Monday 2 May 2016


हिन्दुत्व के इस अडिग स्तम्भ को अश्रुपूरित नमन एवं श्रद्धांजली 
कश्मीर के महाराजा हरिसिंह दिल्ली की सत्ता पर बैठे रंगीन मिजाज नेहरु से सैनिक सहायता की आस लगाते रहे शेख अब्दुल्ला के हित के लिए नपुंसक बन कर बैठे रहे ,,तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरूजी के प्रयासों से कश्मीर का भारत में विलय हुआ,,,भारत की सेनायें पहुँची----उस समय कश्मीर में बलराज मधोक संघ के प्रचारक थे !!!ये उनका कुशल नेतृत्व और अदम्य साहस और प्रयास था की सैकड़ों किशोर --तरुण स्वयंसेवक भारतीय सेना के साथ कंधे से कंधे मिला कर पाकिस्तानी सेना से लडे--कालान्तर में-सत्ता के लालच में अनेक हिन्दुत्वादी बिक गए गद्दार हो गए -- बलराज मधोक एक फौलादी चट्टान की तरह कभी हिंदुत्व के पथ से विचलित नहीं हुए 
आज उनकी मृत्यु के साथ हिंदुत्व का एक ऐसा दीपक बुझ गया हैजिसने महाराणा प्रताप की तरह अपमान और उपेक्षा के जंगल जंगल भटकना और अपमान व् तिरस्कार की घास की रोटियाँ खाना स्वीकारा किया लेकिन जीवन की अंतिम सांस तक हिंदुत्व से समझौता करना नहीं स्वीकारा !*हिंदुत्व के इस अखंड योद्धा को --अश्रुपूरित श्रद्धांजली

मधोक के लिए राजनीती एक मिशन था। वे सिद्दान्तवादी थे। उन्होंने secularism के विमर्श में अपना मौलिक योगदान दिया जिसने विरोधियों को भी उसे समझने के लिए मजबूर किया। उनकी पुस्तक 'Indianisation' (भारतीयकरण) एक महतवपूर्ण हस्तक्षेप रहा है।
 वे अल्पसंख्य्क -बहुसंख्यक टकराव का समाधान भारत के अल्पसंखयकों के भारतीयकरण में देखते थे। उनका स्व डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी से मधुर संबंध था।" Portrait of a Martyr" उनके द्वारा डॉ मुखर्जी पर लिखी गई सबसे प्रमाणिक biographies में एक है   बलराज मधोक जी लम्बे समय से राजनीति एवं सार्वजनिक जीवन में सक्रिय नहीं थे परन्तु अपने जीवनकाल में किये गए योगदान ने उन्हें भारतीय राजनीति मेंlegendary figure बन दिया है । 
अपने जीवन के चरम काल में उन्होंने सिद्धांत और राजनीति दोनों में भरपूर योगदान किया है। भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्य थे और वे इसके अध्यक्ष दायितव भी निभा चुके हैं। कश्मीर में पाकिस्तानी आक्रमण के समय उन्होंने उसका शस्त्र प्रतिकार करने में संघ के स्वयंसेवक के रूप में अद्वितीय भूमिका निभायी थी।कश्मीर के राजा हरि सिंह और प्रजा परिषद के नेता प्रेमनाथ डोगरा से उनके अच्छा और भावनात्मक संबंध था। बाद में प्रजा परिषद का जनसंघ में विलय हो गया।

कश्मीर के मामले में वे एक अधिकृत जानकार थे। उनके भाषणो में तथ्य और तीखापन का स्वाद मिलता था। 60 के दशक में Indian Politics में वैचारिक ध्रूवीकरण तेज हो गया. तब दीनदयाल उपाधयाय जी जनसंघ के सबसे प्रमाणिक और प्रभावी प्रवक्ता बनकर संगठन को दिशा दे रहे थे। उन्होंने Left -Right विभाजन को भारतीय परिवेश के प्रतिकूल माना और जनसंघ को दक्षिणपंथी बनाने के प्रयास को विफल कर दिया।वे समानतावाद के घोर समर्थक थे।इसने जनसंघ कोव्यापक स्वीकृति दी। उसी वक्त स्वतंत्र पार्टी जो विचारों से पूर्ण रूप से दक्षिणपंथी थी और जिसे पूर्व जमींदारों और नव धनाढ्यों का समर्थन प्राप्त था , जनसंघ के साथ विलय चाहती थी। दीनदयाल जी ने इस विलय को रोका। मधोक इस विलय के समर्थक थे। उन्होंने केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों के हरताल को भी स्वतंत्र पार्टी के नेता मिन्नू मसानी के साथ मिलकर चुनौती दी थी। यह वैचारिक टकराव का कारण बना और 1973 में बलराज जी जनसंघ से अलग हो गए। परन्तु संघ के मौलिक के मौलिक विचारों पर वे अंत तक बने रहे। बाद में उन्होंने भारतीय जनसंघ को पुनर्जीवित करने का भी प्रयास किया। भारतीय राजनीति के इस पुरोधा का जाना शोक का वक्त है। 






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