भारत का इतिहास हमेशा से ही न जाने कितने ही सुन्दर और गौरव पूर्ण सच्ची घटनाओ से भरा पड़ा है, और जब हम थोडा पीछे मुड कर देखते है तो कभी-कभी त्याग और निस्वार्थ भाव देख कर आँखों से सहसा अश्रु धारा छलक पड़ती है.तो इसी कड़ी में हम आपको बता रहे है एक ऐसे इन्सान की सच्ची कहानी जिसने न केवल अपने गाँव के लोगो के दुःख दूर किये वरन अपने अदम्य साहस से रेगिस्तान में ही पानी से भरा तालाब बना डाला और जाते-जाते समाज को निस्वार्थ सेवा, प्रेम तथा अदम्य इक्छाशक्ति की एक ऐसी मिसाल दे गया जो कई सदियों तक लोगों को प्रेरित करती रहेगी।
यह कहानी है एक चरवाहे ‘मेघा’ की जिसने केवल अपने ही दम पर आज से 500 साल पूर्व राजस्थान के थार के रेगिस्तान में एक तालाब बना दिया था जो की आज भी है जिसका नाम है मेघासर तालाब। आज यह तालाब बर्ड्स वाचिंग पॉइंट के रूप में प्रसिद्ध है।
‘मेघा’ हाँ यही नाम उसे उसके माता-पिता ने दिया था। जानवरों को चराना उसका काम था। वह सुबह जल्दी उठता, गायों का चारा डालता, काम निपटाकर खाना खाता। फिर अपनी कुपड़ी पानी से भरता। पोटली में गुड़ और बाजरे की रोटी बाँधता। पोटली कंधे पर लटकाकर अपनी गायों को लेकर जंगल की ओर निकल पड़ता था। जंगल में गायें चरतीं और मेघा पास में टीले पर बैठ जाता। अपनी जेब से मोरचंग निकालता और बड़े ही चाव से बजाता।
साँझ होते ही वह अपनी गायें लेकर घर लौट आता। यही उसकी दिनचर्या थी। इस दिनचर्या में यदि कुछ और तत्व दूध में शक्कर की तरह से मिले थे तो वह थी, उसके भजन गाने की आदत और परसेवा की वृत्ति। इसी वृत्ति के कारण गाँव के लोग उसे मेघो जी या मेघा भगत कहते थे। सभी के मन में उसके लिए आदर था।
एक दिन मेघा घर लौटने की तैयारी में था, उसकी कुपड़ी में थोड़ा-सा पानी रह गया था तभी पता नहीं उसे क्या सूझा, उसने फटाफट एक गड्ढा खोदा। आक के चार-पाँच पत्ते तोड़ लाया। कुपड़ी का पानी गड्ढे में डाल दिया। पत्तों से गड्ढे को अच्छी तरह से ढक दिया और निशानी के लिए ऊपर छोटा-सा पत्थर रख दिया। इतना सब करने के बाद मेघा ने पीछे मुड़कर देखा, सूर्य धारों में डूब रहा था। उसने गायों को गाँव की तरफ हाँका।
अगले दो दिनों तक उसकी नजर में वह गड्ढा नहीं आया। तीसरे दिन जब वह गायें लेकर जंगल की ओर जा रहा था, तभी अचानक उसकी नजर उसी जगह पर पड़ी। उसने आक के पत्तों को हटाया, देखा तो वहाँ पानी नहीं था, परंतु उसके चेहरे पर ठंडी ठंडी भाप लगी। उसके मस्तिष्क में कुछ विद्युत् की तेजी से प्रकाशित हुआ और वह कुछ सोचने लगा।
इस सोच विचार के उपक्रम में उसके दिमाग में विचार आया कि जब चौथाई ‘कुपड़ी’ पानी से यहाँ नमीं बनी रह सकती है, तो फिर इस जमीन पर तालाब भी बन सकता है। वह पास ही खेजड़ी की छाया में बैठ गया और तालाब की बात को लेकर गाँव की खुशहाली के सपने देखने लगा।
साँझ को जब वह अपने घर लौटा तब उसने गाँववालों को सारी कहानी बताई और मिलकर तालाब खोदने की बात कही। पर उसकी बात पर किसी ने भी गौर नहीं किया। सभी कहने लगे कि इस रेगिस्तान में तालाब खोद पाना असंभव है-भगत जी। ऐसी बातें कल्पनाओं में ही अच्छी लगती हैं और कल्पनाएँ कभी साकार नहीं होती।
मेघा गाँववालों के असहयोग से हतोत्साहित नहीं हुआ। उसने दृढ़ संकल्प किया कि वह अकेला ही तालाब बनाकर दिखाएगा, भले ही इस कार्य में उसे कितना ही समय लगे। पुरुषार्थ और भगवत्कृपा पर विश्वास, यही मेघा की जीवन-नीति थी। भगवन् की याद कर उसने काम शुरू किया। वह हमेशा कुदाली-फावड़ा लेकर जाता। गायें एक ओर चरती रहती और वह खुद तालाब की खुदाई करता रहता। इस काम को करते हुए उसे कई वर्ष हो गए। पर वह थका नहीं था, श्रम जारी था।
समय के साथ मेघा का कठिन परिश्रम और संकल्प का परिणाम गाँववालों को दिखने लगा। थोड़ी बरसात हुई। पानी इकट्ठा हो गया। गाँववाले पानी देखकर फूले नहीं समा रहे थे। हर कोई मेघा के गुण गाने लगा। अब तो असंभव कहने वाले गाँव के लोग भी इस काम में साथ देने लगे। बड़े, बुजुर्ग, बच्चे, औरतें सभी मिलकर तालाब को पूरा करने में जुट गए। काम बारह वर्षों तक चलता रहा।
एक दिन काम करते वक्त मेघा की मृत्यु हो गई। लेकिन तब तक तालाब का काम भी पूरा हो चुका था। वर्षा हुई तालाब लबालब भर गया। मेघा का संकल्प गाँव की खुशहाली बन गया। गाँववालों ने तालाब के किनारे मेघा की यादगार स्थायी रखने के लिए कलात्मक छतरी बनवाई और ‘मेघा’ मेघो जी देवता के रूप में पूजे जाने लगे।
आज भी यह तालाब जैसलमेर-बीकानेर सड़क मार्ग पर भाप (स्थानीय लोग बाप कहते है) गाँव में है। हालाँकि इसे बने हुए अब पाँच सौ वर्ष बीत चुके हैं, परंतु 500 वर्ष पुरानी होने पर मेघा जी की यह बात अभी भी नई है कि पुरुषार्थ और भगवान् की कृपा के मिलन से असंभव भी संभव हुआ करता है। इसके लिए जरूरत है तो सिर्फ मेघा जी के समान दृढ़ संकल्प की।
यह कहानी है एक चरवाहे ‘मेघा’ की जिसने केवल अपने ही दम पर आज से 500 साल पूर्व राजस्थान के थार के रेगिस्तान में एक तालाब बना दिया था जो की आज भी है जिसका नाम है मेघासर तालाब। आज यह तालाब बर्ड्स वाचिंग पॉइंट के रूप में प्रसिद्ध है।
‘मेघा’ हाँ यही नाम उसे उसके माता-पिता ने दिया था। जानवरों को चराना उसका काम था। वह सुबह जल्दी उठता, गायों का चारा डालता, काम निपटाकर खाना खाता। फिर अपनी कुपड़ी पानी से भरता। पोटली में गुड़ और बाजरे की रोटी बाँधता। पोटली कंधे पर लटकाकर अपनी गायों को लेकर जंगल की ओर निकल पड़ता था। जंगल में गायें चरतीं और मेघा पास में टीले पर बैठ जाता। अपनी जेब से मोरचंग निकालता और बड़े ही चाव से बजाता।
साँझ होते ही वह अपनी गायें लेकर घर लौट आता। यही उसकी दिनचर्या थी। इस दिनचर्या में यदि कुछ और तत्व दूध में शक्कर की तरह से मिले थे तो वह थी, उसके भजन गाने की आदत और परसेवा की वृत्ति। इसी वृत्ति के कारण गाँव के लोग उसे मेघो जी या मेघा भगत कहते थे। सभी के मन में उसके लिए आदर था।
एक दिन मेघा घर लौटने की तैयारी में था, उसकी कुपड़ी में थोड़ा-सा पानी रह गया था तभी पता नहीं उसे क्या सूझा, उसने फटाफट एक गड्ढा खोदा। आक के चार-पाँच पत्ते तोड़ लाया। कुपड़ी का पानी गड्ढे में डाल दिया। पत्तों से गड्ढे को अच्छी तरह से ढक दिया और निशानी के लिए ऊपर छोटा-सा पत्थर रख दिया। इतना सब करने के बाद मेघा ने पीछे मुड़कर देखा, सूर्य धारों में डूब रहा था। उसने गायों को गाँव की तरफ हाँका।
अगले दो दिनों तक उसकी नजर में वह गड्ढा नहीं आया। तीसरे दिन जब वह गायें लेकर जंगल की ओर जा रहा था, तभी अचानक उसकी नजर उसी जगह पर पड़ी। उसने आक के पत्तों को हटाया, देखा तो वहाँ पानी नहीं था, परंतु उसके चेहरे पर ठंडी ठंडी भाप लगी। उसके मस्तिष्क में कुछ विद्युत् की तेजी से प्रकाशित हुआ और वह कुछ सोचने लगा।
इस सोच विचार के उपक्रम में उसके दिमाग में विचार आया कि जब चौथाई ‘कुपड़ी’ पानी से यहाँ नमीं बनी रह सकती है, तो फिर इस जमीन पर तालाब भी बन सकता है। वह पास ही खेजड़ी की छाया में बैठ गया और तालाब की बात को लेकर गाँव की खुशहाली के सपने देखने लगा।
साँझ को जब वह अपने घर लौटा तब उसने गाँववालों को सारी कहानी बताई और मिलकर तालाब खोदने की बात कही। पर उसकी बात पर किसी ने भी गौर नहीं किया। सभी कहने लगे कि इस रेगिस्तान में तालाब खोद पाना असंभव है-भगत जी। ऐसी बातें कल्पनाओं में ही अच्छी लगती हैं और कल्पनाएँ कभी साकार नहीं होती।
मेघा गाँववालों के असहयोग से हतोत्साहित नहीं हुआ। उसने दृढ़ संकल्प किया कि वह अकेला ही तालाब बनाकर दिखाएगा, भले ही इस कार्य में उसे कितना ही समय लगे। पुरुषार्थ और भगवत्कृपा पर विश्वास, यही मेघा की जीवन-नीति थी। भगवन् की याद कर उसने काम शुरू किया। वह हमेशा कुदाली-फावड़ा लेकर जाता। गायें एक ओर चरती रहती और वह खुद तालाब की खुदाई करता रहता। इस काम को करते हुए उसे कई वर्ष हो गए। पर वह थका नहीं था, श्रम जारी था।
समय के साथ मेघा का कठिन परिश्रम और संकल्प का परिणाम गाँववालों को दिखने लगा। थोड़ी बरसात हुई। पानी इकट्ठा हो गया। गाँववाले पानी देखकर फूले नहीं समा रहे थे। हर कोई मेघा के गुण गाने लगा। अब तो असंभव कहने वाले गाँव के लोग भी इस काम में साथ देने लगे। बड़े, बुजुर्ग, बच्चे, औरतें सभी मिलकर तालाब को पूरा करने में जुट गए। काम बारह वर्षों तक चलता रहा।
एक दिन काम करते वक्त मेघा की मृत्यु हो गई। लेकिन तब तक तालाब का काम भी पूरा हो चुका था। वर्षा हुई तालाब लबालब भर गया। मेघा का संकल्प गाँव की खुशहाली बन गया। गाँववालों ने तालाब के किनारे मेघा की यादगार स्थायी रखने के लिए कलात्मक छतरी बनवाई और ‘मेघा’ मेघो जी देवता के रूप में पूजे जाने लगे।
आज भी यह तालाब जैसलमेर-बीकानेर सड़क मार्ग पर भाप (स्थानीय लोग बाप कहते है) गाँव में है। हालाँकि इसे बने हुए अब पाँच सौ वर्ष बीत चुके हैं, परंतु 500 वर्ष पुरानी होने पर मेघा जी की यह बात अभी भी नई है कि पुरुषार्थ और भगवान् की कृपा के मिलन से असंभव भी संभव हुआ करता है। इसके लिए जरूरत है तो सिर्फ मेघा जी के समान दृढ़ संकल्प की।
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