Friday, 16 December 2016

"हर वह व्यक्ति जो धन की दृष्टि से सुखी और संपन्न हो, आवश्यक नहीं की संतुष्ट भी होगा और हर वह व्यक्ति जो संतुष्ट हो, आवश्यक नहीं की धन की दृष्टि से सुखी और संपन्न होगा। ऐसे में, प्रश्न यह है की हम महत्वपूर्ण किसे मानते हैं, सम्पन्नता के सुख को या जीवन की संतुष्टि को।
सुख प्राप्ति में निहित है और संतुष्टि देने में, और इसलिए, जीवन अपने उद्देश्य के रूप में किसे चुनता है यह विषय ही जीवन की सफलता और सार्थकता का अंतर होता है।
जीवन ही क्षणिक है तो स्वाभाविक है की जीवन के सुख भी स्थाई नहीं हो सकते, इसलिए, अगर यह कहा जाए की जीवन रूपी अवसर का औचित्य एक सुखद, संपन्न और 'तथाकथित' सुरक्षित जीवन का आश्वासन तो हो ही नहीं सकता, ऐसे में, स्वाभाविक प्रश्न यह उठता है की जीवन रूपी अवसर का वास्तविक उद्देश्य आखिर है क्या ?
व्यक्तिगत विशिष्टता का प्रयोग के माध्यम से उपयोगिता सिद्ध करने के प्रयास की तृप्ति ही जीवन रूपी अवसर का उद्देश्य है। चूँकि, व्यक्तिगत प्रतिभा के प्रयोग के विषय के निर्धारण का अधिकार विवेक के पास होता है, इसलिए, विवेक के विकास के आभाव में किसी भी व्यक्ति के लिए जीवन के क्रम में संतुष्टि की प्राप्ति कठिन होगी।
प्रयास के लिए जीवन क्या विषय चुनता है यह जीवन के निष्कर्ष की दृष्टि से निर्णायक होगा; चुनौतियों के संघर्ष से डर कर अगर हम परिस्थितियों के अनुकूल अभ्यस्त होने के आदि होते गए तो आश्चर्य नहीं अगर हम परिस्थितियों को परिवर्तित कर पाने का साहस, आत्मविश्वास और पुरषार्थ ही खो दें।
प्रयास के सही विषय को चुनने की दृष्टि से व्यक्तिगत रूचि महत्वपूर्ण होगी, ऐसा इसलिए क्योंकि रूचि द्वारा प्रेरित प्रदर्शन सदैव ही बाध्यता द्वारा शासित प्रयास से अधिक प्रभावशाली सिद्ध होता है, फिर कार्यक्षेत्र चाहे जो हो।
रूचि महत्वपूर्ण विषय को रोचक बनाकर व्यक्तिगत प्रतिभा के साथ न्याय करती है। परीक्षा की प्रक्रिया द्वारा प्रतिभा का विकास कर उसमें संघर्ष के प्रति उचित मनोवृति विकसित कर ही हम सफलता सुनिश्चित कर सकेंगे, फिर प्रयास का स्तर चाहे व्यक्तिगत हो या राष्ट्रीय।
हमें समाज द्वारा मान्य व् स्वीकृत सफलता के मापदंडों को पुनर्परिभाषित करने की आवश्यकता होगी ताकि जीवन सही अर्थों में अपनी सार्थकता सिद्ध कर सके।
हमें सफल होने के लिए किसी और के जैसा बनने की आवश्यकता नहीं, हमारी विशिष्टता में ही हमारी सफलता और सार्थकता निहित है; इसलिए, हमें अपने जैसा बनने की कोशिश करना होगा और यह तभी संभव है जब हम अपनी वास्तविकता को स्वीकार करेंगे तभी हम अपनी विशिष्टता जी सकेंगे।
भारत विशिष्ट है और इसकी विशेषता इसके मानव संसाधन में है, ऐसे में, क्या मानव संसाधन के विकास की अपेक्षा कर हम विदेशी निवेश के भरोसे अपने राष्ट्र को विकसित कर सकेंगे ? ऐसा प्रयास कितना सार्थक होगा ?
जब राष्ट्रीय स्तर पर विकास की समाज और प्रयास की दिशा गलत हो तो क्या हम केवल इसलिए मूकदर्शक बनें रह सकते हैं क्योंकि हम एक राजनैतिक संगठन नहीं? क्या राजनीतिक स्वार्थ आज राष्ट्रहित से इतना बड़ा हो गया है की समाज की संगठित शक्ति को बाध्य व् किंकर्तव्यविमूढ़ बनाये रख सके ?
जो शक्ति समय की आवश्यकता पड़ने पर अपने प्रभाव व् उद्देश्य को सिद्ध न कर सके, वह भला किस काम का ; क्या हम भविष्य के इस लांछन के पात्र बनने को तैयार हैं की जब हमारे प्रयास से देश को नयी संभावनाएं प्रदान कर सकते थे, हम केवल इसलिए कुछ न कर सके क्योंकि हमने अनुभव की गलतियों द्वारा शाषित होने का निर्णय लिया।
अगर देश के विकास की समझ और प्रयास की दिशा को सही करने के लिए नेतृत्व परिवर्तन ही एक मात्र विकल्प है तो वही सही, इस विषय में आपकी क्या राय है?"

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