Sunday 15 April 2018

उपवास_की_नीति
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2 सितंबर 1946 को नेहरू के नेतृत्व में अंतरिम सरकार का गठन हुआ था। 296 सदस्यों वाले विधानमंडल में से कांग्रेस के साथ 212 सदस्य थे और मुस्लिम लीग के साथ 73.
शेष 11 में से भी 6 सदस्य कांग्रेस का नेतृत्व मानने को तैयार थे। मान सकते हैं कांग्रेस को 218 सदस्यों का समर्थन प्राप्त था।
अंतरिम सरकार में 12 सदस्य थे। इस अंतरिम सरकार में मुस्लिम लीग शामिल नहीं थी। लार्ड वेवेल के मनाने पर मुस्लिम लीग सरकार में शामिल हुई। 26 अक्टूबर को कांग्रेस के 3 सदस्यों को हटाकर मुस्लिम लीग के 5 सदस्य अंतरिम सरकार में शामिल हुए। लियाकत अली को वित्त विभाग सौंपा गया।
इसके पहले 16 अगस्त 1946 को मुस्लिम लीग ने प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस मना लिया था।
मुस्लिम लीग के लियाकत अली ने हर काम में अड़ंगा लगाया, जिससे अंतरिम सरकार एक महत्त्वहीन संस्था बन कर रह गई।
वस्तुतः हुआ क्या? हुआ यह कि मुस्लिम लीग पहले ही यह निर्णय कर चुकी थी कि उसे काम नहीं होने देना है। वह सरकार में रहते हुए भी असहयोग के लिए प्रतिबद्ध थी। कांग्रेस ने इतने संख्याबल के बावजूद क्या कर लिया लियाकत अली का?
साधारण सी बात है, अगर विरोधी चाह ले तो सरकारें काम नहीं कर सकतीं। आप कहेंगे कांग्रेस कैसे कर लेती थी? उत्तर होगा, कांग्रेस ने देश की संस्थाओं में लंबा 'इन्वेस्टमेंट' किया है क्योंकि उसने लंबे समय तक शासन किया है। वह जानती है कहाँ 'बिसकिट्स' फेंक कर काम चल जाएगा और कहाँ 'आर्म-ट्विस्टिंग' करनी पड़ेगी। उसके अपने खेमें की विरोधी आवाज़ों का क्या हुआ? 'इंदिरा इस इंडिया' नारे से बड़ा सुबूत कुछ और है? कांग्रेस के दो-फाड़ से बड़ा इस 'आर्म-ट्विस्टिंग' का कोई सुबूत है? वास्तव में इसी 'बिस्कुट-ऑफरिंग' एप्रोच का नतीजा इस देश में तमाम बुराइयों के तौर पर हमें दिखलाई पड़ता है। भ्रष्टाचार-तुष्टीकरण इत्यादि सभी अलग-अलग तरह के 'बिसकिट्स' ही हैं, बस सभी का ब्रांड अलग है।
क्या हमने इन्हीं चीजों से तंग आकर सत्ता-परिवर्तन नहीं किया था? क्या वास्तव में हम इतने भावुक लोग हैं, या हमें इतना भावुक होना चाहिए कि अपनी चुनी हुई सरकार की राजनीतिक बाध्यताओं पर हम उसी दुर्व्यवस्था में लौटने की बात करने लगें, जिससे पीछा छुड़ा कर हम अभी चार साल पहले ही आगे बढ़े हैं?
आज के दौर में कांग्रेस चालीस के दशक की मुस्लिम लीग बनी बैठी है। वह 'डायरेक्ट एक्शन' डे नहीं मना सकती लेकिन 'इंडिरेक्टली' अव्यवस्था खूब फैला सकती है। उसके शासन का लंबा इतिहास रहा है इसलिए उसे पता है कब कौन से बिल को पास करवाने में उसे फायदा है और किसे ब्लॉक करने में, और कब तक? उसने प्यादे सेट किए हैं और यकीन मानिए ये 'स्लीपर सेल्स' की तरह बस इसी आखिरी वक्त के इन्तिज़ार में बैठे हुए थे।
मोदी जी ने उपवास किया, शायद जनता के सामने इन तथ्यों को लाने का इससे बेहतर विकल्प नहीं था। आप इसे राजनीति कहें या कुछ भी लेकिन यह आत्मघाती तभी होगा, जब बीजेपी समर्थक भी इस कदम की निंदा करने लग जाएंगे। अन्यथा यह राजनीतिक सूझ का ही कदम कहा जाएगा, क्योंकि उपवास के बावजूद मोदी ने काम बंद नहीं किया है।
आप कहेंगे हमने मजबूत नेता चुना था और यह कमजोरी है। आपको समझना होगा लोकतंत्र में कोई नेता उतना ही मजबूत होता है जितने उसके समर्थक हों। आप वोट देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लें और इस महत्त्वपूर्ण समय में अपने नेता के एक राजनीतिक निर्णय पर उससे अपना समर्थन हटा लें तो वह नेता अकेला ही पड़ेगा।
आपने 2014 में इतिहास की धारा में एक बड़ा बदलाव किया था। वह एकदिशीय परिवर्तन था। आपने एक कठिन रास्ता चुना था, कठिन रास्तों में धैर्य नियामक तत्त्व है।
शिकायतों का समय खत्म भले न हुआ हो, फिलहाल स्थगित जरूर हो चुका है। शिकायतों को कागज़ पर लिख कर झोले में टांग सकें तो टांग दें। दुबारा अवसर दें ताकि वह पिटारा खुल सके। अगर आपको लगता है कांग्रेस के दुबारा शासन में आने पर आपको भी बिसकिट्स मिलेंगी तो आप गलत हैं, क्योंकि कांग्रेस के पास आर्म-ट्विस्टिंग का भी विकल्प है। यकीन मानिए आप 'चूँ' भी नहीं बोल सकेंगे।
कृष्ण निर्मोही थे, दुर्योधन निर्दय- यह फर्क समझ सकें तो बेहतर।
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साभार विवेक कान्त मिश्र

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