Saturday 7 February 2015

दुनिया

हिम्मत का दूसरा नाम गोरखा जवान

ब्रिटिश साम्राज्य की ओर से पहले विश्वयुद्ध में नेपाल के दो लाख गोरखा सैनिकों ने भी हिस्सा लिया. यह दक्षिण एशिया से बाहर उनकी पहली लड़ाई थी लेकिन उनकी बहादुरी के किस्से आज भी कहे सुने जाते हैं.
Gurkha Soldaten aus Nepal 1950
हिमालय की तलहटी में बसे नेपाल में एक जिला है गोरखा. वह आज भी अपने मशहूर योद्धाओं के लिए विख्यात है. गोरखा किसी एक जाति के योद्धा नहीं, बल्कि उन्हें पहाड़ों में रहने वाले सुनवार, गुरंग, राय, मागर और लिंबु जातियों से भर्ती किया जाता है. "आयो गुरखाली" के युद्धनाद और "कायरता से मरना अच्छा" के नारे के साथ उन्होंने खौफ पैदा करने वाली ख्याति पाई है. कहते हैं कि जब गोरखा अपनी खुखरी निकाल लेता है तो वह खून बहाए बिना मयान में नहीं जाती.
ब्रिटेन के ब्रिटिश गोरखा वेल्फेयर सोसाइटी के टिकेंद्र दीवान कहते हैं, "हिम्मत और वफादारी के साथ जुड़ी मासूमियत उनकी ख्याति का कारण है." उनकी निर्भीकता के बारे में भारत के सेनाध्यक्ष रहे सैम मानेकशॉ ने कहा था, "यदि कोई व्यक्ति कहता है कि उसे मरने से डर नहीं लगता तो वह या तो झूठा है या गोरखा." मौजूदा समय में गोरखा सैनिक भारत की आजादी के समय में किए गए एक समझौते के तहत नेपाल की सेना के अलावा भारत और ब्रिटेन की सेनाओं में काम करते हैं. भारतीय सेना में 1,20,000 गोरखा सैनिक हैं तो ब्रिटिश सेना में उनकी तादाद 3,500 है.
गोरखा सैनिकों से मिलतीं ब्रिटिश महारानी
ब्रिटिश झंडे तले
गोरखा सैनिकों का पश्चिम के साथ पहला संपर्क 1814-16 में तब हुआ जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने नेपाल के खिलाफ लड़ाई लड़ी. हालांकि इस लड़ाई का अंत अंग्रेजों की जीत के साथ हुआ लेकिन गोरखा जवानों ने उन्हें भारी नुकसान पहुंचाया. एक ब्रिटिश सैनिक ने आत्मकथा में लिखा, "अपने जीवन में पहले कभी मैंने इतना जीवट और साहस नहीं देखा था. वे भागते नहीं थे और मौत से उन्हें जैसे डर ही नहीं था. हालांकि उनके आसपास उनके साथी मरे पड़े थे."
अपने दुश्मनों की युद्धक्षमता से इस तरह प्रभावित अंग्रेजों ने नेपाल के राजा के साथ हुई शांति संधि में यह भी जोड़ दिया कि वे गोरखा जवानों की भर्ती ब्रिटिश सेना में कर सकेंगे. यह समझौता उसके बाद दोनों पक्षों के बीच 200 साल से ज्यादा से चल रहे सैनिक रिश्तों का आधार बन गया. हालांकि उस समय किसी ने नहीं सोचा था कभी उन्हें अपने देश से हजारों किलोमीटर दूर यूरोप में पहले विश्व युद्ध में ब्रिटिश सेना की ओर से लड़ना होगा.
कुल मिलाकर दो लाख गोरखा सैनिकों ने पहले विश्व युद्ध के दौरान फ्रांस से लेकर फारस तक की खाइयों में लड़ाई लड़ी. 1914 से 1918 तक पहले विश्व युद्ध के दौरान गोरखा सैनिकों के 33 राइफल बटालियन थे. गोरखा सैनिकों पर लिखी किताब में बेनिटा एस्टेवेज ने लिखा है, "नेपाल की सरकार ने समझ लिया कि मित्र देशों की लड़ाई के लिए गोरखा जवान कितने महत्वपूर्ण हैं और ब्रिटिश कमान को सभी मोर्चों पर लड़ने के लिए और टुकड़ियां मुहैया करा दी."
गोरखा सैनिकों के साथ प्रिंस चार्ल्स
गालीपोली का युद्ध
यूरोप के युद्ध ने गोरखा सैनिकों के लिए ही नहीं, बल्कि ब्रिटिश भारत की सारी टुकड़ियों के लिए नई चुनौतियां खड़ी कर दीं. टिकेंद्र दीवान बताते हैं कि वे अलग तरह के मौसम और नए प्रकार के युद्ध जैसी मुश्किल परिस्थितियों का सामना कर रहे थे. ब्रिटिश जनरल जेम्स विलकॉक्स ने कहा था, "गोरखाओं पर हर प्रकार का आतंक हो रहा था, जिसका सामना उन्हें अपनी हिम्मत और अपने हथियार से करना था, पर बटालियन के पास सिर्फ दो मशीनगन होते थे, फिर भी उन्होंने यह किया." अपने शौर्य का चरम गोरखा सैनिकों ने गालीपोली के युद्ध में दिखाया.
1915 में तुर्की के प्रायद्वीप पर उन्होंने बहुत कम नुकसान के साथ तुर्की के अति सुरक्षित चौकी पर कब्जा कर लिया. यह अभियान बाद में गोरखा ब्लफ के नाम से विख्यात हुआ. फ्रांस के लूस में हुई लड़ाई में एक गोरखा बटालियन अंतिम समय तक लड़ती रही. गोरखा बटालियनों को पहले विश्व युद्ध में करीब 2000 वीरता पुरस्कारों से नवाजा गया.ब्रिटिश कैप्टन राल्फ टर्नर ने उनके बारे में कहा, "वीरों में वीर, उदारों में उदार, पहले किसी देश को तुम्हारे जैसा दोस्त नहीं मिला." अनुमान के अनुसार पहले विश्व युद्ध के दौरान गोरखा रेजीमेंटों के करीब 20,000 सैनिक मारे गए.
यह दक्षिण एशिया से बाहर उनकी पहली लड़ाई थी. उसके बाद से नेपाली सैनिकों ने दुनिया के कई हिस्सों में ब्रिटेन और संयुक्त राष्ट्र की ओर से लड़ाई लड़ी है, जिनमें द्वितीय विश्व युद्ध और फाल्कलैंड युद्ध के अलावा इराक और अफगानिस्तान की तैनाती शामिल है. ब्रिटिश सेना के लिए इतना बलिदान के बावजूद लंबे समय तक उन्हें ब्रिटेन में बसने का अधिकार नहीं दिया जाता था. सैनिक सेवा के बाद उन्हें तुरंत नेपाल भेज दिया जाता था. इसके अलावा उन्हें साथी ब्रिटिश सैनिकों की तुलना में कम पेंशन मिलती थी. 2007 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 1997 से समान पेंशन देने का फैसला किया. दो साल बाद सभी पेंशनयाफ्ता गोरखा सैनिकों को ब्रिटेन में रहने का भी अधिकार मिला.
रिपोर्टः श्रीनिवास मजुमदारू/एमजे

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