"जिस सामाजिक व्यवस्था में कर्त्तव्य परिस्थितियों से विवश हो जाए, वहां स्वतः ही पुर्सार्थ के आभाव में धर्म का नाश हो जाता है, और तब, उस समाज के लिए व्यवस्था परिवर्तन अपरिहार्य होता है।
परिवर्तन की प्रक्रिया और गति इस बात पर निर्भर करेगी की समाज की संवेदनाएं और सोच का स्तर क्या है; संवेदनाएं परिवर्तन की आवश्यकता महसूस कर प्रयास को उत्प्रेरित करने के लिए और सोच उस प्रयास को सरल, दृढ़ और फलोत्पदक बनाने के लिए।
परिवर्तन के लिए केवल प्रयास पर्याप्त नहीं, बल्कि, परिणाम की सफलता सुनिश्चित करने के लिए प्रयास की दिशा भी उतनी ही महत्वपूर्ण होगी जितना की प्रयास की सार्थकता के सन्दर्भ में उद्देश्य के प्रति प्रयास की निष्ठा का होगा।
एक राष्ट्र के रूप में अपने लिए एक सुव्यवस्थित समाज की परिकल्पना को यथार्थ में जीने के प्रयास को ऐसे तो हम कई दशकों से जी रहे हैं, क्यों न अब अपने प्रयास द्वारा परिणाम की सफलता को सुनिश्चित किया जाए; यही समय की आवश्यकता भी है।
आज व्यवस्था भ्रष्ट है क्योंकि व्यक्ति स्वार्थ से शाषित और राजनीति से विवश है, फिर कार्य क्षेत्र चाहे जो हो; अवसर की उपयोगिता सिद्ध करने के लिए हमें प्रयास की प्राथमिकताओं में सुधार कर उसे एक लक्ष्य पर केंद्रित करना होगा। भ्रस्टाचार के उन्मूलन से भ्रस्टाचारी भी समाप्त हो जाएंगे पर जब तक हम अपने प्रयास को भ्रस्टाचारियों पर केंद्रित करते रहेंगे, भ्रस्टाचार जैसे विकार भी अपना प्रारूप बदलते रहेंगे ; हमें अपराध के उन्मूलन पर ध्यान केंद्रित करना होगा, अन्यथा, अपराधियों की ही संख्या में बढ़ोतरी होगी;
धर्म द्वारा शाषित एक आदर्श समाज जहाँ जीवन यापन के मूल्य से अधिक नैतिक मूल्यों का महत्व हो, जो सत्य के प्रति समर्पित और न्याय के पक्ष में सदैव तत्पर हो, हो सकता है कइयों को अतिशयोक्ति लगे पर इतिहास साक्षी है की भारत भूमि ने अपने अतीत में कई बार ऐसी सुन्दर कल्पना को यथार्थ में जिया है, ऐसे में, अगर आज हमारे पुर्सार्थ में इतना आत्मबल और आत्म विश्वास न रहा की अपने प्रयास से परिकल्पना के सौन्दर्य को यथार्थ में रूपांतरित कर सकें तो इसका अर्थ यह नहीं की भारत के गौरवमयी अतीत के स्वर्णिम अध्यायों को आज हम भी अतिशयोक्ति मान लें ; इस देश के अतीत की वास्तविकता इस वर्त्तमान को ऐसा अधिकार नहीं देती।
जब जनतंत्र में राजनीति द्वारा प्रायोजित परिस्थितियों के प्रभाव में व्यक्ति की निष्ठां अपने कर्त्तव्य के निर्वहन से अधिक अपने स्वार्थ के प्रति हो, तो व्यक्ति की यही विवशता सामाजिक जीवन में नैतिक पतन का कारन बनती है, और तब, जनतांत्रिक प्रक्रिया की सबसे बड़ी सम्भावना ही उसकी सबसे बड़ी समस्या बन जाती है । हमें समस्या के निवारण के लिए इसके प्रभावों से विचलित न होते हुए इसके मूल कारन पर ध्यान को केंद्रित करना होगा;
जिस शाशन तंत्र के शक्ति के प्रभाव से राजनीति का समाज पर नियंत्रण है, उसके मानसिकता, सोच और समझ को बदलना पड़ेगा; चूँकि व्यवस्था भी व्यक्ति द्वारा संचालित होती है, ऐसे में, स्वीकृत व् स्थापित सामाजिक व्यवस्था को बदलने से बेहतर क्या व्यक्ति को बदलना सही नहीं होगा;
सूत्रधार होने के नाते व्यवस्था के स्तर का श्रेय अथवा दोष भी तो व्यक्ति का ही होता है , ऐसे में, व्यस्था परिवर्तन के किसी भी सार्थक प्रयास की सफलता तभी संभव है जब शुरुआत व्यस्था के स्त्रोत से हो, क्या आपको ऐसा नहीं लगता ?"
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