Sunday, 1 February 2015

पेरू में नीम स्थानीय वातावरण के लिए वरदान साबित हो रहा है.

विज्ञान

रेगिस्तान को रोकता

विज्ञान

रेगिस्तान को रोकता नीम

इसे थोड़े पानी की जरूरत होती है, ये तेजी से बढ़ता है, और इसकी जड़ें गहरी होती हैं, ये नीम है जितना कड़वा उतना फायदेमंद. आयुर्वेद में नीम का बहुत महत्व है. अब पेरू में ये पेड़ उत्तरी इलाके की बंजर जमीन पर जादू कर रहे हैं.
पेरू में नीम स्थानीय वातावरण के लिए वरदान साबित हो रहा है. नीम के पेड़ से प्रभावित नहीं होना असंभव है. दक्षिण एशिया में नीम का बहुत महत्व है. भारत में तो इसे पानी में उबाल कर उस पानी से नहाना, इसकी कोंपलों को खाली पेट खाना, नीम की दातून से दांत साफ करने और साथ ही आयुर्वेदिक दवाओं में उपयोग होता है. इसके कई गुण भारत में बताए जाते हैं. इसी तरह श्रीलंका और म्यांमार में भी नीम को बहुत काम का माना जाता है.
जादुई पेड़
मुश्किल झेलने के नीम के गुण ने एल्के क्रूगर को प्रेरित किया कि वह इसे पेरू के उत्तरी तट पर लगाएं. "हमने कई महीने इसे पानी में रखा. यह 50 डिग्री सेल्सियस तक का तापमान झेल सकता है. हमने इसे सीधे खारे पानी वाले तट पर लगाया." हर स्थिति में यह पेड़ जी गया. इसलिए हमने उत्तरी पेरू के पिउरा शहर के आस पास और दो लाख नीम के पेड़ लगाए. एल्के क्रूगर ने गैर सरकारी संगठन प्लान फेर्डे यानी ग्रीन प्लान बनाया है.
छांह के लिए
यह इस इलाके में जादू जैसा है क्योंकि लातिन अमेरिका के इस देश में इस तट पर ज्यादा कुछ नहीं उगता. जनसंख्या बढ़ने के कारण यहां जंगल सिमटता जा रहा है. ज्यादा लकड़ी, खेती की जमीन की जरूरत है. सूखे के कारण किसान परेशान हैं. जमीन रेतीली होती जा रही है.
बाढ़ और तूफान में ढीली और रेतीली मिट्टी नहीं ठहर सकती. दो से सात साल में एक न एक बार पेरू के पश्चिमोत्तर तट पर अल निनो जैसे तूफान आते ही हैं. इसकी वजह यह है कि प्रशांत महासागर का पानी गर्म हो रहा है. जलवायु के चक्र को समझना मुश्किल होता जा रहा है. इसी कारण ज्यादा और कम दबाव वाले इलाके बनते हैं जहां, अलग अलग समुद्री लहरों के साथ मौसम में भारी बदलाव होते हैं. इनके कारण भारी बारिश या तूफान आता है और जमीन भी होती है.
यहीं नीम के पेड़ काम करते हैं. पिउरा में किसानों ने अपने खेतों के आसपास नीम के पेड़ लगाने शुरू किए हैं. एक साल में यह पेड़ करीब चार मीटर ऊंचा हो जाता है और जड़ें जमीन में गहरी चली जाती हैं इससे मिट्टी का कटाव कम होता है.
पेड़ के कारण मिट्टी बेहतर होती है और निबोरी और उसके बीज के तेल से मच्छर नहीं आते और तो और मच्छर के लार्वा भी नहीं बढ़ते. इसलिए यह उन इलाकों के लिए भी अच्छा है जहां मच्छरों के कारण होने वाली बीमारियां डेंगू और मलेरिया की परेशानी है.
नीम के बीज
भारत का जीवनदायी पेड़
क्रूगर हनोवर शहर में प्राकृतिक तरीके से बनाए सामान बेचती हैं. इनमें ऐसे कॉस्मेटिक, टॉयलेट और मेडिकल सामान हैं जिनमें नीम का तेल इस्तेमाल किया गया है. भारत में नीम रोजमर्रा की जिंदगी से सीधा जुड़ा है. पारंपरिक तौर पर यह बुखार, चिकन पॉक्स, एक्जिमा, सोरेसिस, अल्सर से लेकर कई दूसरी त्वचा की बीमारियों के इलाज में इस्तेमाल किया जाता है. भारत मेंनीम फाउंडेशन के प्रमुख रमेश सक्सेना बताते हैं कि कैसे उनका परिवार नीम के पत्ते डले पानी से नहाता है ताकि किसी को चिकन पॉक्स नहीं हो. वह बताते हैं, "नीम का पेड़ वैश्विक समस्याओं को हल कर सकता है. इसे पौधों, जानवरों और इंसानों की बीमारी ठीक करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है." उनके संगठन का लक्ष्य है 'भारत को नीम से हरा भरा करना.'
उत्तरी पेरू में भी क्रूगर और उनके पति नीम के पेड़ों का कई तरह से इस्तेमाल कर रहे हैं. बच्चों को प्रकृति के नजदीक लाने के लिए इनका उपयोग किया जा रहा है. इसकी ऊंचाई और हरी पत्तियां बढ़िया माहौल बनाती हैं. पिरुआ में नीम का प्रयोग करने वाली एल्के पहली नहीं थी. एक सिविल इंजीनियर इस पेड़ को यहां लाए थे क्योंकि यह तेजी से बढ़ता है और मच्छरों को दूर रखता है. जब एल्के को ये पेड़ दिखे तो उन्होंने बीज इकट्ठा कर इन्हें उगाना शुरू किया.
वैश्विक उपयोग
दुनिया में प्लान फेर्डे इकलौता नीम प्रोजेक्ट नहीं है. दुनिया के कई हिस्सों में इस गुणकारी पेड़ का इस्तेमाल किया जा रहा है. मेक्सिको के स्कूलों में ये पेड़ लगाए जा रहा हैं. अमेरिकी कंपनी जस्ट नीम इससे बने उत्पादों को बेच रही है और मुनाफे से पश्चिमोत्तर अफ्रीका की बंजर जमीन पर पेड़ लगा रही है.
नीम के पौधे
रमेश सक्सेना ने बताया कि यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास सहारा के रेगिस्तान में नीम के पेड़ लगाना चाहती है. वे कहते हैं, "नीम के पेड़ रेगिस्तान में लगाने पर जलवायु बेहतर करने में मदद तो मिलती है, आप इसके फलों और बीजों से दुनिया भर में मांगे जा रहे सामान भी बना सकते हैं."
जर्मनी के अंतरराष्ट्रीय सहयोग संस्थान जीआईजेड ने भी पश्चिमी अफ्रीका में नीम के पेड़ लगाने का अभियान शुरू किया है. जीआईजेड में ग्रामीण विकास और खेती मामलों की विशेषज्ञ मार्टिना वेगनेर कहती हैं, "इसने वो अंतर मिटा दिया है जो स्थानीय लोग नहीं भर पा रहे थे." लेकिन वह यह खतरा जाहिर करती हैं कि किसी भी मौसम में ढल जाने की इसकी आदत ने कुछ स्थानीय पेड़ों को खतरे में डाल दिया है. तो उनकी सलाह है, "इसलिए नीम का पेड़ लगाना है या फिर दूसरे पेड़ ये फैसला स्थानीय हालात को देखते हुए ही लेना चाहिए."
पिउरा में नीम के पेड़ लगाने के असर के बारे में कोई शोध अभी नहीं हुआ है लेकिन एल्के क्रूगर कहती हैं कि ये पेड़ अपने आप बढ़ेंगे ऐसा उन्हें लगता क्योंकि थोड़े पानी की तो पेड़ को जरूरत होती है. पिउरा इतना सूखा इलाका है कि नई कलमों को नर्सरी में बड़ा कर फिर बोना पड़ता है. इसलिए क्रूगर मानती हैं कि लंबे समय में मरुस्थलीकरण को ये पेड़ नहीं रोक सकते. .
एल्के क्रूगर लोगों को इसे बोने, इसका ख्याल रखने के लिए मदद कर रही हैं कि ज्यादा से ज्यादा लोग ये पेड़ बोएं और उसका बड़ा होने तक ध्यान रखें.

इस पूरे अभियान का लक्ष्य पिउरा में नीम का जंगल बनाना नहीं है. वे अलग अलग प्रजातियों के साथ प्रयोग कर रही हैं. 2009 में उन्होंने ड्रम स्टिक यानि सहजन की फली के पेड़ लगाए. इसकी फली को खाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. वे चाहते हैं ऐसे अलग अलग पेड़ लगाना जो स्थानीय प्रजातियों को नुकसान नहीं पहुचाएं नीम

इसे थोड़े पानी की जरूरत होती है, ये तेजी से बढ़ता है, और इसकी जड़ें गहरी होती हैं, ये नीम है जितना कड़वा उतना फायदेमंद. आयुर्वेद में नीम का बहुत महत्व है. अब पेरू में ये पेड़ उत्तरी इलाके की बंजर जमीन पर जादू कर रहे हैं.
पेरू में नीम स्थानीय वातावरण के लिए वरदान साबित हो रहा है. नीम के पेड़ से प्रभावित नहीं होना असंभव है. दक्षिण एशिया में नीम का बहुत महत्व है. भारत में तो इसे पानी में उबाल कर उस पानी से नहाना, इसकी कोंपलों को खाली पेट खाना, नीम की दातून से दांत साफ करने और साथ ही आयुर्वेदिक दवाओं में उपयोग होता है. इसके कई गुण भारत में बताए जाते हैं. इसी तरह श्रीलंका और म्यांमार में भी नीम को बहुत काम का माना जाता है.
जादुई पेड़
मुश्किल झेलने के नीम के गुण ने एल्के क्रूगर को प्रेरित किया कि वह इसे पेरू के उत्तरी तट पर लगाएं. "हमने कई महीने इसे पानी में रखा. यह 50 डिग्री सेल्सियस तक का तापमान झेल सकता है. हमने इसे सीधे खारे पानी वाले तट पर लगाया." हर स्थिति में यह पेड़ जी गया. इसलिए हमने उत्तरी पेरू के पिउरा शहर के आस पास और दो लाख नीम के पेड़ लगाए. एल्के क्रूगर ने गैर सरकारी संगठन प्लान फेर्डे यानी ग्रीन प्लान बनाया है.
छांह के लिए
यह इस इलाके में जादू जैसा है क्योंकि लातिन अमेरिका के इस देश में इस तट पर ज्यादा कुछ नहीं उगता. जनसंख्या बढ़ने के कारण यहां जंगल सिमटता जा रहा है. ज्यादा लकड़ी, खेती की जमीन की जरूरत है. सूखे के कारण किसान परेशान हैं. जमीन रेतीली होती जा रही है.
बाढ़ और तूफान में ढीली और रेतीली मिट्टी नहीं ठहर सकती. दो से सात साल में एक न एक बार पेरू के पश्चिमोत्तर तट पर अल निनो जैसे तूफान आते ही हैं. इसकी वजह यह है कि प्रशांत महासागर का पानी गर्म हो रहा है. जलवायु के चक्र को समझना मुश्किल होता जा रहा है. इसी कारण ज्यादा और कम दबाव वाले इलाके बनते हैं जहां, अलग अलग समुद्री लहरों के साथ मौसम में भारी बदलाव होते हैं. इनके कारण भारी बारिश या तूफान आता है और जमीन भी होती है.
यहीं नीम के पेड़ काम करते हैं. पिउरा में किसानों ने अपने खेतों के आसपास नीम के पेड़ लगाने शुरू किए हैं. एक साल में यह पेड़ करीब चार मीटर ऊंचा हो जाता है और जड़ें जमीन में गहरी चली जाती हैं इससे मिट्टी का कटाव कम होता है.
पेड़ के कारण मिट्टी बेहतर होती है और निबोरी और उसके बीज के तेल से मच्छर नहीं आते और तो और मच्छर के लार्वा भी नहीं बढ़ते. इसलिए यह उन इलाकों के लिए भी अच्छा है जहां मच्छरों के कारण होने वाली बीमारियां डेंगू और मलेरिया की परेशानी है.
नीम के बीज
भारत का जीवनदायी पेड़
क्रूगर हनोवर शहर में प्राकृतिक तरीके से बनाए सामान बेचती हैं. इनमें ऐसे कॉस्मेटिक, टॉयलेट और मेडिकल सामान हैं जिनमें नीम का तेल इस्तेमाल किया गया है. भारत में नीम रोजमर्रा की जिंदगी से सीधा जुड़ा है. पारंपरिक तौर पर यह बुखार, चिकन पॉक्स, एक्जिमा, सोरेसिस, अल्सर से लेकर कई दूसरी त्वचा की बीमारियों के इलाज में इस्तेमाल किया जाता है. भारत मेंनीम फाउंडेशन के प्रमुख रमेश सक्सेना बताते हैं कि कैसे उनका परिवार नीम के पत्ते डले पानी से नहाता है ताकि किसी को चिकन पॉक्स नहीं हो. वह बताते हैं, "नीम का पेड़ वैश्विक समस्याओं को हल कर सकता है. इसे पौधों, जानवरों और इंसानों की बीमारी ठीक करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है." उनके संगठन का लक्ष्य है 'भारत को नीम से हरा भरा करना.'
उत्तरी पेरू में भी क्रूगर और उनके पति नीम के पेड़ों का कई तरह से इस्तेमाल कर रहे हैं. बच्चों को प्रकृति के नजदीक लाने के लिए इनका उपयोग किया जा रहा है. इसकी ऊंचाई और हरी पत्तियां बढ़िया माहौल बनाती हैं. पिरुआ में नीम का प्रयोग करने वाली एल्के पहली नहीं थी. एक सिविल इंजीनियर इस पेड़ को यहां लाए थे क्योंकि यह तेजी से बढ़ता है और मच्छरों को दूर रखता है. जब एल्के को ये पेड़ दिखे तो उन्होंने बीज इकट्ठा कर इन्हें उगाना शुरू किया.
वैश्विक उपयोग
दुनिया में प्लान फेर्डे इकलौता नीम प्रोजेक्ट नहीं है. दुनिया के कई हिस्सों में इस गुणकारी पेड़ का इस्तेमाल किया जा रहा है. मेक्सिको के स्कूलों में ये पेड़ लगाए जा रहा हैं. अमेरिकी कंपनी जस्ट नीम इससे बने उत्पादों को बेच रही है और मुनाफे से पश्चिमोत्तर अफ्रीका की बंजर जमीन पर पेड़ लगा रही है.
नीम के पौधे
रमेश सक्सेना ने बताया कि यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास सहारा के रेगिस्तान में नीम के पेड़ लगाना चाहती है. वे कहते हैं, "नीम के पेड़ रेगिस्तान में लगाने पर जलवायु बेहतर करने में मदद तो मिलती है, आप इसके फलों और बीजों से दुनिया भर में मांगे जा रहे सामान भी बना सकते हैं."
जर्मनी के अंतरराष्ट्रीय सहयोग संस्थान जीआईजेड ने भी पश्चिमी अफ्रीका में नीम के पेड़ लगाने का अभियान शुरू किया है. जीआईजेड में ग्रामीण विकास और खेती मामलों की विशेषज्ञ मार्टिना वेगनेर कहती हैं, "इसने वो अंतर मिटा दिया है जो स्थानीय लोग नहीं भर पा रहे थे." लेकिन वह यह खतरा जाहिर करती हैं कि किसी भी मौसम में ढल जाने की इसकी आदत ने कुछ स्थानीय पेड़ों को खतरे में डाल दिया है. तो उनकी सलाह है, "इसलिए नीम का पेड़ लगाना है या फिर दूसरे पेड़ ये फैसला स्थानीय हालात को देखते हुए ही लेना चाहिए."
पिउरा में नीम के पेड़ लगाने के असर के बारे में कोई शोध अभी नहीं हुआ है लेकिन एल्के क्रूगर कहती हैं कि ये पेड़ अपने आप बढ़ेंगे ऐसा उन्हें लगता क्योंकि थोड़े पानी की तो पेड़ को जरूरत होती है. पिउरा इतना सूखा इलाका है कि नई कलमों को नर्सरी में बड़ा कर फिर बोना पड़ता है. इसलिए क्रूगर मानती हैं कि लंबे समय में मरुस्थलीकरण को ये पेड़ नहीं रोक सकते. .
एल्के क्रूगर लोगों को इसे बोने, इसका ख्याल रखने के लिए मदद कर रही हैं कि ज्यादा से ज्यादा लोग ये पेड़ बोएं और उसका बड़ा होने तक ध्यान रखें.
इस पूरे अभियान का लक्ष्य पिउरा में नीम का जंगल बनाना नहीं है. वे अलग अलग प्रजातियों के साथ प्रयोग कर रही हैं. 2009 में उन्होंने ड्रम स्टिक यानि सहजन की फली के पेड़ लगाए. इसकी फली को खाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. वे चाहते हैं ऐसे अलग अलग पेड़ लगाना जो स्थानीय प्रजातियों को नुकसान नहीं पहुचाएं

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