Friday 23 December 2016

सार
पिछले जन्म के अनुभवों की असंख्य अभिलिखित और अनुसंधानित घटनाएं स्पष्टरूप से कि मृत्यु के उपरांत जीवन का संकेत देती हैं । पुनर्जन्म की सभी घटनाओं में यह पाया गया कि व्यक्ति की मृत्यु और पृथ्वी पर उसके पुनर्जन्म के बीच का अंतराल परिवर्तनशील होता है । ऐसे में मृत्यु के उपरांत और पृथ्वी पर पुनर्जन्म होनेतक हम कहां रहते हैं ? क्या अस्तित्व के लिए एक ही लोक है अथवा विविध लोक होते हैं ? यदि है तो किन घटकों पर यह निर्धारित होता है कि हम मृत्यु के उपरांत कहां जाएंगे ? इस लेख में हम इन तथा इसी शीर्षक से जुडे अन्य प्रश्‍नों के उत्तर प्रस्तुत कर रहे हैं । ये उत्तर आध्यात्मिक शोध द्वारा SSRF के उन साधकों द्वारा प्राप्त किए गए हैं, जो अतिप्रगत छठवीं इंद्रिय से संपन्न हैं ।
टिप्पणी : इस लेख को भली- भांति समझने के लिए, हमारा सुझाव है कि आप तीन मूलभूत सूक्ष्म घटक सत्व, रज और तम संबंधी लेख का अभ्यास करें ।

१. मृत्यु के उपरांत क्या होता है ?

आध्यात्मिक शोध के अनुसार मनुष्य के निम्नलिखित चार मूलभूत देह होते हैं ।
  • शारीरिक (स्थूल देह)
  • मानसिक(मनोदेह)
  • बौद्धिक (कारण देह)
  • सूक्ष्म अहं (महाकारण देह)
नीचे दिया गया चित्र मनुष्य शरीर की रचना चित्र के रूप में दर्शाता है ।जब मनुष्य की मृत्यु होती है तब भौतिक शरीर का अस्तित्त्व समाप्त हो जाता है; परंतु अन्य घटकों और चेतना का अस्तित्त्व शेष रहता है । भौतिक शरीर के अतिरिक्त मनुष्य के अस्तित्व के अन्य घटक हैं – सूक्ष्म शरीर (लिंग देह), जो मनोदेह, कारण देह (बुद्धि)और महाकारण देह (सूक्ष्म अहम्) से बनता है । यह सूक्ष्म शरीर भूलोक (पृथ्वी) को छोडकर अन्य १३ सूक्ष्म लोकों में से किसी एक में चला जाता है ।

२. ब्रह्मांड में अस्तित्व के १४ लोक (स्तर)

ब्रह्मांड में अस्तित्व के १४ मुख्य लोक हैं । उनमें से ७ लोक सकारात्मक (उच्चलोक) हैं और ७ नकारात्मक हैं । अस्तित्व के ७ नकारात्मक लोकों को सामान्यतया नरक (पाताल)कहते हैं । इन मुख्य लोकों में कई अन्य उपलोक होते हैं ।
धर्म वह है जिससे ३ उद्देश्य साध्य होते हैं :
१. समाज व्यवस्था को उत्तम बनाए रखना
२. प्रत्येक प्राणिमात्र की व्यावहारिक उन्नति साध्य करना
३. आध्यात्मिक स्तर पर भी प्रगति साध्य करना ।
- श्री आदि शंकराचार्य
अस्तित्व के सात सकारात्मक लोक : इन लोकों में अधिकतर वे जीवित लोग और सूक्ष्मदेह रहते हैं जो धर्माचरण करते हैं और सकारात्मक साधनामार्ग अपनाकर साधनारत रहते हैं । इन लोकों को अस्तित्व के सात सकारात्मक स्तर अथवा सप्तलोक कहते हैं । सकारात्मक साधनामार्ग वह है जिसमें साधना की दिशा ईश्‍वरप्राप्ति की ओर है । यह आध्यात्मिक प्रगति का उच्चतम शिखर है ।
ब्रह्मांडमें पृथ्वी (भूलोक) ही भौतिक अस्तित्वका एकमात्र लोक है । यह ब्रह्मांड में सकारात्मक लोकों के पदक्रम में प्रथम स्थान पर है ।
अस्तित्व के सात नकारात्मक लोक (पाताल लोक) : ये अस्तित्त्व के वे लोक हैं जहां अधिकतर ऐसी सूक्ष्मदेह रहती हैं जिन्होंने धर्मविरोधी कृत्य किए हैं और जो नकारात्मक साधनामार्ग अपनाती हैं । नकारात्मक साधनामार्ग वह है जिसकी दिशा है – आध्यात्मिक बल, उदा.सिद्धियों की प्राप्ति । प्राथमिक स्तर पर इस आध्यात्मिक बल का प्रयोग दूसरों पर अपना नियंत्रण बढाने के लिए अथवा नकारात्मक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है । नरक के लोकों में जानेवाली सूक्ष्मदेह अपने अनिष्ट हेतु के कारण अनिष्ट शक्तियां बन जाती हैं ।
संदर्भ लेख – अनिष्ट शक्ति क्या है ?
पाताल के उप-लोक : पाताल के प्रत्येक लोक के उपलोक होते हैं जिन्हें नरक कहते हैं । उदाहरणार्थ, पाताल के पहले लोक के उपलोक को प्रथम नरक कहते हैं । नरक दुष्टतम अनिष्ट शक्तियों के लिए (भूत, प्रेत, पिशाच इ.के लिए) आरक्षित होता है । जो अनिष्ट शक्तियां प्रथम नरक में रहती हैं उन्हें पाताल के पहले लोक में रहनेवाली अनिष्ट शक्तियों की तुलना में अधिक कालावधि तक और अधिक कठोर दंड भुगतना पडता है ।कृपया ध्यान दें :
१. इस चित्र में सरलता के लिए हमने एक के ऊपर एक लोक दिखाए हैं, परंतु वास्तव में ये लोक सभी दिशाओं में हमारे चारों ओर विद्यमान हैं । पृथ्वी (भूलोक) मूर्त (ठोस) होने के कारण दिखाई देता है जबकि अन्य लोक उत्तरोतर अधिकाधिक सूक्ष्म हैं, इसलिए वे स्थूल आंखों से दिखाई नहीं देते । वास्तव में लोग भूलोक में (पृथ्वी पर) रहते हुए भी अपने आध्यात्मिक स्तर अथवा विचारों के कारण अन्य लोकों के अनुरूप विचार और भावनाएं अनुभव कर सकते हैं । उदाहरणार्थ, ७०%से अधिक आध्यात्मिक स्तर के संतों का अस्तित्व, स्वर्गलोक तथा उससे उच्च सकारात्मक लोकों में होता है । इसके विपरीत, चोरी का विचार करनेवाला प्रथम पाताल के विचार अनुभव करता है, दूसरों को हानि पहुंचाने का विचार करनेवाला द्वितीय पाताल के विचार अनुभव करता है और किसी की हत्या का विचार करनेवाला सातवें पाताल के विचारों का अनुभव करता है । तथापि किन्हीं दो लोकों का अनुभव एक- साथ नहीं हो सकता । उदाहरणार्थ, स्वर्ग और महर्लोक के अनुरूप विचार एक ही समय पर नहीं आ सकते ।
२. वास्तव में भुवर्लोक ईश्‍वर से विमुख क्षेत्र है; परंतु हमने इस लोक को सकारात्मक दिखाया है क्योंकि वहां की सूक्ष्मदेहों को आध्यात्मिक प्रगति करने के लिए पृथ्वी पर जन्म लेने का अवसर मिल सकता है । एक बार जब कोई सूक्ष्मदेह पाताल की गहराई में जा गिरती है, तो उसके पृथ्वी पर जन्म लेने और ईश्‍वर प्राप्ति की ओर बढने की संभावना अल्प होती है ।
रंग- संयोजन (colour scheme) का स्पष्टीकरण
  • पृथ्वी को लालिमा- युक्त दर्शाया क्योंकि यह क्रियाशीलता (रजोगुण) दर्शाता है, और यह एक ही लोक है जहां हमारे पास कुछ करने के लिए स्थूल देह रहता है ।
  • स्वर्ग को गुलाबी दर्शाया है जो सुख का सूचक है ।
  • पीला रंग आध्यात्मिक ज्ञान का और सत्वगुण में (सूक्ष्म मूल सत्व घटक में) वृद्धि का सूचक है । अंत में उच्चतम स्तर पर यह लगभग श्‍वेत हो जाता है जो अप्रकट ईश्‍वरीय तत्त्व से घनिष्ठता का सूचक है ।
  • पाताल के लोक गहरे रंगों से लेकर काले रंग में दर्शाए हैं, क्योंकि यहां पर तमोगुण में वृद्धि होती है ।

३. ब्रह्मांड में स्वर्ग और अन्य उच्चलोक

लोकआध्यात्मिक स्तर का बहुलकसत्व गुण की प्रतिशत मात्राव्यक्ति का प्रकारमुख्य देहमुख्य भावना
सत्य९५%९५%पूर्णत: ज्ञानीअहं / महाकारणसात्विक सुख (५%) आनंद एवं शांति (९५%)
तप९०%९०%अत्यधिक ज्ञानीबुद्धि / कारणसात्विक सुख (२५%) आनंद एवं शांति (७५%)
जन८५%८५%अधिक ज्ञानीबुद्धि / कारणसात्विक सुख (५०%) आनंद एवं शांति (५०%)
महा८०%८०%ज्ञानीबुद्धि / कारणसात्विक सुख(७५%) आनंद एवं शांति (२५%)१०
उच्च स्वर्ग लोक
निम्न स्वर्ग लोक
७५%
६०%
७५%
६०%
अधिक पुण्य
अल्प पुण्य
बुद्धि / कारण
मनोदेह
अधिक सुख
अल्प सुख
भुवलोक४०%४०%सामान्यमनोदेह के ऐच्छिक भागसुख / दुख 
पृथ्वी२०%३३%सामान्यस्थूलसुख / दुख
टिप्पणी : (ऊपर दी गई सारणी में लाल रंग में दिए गए आंकडों के आधार पर)
१. पृथ्वी से (स्थूल लोक से)परे सभी सकारात्मक और नकारत्मक (पाताल)लोक उत्तरोत्तर सूक्ष्म होते जाते हैं । सूक्ष्म अर्थात हमारे पंच ज्ञानेंद्रिय, मन और बुद्धि की समझ से परे । सत्यलोक सूक्ष्मतम है, अर्थात सर्वाधिक बोध- अगम्य है (अनुभव करने अथवा समझने में सर्वाधिक कठिन)। जब छठवीं इंद्रिय की क्षमता सर्वोच्च होती है, तब सत्यलोक को अनुभव कर सकते हैं ।
२. साधना के अभाव में आज के युग के अधिकतर लोग भुवर्लोक में अथवा पाताल के किसी लोक में जाते हैं । साधारणतः जब पापों की मात्रा (पृथ्वी पर किए गए कुकर्मों के कारण) लगभग ३०% होती है तब व्यक्ति मृत्यु के उपरांत भुवर्लोक में जाता है । पाप में विशेषरूप से दूसरों के प्रति दुर्भावना और बहुत सारी इच्छाएं समाविष्ट हैं । भुवर्लोक में पाताल के निचले लोकों की उच्च – स्तर की अनिष्ट शक्तियोंद्वारा आक्रमण की पूर्ण संभावना होती है ।
३. केवल भूलोक में (पृथ्वी पर) विभिन्न आध्यात्मिक स्तरों के लोगों का संम्मिश्रण होता है । परंतु मृत्यु के उपरांत हम अपने आध्यात्मिक स्तर के अनुसार ही किसी एक सुनिश्‍चित लोक में जाते हैं ।
समष्टि आध्यात्मिक स्तरका अर्थ है, समाजके हितके लिए आध्यात्मिक साधना (समष्टि साधना) करनेपर प्राप्त हुआ आध्यात्मिक स्तर; जब कि व्यष्टि आध्यात्मिक साधनाका अर्थ है, व्यक्तिगत आध्यात्मिक साधना (व्यष्टि साधना) करनेपर प्राप्त आध्यात्मिक स्तर । वर्तमान समयमें समाजके हितके लिए आध्यात्मिक साधना (प्रगति) करनेका महत्त्व ७०% है, जब कि व्यक्तिगत आध्यात्मिक साधनाका महत्त्व ३०% है ।
४. मृत्यु के उपरांत स्वर्ग की प्राप्ति के लिए न्यूनतम ५०% समष्टि आध्यात्मिक स्तर और ६०% व्यष्टि स्तर होना चाहिए । कृपया आध्यात्मिक स्तर क्या है ? इस लेखका संदर्भ लें जिसमें आध्यात्मिक स्तर क्या है तथा २००६ की विश्‍व की जनसंख्या का आध्यात्मिक स्तर के अनुसार वर्गीकरण दिया गया है । अध्यात्मशास्त्र के अनुसार स्वर्ग अथवा उच्च सकारात्मक लोकों की प्राप्ति के लिए आवश्यक पुण्यकर्म वे हैं जो ईश्‍वरप्राप्ति के उद्देश्य से किए जाते हैं । इसके निम्नलिखित तीन मापदंड हो सकते हैं :
  • कर्तापनविरहित कर्म, अर्थात इस मनोभावसे कर्म करना कि ईश्‍वर ही हमसे करवा रहे हैं और इसलिए हम उसका श्रेय नहीं ले सकते ।
  • किसी भी प्रतिष्ठा अथवा प्रशंसा की अपेक्षा से रहित कर्म ।
  • फल की अपेक्षा से रहित कर्म । प्रत्यक्ष कर्मो से अधिक महत्वपूर्ण है, कर्म का आधारभूत मनोभाव अथवा दृष्टिकोण ।
५. स्वर्ग से आगे के उच्च लोक को पाने के लिए यह आवश्यक है कि समष्टि आध्यात्मिक स्तर ६०%अथवा व्यष्टि आध्यात्मिक स्तर ७०%से अधिक हो । यह तभी संभव है जब हम नियमितरूपसे साधना के छ: मूल सिद्धांतों के अनुसार साधना करें और अहं भी क्षीण हो ।
६. प्रमुख देह अर्थात वह देह जो सर्वाधिक क्रियाशील है जैसे मन, बुद्धि अथवा सूक्ष्म अहं । उदाहरणार्थ भुवर्लोक की सूक्ष्मदेहों में अनेक इच्छाएं और आसक्ति रहती है । परिणामस्वरूप, उन्हें पूर्ण करने के लिए वेे अनिष्ट शक्तियां बन जाती हैं । इसलिए पाताल के निचले लोकों की उच्च- स्तर की अनिष्ट शक्तियां, पृथ्वी के लोगों को प्रभावित करने के लिए इन सूक्ष्मदेहों की तीव्र इच्छा का दुरुपयोग करती हैं ।
७. भुवर्लोक में कुछ मात्रा में सुख का अनुभव होता है; परंतु भूलोक की (पृथ्वी की) तुलना में भुवर्लोक में दुख की तीव्रता अधिक होती है ।
८. स्वर्गमें, सूक्ष्मदेह विपुल सुख अनुभव करती है । इस सुख की मात्रा, गुणवत्ता और कालावधि, पृथ्वी पर अनुभूत सुख से कई गुना अधिक है । जैस- जैसे हम सकारात्मक लोकों में ऊपर की ओर बढते हैं सुख की गुणवत्ता बढती जाती है और दु:ख नहीं होता ।
९. सात्विक सुख वह होता है जो बिना किसी अपेक्षा अथवा आसक्ति के अन्यों की सहायता करने से मिलता है । जब कर्म में अहं का सहभाग होता है, तब वह राजसिक बन जाता है ।
१०. शांति का अनुभव आनंद के अनुभव से उच्च श्रेणी का होता है ।

३.१ अस्तित्व के सकारात्मक लोक और पृथ्वी पर पुनर्जन्म

महर्लोक से नीचे के लोकों के लोगों को अपना प्रारब्ध भुगतने और लेन- देन पूर्ण करने के लिए पृथ्वी पर जन्म लेना पडता है ।
यदि कोई मृत्यु के उपरांत ६०% समष्टि आध्यात्मिक स्तर पर अथवा ७०% व्यष्टि आध्यात्मिक स्तर पर महर्लोक प्राप्त करता है अथवा ७०% समष्टि अथवा ८०% व्यष्टि आध्यात्मिक स्तर पर जनलोक को प्राप्त करता है, तो उसे पुनर्जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि उसका बचा हुआ प्रारब्ध इन्हीं लोकों में पूरा किया जा सकता है । तथापि ये उन्नत सूक्ष्म देह, मुख्यतः लोगों के आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए, अपनी इच्छा से जन्म ले सकती हैं ।
कुछ परिस्थितियोंमें जिन लोगों की ६०% से अल्प आध्यात्मिक स्तर पर मृत्यु हो जाती है, वे महर्लोक को प्राप्त कर सकते हैं । यहां व्यक्ति की आध्यात्मिक प्रगति की क्षमता का विचार किया जाता है । आध्यात्मिक शोध के आधार पर यह पाया गया है कि आध्यात्मिक उन्नति की क्षमता में सहायक पांच कारक निम्नलिखित हैं ।
  • अत्यधिक भाव,
  • अल्प अहं,
  • आध्यात्मिक उन्नति की तीव्र इच्छा,
  • उत्तरोत्तर उच्चतर स्तरों पर नियमित रूप से साधना करना,
  • अनिष्ट शक्ति से प्रभावित होना अथवा न होना ।
अनिष्ट शक्तियों के प्रभाव से आध्यात्मिक उन्नति गंभीर रूप से अवरुद्ध हो सकती है । यदि किसी व्यक्ति का समष्टि आध्यात्मिक स्तर ६०% से अल्प अथवा व्यष्टि आध्यात्मिक स्तर ७०% से अल्प हो और वह गुणवान हो, परंतु अनिष्ट शक्ति से पीडित हो तो उच्च लोक जैसे महर्लोक को पाने की उसकी क्षमता अवरुद्ध होती है ।
यदि कोई मृत्यु के उपरांत तपोलोक अथवा सत्यलोक को प्राप्त करता है, तो उसे भूलोक में (पृथ्वी पर) पुन:जन्म नहीं लेना पडता, अपितु वह तपोलोक अथवा सत्यलोक में तबतक अपनी साधना कर सकता है, जबतक वह ईश्‍वर से पूर्णरूप से एकरूप न हो जाए ।

३.२ भूलोक का (पृथ्वी का) महत्व

भूलोक (पृथ्वी) अति महत्वपूर्ण है । यह एकमात्र लोक है जहां पर शीघ्र आध्यात्मिक प्रगति कर सकते हैं और अपना लेन- देन अल्पावधि में पूर्ण कर सकते हैं । इसका मुख्य कारण यह है कि अपनी स्थूलदेह के माध्यम से हम आध्यात्मिक स्तर बढाने हेतु आध्यात्मिक प्रगति के लिए पोषक अनेक प्रयास कर, तमोगुण को अल्प कर सकते हैं ।
पृथ्वी के अतिरिक्त आध्यात्मिक प्रगति की संभावना स्वर्ग से आगे के उच्चलोकों में, जैसे – महर्लोक में अधिक है । क्योंकि सूक्ष्मदेह के लिए स्वर्ग में उपलब्ध अनंत सुखों में अटकने की आशंका रहती है । भुवर्लोक में और नरक के लोकों में कठोर दंड तथा उच्च स्तर की अनिष्ट शक्तियों की पीडा के कारण क्लेशदायी स्थिति से उबरकर प्रभावी साधना करना अत्यंत कठिन हो जाता है ।

४. पाताल क्या है, पाताल में कौन जाता है और पाताल का स्वरूप क्या है ?

पाताल लोकसत्व गुण का प्रतिशतव्यक्ति का प्रकारमुख्य देह<मुख्य भावना
पहला२८%स्थूल
दूसरा२५%मनोदेह के ऐच्छिक भाग
तीसरा२२%मनोदेह
चौथा१९%तामसिकता में उत्तरोत्तर वृद्बुद्धि / कारणदुख में उत्तरोत्तर वृद्
पांचवा१६%बुद्धि / कारण
छठा१३%बुद्धि / कारण
सातवां<१०%बुद्धि / कारण
  • जैसे- जैसे कोई नरक के निचले स्तरों में जाता है, सत्वगुण क्रमशः घटता जाता है और फलस्वरूप सुख के अनुभव के लिए वातावरण की अनुकूलता भी घटती जाती है ।
  • पाताल के स्तरों में कुछ अनिष्ट शक्तियां ऐसी होती हैं, जो आध्यात्मिक बल प्राप्त करने हेतु विशिष्ट साधना करती हैं । अनिष्ट शक्तियों में से, नरक के सातवें स्तर के मांत्रिक सर्वोच्च श्रेणी के हैं । इनकी आध्यात्मिक शक्ति लगभग ९०% आध्यात्मिक स्तर के संत के समान होती है । इनका नियंत्रण निम्न आध्यात्मिक स्तर की सभी प्रकार की अनिष्ट शक्तियों पर होता है ।
  • जैसे जैसे नरक के स्तरों की गहराइयों में उतरते हैं, अर्थात १ से ७ वें तक, सूक्ष्मदेहों के लिए सुख की प्राप्ति घटती जाती है और और दु:ख की मात्रा बढती जाती है । गत जन्म के सकारात्मक प्रसंगों के अथवा किसी गत जन्म की समृद्धि की मनोहर स्मृतियों के कारण सुख का न्यूनतम अनुभव होता है । गत जन्म की शारीरिक पीडा और अपमानजनक प्रसंग, अपूर्ण इच्छाएं – जैसे शिक्षा, घरबार, व्यवसाय, महत्वाकांक्षा, अपने बच्चों से अपेक्षा, इन स्मृतियों के कारण दु:ख अनुभव होता है ।
  • पातल के विभिन्न लोकों में तथा उससे संबंधित नरक में जो दंड अथवा पीडा झेलनी पडती है, उसकी मात्रा पाताल तथा संबंधित नरक के साथ उत्तरोत्तर बढती जाती है । साथ ही, प्रत्येक नरक में जो दंड भुगतना पडता है, उसकी अवधि पाताल के संबंधित लोक से अधिक होती है । यदि हम पाताल के पहले लोक के दंड को १००% मानें, तो उससे संबंधित नरक के पहले लोक में दंड ५०% अधिक अर्थात १५०% मिलता है ।
निम्नलिखित सारणी में पाताल के विभिन्न लोकों में अनुभूत सुख और दु:ख की औसतन तीव्रता, उदाहरणों के विवरण सहित प्रस्तुत है ।
पाताल लोकसत्व गुण का  प्रतिशतसुख के उदाहरण दुख काप्रतिशतदुख के उदाहरण 
पहला३०%अतीत की स्मृतियों में डूबकर सुख का अनुभव करना ।५०%पिछले जीवन में उठाए शारीरिक कष्ट और अपमानजनक प्रसंग की स्मृतियों से दुख का अनुभव करना ।
दूसरा२५%व्यवाहारिक लेन देन में ऐश्‍वर्य की सुखद स्मृतियां ।५५%शिक्षा, घर, जीविका संतान सुख की अधूरी इच्छाओं की स्मृतियों से दुख अनुभव करना ।
तीसरा२०%पिछले जीवन में पूर्ण हुई इच्छाओं को स्मरण कर सुख अनुभव करना ।६०%स्थूल देह के अभाव में अपूर्ण इच्छाओं के कारण दुख होना ।
चौथा१५%अपने साथ औरों का भी कष्ट भोगते देखकर मैं अकेला ही नही हूं इस विचार से क्षणिक सुख मिलना ।७०%नरक के असंख्य कष्टों और दुर्गंध के कारण मानसिक तनाव आरंभ होना ।
पांचवा१०%कोई तो किसी दिन किसी एक दुख से छुटकारा दिलाएगा इस विचार से क्षणिक सुख मिलना ।८०%मांत्रिकों का दास बनकर जीना, कष्टों से कभी छुटकारा नहीं मिलेगा इन विचारों के कारण अत्यधिक निराशा ।
छठाकुछ नहीं९०%घोर कष्टोंके कारण तीव्र मानसिक कष्ट ।
सातवांकुछ नहीं१००%निरंतर घोर कष्टों के कारण उदास रहना ।
टिप्पणी अधिकतर प्रसंगों में, सुख और दुख का जोड १००% नहीं होता । सुख और दुख के अतिरिक्त वह अवस्था होती है, जैसे – नरक में सूक्ष्म देह को किसी भी प्रकार की भावना का अनुभव नहीं होता । उदाहरणार्थ, कोई सामान्य कार्य करते समय सुख अथवा दुख नहीं होता ।

५. ब्रह्मांड के सूक्ष्म लोकों में आवागमन

किसी भी व्यक्ति को उसकी मूलभूत प्रकृति के अनुरूप (सत्व, रज और तमोगुण के अनुसार) लोक मिलता है । यह उस व्यक्ति के आध्यात्मिक स्तर पर भी निर्भर करता है । इसलिए निचले सकारात्मक लोक की सूक्ष्मदेह ऊपरी सकारात्मक लोक में नहीं जा सकती और पहले और दूसरे नकारात्मक लोक की सूक्ष्मदेह नरक की गहराइयों में नहीं जा सकती । यह उसी प्रकार है जैसे पठारों पर रहनेवाले लोगों को ऊंचांई पर श्‍वास लेने में कठिनाई होती है, लेकिन पहाडों पर रहनेवाले इसे सहजता से सह लेते हैं ।

६. मृत्यु के उपरांत हम कहां जाते हैं, यह किस पर निर्भर करता है ?

मृत्यु के समय जब स्थूलदेह निष्क्रिय हो जाती है, तब शरीर के कार्य के लिए प्रयुक्त प्राणशक्ति ब्रह्मांड में मुक्त हो जाती है । यह प्राणशक्ति, मृत्यु के समय सूक्ष्मदेह को पृथ्वी से परे जाने के लिए ढकेलती है (ऊर्जा प्रदान करती है)। जैसे प्रक्षेप्य (projectile) का भार यह निर्धारित करता है कि रॉकेट उसे कितनी दूरतक फेंक (प्रक्षेपण कर) सकता है, उसी प्रकार से सूक्ष्मदेह का भार यह निर्धारित करता है कि वह देह मृत्यु के उपरांत किस सूक्ष्म लोक में जाएगी ।
सूक्ष्म देह का भार प्रमुखता से जीव में विद्यमान तमोगुण की मात्रा पर निर्भर है ।त्रिगुण (३ सूक्ष्म मूलभूत घटक) : प्रत्येक व्यक्ति ३ सूक्ष्म मूलभूत घटकों से अथवा गुणों से बना है । ये गुण आध्यात्मिक स्वरूप के होते हैं और अदृश्य होते हुए भी वे हमारे व्यक्तित्व को परिभाषित करते हैं ।
  • सत्त्व : आध्यात्मिक पवित्रता एवं ज्ञान
  • रज : कर्म (क्रियाशीलता एवं वासना)
  • तम : अज्ञान एवं निष्क्रियता । आज के युग में किसी भी सामान्य व्यक्ति में तमोगुण की मात्रा ५०% तक होती है ।
कृपया संदर्भ लेख पढिए : त्रिगुण (३ मूलभूत सूक्ष्म घटक)
हममें रज और तमोगुण जितनी अधिक मात्रा में होते हैं, उतना हममें निम्नलिखित लक्षण प्रदर्शित होते हैं जो हमारी सूक्ष्मदेह का भार बढाते हैं और यह निर्धारित करते हैं कि मृत्यु के उपरांत हम किस लोकमें जाएंगे ।
  • सांसारिक विषयों के प्रति अत्यधिक आसक्ति और स्वार्थी वृत्ति
  • अधिक अतृप्त इच्छाएं (वासना)
  • प्रतिशोध की भावना
  • अधिक मात्रा में पाप अथवा अनुचित कर्म
  • अधिक स्वभावदोष जैसे – क्रोध, लोभ, भय
  • अधिक अहं : अहं अर्थात अंतरात्मा की अपेक्षा अपनी देह, मन और बुद्धि से तादात्म्य ।
  • परिणामस्वरूप अल्प आध्यात्मिक स्तर
तमोगुण की मात्रा में और ऊपर उल्लेखित संबंधित लक्षणों में स्थायी गिरावट, अध्यात्म के छः मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित साधना से ही संभव है । स्वयं- सहायता पुस्तकों के आधार से मानसिक सुधार अथवा अच्छा व्यवहार करना, ये सतही और अस्थायी उपाय हैं ।

६.१ मृत्यु के समय की मानसिक स्थिति का महत्त्व

ऊपर उल्लेखित घटकों के साथ मृत्यु के समय हमारी मानसिक स्थिति बहुत महत्त्वपूर्ण है । हमारी मानसिक स्थिति साधारणत: हमारे त्रिगुणों की मात्रा पर निर्भर करती है ।
जो व्यक्ति मृत्यु के समय नामजप नहीं कर रहा होता, उसकी तुलना में साधना (उदा. ईश्‍वर का नामजप) करनेवाले पर इच्छाएं, वासना, आसक्ति, भूत आदि का दुष्प्रभाव न्यूनतम होता है । परिणामस्वरूप उसकी सूक्ष्मदेह हलकी होती है । इसलिए मृत्यु के समय नामजप न होने से जो लोक प्राप्त होता है, उसकी तुलना में नामजप होने से उच्च उप- लोक की प्राप्ति होती है । यदि मृत्यु के समय कोई व्यक्ति नामजप कर रहा हो और ईश्‍वर की इच्छा के प्रति समर्पित हो, तो उसे मृत्यु के उपरांत और भी अच्छे लोक की प्राप्ति होती है और उसकी यात्रा विहंगम गति से होती है । क्योंकि वह व्यक्ति भूलोक में (पृथ्वी पर)ही शरणागत भाव में होता है, मृत्यु के उपरांत उसके अहं बढने की आशंका अल्प होती है और उसकी मृत्यु के उपरांत उसके कुशल- मंगल का संपूर्ण दायित्व आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत आध्यात्मिक मार्गदर्शक (गुरु) निभाते हैं ।

६.२ नरक में कौन जाता है ?

सामान्यतः पृथ्वी पर किए गए निम्नलिखित कर्मों के कारण हम नरक में जाते हैं ।
नरक का लोक (पाताल)पाप का प्रतिशतपाप के प्रकार के उदाहरण
पहला४०%किसी एक को हानि पहुंचाने तक सीमित
दूसरा५०%समाज के कुछ भाग को हानि पहुंचाना जैसे बडे स्तर पर कपट से एक साथ कई लोगों को ठगना
तीसरा५५%समाज के बडे भाग को हानि पहुंचाना जैसे दवाईयों अथवा खाद्य पदार्थों में मिलावट करना
चौथा६०%समाज के कुछ भाग को नियोजित ढंग से हानि पहुंचाना आगजनी आदि से संबंधित हिंसा
पांचवा७०%समाज को हानि पहुंचाने के लिए अन्यों को भडकाना
छठा८०%राष्ट्र को अथवा उसके किसी भाग को हानि पहुंचाना
सातवां९०%राष्ट्र को तथा जो समाज के लिए कार्य करते हैं उन्हें हानि पहुंचाना
केवल कर्म नहीं; अपितु कर्म की मात्रा, अवधि और हेतु, ये महत्वपूर्ण घटक निर्धारित करते हैं कि हम कौनसे नरक में जाएंगे ।

७. आत्महत्या और उसके उपरांत का जीवन

समय के आधार पर मृत्यु के दो प्रकार होते हैं ।
प्रारब्धानुसार मृत्यु : यह मृत्युका वह क्षण है जिससे कोई भी बच नहीं सकता ।
संभावित मृत्यु : इस काल में मृत्यु की आशंका रहती है । प्रत्येक व्यक्ति को मृत्यु के निकट होने का यह अनुभव हो सकता है; परंतु उसके पुण्य कर्मों के कारण वह बच जाता है ।
मृत्यु के प्रकारों की अधिक जानकारी के लिए कृपया संदर्भ लेख पढिए – मृत्यु का काल
यदि कोई व्यक्ति ऐसी गंभीर कठिनाइयों को अनुभव कर रहा हो, जिनका कोई हल न हो अथवा तीव्र स्वरूप के स्वभावदोष हो, तो हताशा में वह स्वयं के जीवन को समाप्त करने की सोचता है । अनिष्ट शक्तियां (भूत, प्रेत, पिशाच आदि) आत्मघाती व्यक्ति की निराशा को और भडकाते हैं और कभी- कभार उस व्यक्ति को आत्महत्या करने को उकसाते हैं, तथापि आत्महत्या एक ऐच्छिक क्रिया है जो व्यक्ति के प्रारब्धानुसार संभाव्य मृत्यु के काल में होती है ।
भूलोक में (पृथ्वी पर)मिला जीवन बहुत अमूल्य होता है और प्रधानता से हमारी आध्यात्मिक उन्नति के लिए हमें प्रदान किया जाता है । किसी की हत्या करने से उनके साथ हमारा कार्मिक लेन- देन जुड जाता है; परंतु आत्महत्या कर हम आध्यात्मिक उन्नति के लिए मिला अवसर गंवाकर स्वयं पापार्जन करते हैं । इस पाप की तीव्रता, आत्महत्या की कारक परिस्थितियों के आधार पर भिन्न हो सकती है । सामान्य आत्महत्या में सूक्ष्मदेह भुवर्लोक जाती है; परंतु जीवनकाल में किए पापार्जन और आत्महत्या की परिस्थितियों के आधारपर वह पाताल के निचले लोकों में भी जा सकती है ।
कारणपाप लगनापुण्यटिप्पणी
स्वयं के संदर्भ में
शारीरिक : किसी कोतीव्र वेदना हो अथवा अस्वस्थ हो तथा असहनीय वेदना के कारण इच्छा मृत्यु धारण करेसामान्य आध्यात्मिक स्तर के किसी व्यक्ति को मारने के ३०% के समानकृपया इच्छा मृत्यु लेख पढें- भाग ४.२
मानसिक : तीव्रनिराशा, मानसिक रोगीसामान्य आध्यात्मिक स्तर के किसी व्यक्ति को मारने के ३०% के समान
आध्यात्मिक अनिष्ट शक्तियों के नियंत्रण में रहने के कारण अपने प्राण ले लेनासूक्ष्म देह- मृत्यु के उपरांत भीपूरी तरह से अनिष्ट शक्तियों के प्रभाव में रहती है । केवल तीव्र साधना से ही वह अनिष्ट शक्तियों के नियंत्रण से छूट सकती है
दूसरों के संदर्भ में
दूसरों की निस्वार्थरक्षा के लिए स्वयं का त्याग करनाभिन्नताकिसके लिए त्याग किया उस परआधारित है यदि किसी बुरे व्यक्ति के लिए त्याग किया तो पुण्य नहीं पाप लगता है ।
संतों के प्राण बचानेके लिए स्वयं के प्राण देना१००किसी संत के प्राण बचाने केलिए किया तो उच्च स्तर का पुण्य प्राप्त होता है ।
आत्मघाती बम(स्वयं को तथा अन्यों को मारना )परिवर्तनशीलपरिवर्तनशीलकारण के अनुरूप ।उदाहरण यदि सैनिक को हिटलर को मारना हो एक आत्मघाती लक्ष्य में और विश्व को संकट से छुटकारा दिलाना हो, तो पुण्य प्राप्त होता है । दूसरी तरफ अगर आत्मघाती बम से निर्दोष वयस्क और बच्चों का मारता है तो केवल पाप लगता है ।

८. दो पुनर्जन्मों में समयका अंतर क्यों होता है ?

शोध के समय हिप्नोटिक ट्रांस द्वारा व्यक्ति के गत जन्म की खोज करने पर यह पाया गया है कि पृथ्वी पर दो जन्मों के बीच ५० से ४०० वर्षों का अंतराल हो सकता है । इस अंतराल के कारण इस प्रकार हैं :
  • सूक्ष्मदेह, स्वर्ग में अथवा भुवर्लोक में अपने पाप और पुण्य भुगतने के लिए विभिन्न कालावधि के लिए रहती है ।
  • कर्म- सिद्धांत के अनुसार, अनेक लोगों से पिछले जन्मों के लेन- देन पूर्ण करने के लिए पृथ्वी पर अनुकूल वातावरण होना आवश्यक है । सूक्ष्मदेह का पुनर्जन्म तबतक प्रलंबित रहता है जबतक अन्य जीव भी, जिनसे उसका लेन- देन है, पुनर्जन्म की तैयारी में नहीं लग जाते ।
  • कभी कभी पिछले जीवन के प्रतिगमन की प्रक्रिया में (पास्ट लाइफ रिग्रेशन), सम्मोहित व्यक्तिद्वारा किसी एक जन्म की जानकारी देना रह जाता है । क्योंकि उस जन्म में कोई विशेष घटना नहीं हुई अथवा उस जन्म की अवधि अल्प रही । अतः व्यक्ति को उस जन्म के विवरण का स्मरण नहीं रहता ।
जो सूक्ष्मदेह नरक के गहरे स्तरों में भेज दी जाती हैं, उनके पुनर्जन्म में सहस्रों वर्ष लग सकते हैं । वे नरक के उन स्तरों में उस समयतक रहती हैं, जबतक वे अपना पूरा दंड भुगत नहीं लेतीं । अधिकांश प्रकरणों में इसका अर्थ मृत्यु के उपरांत नरक के लोकों में क्षीण अवस्था में तबतक पडे रहना होता है, जबतक सृष्टि का लय न हो जाए ।

९. मृत्यु के उपरांत का जीवन – सारांश

विभिन्न लोकों की ऊपर दी जानकारी से स्पष्ट होता है कि हम अपना जीवन जिस प्रकार व्यतीत करते हैं, उसके अनुरूप हमें मृत्यु के उपरांत के जीवनमें परिणाम भुगतने पडते हैं । केवल साधना अथवा पुण्यकर्मों की पराकाष्ठा से ही हम उच्च लोकों में जा सकते हैं और दु:ख और दंड से बचकर उच्च श्रेणी का सुख अनुभव कर सकते हैं । पृथ्वी पर पुनर्जन्म लेकर साधना करने के लिए अनुकूल वातावरण पाने की संभावना भी अधिक होती है । यह इसलिए कि व्यक्ति ब्रह्मांड के सूक्ष्म सकारात्मक लोकों में जा सकता है । जैसे जैसे वर्तमान कलियुग (संघर्षका युग) आगे बढता है, वैसे-वैसे लोगोंद्वारा सकारात्मक लोकों में जाने की संभावना घटती जाती है ।
जब हम भुवर्लोक के अथवा पाताल के निचले लोकों में जाते हैं, हम वहीं पर अनेक सदियोंतक तीव्र पीडा सहते हैं, जबतक हम अपने सारे पाप- कर्मों के लिए कठोर दंड भुगतकर पूर्ण नहीं करते और हमें पृथ्वी पर पुनर्जन्म लेने का अवसर नहीं मिलता ।
पृथ्वी पर अध्यात्म के ६ मूलभूत सिद्धांतों के अनुसार निरंतर साधना करना, इस युग में प्रवाह के विपरीत दिशा में तैरने जैसा है; तथापि यह मृत्यु के उपरांत के जीवन में, उत्तरोत्तर सकारात्मक लोकों की ओर बढने का निश्‍चित मार्ग है ।

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