Wednesday, 4 February 2015

कर्म का फल हैं योनियां



कर्म का फल हैं योनियां
जीवों में शरीर तथा इन्द्रियों की विभिन्न अभिव्यक्तियां प्रकृति के कारण हैं.
कुल मिलाकर 84 लाख भिन्न-भिन्न योनियां हैं और ये सब प्रकृतिजन्य हैं. जीव के विभिन्न इन्द्रिय-सुखों से ये योनिया मिलती हैं जो इस या उस शरीर में रहने की इच्छा करता है. जब उसे विभिन्न शरीर प्राप्त होते हैं तो वह विभिन्न प्रकार के सुख तथा दुख भोगता है.
उसके भौतिक सुख-दुख शरीर के कारण होते हैं, स्वयं उसके कारण नहीं. उसकी मूल अवस्था में भोग में कोई सन्देह नहीं रहता, अत: वही उसकी वास्तविक स्थिति है. वह प्रकृति पर प्रभुत्व जताने के लिए भौतिक जगत में आता है. वैकुंठ लोक शुद्ध है, किन्तु भौतिक जगत में प्रत्येक व्यक्ति विभिन्न प्रकार के शरीर-सुखों को प्राप्त करने के लिए संघर्षरत रहता है.
यह कहने से बात और स्पष्ट हो जाएगी कि यह शरीर इन्द्रियों का कार्य है. इन्द्रियां इच्छाओं की पूर्ति का साधन हैं. यह शरीर तथा हेतु रूप इन्द्रियां प्रकृति द्वारा प्रदत्त हैं और जीव को पूर्व आकांक्षा तथा कर्म के अनुसार परिस्थितियों के वश वरदान या शाप मिलता है. जीव की इच्छाओं तथा कर्मों के अनुसार प्रकृति उसे विभिन्न स्थानों में पहुंचाती है. जीव स्वयं ऐसे स्थानों में जाने तथा मिलने वाले सुख-दुख का कारण होता है!
एक प्रकार का शरीर प्राप्त होने पर वह प्रकृति के वश में हो जाता है. शरीर, पदार्थ होने के कारण प्रकृति के नियमानुसार कार्य करता है. उस समय शरीर में ऐसी शक्ति नहीं होती कि वह उस नियम को बदल सके. उदाहरण के लिए ज्यों ही वह कुत्ते के शरीर में स्थापित किया जाता है, उसे कुत्ते की भांति आचरण करना होता है. यदि जीव को शूकर का शरीर प्राप्त होता है, तो वह मल खाने तथा शूकर की भांति रहने के लिए बाध्य है. इसी प्रकार यदि जीव को देवता का शरीर प्राप्त होता है, तो उसे अपने शरीर के अनुसार कार्य करना होता है. यही प्रकृति का नियम है. लेकिन समस्त परिस्थितियों में परमात्मा जीव के साथ विद्यमान रहता है.
अंश ‘श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप’ से साभार

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