Thursday 12 February 2015

“चाणक्य-नीति” के कुछ ”स्वर्णिम-सूत्र”-1
ज्ञान, वीरता व अध्यात्म की महान गौरवशाली परम्परा वाले हमारे देश ने, अनेक महापुरूषों, वीरों और महान आध्यात्मिक-आत्माओं को जन्म दिया है। जिनके उच्च विचार प्रारम्भ से ही हमारा मार्गदर्शन करते रहे हैं। इनमें से एक हैं “विष्णु गुप्त चाणक्य”। सदियों पहले लिखा गया उनका महान ग्रन्थ ”चाणक्य नीति” आज के समय में भी प्रासंगिक है। विदेशी आक्रान्ताओं व वक्त के थपेड़ों को सहती हुर्इ, हमारी महान “साहित्यिक-संस्कृति” का अनमोल रत्न, यह ग्रन्थ अपने प्रणेता ”चाणक्य” की भांति ही, आज भी ‘निश्चल’ व ‘अटल’ है। प्रस्तुत हैं इसमें से कुछ चुनिंदा श्लोक-
आचार्य चाणक्य ने संतान के लालन-पालन के बारे में एक ‘बाल मनोवैज्ञानिक’ की तरह अनेक श्लोक दिये हैं वे कहते हैं-“पुत्र को पांच वर्ष तक प्रेम करना चाहिए और फिर दस वर्ष तक कड़ी निगरानी (ताड़ना) में रखे, उसके पश्चात अर्थात सोलह वर्ष के बाद पुत्र के साथ मित्र जैसा व्यवहार करें।”(3/18) हम सब जानते हैं कि बच्चे में दोष-दुर्गुण आने की ज्यादा संभावना सोलह वर्ष की आयु तक ही अधिक होती है।
बच्चों की शिक्षा पर उनका विशेष जोर था। वे कहते है-”वे माता-पिता शत्रु के समान है जो अपने पुत्रों को नहीं पढ़ाते। वे (पुत्र) सभा में इस प्रकार शोभायमान नहीं होते जैसे हंसों के बीच में बगुला शोभा नहीं देता।(2/11)
नारी के ‘गुणों’ को जहां उन्होने निम्न श्लोक से व्यक्त किया-”स्त्रियों में पुरूषाें से आहार दो गुणा, लज्जा चार गुणा, साहस छ: गुना और काम आठ गुना अधिक होता है।”(1/17) वही उन्होेंने पत्‍नी को ‘भार्या मित्र ग्रहेशू’ (घर में पत्‍नी मित्र है) माना है।
चाणक्य ने कहा जिसके पास निम्न गुण नहीं है, उसके साथ नहीे रहना चाहिए-”जिनमें भय, लज्जा, कुशलता, त्यागशक्ति, और जीविका पांचों नहीं है उनके पास नहीं रहना चाहिए।”(1/10)
अपना ‘बंधु’ किसे माने उसके बारे में चाणक्य लिखते हैं-“बीमार पड़ने पर, दु:ख पहुंचने पर, अकाल के समय, शत्रुओं से कष्ट के समय, राजा से संकट के समय, कचहरी में व श्मशान घाट में जो सहायता देता है, वही बन्धु है।”(1/12)
चाणक्य मित्र पर भी ‘सदैव’ विश्वास न करने की सलाह देते हैं-”कुमित्र पर कभी भी विश्वास नहीं करना चाहिए, और मित्र पर भी सदैव विश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि कौन जानता है कि कब मित्र को क्रोध आ जाये और वह गुप्त भेद को खोल कर तुम्हारा नुकसान कर दे।”(2/6)
चाणक्य कार्य को गोपनीय रूप से करने की सलाह देते हैं-”मन की सोची हुर्इ बात को कभी वाणी द्वारा प्रकट नहीं करना चाहिए। सदैव गुप्त रूप से कार्य करना चाहिए, जिससे कार्य के बिगड़ जाने पर संसार हंसी न उड़ाये।”(2/7)
चाणक्य ने कहा, बुद्धिमान व्यक्ति निम्न प्रकार से व्यक्ति को पहचान लेते हैं-”बुद्धिमान मनुष्य भाषा सुनकर देश को और आचरण से कुल को, सम्भ्रम देखकर स्नेह और भोजन देखकर शरीर को पहचान लेते हैं।”(3/2)
चाणक्य ने ‘दुष्ट’ और ‘सर्प’ में से ‘सर्प’ को अपेक्षाकृत सही माना है-”दुष्ट और सांप में, सांप को ही अच्छा समझना चाहिए, क्योंकि सांप तो काल आने पर ही काटता है परन्तु दुर्जन अपमान रूपी डंक हमेशा मारता रहता है।”(3/4)
महात्मा चाणक्य ने कहा कि बड़े लक्ष्य की प्राप्ति के लिए छोटे को छोड़ देना चाहिए-”सम्पूर्ण कुल की रक्षा के लिए एक व्यक्ति को, ग्राम के लिए कुल को व देश के हित के लिए ग्राम को, तथा आत्मा के लिए पृथ्वी को छोड़ देना चाहिए। ”(3/10)
‘अति’ का हमेशा त्याग करने की सलाह चाणक्य ने दी-’‘अति सुन्दरता के कारण सीता हरी गयी, अति गर्व के कारण रावण मारा गया और बहुत दान देने पर बलि को पाताल जाना पड़ा, इसी कारण अति को सब जगह छोड़ देना चाहिए।”(3/12)
किन कार्यो के लिए कितने व्यक्तियों की आवश्यकता होती है, ‘मुनिवर’ लिखते हैं-”तप अकेले में, गाना तीन से, पढ़ना दो से, चार से मार्ग चलना, पांच से खेती और बहुतों से युद्ध भली-भांति होता है।”(4/12)
चाणक्य कहते हैं कि निम्न बातों का ‘चिंतन’ हमेशा करते रहना चाहिए-”कौन सा देश है, काल (समय) क्या है, व्यय कितना है, आय कितनी है, मित्र कौन है, और मुझ में कितनी शक्ति है, मनुष्य को इन बातों का विचार करते रहना चाहिए।”(4/18)
चाणक्य की राय में निम्न व्यक्ति ‘पिता’ के समान होते हैं-”अन्न देने वाला, विद्या पढ़ाने वाला, जन्म देने वाला, भय से रक्षा करने वाला, और यज्ञोपवीत देने वाला गुरू ये पांच पिता ही कहे जाते हैं।”(5/22)
चाणक्य की राय में निम्न स्त्रीयां ‘माता’ के समान ही होतीे हैं-”राजा की स्त्री, मित्र की स्त्री, गुरू की स्त्री, और अपनी सास व माता, इन पांचों को माता कहना चाहिए।”

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