जिसमे 7 -- 8 युवक एक नाबालिग छोटी बच्ची को भेड़ियों की तरह नोच रहे है , उसके कपड़े फाड़ रहे हैं और वो अकेली उन सबके साथ संघर्ष कर रही है , अपनी इज़्ज़त बचा रही है । बीच बीच मे वो उन दरिंदों से गुहार भी लगा रही है ।
जिसने वीडियो भेजा उनसे बात हुई । वो बेहद परेशान थे । उनके मुह से शब्द नही निकल रहे थे ।
गला choke हो रहा था । उस Video को आगे किसी से Share करने की हिम्मत न हुई ।पर मैंने उसे बिहार के दो तीन Key Persons को भेज दिया ।
आज बड़ा ही शुभ समाचार मिला कि उनमे से 4 लड़के गिरफ्तार कर लिए गए हैं ।
शेष को पकड़ने के लिए गया -- जहानाबाद जिले में ताबड़तोड़ छापेमारी चल रही है ।
उस video clipping में एक Motorcycle सड़क किनारे गिरी दिखती है और दोषी लड़कों में एक लड़का Halmet लगाए दीखता है । एक क्षण भर को मोटरसाइकिल का नंबर स्क्रीन पे आता है ।
पुलिस ने Viral हुए Video का स्वतः संज्ञान लेते हुए 8 अज्ञात लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया और Motor Cycle का नंबर trace करते हुए एक दिन के भीतर 4 दोषी दबोच लिए । पकड़े गए 4 लड़कों में 2 वीडियो बना रहे हैं और दो लड़की को दबोचे हुए दिख रहे हैं ।
जिस फोन पे video बना उसे भी जप्त कर लिया गया है । लड़की की उम्र 14 साल बताई जा रही है और दोषी 18 से ऊपर हैं । ये घटना दिनदहाड़े एक गांव की सड़क चकरोड पे हुई है ।

मामला POCSO में दर्ज हुआ है और सीधे सीधे 376 का केस है । दोषियों को सीधे सीधे फांसी पे लटकाया जाना चाहिए ।लअकों से गअती ओ आती ऐ ...... अब क्या फांसी पे लटका दोगे ........ ये तर्क नही चलेगा .........
इस केस में तो लड़कों के साथ इनके माँ बाप को भी लटकाओ ......... जिन स्कूलों में पढ़े उनके टीचर्स को भी लटकाओ .........क्या संस्कार दिए हैं अपने बच्चों को ?
Ajit Singh
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इस फिल्म का नाम है #3Dev जिसमे हमारे इष्ट
देवताओं का भरपूर #मज़ाक उड़ाया गया है और Content #अश्लिलता की चरम सीमा पर है...इस फिल्म के #प्रस्तुतकर्ता और #लेखक का नाम जरूर पढ़ लें...
Director/Presented by ......- Ayub khan
Writer............ - Ghalib Asad Bhopali....
......सिर्फ कहने के लिए महादेव के #भक्त मत बनिए....अगर महादेव को चाहते है तो पहले ...हिन्दूओं एक हो ,.. साथ आने से ऐसी Movie को भी रोका जा सकता है... विरोध करे...


ब्रेकिंग इंडिया ब्रिगेड का षड़यंत्र 

जैसा कि मैने अपने पहले के कुछ लेखों में अमेरिकन एवेलेंजलिस्ट के बारे में आपको बताया था , आपको मेने यह भी बताया था कि कैसे atrocities literature तैयार हुए जैसा अमेरिका में अश्वेतों - श्वेत के द्वन्दों में उसी के बेसिस पर सब कुछ किया गया । खैर मैं उसके विस्तार में कभी चर्चा करूँगा । इस समय जो उनके 4 प्रमुख प्रोजेक्ट्स चल रहे है , उन पर चर्चा करना चाहता हु ।

(1) एफ्रो दलिट्स प्रोजेक्ट means सारे भारत के दलिट्स और अफ्रीका के अश्वेत सभी एक ही है । उन पर अत्याचार एक जैसे हुए । दलिट्स लिटरेचर का लेखन उस बेसिस पर हो रहा है । अच्छा उसके अंदर भी कई प्रोजेक्ट्स है जैसे 8% native tribe casts वाला । शेष गैर दलिट्स immigrants है । और इसके पहले उन्होंने कई शोशल एक्सपेरिमेंटस भी किये , दास , दस्यु आदि फ़र्ज़ी माइथोलोजी और रावण , महीखासुर नायक वगेरह ।

(2) दूसरा प्रोजेक्ट्स अभी चल रहा ओबीसी साहित्य - विमर्श वाला जो बहुजन चिंतन के नाम से चल रहा है । जेनयू के वामपंथियो और क्रिश्चियन गठजोड़ का अद्वितीय नमूना देखने को मिला जब जेनयू से प्रकाशित पत्रिका यादव शक्ति में यादवो का पूर्वज महीखासुर प्रचारित किया गया , बाद में उसे दलित कहा गोंड दलिट्स अंत मे बहुजन नायक नाम से पत्रिका निकली । उसके बाद मौर्य योद्धा रावण बहुजन नायक नाम से पत्रिका निकली । जो जान दयाल , शेल्डन पोलाक , आयवन कोस्का , दिलीप मंडल , स्वप्न विश्वास , अभी ओबीसी साहित्य के लेखन में और रिसर्च चल रहा है । उच्च विश्वविद्यालयो के शोशल स्टडीज और मानविकी जैसे विषयों में ऐसे शोध कराए गए । साथ ही कोलराडो , शिकागो , पेंसिल्वेनिया , यूनिवर्सिटी के कथित बुद्धिजीवी भी इस मिशन में अहर्निश लगे है , इतना आप लोग भी जानते होंगे । फुले , पेरियार , लोहिया , अम्बेडकर , नारायण गुरु , मंडल करके नया राजनैतिक दृष्टिकोण उत्तर भारत मे लांच करने की योजना है जो सपा , बसपा , जेडीयू , राजेडी आदि को रिप्लेस मेन्ट में होगी ।

(3) तीसरा मूवमेंट जो है वो आप लोगो ने देखा है कर्नाटका में वोककलिंगा , लिंगायत वाला मुद्दा । कैसे एक जमाज को ethnic groups में तोड़ा जाय , आप लोग क्या सीधा सीधा अन्याय नही दिखता ?? उदाहरण के रूप में कोलकाता में रामकृष्ण मिशन , जिसकी स्थापना वेदांत प्रचारक विवेकानन्द ने की । और विवेकानन्द जीवन पर्यंत दुनिया मे हिन्दू संस्कृति और धर्म के प्रचारक के रूप काम करते है उसके बाद आज क्यो राम कृष्ण मिशन कोर्ट में यह एफिडेवि देती है कि हमारी संस्था हिन्दू नही है हम हिन्दू नही । इसका मतलब साफ है कि एक हिन्दू संस्था के रूप में राम कृष्ण मिशन कमजोर हो चुकी है । मेने सुना है कि गुजरात मे भी कई ऐसे सम्प्रदाय existence में आये जो यह मांग कर रहे है कि हम हिन्दू नही है ।

(4) और जो एक 4 था मूवमेंट है उसमें मर्क्सिसम - लेनिनिस्म के नाम से प्रयोग करने की बात की जा रही है , जैसा कि आप लोग जानते है कि पूरी दुनिया मे मर्क्सिसम - लेनिनिस्म फेल हुआ , चीन , रूस , जर्मनी सभी पूंजीवाद की ओर दशको पहले बढ़े । उसी मर्क्सिसम को नए सिरे से जीवित करने के प्रयास है , कुल मिलाकर खेत की जुताई करना है बस । उसमे अम्बेडकर और मार्क्स - लेनिन को एक नए concept की तरह परिभाषित किया जाएगा । इसमे जो खास बात कही जा रही है वो ये कि अम्बेडकर साहब मार्क्सिस्ट थे और देश मे मर्क्सिसम इस फेल हुआ कि उसमें मनुवादी ब्राह्मणों का प्रवेश हो गया जिन्होंने मनुवाद फैलाना शुरू किया , वगेरह वगेरह । जबकि सच ये रहा कि आज आपको जो भी हिन्दू विरोधी साहित्य कही भी दिखते है उसके रचयिता अंग्रेजो के बाद कथित ब्राह्मण मार्क्सिस्ट है । दलिट्स साहित्य और लेखन तो अभी महज 3 से 4 दशक ही पुराना है । आप सभी साहित्य को अपने सामने रखेंगे तो आपको मिशनरी साहित्य , वामपंथी साहित्य , दलिट्स लिटरेचर में 90% तक समानता दिखेगी । खैर ये तो बहोत कम चीजे जो हमने आपको बताई ज्यादा जानकारी के लिए राजीव मल्होत्रा जी की ब्रेकिंग इंडिया और इंद्रा नेट पढ़े । साथ ही साथ आप उन साहित्य को भी पढ़े ।

#अहम इन्द्रो न पराजिग्ये
क्या आर्य विदेशी है?

बाबा भीमराव अम्बेडकर जी के ही विचार  जिससे ये सिद्ध होगा की आर्य स्वदेशी है।

1) डॉक्टर अम्बेडकर राइटिंग एंड स्पीचेस खंड 7 पृष्ट में अम्बेडकर जी ने लिखा है कि आर्यो का मूलस्थान(भारत से बाहर) का सिद्धांत वैदिक साहित्य से मेल नही खाता। वेदों में गंगा,यमुना,सरस्वती, के प्रति आत्मीय भाव है। कोई विदेशी इस तरह नदी के प्रति आत्मस्नेह सम्बोधन नही कर सकता।

2) डॉ अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक "शुद्र कौन"? Who were shudras? में स्पष्ट रूप से विदेशी लेखको की आर्यो के बाहर से आकर यहाँ पर बसने सम्बंधित मान्यताओ का खंडन किया है। डॉ अम्बेडकर लिखते है--

1) वेदो में आर्य जाती के सम्बन्ध में कोई जानकारी नही है।

2) वेदो में ऐसा कोई प्रसंग उल्लेख नही है जिससे यह सिद्ध हो सके कि आर्यो ने भारत पर आक्रमण कर यहाँ के मूलनिवासियो दासो दस्युओं को विजय किया।

3) आर्य,दास और दस्यु जातियो के अलगाव को सिद्ध करने के लिए कोई साक्ष्य वेदो में उपलब्ध नही है।

4)वेदो में इस मत की पुष्टि नही की गयी कि आर्य,दास और दस्युओं से भिन्न रंग के थे।

5)डॉ अम्बेडकर ने स्पष्ट रूप से शुद्रो को भी आर्य कहा है(शुद्र कौन? पृष्ट संख्या 80)

अगर अम्बेडकरवादी सच्चे अम्बेडकर को मानने वाले है तो अम्बेडकर जी की बातो को माने।

वैसे अगर वो बुद्ध को ही मानते है तो महात्मा बुद्ध की भी बात को माने। महात्मा बुद्ध भी आर्य शब्द को गुणवाचक मानते थे। वो धम्मपद 270 में कहते है प्राणियो की हिंसा करने से कोई आर्य नही कहलाता। सर्वप्राणियो की अहिंसा से ही मनुष्य आर्य अर्थात श्रेष्ठ व् धर्मात्मा कहलाता है।

यहाँ हम धम्मपद के उपरोक्त बुध्वचन का maha bodhi society, banglore द्वारा प्रमाणित अनुवाद देना आवश्यक व् उपयोगी समझते है।.
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विदेशी यात्रिओं के प्रमाण -
अम्बेडकरवादी सभी संस्कृत ग्रंथों को गप्प कहते हैं इसलिए कुछ विदेशी यात्रिओं के प्रमाण विचारणीय हैं...
1- मेगस्थनीज 350 ईसापूर्व - 290 ईसा पूर्व) यूनान का एक राजदूत था जो चन्द्रगुप्त के दरबार में आया था। वह कई वर्षों तक चंद्रगुप्त के दरबार में रहा। उसने जो कुछ भारत में देखा, उसका वर्णन उसने "इंडिका" नामक पुस्तक में किया है। उसमे साफ़ साफ़ लिखा है कि भारतीय मानते हैं कि ये सदा से ही इस देश के मूलनिवासी हैं. 
2- चीनी यात्री फाह्यान और ह्यून्सांग- इन दोनों ने एक शब्द भी नहीं लिखा जो आर्यों को विदिशी या आक्रान्ता बताता हो. ये दोनों बौद्ध थे.
3- इतिहास के पितामह हेरोड़ेट्स - इन्होने भी अपने लेखन में भारत का कुछ विवरण दिया है.परन्तु इन्होने भी एक पंक्ति नहीं लिखी भारत में आर्य आक्रमण पर.
4- अलबेरूनी - यह मूलतः मध्य पूर्व ( इरान+अफगानिस्तान) से महमूद गजनवी के साथ आया. लम्बे समय तक भारत आया. भारत के सम्बन्ध में कई पुस्तकें लिखी. परन्तु एक शब्द भी नहीं लिखा आर्यों के बाहरी होने के बारें में.
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वेद क्या कहता है शूद्र से घृणा के बारे में 

1- हे ईश्वर - मुझको परोपकारी विद्वान ब्राह्मणो मे प्रिय करो, मुझको शासक वर्ग मे प्रिय करो, शूद्र और वैश्य मे प्रिय करो, सब देखनों वालों मे प्रिय करो । अथर्व वेद 19/62/1
.
2- हे ईश्वर - हमारे ब्राह्मणों मे कान्ति, तेज, ओज, सामर्थ्य भर दो, हमारे शासक वर्ग (क्षत्रियों) मे तेज, ओज, कान्ति युक्त कर दो, वैश्यो तथा शूद्रों को कान्ति तेज ओज सामर्थ्य युक्त कर दो। मेरे भीतर भी विशेष कान्ति, तेज, ओज भर दो। यजुर्वेद 18/48 
सभी से कहूँगा सत्य को स्वीकार करें.
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बुद्ध और ब्राह्मण

- कार्तिक अय्यर

अपने आपको मूलनिवासी कहने वाले लोग प्राय: ब्राह्मणों को कोसते मिलते हैं, विदेशी कहते हैं, गालियां बकते हैं। पर बुद्ध ने आर्यधर्म को महान कहा है । इसके विपरीत डॉ अंबेडकर आर्यों को विदेशी नहीं मानते थे। अपितु आर्यों होने की बात को छदम कल्पना मानते थे। महात्मा बुद्ध ब्राह्मण, धर्म, वेद, सत्य, अहिंसा , यज्ञ, यज्ञोपवीत आदि में पूर्ण विश्वास रखने वाले थे। महात्मा बुद्ध के उपदेशों का संग्रह धम्मपद के ब्राह्मण वग्गो 18 का में ऐसे अनेक प्रमाण मिलते है कि बुद्ध के ब्राह्मणों के प्रति क्या विचार थे।

१:-न ब्राह्नणस्स पहरेय्य नास्स मुञ्चेथ ब्राह्नणो।
धी ब्राह्नणस्य हंतारं ततो धी यस्स मुञ्चति।।

( ब्राह्मणवग्गो श्लोक ३)

'ब्राह्नण पर वार नहीं करना चाहिये। और ब्राह्मण को प्रहारकर्ता पर कोप नहीं करना चाहिये। ब्राह्मण पर प्रहार करने वाले पर धिक्कार है।'

२:- ब्राह्मण कौन है:-

यस्स कायेन वाचाय मनसा नत्थि दुक्कतं।
संबुतं तीहि ठानेहि तमहं ब्रूमि ब्राह्नणं।।
( श्लोक ५)

'जिसने काया,वाणी और मन से कोई दुष्कृत्य नहीं करता,जो तीनों कर्मपथों में सुरक्षित है उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।

३:- अक्कोधनं वतवन्तं सीलवंतं अनुस्सदं।
दंतं अंतिमसारीरं तमहं ब्रूमि ब्राह्नणं।।
अकक्कसं विञ्ञापनिं गिरं उदीरये।
याय नाभिसजे किंचि तमहं ब्रूमि ब्राह्नणं।।
निधाय दंडभूतेसु तसेसु थावरेसु च।
यो न हंति न घातेति तमहं ब्रूमि ब्राह्नणं।।

( श्लोक ७-९)'जो क्रोधरहित,व्रती,शीलवान,वितृष्ण है और दांत है, जिसका यह देह अंतिम है;जिससे कोई न डरे इस तरह अकर्कश,सार्थक और सत्यवाणी बोलता हो;जो चर अचर सभी के प्रति दंड का त्याग करके न किसी को मारता है न मारने की प्रेरणा करता है- उसी को मैं ब्राह्मण कहता हूं।।'

४:- गुण कर्म स्वभाव की वर्णव्यवस्था:-
न जटाहि न गोत्तेन न जच्चा होति ब्राह्मणो।
यम्हि सच्च च धम्मो च से सुची सो च ब्राह्मणो।।
( श्लोक ११)

' न जन्म कारण है न गोत्र कारण है, न जटाधारण से कोई ब्राह्मण होता है। जिसमें सत्य है, जो पवित्र है वही ब्राह्मण होता है।।

५:- आर्य धर्म के प्रति विचार:-

धम्मपद, अध्याय ३ सत्संगति प्रकरण :प्राग संज्ञा:-
साहु दस्सवमरियानं सन् निवासो सदा सुखो।( श्लोक ५)

"आर्यों का दर्शन सदा हितकर और सुखदायी है।"
धीरं च पञ्ञं च बहुस्सुतं च धोरय्हसीलं वतवन्तमरियं।
तं तादिसं सप्पुरिसं सुमेधं भजेथ नक्खत्तपथं व चंदिमा।।

( श्लोक ७)

" जैसे चंद्रमा नक्षत्र पथ का अनुसरण करता है, वैसे ही सत्पुरुष का जो धीर,प्राज्ञ,बहुश्रुत,नेतृत्वशील,व्रती आर्य तथा बुद्धिमान है- का अनुसरण करें।।"
"तादिसं पंडितं भजे"- श्लोक ८

वाक्ताड़न करने वाले पंडित की उपासना भी सदा कल्याण करने वाली है।।"एते तयो कम्मपथे विसोधये आराधये मग्गमिसिप्पवेदितं" ( धम्मपद ११ प्रज्ञायोग श्लोक ५) " तीन कर्मपथों की शुद्धि करके ऋषियों के कहे मार्ग का अनुसरण करे"

धम्मपद पंडित प्रकरण १५/ में ७७ पंडित लक्षणम् में श्लोक १:- "अरियप्पवेदिते धम्मे सदा रमति पंडितो।।" सज्जन लोग आर्योपदिष्ट धर्म में रत रहते हैं।"

परिणाम:- भगवान महात्मा गौतम बुद्ध ने ब्राह्मणों की इतनी स्तुति की है तथा आर्य वैदिक धर्म का खुले रूप से गुणगान किया है। इसलिये बुद्ध के कहे अनुसार भीमसैनिक को भी ब्राह्मणों और आर्यों का सम्मान करना चाहिये। दूसरों में आकर बहकना नहीं चाहिए।

Sunday, 29 April 2018

रावण के जन्म की कथा
जब श्रीराम अयोध्या में राज्य करने लगे तब एक दिन समस्त ऋषि-मुनि श्रीरघुनाथजी का अभिनन्दन करने के लिये अयोध्यापुरी में आये। श्रीरामचन्द्रजी ने उन सबका यथोचित सत्कार किया। वार्तालाप करते हुये अगस्त्य मुनि कहने लगे, युद्ध में आपने जो रावण का संहार किया, वह कोई बड़ी बात नहीं है, परन्तु द्वन्द युद्ध में लक्ष्मण के द्वारा इन्द्रजित का वध सबसे अधिक आश्चर्य की बात है। यह मायावी राक्षस युद्ध में सब प्राणियों के लिये अवध्य था। उनकी बात सुनकर रामचन्द्रजी को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे बोले, मुनिवर रावण और कुम्भकर्ण भी तो महान पराक्रमी थे, फिर आप केवल इन्द्रजित मेघनाद की ही इतनी प्रशंसा क्यों करते हैं? महोदर, प्रहस्त, विरूपाक्ष भी कम वीर न थे।
इस पर अगस्त्य मुनि बोले, इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले मैं तुम्हें रावण के जन्म, वर प्राप्ति आदि का विवरण सुनाता हूँ। ब्रह्मा जी के पुलस्त्य नामक पुत्र हुये थे जो उन्हीं के समान तेजस्वी और गुणवान थे। एक बार वे महगिरि पर तपस्या करने गये। वह स्थान अत्यन्त रमणीक था। इसलिये ऋषियों, नागों, राजर्षियों आदि की कन्याएँ वहाँ क्रीड़ा करने आ जाती थीं। इससे उनकी तपस्या में विघ्न पड़ता था। उन्होंने उन्हें वहाँ आने से मना किया। जब वे नहीं मानीं तो उन्होंने शाप दे दिया कि कल से जो लड़की यहाँ मुझे दिखाई देगी, वह गर्भवती हो जायेगी। शैष सब कन्याओं ने तो वहाँ आना बन्द कर दिया, परन्तु राजर्षि तृणबिन्दु की कन्या शाप की बात से अनजान होने के कारण उस आश्रम में आ गई और महर्षि के दृष्टि पड़ते ही गर्भवती हो गई। जब तृणबिन्दु को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने अपने कन्या को पत्नी के रूप में महर्षि को अर्पित कर दिया। इस प्रकार विश्रवा का जन्म हुआ जो अपने पिता के समान वेद्विद और धर्मात्मा हुआ। महामुनि भरद्वाज ने अपनी कन्या का विवाह विश्रवा से �
तस्वीरों को देख अनुमान लगाईये, इन मासूम बच्चियों का हाथ किसने पकड़ रक्खा है ? शायद बाप, चाचा,
बड़ा भाई, या कोई और सम्बन्धी ही होगा ..., नहीं ...
ये रिश्ता कोई और है |  १० वर्षों से भी कम उम्र कि
लड़कियों का हाथ पकडे कोई और नहीं बल्कि उसका
दुल्हा है, जी हाँ | क्या अब भी तस्वीरें खुबसूरत लग रही
हैं?
ये तस्वीर गाजा मैं उस हमास (Islamic Resistance
Movement) प्रायोजित विवाह समारोह से ली गई है
जिसमे ४५० जोडों की शादी कराई गई (अगस्त २००९) |
हमास नेता महमूद जहार ने खुद ही दूल्हा-दुल्हन जोड़ी
को बधाई दी | हमास की तरफ से हर दुल्हे को $500 (५००
डालर) और दुल्हन को white gown भेंट किया गया |
हमास नेता इब्राहिम सलाफ के मुताबिक - "हमास की
तरफ से ये शादी का उपहार उन वीर जवानों के लिए है जो
इस्राईल के खिलाफ युद्ध मैं बहादुरी से लड़े हैं" |
यू ट्यूब विडियो लिंक : http://www.youtube.com/
watch?v=RYmtaXQHEtw
International Center for Re
सोच बदलें साहेब, ये नेहरू नहीं मोदी है।
यह पाकिस्तान-चीन समेत 193 देशों से योग करा देता है,
यूएई में भी मंदिर बनवा देता है,
बुर्ज खलीफा को तिरंगे के रंग में रंगवा देता है,
सऊदी अरब से भी जय श्री राम कहलवा देता है,
ईरान में बंदरगाह बनाता है,
यूएनओ में फिलिस्तीन के समर्थन में वोट करता है,
इजरायल की मदद से देश की सीमाओं को सुरक्षित करता है,
भारत से इजरायल जाने वाली एयरक्राफ्ट को सऊदी के हवाई क्षेत्र से उड़ाता है,
डोकलाम पर चीन को पीछे जाने पर मजबूर करता है,
पीओके में तिरंगा लहरवा देता है,
बलूचिस्तान में मोदी-मोदी के नारे लगवा देता है,
पाकिस्तान पर सर्जीकल स्ट्राइक करता है और फोन करके उसे बताता भी है।
पूरी दुनिया में कोई भी देश भारत के इस कार्य के खिलाफ नहीं बोलता है, चीन भी नहीं,
और सबसे बड़ी बात यह बात वह डंके की चोट पर अतंर्राष्ट्रीय मंचों पर खुलेआम कहता है।
यह है मोदी की कूटनीतिक शक्ति।
यह बात वो क्या समझ पाएंगे जिनकी सुबह इटालियन पप्पू के नाम के साथ शुरू होती है और रात केजरुद्दीन के नाम के साथ समाप्त।
मोदी जी को समझने के लिये #56इंच चौड़ी छाती चाहिए,
देश पर मर मिटने का जज्बा चाहिए,
दिल में हिन्दू होने का गौरव होना चाहिये।
जय श्री राम और भारत माता की जय कहने में शर्म नहीं आनी चाहिये।
#पप्पू_के_पिद्दियों मोदी को तुम नहीं समझ पाओगे।
मोदी जी से बेहतर कोई नहीं है।
----- है कोई!!??

 
हिंदू समाज विश्व का सबसे अधिक संगठित समाज है और यह लाखों वर्षों से सुसंगठित रहा है .साथ ही यह विश्व का सर्वाधिक समृद्ध समाज है. इसमें इतना कम भेदभाव है कि विश्व के अन्य समाजों की तुलना में यह एक आदर्श समाज है.
भारतवर्ष में अनेक संगठन हैं जो इन दिनों हिंदू समाज की मुख्य समस्या इसके संगठन का ना होना मानते हैं और उसके संगठन के लिए कार्यरत हैं .वह संसार के किस समाज से तुलना करके हिंदू समाज को संगठित बताते हैं ,, यह पता नहीं.
विश्व के जितने भी समाज हैं उन से तुलना करके देखिए तो इस समय ईसाइयत और इस्लाम सबसे बड़े होने का दावा करते हैं ईसाईयत के संगठन का यह हाल है कि उसमें 50 से अधिक महत्वपूर्ण पंथ एक दूसरे के खून के प्यासे रहे हैं और उनके झगड़ों से समाज को बचाने के लिए ही यूरोप में सेकुलर स्टेट की बात उठी अर्थात राज्य किसी एक ईसाई पंथ का पक्ष नहीं लेगा यद्यपि इसके साथ ही यूरोप का प्रत्येक नेशन स्टेट ईसाईयत के किसी ना किसी पंथ को विशेष संरक्षण देता है और शिक्षा तथा न्याय का आधार उसी पंथ की आस्थाओं और मान्यताओं को बनाता है तथा उसे ही राजधर्म घोषित करता है।
उदाहरण के लिए इंग्लैंड प्रोटेस्टेंट ईसाईयत को अपना राजधर्म घोषित किए हुए हैं स्पेन तथा इटली कैथोलिक ईसाईयत को राजधर्म घोषित किए हुए हैं ,अनेक अन्य देश लूथेरियन इसाइयत को तथा कुछ अंय देश आर्थोडॉक्स ईसाईयत को अपना राजधर्म घोषित किए हैं और उनकी न्याय व्यवस्था तथा शिक्षा में उसी इसाई पंथ का विशेष स्थान है ।यही कारण है कि ईसाईयों का कोई एक राज्य आज तक नहीं बन सका है .50 से अधिक राज्यों में ईसाई समाज बटा हुआ है और प्रत्येक राज्य की अलग-अलग मान्यताएं हैं और उनमें परस्पर बड़ी भिन्नता है .इसके साथ ही स्वयं प्रत्येक राज्य के भीतर अनेक प्रकार की आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक विषमताएं हैं और उनमें जबरदस्त भेदभाव है .
इसी प्रकार मुस्लिम समाज में भयंकर विषमता है और वस्तुतः इस्लाम का इतिहास ही अलग-अलग कबीलोंकी आपसी लड़ाई का इतिहास है जिनमें एक कबीला दूसरे कबीले को पूरी तरह साफ कर डालने की कोशिश करता रहा है और लूट के माल में तथा अन्य समाजों के प्रति कठोरता और क्रूरता के विषय में उनमें आम सहमति हैं परंतु आपसी व्यवहार में भयंकर विषमताएं हैं.
रामेश्वर मिश्र पंकज
दुर्गादास राठौड़

दुर्गादास राठौड़ का नाम इतिहास के उन योद्धाओं में शामिल है, जो कभी मुगलो से पराजित नही हुआ ! दिल्ली से ना केवल इन्होंने टक्कर ली, बल्कि दिल्ली के दांत भी खट्टे कर दिए !!
महाराज जसवंत सिंह की मृत्यु के पश्चात मारवाड़ को इस्लाम के काले बादलों ने घेर लिया ! महाराज जसवंत सिंहः अपने पीछे 2 विधवा गर्भवती रानीया छोड़ गए थे । सरदारों को उत्तराधिकारी चाहिए था, इसलिए उन रानियों को सती नही होने दिया !! दुस्ट पापी ओरेंगजेब के पास यह समाचार जब पहुंचा , तो उसने इन दोनों उत्तराधिकारियो को मुसलमान बनाने का सोचा, जो अभी गर्भ में ही थे ! इसका तातपर्य यह है, की वह पापी मायावी मुसलमान उन दोनों विधवाओं को भी अपने हरम में घसीटना चाहता था । लेकिन यह हो ना सका ! क्यो की उन उत्तराधिकारियों की रक्षा कर रहा था --- दुर्गादास राठौड़
दुर्गादास राठौड़ का जन्म 1638 ईसवी में हुआ ! उनके पिता जसवंत सिंहः के राज में मंत्री थे ! पारिवारिक झगड़ो के कारण दुर्गादास की माता का उनके पिता ने त्याग कर दिया !! लेकिन उस क्षत्राणी ने कभी अपना क्षात्र धर्म नही भुला ! उन्होंने दुर्गादास के मन मे देशभक्ति , धर्मभक्ति की भावना कूट कूट कर भर दी ! जैसे शिवाजी को उनकी माता जीजाबाई ने बनाया था, वैसे ही दुर्गादास को वीर बनाने का श्रेय उनकी माता को जाता है ।
दुर्गादास अब किशोर अवस्था मे दुसरो के खेतों की निगरानी करते, अपना ओर अपनी माता का भरण पोषण करते । एक दिन उसके खेतो में किसी एक मुस्लिम ने ऊंट छोड़ दिये ! मुसलमान हिन्दुओ को किसी ना किसी तरीके से अपमानित या परेशान करने का कोई मौका नही छोड़ते थे ! जब दुर्गादास ने ऊँटो को बाहर निकाला, तो उस मुस्लिम ने उन्हें बुरा भला कहा, यहां तक तो ठीक था, लेकिन वह मलेच्छ अपनी सीमा को लांघते हुए, जसवंत सिंहः के अपमान तक पहुंच गया, की तुम्हारे राजा के पास तो अपनी छपरी तक नही है !
यह दुर्गादास सुन नही पाया ! और वही उस मुसलमान को मार डाला ! क्यो की अपने राजा के लिए दुर्गादास के मन मे बहुत सम्मान था। उस कबीले के सारे मुसलमान जसवंत सिंहः के पास न्याय मांगने पहुंच गए ! जसवंत सिंह ने जब कारण जाना तो, जसवंत सिंहः अपनी हंसी ओर प्रशन्नता नही रोक पाए ! जसवंत सिंहः के मुख से अवाक ही निकल गया ! यह बालक एक दिन मारवाड़ की रक्षा करेगा ! यह कोई साधारण बालक नही है ! ओर राजा ने अपने दरबार मे ही उन्हें रख लिया ! इस उपकार का बदला दुर्गादास ने उनके पुत्र अजितसिंहः के प्राणों की रक्षा और मारवाड़ की रक्षा करके चुकाया !!
अजीतसिंह को मुसलमान बनाने के लिए सर्वप्रथम ओरेंगजेब ने जोधपुर में अपनी विशाल सेना भेजी ! जोधपुर को पूरी तरह कुचल दिया गया ! कई मंदिर तोड़े, कई अबलाओं का बलात्कार हुआ ! पूरा जोधपुर त्राहिमाम त्राहिमाम कर उठा ! अब जोधपुर पर मुगलो का अधिकार था । जोधपुर तो क्या उसके आसपास के सारे मंदिर तोड़ उन्हें मस्जिद में परिवर्तित कर दिया गया! जिनका उद्धार हिन्दू आज तक नही कर पाए है । जोधपुर के राजपूत जो किसी भी कीमत पर इस्लाम कबूल नही कर सकते थे, वह किशनगढ़ जाकर रहने लगे ! इतिहासकार लिखते है कि जोधपुर की रानिया किले से मर्दाना लिबास पहनकर निकली । जब शाही सेना अजितसिंहः को दूसरे स्थान पर ले जा रही थी, तब मुसलमान उनपर टूट पड़े ! किन्तु उस समय अजितसिंहः दुर्गादास के पास थे, एक हाथ मे तलवार और एक हाथ मे अजीतसिंह, मुँह से घोड़े की लगाम पकड़कर युद्ध करते बुरे दुर्गादास वहां से अजीतसिंह को ले उड़े !
इस लड़ाई के बाद राठोड़ो ने दुर्गादास के नेतृत्व में एक योजना बनाई ! अब छापामार युद्ध करना राजपूतो का दैनिक कर्म बन गया था । मुसलमानो को उन्ही की भाषा मे जवाब देते हुए उन्होंने उनकी रसद लूटनी, उनकी हत्या करनी , यातायात के साधनों ओर मार्गो को बर्बाद करना शुरू कर दिया ! लगातार इससे परेशान हो ओरेंगजेब ने राजपूतो का ओर ज़्यादा दमन करना शुरू कर दिया ! वह आम जनता पर अत्याचार करने लगा ! तब दुर्गादास ने समझा कि बिना कूटनीति के इन मल्लेचों से पार पाना संभव नही है । अतः कई सालों के प्रयासों के बाद उन्होंने मेवाड़ से संधि कर ली । अब मेवाड़ ओर मारवाड़ दोनो ने मिलकर शहजादे अकबर को परेशान करना शुरू कर दिया, जिसको जोधपुर का सुल्तान ओरेंगजेब ने ही बनाया था । इन सब ने शहजादा अकबर परेशान हो गया ! और मारे राजपूतो के डर से उसने मारवाड़ ओर मेवाड़ की अधीनता स्वीकार कर ली । राजपूतो ने अकबर को यह भी वचन दे दिया, की तुम्हारी रक्षा करना भी अब हमारा कर्तव्य है । कुछ समय के लिए ही सही, मारवाड़ का संघर्ष अब खत्म हो गया ! इस मौके के फायदा उठाकर दुर्गादास ओर मेवाड़ ने अपनी सैनिक शक्ति को बढ़ाना शुरू कर दिया !
अब समय आ गया था कि अजितसिंहः की पहचान सार्वजनिक की जाए ! अतः 23 मार्च 1687 को पातड़ी गांव में महाराज अजित सिंहः का विधिवत राज्याभिषेक हुआ ! कुछ बातों को लेकर बाद में महाराज अजीतसिंह ओर दुर्गादास के मध्य लगातार मनमुटाव होने लगा, अजितसिंहः मुसलमानो से खुले मैदान में जंग चाहते थे, लेकिन दुर्गादास अपनी वही छापामार नीति से युद्ध करना चाहते थे । चूंकि मारवाड़ ओर मेवाड़ दोनो ही सैनिक शक्ति से इतने सबल नही थे, की दिल्ली की विशाल सेना का सामना कर सके । ओर इन दिनों तो ओरेंगजेब राजपूतो के सर्वनाश में ही लगा हुआ था ।
यहां अब दुर्गादास ने नीति से काम लिया ! उसने ओरेंगजेब की बेटी और बेगम को बंदी बना लिया ! ओर घोषणा कर दी, की अगर मारवाड़ पर आक्रमण हुआ, तो इनका वही हस्र होगा, जो तुम्हारे हरम में हिन्दू महिलाओ का तुम करते आये हो । इन दोनों को आजाद करवाने के लिए ओरेंगजेब को 30000 राजपूत सैनिक मुक्त करने पड़े, जो कि अपने राजा के युद्ध मे हार जाने के कारण ओरेंगजेब के गुलाम हो गए थे ! एक हजार रत्नजड़ित कटार ओर मोतियों की माला, ओर 2 लाख रुपया दुर्गादास को दिया गया, तब जाकर उन्होंने बेगम ओर उसकी बेटी को मुक्त किया !
1707 में जब ओरेंगजेब की दुस्ट आत्मा धरती को छोड़कर नर्कवासी हुई, तो दुर्गादास नद जोधपुर पर आक्रमण कर उसपर भी अपना अधिकार कर लिया !
इसप्रकार मुसलमानो ने यह लड़ाई 1678 में शुरू तो की, लेकिन 1707 में दुर्गादास राठौड़ ने उन्हें बुरी तरह हराकर खत्म की । उसके बाद ओरेंगजेब के बेटे बहादुरशाह की हिम्मत नही हुई कि वो राजपूतो से टकराये, अतः उसने मारवाड़ को स्वतंत्र राज्य के रूप में स्वीकार कर लिया !
लेकिन अजितसिंहः ओर दुर्गादास के सम्बनध लगातार खराब ही होते जा रहे थे, कारण यह था कि पूरी प्रजा महाराज से ज़्यादा दुर्गादास का सम्मान करती ! यह बात अजितसिंहः को कहां गंवारा थी ! आखिर उसका भी अपना महाराज वाला अहंकार था !
लेकिन दुर्गादास ने कहा, अब में अपना आखिरी युद्ध कर रहा हूँ, अजितसिंहः ने इसका विरोध नही किया, दुर्गादास ने अजमेर के मुस्लिम सुल्तान पर आक्रमण कर उसे वहां बुरी तरह से रौंद डाला ! अजमेर भी अब मारवाड़ में शामिल हो गया !!
अजमेर विजय के बाद दुर्गादास ने अजीतसिंह ने विदाई मांग ली !!
" महाराज , जो कार्य मुझे मेरे स्वामी जसवंत सिंहः ने सौंपा था, वह अब पूर्ण हुआ, आप मुझे आज्ञा दे ! अजितसिंहः ने दुर्गादास को रोका तक नही "
दुर्गादास के जाने के बाद चारो तरफ अजितसिंहः की थू थू होने लगी ! यह बात मेवाड़ के अमरसिंह को जब पता चली, तो शाही रथ लेकर वो खुद दुर्गादास को लेने पहुँच गए , ओर तमाम याचना, विनती कर मेवाड़ ले गए ! वहां उनकी खूब सेवा हुई ! उन्हें 500 रुपया दैनिक भत्ते के रूप में मिलता था !
1778 को लगभग 80 साल की उम्र में कभी पराजित ना होने वाले इस यौद्धा ने स्वर्ग की ओर प्रस्थान कियाप्रस्