ब्रह्माण्डीय चेतना
स्थूल दृष्टि से मानवी काया की संरचना में पृथ्वी, वायु, अग्नि और जल आदि तत्त्वों का योगदान होता है। इसके अतिरिक्त आकाश तत्त्व भी काय संरचना में भाग लेता है जो अतिसूक्ष्म तथा सर्वाधिक महत्व रखता है। आत्मतत्त्व की संगति इसी के साथ बैठती है। पवित्र एवं परिष्कृत तत्त्व इसी को माना जाता है। प्राणियों के शरीर में प्रत्येक अंग-अवयव को धारण करने की अकूत शक्ति को अनन्त आकाश की देन कहा जा सकता है। वैज्ञानिक इसे ईथर के नाम से पुकारते हैं।
अनुसंधानकर्ता भौतिकविद् भी अब इस तथ्य से पूर्णतः सहमत हैं कि ईथर कोई लौकिक वस्तु, नहीं वरन् पारलौकिक प्रकाश है। विश्व प्रसिद्ध दार्शनिक एवं वैज्ञानिक अरस्तू ने इस प्रकाश को ब्रह्माण्डीय चेतना का स्वरूप माना है। जीवनी शक्ति का उद्गम स्थान कहाँ हैं ? इसे किस प्रकार प्राप्त किया जाय ? वैज्ञानिक अभी इन रहस्यों को जान सकने में पूरी तरह अक्षम ही बने हुए हैं। लेकिन अनन्त - असीम आकाश तत्त्व में संव्याप्त अणुओं की संरचना और स्वरूप समझ लेने में उनने सफलता प्राप्त कर ली हैं। उनका कहना है कि जीवनी-शक्ति की अभिवृद्धि में इन्हीं तत्त्वों का महत्वपूर्ण योगदान होता है।
वैज्ञानिकों की मान्यता है कि प्राकृतिक अणुओं में जिस तरह विभिन्न प्रकार के रासायनिक पदार्थ समाविष्ट होते हैं, ठीक उसी प्रकार मानव-अणुओं में भी इनकी उपस्थिति बनी रहती हैं और उन पदार्थों के प्रकाश के बाहर फेंकते रहते हैं। जो नियम-विश्व ब्रह्माण्ड पर लागू होता है। वही मानव - पिण्ड पर भी। डॉ० जे० सी० ट्रस्ट का मानव अणु-आभा सिद्धान्त इसी तथ्य की पुष्टि करता है। उनके कथनानुसार अनन्त, आकाश में संव्याप्त ये सूक्ष्म - अणु समस्त प्राणियों को जीवनी-शक्ति प्रदान करते हैं। मनुष्य में इनकी क्रियाशीलता अत्यधिक देखने को मिलती हैं। उन्हें सशक्त एवं सुविकसित बनाना मनुष्य की बुद्धिमत्ता पर निर्भर करता है। वैज्ञानिकों ने जिन फाइन कॉस्मिक एटम यानी परिष्कृत ब्रह्माण्डीय अणुओं की परिकल्पना अनन्त आकाश में विद्यमान होने की हैं वही मानवी - अन्तराल में भी हैं। इन अणुओं के समुदाय क्षेत्र को न्यूरो-स्पेस के नाम से जाना जाता है। ‘द् सीक्रेट्स आफ द् एटॉमिक एज” में वेरा स्टेनल एल्डर ने इसी को “कालातीत बुद्धिमत्ता” अर्थात् “एजलेस विज्डम का निवास बताया है। आत्मिक - स्तर की अनुभूतियों का यही दिव्य क्षेत्र माना जाता है। देव लोक इसी को कहा जाता हैं, क्योंकि यहाँ पहुँचते की मनुष्य को आयु स्थिर होने और स्वर्गीय सुख भोगने जैसा अनुभव होने लगता है।
महर्षि कषाद, जिन्हें अणु विज्ञान का जन्मदाता माना जाता है ने वैशेषिक दर्शन में अपने ढंग से यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि यह संसार छोटे-छोटे अणुओं से मिलकर बना है। पंचतत्व तो बहुत मोटा वर्गीकरण है। हम साधारण रूप से इस जगत को पंचतत्वों की रचना कहकर इसी को सृष्टि विज्ञान का सार समझ बैठते हैं जब कि सृष्टि के सभी कार्य आकाश में अवस्थित कुछ विशिष्ट प्रकार के अणुओं से चल रहे हैं। जिन्हें वैज्ञानिक परिष्कृत ब्रह्माण्डीय अणु के नाम से पुकारने लगे हैं। भारतीय तत्त्वदर्शी मनीषियों के अनुसार योग साधनाओं का मूलभूत उद्देश्य भी यही है कि मनुष्य इस संसार में आकर इसके पदार्थ-परमाणुओं के रूप, स्वभाव, गुण, धर्म को ठीक-ठीक समझकर उनका उपयोग इस प्रकार करे कि उसे इस लोक में सुख प्राप्त प्राप्त हो और परलोक में मोक्ष का आनन्द मिल सके।
मनुष्य एक विचारशील, प्राणी है उसके जीवन की सार्थकता विचारशील एवं भावनाशील बनने में ही है। मानव शरीर में एक ओर जहाँ काले अणु हैं, तो दूसरी और मोतियों के समान स्वच्छ श्वेत वर्ण वाले भी। में परिष्कृत अणु मानव-आत्मा की पवित्रता का प्रतीक हैं। आकाशतत्त्व के समान अनुपम आभायुक्त अणु भी हैं। अध्यात्म की भाषा में इन्हीं को दिव्य अणु कहा गया है। लेकिन मनुष्य ने अपने दुष्कर्मों से इस अमूल्य निधि को लुप्त कर कालिमा पोत ली हैं। अब उसी का यह परम कर्तव्य भी है कि योगाभ्यास-परक ध्यान-धारणा के माध्यम से एवं लोक आराधना से अपनी आत्मा को पवित्र एवं परिष्कृत बना कर उस दिव्य एवं अलौकिक प्रकाश का लाभ उठाये। गुण, कर्म, स्वभाव में, चिंतन, चरित्र व्यवहार में उत्कृष्ट का समावेश कर लेने पर प्रकाश अणुओं का विकास शरीर में अनायास ही होता रहता है। आवश्यकता बस इतनी भर है कि उन्हें स्वतंत्र रूप से विकसित होने दिया जाय। किसी भी प्रकार का अप्राकृतिक अथवा निकृष्टतापूर्ण व्यवहार अपनाकर उनके विकास-क्रम को अवरुद्ध न होने दिया जाय जिससे शारीरिक और आत्मिक प्रगति का मार्ग अवरुद्ध होता है।
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