Thursday 6 February 2014

न्याय और सुरक्षा का आधार हैं खाप पंचायतें

-प्रो. कुसुमलता केडिया 

द्वितीय महायुद्ध से बुरी तरह टूटे और घबराए तथा जर्मनी के विरुद्ध अपनी लड़ाई में भारतीय सैनिकों के अद्भुत शौर्य से परिचित हो चुके और नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के पक्ष में भारतीय सेना में उभरे उल्लास की जानकारी से भयभीत इंग्लैंड के शासकों ने सत्ता हस्तांतरण के लिए नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस को चुना। नेहरू ने भी बढ़-चढ़कर निष्ठा दिखाई। पहले तो कहा कि मैं खुद तलवार लेकर नेताजी से लडऩे कोहिमा जाऊँगा, फिर सत्ता हस्तांतरण की कृपा के एवज में नेताजी को युद्ध अपराधी मानना स्वीकार किया और भारत की सम्पत्ति को इंग्लैंड की संयुक्त संपदा (कॉमनवेल्थ) मानना स्वीकार किया तथा भारत में अंग्रेजी भाषा, इंग्लैंड की संस्कृति और अंग्रेजी दौर को भारतीय इतिहास का गौरवशाली अध्याय प्रचारित करने का वचन दिया। फलस्वरूप जब भारत की संसद पहली बार बैठी, तो उसने कामचलाऊ तौर पर चल रही व्यवस्था को स्वीकार कर लेने का तर्क दिया और अंग्रेजों के बनाए सभी कानूनों को भारतीय कानून की मान्यता दे दी।

परन्तु इतना भर होता तो गनीमत थी। श्री नेहरू के नेतृत्व में प्रयास किया गया कि इंग्लैंड के संविधान और कानून व्यवस्था तथा न्याय व्यवस्था के जो सर्वोत्तम अंश हैं, उनको भारतीय संविधान और भारतीय न्याय व्यवस्था से बाहर रखा जाए। इंग्लैंड में वहाँ के बहुसंख्यकों की आस्था और रेलिजन का संरक्षण करना इंग्लैंड के राज्य का एक मुख्य कत्र्तव्य माना गया है। भारत में नेहरू ने प्रयास किया कि यह प्रावधान भारतीय संविधान में स्पष्ट रूप से न लिखा जाए। जिससे कि इंग्लैंड के कानून के जानकारों को तो यह भ्रम रहा आया कि यह संविधान मुख्यत: इंग्लैंड के संविधान की नकल होने के कारण वहाँ के कानून और संविधान के सर्वोत्तम अंशों का समावेश अवश्य करेगा और इस प्रकार भारत में हिन्दुओं को वे ही अधिकार प्राप्त होंगे, जो इंग्लैंड में प्रोटेस्टेंट क्रिश्चियंस को प्राप्त हैं।

वस्तुत: मुस्लिम लीग का सारा ही विरोध इसी भय से परिचालित था। उसका तर्क ही यह था कि जिस प्रकार इंग्लैंड में वहाँ के बहुसंख्यकों की आस्था और रेलिजन को सर्वोच्च हैसियत प्राप्त है, उसी प्रकार भारत में स्वाभाविक ही हिन्दू धर्म को सर्वोच्च हैसियत प्राप्त होगी और वह उसे स्वीकार नहीं थी। परन्तु जवाहरलाल नेहरू ने एक ओर तो औपनिवेशिक सत्ता पर एकाधिकार की अदम्य लालसा से जिन्ना के साथ सत्ता में सहभागिता की, संभावना तक को असहनीय माना। दूसरी ओर हिन्दुत्व-विद्वेषी तथा वैदिक धर्म की विद्वेषी अपनी आन्तरिक संरचना और कार्यनीति तथा संस्कार के अनुरूप प्रयास किया कि भारत में हिन्दू धर्म को वह हैसियत प्राप्त न हो, जो इंग्लैंड में प्रोटेस्टेंट क्रिश्चियंस को प्राप्त है। लोगों का ध्यान इस ओर न जाए, इसके लिए उन्होंने मुस्लिम लीग के द्वारा डायरेक्ट एक्शन के नाम पर की जा रही खुली हिंसा को खुले अवसर दिए और हिन्दू समाज में भय फैलाने की कोशिश की। जिससे जिन्ना से नेहरू ने अपना पिण्ड छुड़ाया। इसके बाद हिन्दू धर्म के व्यापक प्रभाव से भी अपने शासन का पिण्ड छुड़ाने के लिए उन्होंने बिल्कुल दूसरे सिरे पर जाकर केवल भारत अल्पसंख्यकों को राज्य का विशेष संरक्षण देने का प्रावधान रखा। इस तथ्य को भी खुलकर रखने का साहस नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस को एक दिन भी नहीं हुआ। उलटे उसने मारकाट में संलग्न अल्पसंख्यक समूहों को हिन्दुओं से डरा हुआ प्रचारित किया और इसकी आड़ में अल्पसंख्यकों के विशेष संरक्षण का प्रावधान संविधान में शामिल कराया।

परन्तु इससे भी बढ़कर जो भयानक बात हुई, वह यह कि भारतीय न्याय व्यवस्था को भारतीय न्याय परम्परा से पूरी तरह काट दिया गया। संसार के प्रत्येक देश में वहाँ की न्याय व्यवस्था राष्ट्र के मुख्य समाज के धार्मिक विश्वासों, मान्यताओं और प्रथाओं से प्रेरित और परिचालित होती है। इंग्लैंड में जिला स्तर से लेकर सुप्रीम कोर्ट के स्तर तक न्यायाधीशों का जो चयन होता है, उस चयन के लिए बने चयन मंडलों में, जिसका नाम पहले प्रिवीकाउंसिल था, अच्छी खासी संख्या प्रोटेस्टेंट पंथाचार्यों (धर्माचार्य या रेलिजस हेड्स) की होती है। पहले कई शताब्दियों तक तो वहाँ क्रिश्चियन प्रोटेस्टेंट पंथाचार्य ही न्यायाधीश भी होते थे। शताब्दियों तक 'हाउस ऑव लार्ड्सÓ ही सर्वोच्च न्यायालय माना जाता था। इंग्लैंड का एक अलग सुप्रीम कोर्ट अभी कुछ समय पहले ही बना है। 2005 ईस्वी में बने संवैधानिक सुधार एक्ट के द्वारा ही यू.के. का नया सुप्रीम कोर्ट बना है, जिसने 2009 ईस्वी से ही अपना कार्य नए रूप में प्रारम्भ किया है। पहले हाउस ऑव लाडर््स ही यू.के. का सर्वोच्च न्यायालय होता था। उसके निर्णय ही अंतिम माने जाते थे। इस हाउस ऑव लाडर््स में पहले सर्वाधिक संख्या क्रिश्चियन प्रोटेस्टेंट पंथाचार्यों की ही होती थी। अभी जब नए सुधार हुए हैं, तब भी इंग्लैंड में 22 क्रिश्चियन प्रोटेस्टेंट पंथाचार्य हाउस ऑव लाडर््स में, जिसके समकक्ष भारत की राज्य सभा है, चुने जाते हैं। उस दृष्टि से भारत में कम से कम 500 हिन्दू धर्माचार्य राज्य सभा में चुने जाने चाहिए और उनमें से ही एक चयन मंडल बनना चाहिए था, जो भारत में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों का चयन करता। क्योंकि भारत इंग्लैंड से 25 गुनी से भी ज्यादा जनसंख्या वाला है। परन्तु भारत में तो न्याय व्यवस्था का कोई भी सम्बन्ध भारत के परम्परागत धर्म और ज्ञान परम्परा से नहीं है। इतना ही नहीं, न्याय की करोड़ों वर्ष पुरानी भारतीय परम्परा के होते हुए भी सत्ता हस्तांतरण से सत्ता सम्पन्न बने लोगों ने उस न्याय व्यवस्था का पूर्ण परित्याग कर दिया।

इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि सारी दुनिया में प्रत्येक राष्ट्र में कानून का स्रोत (सोर्स ऑव लॉ) वहाँ की परम्पराएँ ही होती हैं। इंग्लैंड का संविधान अलिखित है। परन्तु वहाँ भी कानून का प्राथमिक स्रोत वहाँ की परम्पराएँ और प्रथाएँ (कस्टम) ही हैं। भारत में भी उसी की तर्ज पर कानून का स्रोत (सोर्स ऑव लॉ) के रूप में प्रथाएँ (कस्टम्स) को प्राथमिक स्थान प्राप्त है। परन्तु व्याख्या के स्तर पर केवल 1858 ईस्वी से 1947 ईस्वी के बीच अंग्रेजों के प्रभाव वाले लगभग आधे भारत में अंग्रेजी अदालतों द्वारा मान्य प्रथाओं को ही वर्तमान भारतीय न्यायिक प्रकरणों में भी कस्टम माना जाता है। शेष प्रथाओं को अनिवार्य वैध कस्टम नहीं माना जाता। खाप को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के कुछ माननीय न्यायधीशों द्वारा की गई टिप्पणी का रहस्य इसी तथ्य में है।

परन्तु मीडिया में बहुत से उत्साही लोग हैं, जो देश के प्रत्येक महत्वपूर्ण विषय पर साधिकार टिप्पणी के लिए व्याकुल तो रहते हैं, परन्तु उन विषयों पर जानकारी एकत्र करने की कोई भी व्याकुलता उनमें नहीं होती। भारतीय संविधान 1950 ईस्वी में लागू हुआ है। तब से अब तक उसमें लगभग 100 संशोधन हो चुके हैं। भारतीय संविधान की मुख्य विशेषता ही यह है कि वह जड़ नहीं है, उसमें भरपूर गतिशीलता है, वह कोई जड़ पुस्तक नहीं है अन्यथा उसमें कोई भी संशोधन असंभव होता। उसमें अनेक ऐसे संशोधन अब तक हुए हैं, जो अनेक न्यायिक विशेषज्ञों की दृष्टि में संविधान की मूलभावना से सर्वथा विपरीत हैं। इससे भी उसकी गतिशीलता और लचीलेपन का पता चलता है। अत: माननीय न्यायाधीशों द्वारा खापों पर की गई टिप्पणी को लेकर उसे ब्रह्मवाक्य की तरह प्रचारित करना आश्चर्यजनक अज्ञान और मूढ़ता है। माननीय न्यायाधीशों ने जो भी टिप्पणी की है, वह कानून की वर्तमान स्थिति पर आधारित है। कानून की यह स्थिति संसद द्वारा अनुमोदित है और संसद द्वारा ही बदली जाती रहती है। ऐसी स्थिति में यदि केवल एक प्रावधान इस संविधान में किसी समय जुड़ जाता है कि 'कस्टमÓ का अर्थ वे सभी प्रथाएँ हैं, जो सम्बन्धित समाज के बड़े भाग में अब तक सर्वस्वीकृत रही हैं, तो इससे खाप की विधिक स्थिति पूरी तरह बदल जाएगी। ऐसा कोई भी कारण नहीं है, जिससे केवल वे प्रथाएँ ही वैध प्रथाएँ मानीं जाएँ, जो 1858 ईस्वी से 1947 ईस्वी के मध्य अंग्रेजों के कब्जे वाले लगभग आधे भारत में प्रथाओं के रूप में मान्य हुई हैं। क्योंकि वस्तुत: केवल उन 90 वर्षों में केवल ब्रिटिश क्षेत्रीय भारत में हुए निर्णयों को ही न्याय का आधार बनाना और शेष देशी भारत में प्रचलित न्यायिक प्रावधानों को न्याय के क्षेत्र से बाहर का मान लेना गलत है।

माननीय संसद कानून की एक व्याख्या भी कर सकती है, जिसमें यह प्रावधान किया जा सकता है कि जो 'नेचुरल लॉÓ हैं या जो प्रकृति के सार्वभौम नियम (यूनिवर्सल लॉ) हैं, उनसे सुसंगत नियम ही 'लॉÓ माने जाएँगे। इससे भी कई समस्याओं का समाधान निकल सकता है। प्राकृतिक न्याय या सृष्टि के नियमों से सर्वथा विपरीत कानून बनाना वस्तुत: विचलन या भटकन ही है।

भारतीय कानून व्यवस्था की एक अन्य विशेषता यह है कि वह कतिपय समूहों को 'पर्सनल लॉÓ की अनुमति देता है। परन्तु कहीं भी यह स्पष्टता नहीं है कि 'पर्सनल लॉÓ मान्य करने का विधिक आधार क्या है। स्पष्ट रूप से यह आधार मनमाना (आर्बिट्रेरी) नहीं होना चाहिए। यह किसी एक कसौटी पर आधारित होना चाहिए। यह कसौटी केवल रेलिजस नहीं हो सकती। ऐसी स्थिति में भी खाप पंचायतों के निर्णयों को सामाजिक कसौटी पर 'पर्सनल लॉÓ की हैसियत देनी पड़ेगी। केवल रेलिजस समूहों को 'पर्सनल लॉÓ की अनुमति देना विधि विरुद्ध है, यह नैसर्गिक न्याय के विरुद्ध है।

ऐसे कोई भी प्रावधान स्पष्ट हो जाने पर अथवा संविधान में उचित संशोधन हो जाने पर खापों की न्यायिक स्थिति सर्वमान्य होगी। उसके लिए ही प्रयास करना चाहिए। कानून से सर्वथा अनभिज्ञ और कानूनी आधारों तथा स्रोतों के विषय में अशिक्षित समूह खापों के निर्णयों के विरोध में जितना हल्ला मचा रहे हैं, उसकी कोई विधिक हैसियत नहीं है।

खापों की भूमिका भारतीय समाज में अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। वे न्याय की संस्थाएँ हैं और सुरक्षा की संस्थाएँ भी हैं। स्त्रियों और पुरुषों सभी को उनसे सुरक्षा प्राप्त होती रही है और न्याय मिलता रहा है। आधुनिक समय में भी खाप से जुड़े नर-नारियों को उनके पंचायतों और निर्णयों से बहुत बड़ी सुरक्षा मिलती है और सहारा मिलता है। कहीं कभी किसी एक पंचायत में कोई चूक हो जाए, तो उसके विरुद्ध अपील करने और आवाज उठाने का भी पूरा अवसर भारतीय समाज में प्राप्त है। परन्तु यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि केवल असंतुष्ट स्त्रियों और पुरुषों की आवाज ही सम्पूर्ण समाज की आवाज नहीं होती। अगर किसी खाप के 1 लाख नर-नारी सदस्य हैं और उनमें से 5 या 10 स्त्रियों या पुरुषों को उस खाप की किसी एक बैठक के किसी एक फैसले से असंतोष या असहमति होती है, तो जितना महत्व इस असंतोष और असहमति का है, उतना ही महत्व उस सुरक्षा की भावना और आत्मीय भावना का भी है, जो उसी खाप के 99 हजार 990 या 99 हजार 995 नर-नारियों को उस खाप से प्राप्त हो रही है। असंतुष्ट या क्षुब्ध नागरिक कोई विशिष्ट नागरिक नहीं हो जाते और उन्हें अपनी असहमति या अपना क्षोभ अन्य हजारों लोगों की मान्यता और अनुभूति पर थोपने का कोई भी अधिकार नहीं है। वे बड़ी खुशी से अपने खाप से अलग होकर कहीं भी अपनी अलग दुनिया बसा सकते हैं। परन्तु उन्हें अपनी खाप की अकारण निन्दा का कोई भी अधिकार प्राप्त नहीं हो जाता।

जहाँ तक मीडिया के कुछ लोगों द्वारा खापों पर अकारण वैचारिक आक्रमण करने का प्रसंग है, यह कार्रवाई अत्यंत क्षोभजनक और कानून व्यवस्था को भंग करने का प्रयास करने वाली तथा शांति व्यवस्था में व्यवधान डालने वाली है और इसलिए अत्यंत आपत्तिजनक है। खाप के सदस्य यदि इससे क्षुब्ध होकर कोई कदम उठाते हैं, तो इसकी जिम्मेदारी किस पर होगी? अकारण वैचारिक आक्रमण करने वाले और शांति व्यवस्था भंग करने का प्रयास करने वाले लोग अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते।

हम जानते हैं कि व्यक्तिवाद इन दिनों पूँजीवादी समाजों द्वारा प्रचारित एक महत्वपूर्ण विचार है। भारत के अनेक नागरिकों में यह व्यक्तिवादी विचार फैल रहा है। परन्तु अन्य लाखों लोगों को इससे भिन्न विचार रखने का भी उतना ही अधिकार है। खाप के सदस्य रूप में रह रहे लाखों और करोड़ों नर-नारियों को खाप से सुरक्षा मिलती है और न्याय मिलता है। उनकी इस अनुभूति और अनुभव को तथा सुरक्षा और न्याय की स्थिति को व्यक्तिवाद के अपने वैचारिक आक्रमण द्वारा छीन लेने की कोशिश उन करोड़ों नर-नारियों के जीवन में अन्यायपूर्ण हस्तक्षेप है। यह हस्तक्षेप अपराध है। व्यक्तिवाद के उत्साही प्रचारकों को इससे विरत रहना होगा। अन्यथा वे सामाजिक शान्ति भंग करने के अपराधी सिद्ध होंगे।

खाप व्यवस्था शताब्दियों से न्याय परम्परा और सामाजिक सुरक्षा की पोषक व्यवस्था है। उस पर वैचारिक आक्रमण का अधिकार किसी को भी नहीं है। जहाँ तक न्यायिक स्थिति की बात है, भारतीय संविधान उदार और लचीला है और उचित प्रक्रिया अपनाकर उसमें संशोधन होते रहे हैं, हो रहे हैं तथा होते रहेंगे। अत: आज की स्थिति में खाप की जो पंचायतें वैध जमावड़ा नहीं नजर आतीं, उचित प्रावधानों के बाद वे पंचायतें वैध जमावड़ा तो होंगी ही, न्याय और शान्ति व्यवस्था का तथा टकरावों के समाधान का एक सराहनीय माध्यम भी मान्य होंगी।

-कार्यकारी निदेशक, गांधी विद्या संस्थान,

राजघाट, वाराणसी

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