"राजनीति समाज की सेवा का माध्यम है जिसे किसी भी परिस्थिति में व्यवसाय में रूपांतरित नहीं होने दिया जा सकता। ऐसा तभी संभव है जब ऐसे लोग इसे अपना कार्यक्षेत्र बनाएं जिनके 'स्व' की परिधि इतनी विस्तृत हो जिससे स्वार्थ ही सेवा बन जाए और सेवा ही स्वार्थ।
किसी भी प्रगतिशील समाज में धन का सृजन विकास की दृष्टि से एक संसाधन के रूप में महत्वपूर्ण है ; समस्या धन नहीं बल्कि धन के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण और व्यक्तिगत मनोवृति है जिसके चलते संसाधन को ही जीवन ने अपना उद्देश्य मान लिया है, तभी, सफलता प्राप्ति की दौड़ में जीवन ने अपनी सार्थकता का महत्व बहोत पीछे छोड़ दिया है।जब अज्ञानतावश स्वार्थ से शाषित व्यक्ति राजनीति जैसे समाज सेवा के क्षेत्र को भी पेशा बना दें तो व्यवस्था का भ्रष्ट और समाज के उपेक्षित वर्ग का शाशन तंत्र के दुरूपयोग द्वारा शोषण स्वाभाविक है।
भारत के सन्दर्भ में समस्या धन का आभाव नहीं बल्कि उसकी व्यर्थता, दुरूपयोग व् संचय की मनोवृति है और यही कारन है की एक राष्ट्र के रूप में हम अब तक विकसित नहीं हो पाएं है; धन का अर्जन गलत नहीं, गलत तरीके से धन का अर्जन व् संचय अपराध है और अपने महत्व व् प्रभाव के लिए धन को दोष देना मूर्खता होगी।
, राष्ट्रीय नेतृत्व का यह धर्म है की वह समाज के सभी लोगों को अपने ही परिवार का अंग समझे और राष्ट्र को अपना घर;
किसी भी परिवार के मुखिया का यह दायित्व होता है की वह न केवल परिवार के वर्त्तमान आवश्यकताओं की पूर्ती करे बल्कि अपने प्रयास से एक बेहतर भविष्य का आधार भी बनें; देश के व्यवस्था के सूत्रधारों को यह चाहिए की वो अपने प्रयास से समाज और सरकार के बीच ऐसा समन्वय व् सम्बन्ध बनाएं जिससे दोनों ही एक दुसरे की शक्ति बन सकें, पर जब शाशन तंत्र पर राजनीति हावी हो जाए तो शाशन तंत्र अपने प्रभाव के दुरूपयोग द्वारा समाज को सत्ता पर आश्रित बनाने के हर संभव प्रयास करती है। ...और तब, जिन्हें समाज का पोषण करना था वो ही समाज के शोषण के कारन बन जाते हैं।
किसी भी सन्दर्भ में परिदृश्य दृष्टिकोण द्वारा ही निर्धारित होता है, फिर विषय राजनीति ही क्यों न हो। इसलिए, जिस राजनीति को देश की व्यवस्था का संसाधन होना था आज अगर वह देश के लिए समस्या का पर्याय बन गयी है तो गलती राजनीती की नहीं बल्कि समाज द्वारा चयनित राजनेताओं का स्तर है और इसलिए, व्यवस्था परिवर्तन के किसी भी सार्थक प्रयास की शुरुआत भी यहीं से करनी पड़ेगी।
समाज को व्यवस्था में अपने लिए ऐसे प्रतिनिधियों को चुनना पड़ेगा जिनके पास समस्याओं की उचित समझ, संभावनाओं को ढूँढ पाने वाली परिपक्व सोच और प्रयास का साहस हो तभी सरकारी योजनाएं भी वास्तविकता की आवश्यकताओं पर आधारित, व्यापक रूप से प्रभावशाली और सही अर्थों में सार्थक होंगें, अन्यथा, शाशन तंत्र का प्रयोग भी राजनीति अपने प्रचार के काम के लिए ही करती रहेगी।
हमें ऐसी व्यवस्था बनानी पड़ेगी जहाँ प्रयास की निष्ठां को प्रोत्साहन द्वारा प्रेरित किया जाए न की रिश्वत के प्रलोभन द्वारा; इसके लिए सामाजिक जीवन के कई आयामों में एक साथ सुनियोजित, संतुलित व् समन्वित प्रयास की आवश्यकता होगी, अन्यथा, प्रयास ही समस्याओं को और अधिक जटिल बना देगा।
अपनी अल्प आयु में ही स्वामी विवेकानंद जी ने अपने कर्मों द्वारा इस संसार में ऐसा प्रभाव छोड़ा की उनकी शरीर के मृत्यु के लगभग एक सौ चौदह वर्षों बाद भी वो हमारे बीच प्रेरणा बनकर जीवित हैं। ऐसे तो वर्षों से हम उनके जयंती पर औपचारिकताएं निभाते आये हैं पर जिस भारत के उत्थान में उन्होनें युवाओं की भूमिका को इतना महत्वपूर्ण बनाया था आज क्या उसी भारत को अपने युवाओं पर विश्वास नहीं रहा, तभी, अनुभव की गलतियों की कीमत एक युवा देश अपने नयी संभावनाओं से चूका रहा है।
आखिर कब तक हम एक राष्ट्र के रूप में अपने आप को औपचारिकताओं से ऐसे ही मूर्ख बनाते रहेंगे, क्यों न अब हम अपनी वास्तविकता को स्वीकार करें और अपने युवा वर्ग के कन्धों को राष्ट्र के नेतृत्व के लिए विश्वास करें ; परिस्थितियां जितनी बुरी हो सकती थीं आज है, ऐसे में, खोने का क्या है; क्या पता प्रयास की यही दिशा शायद एक कृतज्ञ राष्ट्र का स्वामी विवेकानंद को सही अर्थों में श्रधांजलि हो, क्या आपको ऐसा नहीं लगता ?"
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