Tuesday, 3 February 2015

व्हाइट हाउस में उज्जैन के महाकालेश्वर महाकाल की तस्वीर

मेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा व्हाइट हाउस में उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर की बाबा महाकाल की तस्वीर लगाएंगे। यह तस्वीर मंगलवार को रामदास अहिरवार ने ओबामा को भेंट की। अहिरवार पेशे से स्टोन कटर मिस्त्री हैं।
वे बीते दो साल से उज्जैन के रामघाट और महाकाल मंदिर के बीच सिंहस्थ के लिए जारी काम के लिए ४०० रुपए रोज पर दिहाड़ी मजदूरी कर रहे हैं। वे अमेरिकी दूतावास के न्यौते पर सपरिवार ओबामा से मिलने दिल्ली पहुंचे थे। ओबामा ने उनसे कहा, ‘मैं आपके उपहार को न सिर्फ व्हाइट हाउस में लगाऊंगा बल्कि इसके मिलने संबंधी पावती भी आपको भेजूंगा।’ओबामा से मिलने वालों में अहिरवार की पत्नी गीता, बड़ा बेटा नरेंद्र, बेटी खुशबू और छोटा बेटा विशाल शामिल था।
स्त्रोत : दैनिक भास्कर
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भारत के बाहर अगर कोई देश संस्कृत की वाजिब चिंता करता है तो वह जर्मनी है।

बर्लिन की सड़कों पर आपको जर्मन भाषा में गीता की प्रतियां और संस्कृत-जर्मन शब्दकोश आसानी से मिल जाएंगे।
जर्मन-संस्कृत के विद्वान नियमित रूप से अपने शोधपत्र प्रकाशित करते रहते हैं। ऊंघती संस्कृत भाषा को यूरोप के इस शक्तिकेंद्र में हरसंभव तवज्जो मिलती है।
इसके बावजूद भारत के मानव संसाधन मंत्रालय ने पहले जर्मन को त्रिभाषा योजना में शामिल करने का निर्णय लिया और अब उसकी जगह संस्कृत या किसी अन्य भारतीय भाषा को रखने का फ़ैसला। हालांकि २०११ तक यही व्यवस्था थी।

बहस की गड़बड़ी

भारत सरकार के इस फ़ैसले को बहुत ज़्यादा चर्चा मिल रही है। जर्मनी ने इस संबंध में भारत को नया प्रस्ताव दिया है ताकि जर्मन भाषा को हायर सेकेंडरी कक्षाओं में पढ़ाया जा सके।
जर्मनी में रहने वाले भारतीय के तौर पर मुझे यह सारी बहस ही थोड़ी गड़बड़ लगती है। यह एक कूटनीतिक आदान-प्रदान है।
आख़िरकार भारत को हर छात्र कोई भी और चाहे जितनी भी भाषाएं सीखने के लिए स्वतंत्र है, फिर इसे इतना बड़ा मुद्दा क्यों बनाया जा रहा है?
एक बात हमें सीधे तौर पर समझ लेनी चाहिए कि जर्मनी कई बड़े उद्योगों का केंद्र है, वहाँ रोज़गार के काफ़ी अवसर हैं और दुनिया के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय हैं जो बच्चों के सिर पर कभी न ख़त्म होने वाले छात्र ऋण का बोझ नहीं लादते।

जर्मनी का आकर्षण

जर्मनी में उम्रदराज लोगों की जनसंख्या बढ़ रही है और यह बीसवीं सदी की छाया से निकलकर लोकप्रिय हो रहा है जिसके कारण इसके प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ रहा है।
जर्मनी में काम करने की एक ही शर्त है कि आपको जर्मन भाषा आनी चाहिए। आप इसे अपने स्कूल में अनिवार्य भाषा के रूप में सीखते हैं या नहीं, यह आपकी समस्या है।
जर्मन मीडिया में आने वाली ख़बरों के मद्देनज़र यह कहा जा सकता है कि भारतीयों को रोज़गार दिलाने के मामले में जर्मन संस्कृत से काफ़ी ज़्यादा मददगार साबित हो सकती है।
इस बात को परखने के लिए भारत में सक्रिय जर्मन कंपनियों की सूची पर नज़र डाल लेना काफ़ी होगा।

उपयोगिता की बहस

किसी भाषा की उपयोगिता का विषय हमेशा विवादित रहा है। लेकिन हानि-लाभ की सूची बनाई जाए तो रोज़गार की दृष्टि से जर्मन व्यावहारिक रूप से ज़्यादा उपयोगी होगी।
बहरहाल, एक और भाषा सीखना कभी भी घाटे का सौदा नहीं होता।
जर्मनी के हाइडलबर्ग विश्वविद्यालय में चलने वाला ‘ग्रीष्मकालीन संस्कृत संभाषण स्कूल’ (द समर स्कूल ऑफ़ स्पोकेन संस्कृत) इस बात को शायद अच्छी तरह समझता है।

अध्यात्म की भाषा

संस्कृत भाषा को प्रोत्साहन देने के पीछे भारत की सांस्कृतिक विरासत को सम्मानित करने का उद्देश्य है।
दुनिया की बड़ी आबादी के लिए यह अध्यात्म की भाषा भी है। आज भले ही संस्कृत उतनी सक्रिय भाषा न हो लेकिन विभिन्न भारतीय भाषाओं में यह आज भी जीवित है।
अपनी भाषा का सम्मान करना क्या होता है इसे जर्मनी अच्छी तरह समझता है।
जर्मनी के महान कवि गोएथे भारतीय कवि कालिदास के बड़े प्रशसंक थे।

सदियों पुराना रिश्ता

गोएथे ने कालिदास के बारे में कई सराहनीय बातें कही हैं जो किसी भी भाषा में कालिदास पर शोध करने वाले शोधार्थियों के आज भी काम आ सकती हैं।
जिस तरह की बहस खड़ी हुई है उसे देखते हुए कई ज्ञानपिपासुओं को फिर से इन दोनों महान रचनाकारों को पढ़ना पड़ेगा।
फौरी बहस में कही गयी अधपकी बातों से दोनों भाषाओं के बीच सदियों पुराना संबंध टूटेगा नहीं क्योंकि ये दोनों भाषाएं एक-दूसरे की प्रतिद्वंद्वी नहीं है। आख़िरकार ‘संस्कृत और जर्मन’ सुनने में हर हाल में ‘संस्कृत बनाम जर्मन’ से ज़्यादा भला लगता है।
स्त्रोत : बीबीसी हिन्दी
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कंबोडिया, वह देश है जिसकी राष्ट्रभाषा कभी संस्कृत थी। इतिहास में इसका उल्लेख है। यहां पर ६वी शताब्दी से लेकर १२ वी शताब्दी तक देवभाषा संस्कृत को राष्ट्र भाषा का दर्जा प्राप्त था। कंबोडिया का प्राचीन नाम कंबुज था।
वैसे तो कंबोडिया के उस समय इंडोनेशिया, मलय, जावा, सुमात्रा, कम्बुज, ब्रह्मदेश, सियाम, श्रीलंका, जापान, तिब्बत, नेपाल आदि देशों से उसके राजनीतिक और व्यापारिक संबंध थे। इन देशों से अपनी समन्वयी संस्कृति और संस्कृत के आधार पर कंबोडिया ( कंबूज) वर्षों से भारत के संपर्क में था। जिसका उल्लेख महाभारत में भी मिलता है।

कंबुज देश के संस्कृत शिलालेख

शोधकर्ता भक्तिन कौन्तेया अपनी ऐतिहासिक रूपरेखा में लिखते हैं कि, ‘प्राचीन काल में कम्बोडिया को कंबुज देश कहा जाता था। ९ वी से १३ वी शती तक अङ्कोर साम्राज्य पनपता रहा। राजधानी यशोधरपुर सम्राट यशोवर्मन ने बसाई थी।’
अङ्कोर राज्य उस समय वर्तमान के कंबोडिया, थायलेण्ड, वियतनाम और लाओस सभी को आवृत्त करता हुआ विशाल राज्य था। संस्कृत से जुडी भव्य संस्कृति के प्रमाण इन अग्निकोणीय एशिया के देशों में आज भी विद्यमान हैं।
कंबुज देशों में संस्कृत का महत्त्व
कंबुज शिलालेख जो खोजे गए हैं वे कंबुज, लाओस, थायलैंड, वियेतनाम इत्यादि विस्तृत प्रदेशों में पाए गए हैं। कुछ ही शिला लेख पुरानी मेर में मिलते हैं। जबकि बहुसंख्य लेख संस्कृत भाषा में ही मिलते हैं।
संस्कृत उस समय की दक्षिण पूर्वअग्निकोणीय देशों की सांस्कृतिक भाषा थी। कंबुज, मेर ने अपनी भाषा लिखने के लिए भारतीय लिपि अपनायी थी। आधुनिक मेर भारत से ही स्वीकार की हुई लिपि में लिखी जाती है।
वास्तव में ग्रंथ ब्राह्मीश ही आधुनिक मेर की मातृ.लिपि है। कंबुज देश ने देवनागरी और पल्लव ग्रंथ लिपि के आधार पर अपनी लिपि बनाई है। आज कंबुज भाषा में ७० प्रतिशत शब्द सीधे संस्कृत से लिए गए हैं, यह कहते है जिसे कौंतेय कहते हैं।
वास्तव में संस्कृत यहां की न्यायालयीन भाषा थी, एक सहस्रों वर्षों से भी अधिक समय तक के लिए उसका चलन था।सारे शासकीय आदेश संस्कृत में होते थे।
भूमि के या खेती के क्रय- विक्रय पत्र संस्कृत में ही होते थे। मंदिरों का प्रबंधन भी संस्कृत में ही सुरक्षित रखा जाता था। १२५० ई. में शिलालेख उसमें से बहुसंख्य संस्कृत में लिखे पाए जाते हैं।

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