Wednesday, 28 December 2016

"जीवन में हम कितना कमाते हैं, या फिर, क्या कमाने में हम अपना जीवन बीताते हैं इन दोनों में अधिक महत्वपूर्ण क्या होना चाहिए, आप ही बताएं ?
जब तक जीवन को क्या कमाना चाहिए इसी का बोध न हो तो जीवन अपने प्रयास से चाहे जितना भी कमा ले क्या फर्क पड़ता है।
सुखद जीवन सफलता का पर्याय भले हो सकता है पर आवश्यक नहीं की हर सफल जीवन सार्थक भी हो; अपने प्रयास से समय द्वारा परिस्थितियों के सन्दर्भ में अपनी उपयोगिता सिद्ध कर ही न केवल जीवन अपने लिए महत्व अर्जित कर सकता है बल्कि यही सही अर्थों में जीवन रूपी अवसर की उपलब्धि भी होगी।
परिस्थितियों के सन्दर्भ में किसी भी पात्र की भूमिका ही उसे महत्वपूर्ण बनाती है, ऐसे में, वर्त्तमान के राष्ट्रीय सन्दर्भ में एक सभ्य और शिक्षित समाज के रूप में हमारी क्या भूमिका होनी चाहिए, आप ही बताएं !
अगर हम सभ्य और शिक्षित न रहे हों तो अलग बात है, फिर, व्यक्तिगत प्राथमिकताओं का महत्व हमारे सामाजिक दायित्व और राष्ट्रीय कर्तव्यों से अधिक हो सकता है ; समझ की सीमित परिधि के प्रभाव में जब समाज के लोगों के लिए उनका स्वार्थ ही समस्या बन जाए तो समाज में कुव्यवस्था और राष्ट्र के भविष्य के सन्दर्भ में अनिश्चितता स्वाभाविक है।
ऐसे में, हमें यह नहीं भूलना चाहिए की आज वो सभी कारन जो हमारी प्राथमिकताओं की सूचि में समाज के प्रति हमारे नैतिक कर्तव्यों और राष्ट्र के प्रति हमारे दायित्व से अधिक महत्वपूर्ण है, उनका अस्तित्व भी हमारे राष्ट्र के अस्तित्व पर ही निर्भर करता है। इसलिए अगर हम एक अच्छे नागरिक न बन सके तो हमारी व्यक्तिगत सफलता भी निरर्थक सिद्ध होगी; विश्व में आज ऐसे कई उदाहरण हैं जो राष्ट्र के रूप में उपर्युक्त तथ्य को सत्यापित करते हैं।
जनतंत्र में सामाजिक व्यवस्था चुनने का अधिकार जनता का होता है और अगर हम एक राष्ट्र के रूप में अपने लिए एक योग्य नेता का चयन भी न कर सकें तो राष्ट्र के लिए भला और क्या कर सकेंगे; केवल अपने पैसों के लिए कतार में खड़े होकर हो सकता है आज राष्ट्रभक्ति प्रदर्शित की जा सकती है पर यह निश्चित रूप से पर्याप्त नहीं होगा; हमें अपने राष्ट्र के विषय में सोचना पड़ेगा।
किसी भी निष्कर्ष के सही होने के लिए परिस्थितियों द्वारा उत्पन्न तथ्यों का अध्यन निर्णायक होगा, केवल प्रचारित जानकारियों पर आधारित निष्कर्ष सही नहीं होगा। हमें अपने ध्यान को समस्याओं के प्रभाव तक सीमित न रखकर उसके मूल कारन के विषय में सोचना पड़ेगा, तभी, परिस्थितियों में परिवर्तन और व्यवस्था में सुधार संभव है।
सामाजिक समस्याओं से निवृत होने के नाम पर जब तक शाशन तंत्र अपनी शक्तियों का प्रयोग राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि के लिए करती रहेगी, समाज का भला हो ही नहीं सकता, ऐसा इसलिए क्योंकि राजनीतिक विरोधी हों या पक्षधर, आखिर हैं तो उसी समाज का अंग जिसे व्यवस्था प्रदान करने के लिए जनता ने सरकार चुनी है, ऐसे में, शाशन तंत्र के लिए राजनीति और राजनीतिक विरोधियों का महत्व अगर सामाजिक आवश्यकताओं से अधिक होगा, तो स्वाभाविकतः उसके प्राथमिकताओं की यह त्रुटि उसके प्रयास के परिणाम में भी प्रतिबिंबित होगी;
राजनीति का गिरता स्तर या सरकार की भ्रमित प्राथमिकताएं और प्रयास की गलत दिशा...यह सब आखिरकार नेतृत्व की त्रुटियों को ही सिद्ध करता उदाहरण है जिसे न तो विकास की सही समझ है और न ही सामाजिक समस्याओं का वास्तविक बोध, ऐसे में, प्रयास के नाम पर देश में कोई भी राजनीतिक प्रयोग करने से बेहतर क्या यह नहीं होगा की विचारधारा का व्यावहारिक प्रयोग किया जाए।
आज कारन भी है और आवश्यकता भी, ऐसे में, क्यों नहीं नेतृत्व परिवर्तन कर राजनीती द्वारा समाज में प्रचारित व् पोषित मिथ्या आकांक्षाओं को नगण्य और संभावनाओं को असीम बनाने का प्रयास किया जाए;
जनतंत्र समाज के लिए है.. समाज जनतंत्र के लिए नहीं, ऐसे में, अगर समाज का बहुमत अपना वैचारिक स्तर खो दे तो क्या उनके निर्णय की गलती देश को भुगतने देना चाहिए, कारन कई हैं और पर्याप्त भी, ऐसे में, क्या समाज के संगठित शक्ति का ऐसी परिस्थिति में कोई नैतिक कर्त्तव्य नहीं बनता? नेतृत्व की त्रुटियों के दोष से समाज की संगठित शक्ति भी बच नहीं सकती .. वो भी तब... जब सत्ताधारी राजनीतिक दल को उसी ने अपने गर्भ से जन्म दिया हो, तो क्यों न अपने दायित्व को स्वीकार करते हुए वो किया जाए जिसकी आवश्यकता है।
नेतृत्व परिवर्तन ही समय की आवश्यकता है पर जब तक हम विकल्पों के आधार पर नेतृत्व का निर्णय करने का प्रयास करेंगे, परिवर्तन ही समस्या बन जायेगी; क्यों न समय की आवश्यकता के आधार पर नेतृत्व का निर्धारण करें ; निर्णय का अधिकार चाहे जिसका हो।
अवसर को व्यर्थ करने से क्या लाभ, क्यों न उसकी उपयोगिता सिद्ध की जाए; इस विषय में आप क्या कहते हैं?"

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