Saturday, 20 August 2016

लड़कों के साथ कुश्ती की प्रेक्टिस कर जीता मेडल...

हर चमत्कार के पीछे कड़ी मेहनत और लगन छिपी होती है। ऐसा ही रियो ओलंपिक के महिला कुश्ती में ब्रॉन्ज मेडल जीतने वाली साक्षी मलिक के साथ भी हुआ। आज भले ही साक्षी अचानक ही पूरे देश-विदेश में मीडिया की सुर्खियों में छा गई लेकिन इसके लिए साक्षी ने 12 साल लगातार मेहनत की है। वो अपने बचपन में ही इस खेल से जुड़ गई और तब से रोजाना 6 से 7 घंटे तक प्रेक्टिस कर आज इस मुकाम तक पहुंची। 

पहलवानों की ड्रेस पंसद आई इसलिए बनी कुश्तीबाज
15 साल पहले साक्षी को महज 8 साल की उम्र में उनकी मां खिलाड़ी बनाने के लिए छोटूराम स्टेडियम लेकर गई थी। यहां कोच ने लड़की होने के नाते उसे जिम्नास्टिक खेलने के लिए कहा, मगर साक्षी ने साफ इंकार कर दिया। उसने स्टेडियम में कई दूसरे स्पोर्ट्स भी ट्राई किए लेकिन कोई पसंद नहीं आया। कुश्ती हॉल में पहुंच कर जैसे ही उसने पहलवानों को कुश्ती ड्रेस में देखा, उसने तुरंत पहलवान बनने का मूड बना लिया। उस दिन के बाद उसने किसी दूसरे खेल की तरफ देखा भी नहीं।
दादाजी से थी प्रेरित

साक्षी को पहलवान बनाने के पीछे उनके दादाजी का भी खासा योगदान है। साक्षी ने बताया कि उनके दादाजी नामी पहलवान थे और उनके मेडल देखकर वह भी उनके जैसा बनना चाहती थी। इसलिए भी साक्षी ने कुश्ती को चुना।
लड़कों से लड़ी कुश्ती

कुश्ती में आने के लिए साक्षी ने लड़कों से भी कुश्ती लड़ी है। शुरुआती दौर में जब महिला कुश्तीबाज नहीं थे, तब वह लड़कों के साथ कुश्ती लड़ती थी। हालांकि बाहर के समाज ने उनका साथ नहीं दिया लेकिन उन्हें अपने घरवालों का साथ मिला और साक्षी मलिक दुनिया को अपना दम-खम दिखा दिया। तब उन्होंने 2002 में कुश्ती के कोच ईश्वर दाहिया के अंडर कोचिंग शुरू की और उन्हीं से कुश्ती के दांव-पेच सीखे।
मां नहीं चाहती थी बेटी कुश्ती लड़े

साक्षी की मां कभी नहीं चाहती थी कि बेटी पहलवान बने। उनकी इस सोच के पीछे कारण था कि समाज में अक्सर यही कहा जाता रहा कि पहलवानों में बुद्धि कम होती है, पढ़ाई में पिछड़ गई तो करियर कहां जाएगा। लेकिन रोज 4 से 7 घंटे कुश्ती की प्रेक्टिस के बाद भी साक्षी अपनी पढ़ाई-लिखाई में 70 फीसदी मार्क्स हासिल कर अपनी मां की उलझन दूर कर दी।
ओलंपिक में पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला है साक्षी

ओलंपिक में पदक जीतने वाली साक्षी पहली भारतीय महिला पहलवान भी बन गई हैं। उनसे पहले किसी भी महिला पहलवान ने ओलंपिक में पदक नहीं जीता है। वहीं कुल मिलाकर कुश्ती में यह भारत का चौथा पदक है। उनसे पहले 1952 में के.डी. जाधव (कांस्य मेडल), 2012 में सुशील कुमार (सिल्वर मेडल) और 2012 में ही योगेश्वर दत्त (कांस्य पदक) जीता था।
कॉमनवेल्थ गेम्स में भी भारत को दिलाया था रजत पदक

इससे पहले साक्षी मलिक 2014 के ग्लास्गो कॉमनवेल्थ खेलों में भी भारत को रजत पदक दिला चुकी है। इसके अलावा उन्होंने 2015 सीनियर एशियन कुश्ती चैंपियनशिप में भारत को ब्रॉन्ज मेडल दिलाया था।
कंडक्टर पिता की बेटी साक्षी को रोहतक के अपने मोखरा गांव में एक
 समय बचपन में अखाड़ा लड़ने के लिए खाप पंचायतों का विरोध सहना पड़ा था। खाप पंचायत चलाने वालों ने मूंछ पर दाव देकर गांव के छोटूराम अखाड़ा को बंद कराने की भरसक कोशिश की। मगर साक्षी व उनके कोच ने हार नहीं मानी। कांटों भरी राह पर चलते हुए 24 साल की साक्षी आज की तारीख में देश की सबसे चर्चित शख्सियत हो चुकी हैं। रियो में जब साक्षी ने 12 वें दिन देश की खाली झोली में इकलौता पदक डाला तो हर भारतीय खुशी से झूम उठा।
साक्षी का सफर

रियो ओलंपिक में पदक जीतने से पहले ही साक्षी  रिकार्ड तोड़ चुकी थी। वह यह कि ओलंपिक शुरू होने से अब तक कोई महिला कुश्ती में फाइनल का सफर तय नहीं कर पाई थी। ऊपर से जब साक्षी ने देश के लिए पहला पदक जीता तो सोने पर सुहागा हो गया। पिता सुखबीर और मां सुदेश खुशी से निहाल हैं। साक्षी ने 12 साल की उम्र से ही कुश्ती के दांव-पेंच सीखने शुरू किए। अल्मामातेर पब्लिक स्कूल और गर्ल्स कॉलेज ने काफी सहयोग किया। 2010 में जूनियर विश्व चैंपियनशिप में कांस्य जीता तो 2014 में सीनियर लेवल पर इंटरनेशनल टूर्नामेंट में स्वर्ण पदक जीता। 2014 में ग्लासगो कॉमनवेल्थ में 58 किग्रा में साक्षी ने रजत पदक जीता। 2015 में दोहा में हुई सीनियर एशियन रेसलिंग चैंपियनशिप की 60 किग्रा में कांस्य और 2016 के स्पेनिश ग्रैंड प्रिक्स में भी कांस्य नसीब हुआ।


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