Saturday 25 February 2017

अमेरिका, फिनलैण्ड, सोवियत गणराज्य, चीन एवं मंगोलिया, तिब्बत, जापान, ईरान, तुर्किस्तान, इटली, एबीसिनिया, इथोपिया, अफगानिस्तान, नेपाल, पाकिस्तान आदि विभिन्न देशों में किसी न किसी रूप में वर्तमानकाल में जैनधर्म के सिद्धांतों का पालन देखा जा सकता है। उनकी संस्कृति एवं सभ्यता पर इस धर्म का प्रभाव परिलक्षित होता है। इन देशों में मध्यकाल में आवागमन के साधनों का अभाव एक-दूसरे की भाषा से अपरिचित रहने के कारण, रहन-सहन, खानपान में कुछ-कुछ भिन्नता आने के कारण हम एक-दूसरे से दूर हटते ही गये और अपने प्राचीन संबंधों को सब भूल गये।
अमेरिका में लगभग २००० ईसापूर्व में संघपति जैन आचार्य ‘क्वाजन कोटल’ के नेतृत्व में श्रवण साधु अमेरिका पहुँचे और तत्पश्चात् सैकड़ों वर्षों तक श्रमण अमेरिका में जाकर बसते रहे। अमेरिका में आज भी अनेक स्थलों पर जैन धर्म श्रमण-संस्कृति का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। वहाँ जैन मंदिर के खण्डहर, प्रचुरता में पाये जाते हैं।
कतिपय हस्तलिखित ग्रंथों में महत्वपूर्ण प्रमाण मिले हैं कि अफगानिस्तान, ईरान, ईराक, टर्की आदि देशों तथा सोवियत संघ के जीवन-सागर एवं ओब की खाड़ी से भी उत्तर तक तथा जाटविया से उल्लई के पश्चिमी छोर तक, किसी काल में जैनधर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार था। इन प्रदेशों में अनेक जैन-मंदिरों, जैन-तीर्थंकरों की विशाल मूर्तियों, धर्मशास्त्रों तथा जैन-मुनियों की विद्यमानता का उल्लेख मिलता है।
चीन में जैन धर्म
चीन की संस्कृति पर जैन-संस्कृति का व्यापक प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। चीन में भगवान ऋषभदेव के एक पुत्र का शासन था। जैन-संघों ने चीन में अहिंसा का व्यापक प्रचार-प्रसार किया था। अति प्राचीनकाल में भी श्रमण-सन्यासी यहाँ विहार करते थे। हिमालय क्षेत्र आविस्थान कोदिया और कैस्पियाना तक पहले ही श्रमण-संस्कृति का प्रचार-प्रसार हो चुका था।
चीन और मंगोलिया में एक समय जैनधर्म का व्यापक प्रचार था। मंगोलिया के भूगर्भ से अनेक जैन-स्मारक निकले हैं तथा कई खण्डित जैन-मूतियाँ और जैन-मंदिरों के तोरण मिले हैं, जिनका आँखों देखा पुरातात्विक विवरण ‘बम्बई समाचार’ (गुजराती) के ४ अगस्त सन् १९३४ के अंक में निकला थीं।
यात्रा-विवरणों के अनुसार सिरगम देश और ढाकुल की प्रजा और राजा सब जैन धर्मानुयायी थे। तातार-तिब्बत, कोरिया, महाचीन, खासचीन आदि में सैकड़ों विद्या-मंदिर हैं। इस क्षेत्र में आठ तरह के जैनी हैं। चीन में ‘तलावारे’ जाति के जैनी हैं। महाचीन में ‘जांगड़ा’ जाति के जैनी थे।
चीन के जिगरम देश ढाकुल नगर में राजा और प्रजा सब जैन-धर्मानुयायी थे। पीकिंग नगर में ‘तुबाबारे’ जाति के जैनियों के ३०० मंदिर हैं, सब मंदिर शिखरबंद हैं। इनमें जैन-प्रतिमायें खड्गासन व पद्मासनमुद्रा में विराजमान है। यहाँ जैनियों के पास जो आगम है, वे ‘चीन्डी लिपि’ में हैं। कोरिया में भी जैनधर्म का प्रचार रहा है। यहाँ ‘सोवावारे’ जाति के जैनी हैं।
‘तातार’ देश में ‘जैनधर्मसागर नगर’ में जैन मंदिर ‘यातके’ तथा ‘घघेरवाल’ जातियों के जैनी हैं। इनकी प्रतिमाओं का आकार साढे तीन गज ऊँचा और डेढ़ गज चौड़ा है।
‘मुंगार’ देश में जैनधर्म है, यहाँ ‘बाधामा’ जाति के जैनी हैं। इस नगर में जैनियों के ८००० घर हैं तथा २००० बहुत सुंदर जैन मंदिर हैं।
तिब्बत और जैनधर्म
तिब्बत में जैनी ‘आवरे’ जाति के हैं। एरूल नगर में एक नदी के किनारे बीस हजार जैन-मंदिर हैं। तिब्बत में सोहना-जाति के जैन भी हैं। खिलवन नगर में १०४ शिखर बंद जैन मंदिर हैं। वे सब मंदिर रत्न जटिल और मनोरम हैं। यहाँ के वनों में तीस हजार जैन मंदिर हैं। दक्षिण तिब्बत के हनुवर देश में दस-पंद्रह कोस पर जैनियों के अनेक नगर हैं, जिनमें बहुत से जैन मंदिर हैं। हनुवर देश के राजा-प्रजा सब जैनी हैं।
यूनान और भारत में समुद्री सम्पर्वâ था। यूनानी लेखकों के अनुसार जब सिकन्दर भारत से यूनान लौटा था, तब तक्षशिला में एक जैन मुनि ‘कोलानस’ या ‘कल्याण मुनि’ उनके साथ यूनान गये, और अनेक वर्षों तक वे एथेन्स नगर में रहे। उन्होंने एथेन्स में सल्लेखना ली। उनका समाधि स्थान यहीं पर हैं।
जापान में जैनधर्म
जापान में प्राचीनकाल में जैन-संस्कृति का व्यापक प्रचार था, तथा स्थान-स्थान पर श्रमण संघ स्थापित थे। उनका भारत के साथ निरंतर सम्पर्क बना रहता था। बाद में भारत से संपर्क दूर हो जाने पर इन जैन श्रमण साधुओं ने बौद्धधर्म से संबंध स्थापित कर लिया। चीन और जापान में ये लोग आज भी जैन-बौद्ध कहलाते हैं।
मध्य एशिया जैनधर्म
मध्य एशिया और दक्षिण एशिया में लेनिनग्राड स्थित पुरातत्व संस्थान के प्रोफेसर ‘यूरि जेडनेयोहस्की’ ने २० जून सन् १९६७ को दिल्ली में एक पत्रकार सम्मेलन में कहा था कि ‘‘भारत और मध्य एशिया के बीच संबंध लगभग एक लाख वर्ष पुराना है। अत: यह स्वाभाविक है कि जैनधर्म मध्य एशिया में फैला हुआ था।’’
प्रसिद्ध प्रसीसी इतिहासवेत्ता श्री जे.ए. दुबे ने लिखा है कि आक्सियाना कैस्मिया, बल्ख ओर समरकंद नगर जैनधर्म के आरंभिक केन्द्र थे। सोवियत आर्मीनिया में नेशवनी नामक प्राचीन नगर हैं। प्रोफेसर एम.एस. रामस्वामी आयंगर के अनुसार जैन मुनि संत ग्रीस, रोम, नार्वे में भी विहार करते थे। श्री जान लिंगटन आर्किटेक्ट एवं लेखक नार्वे के अनुसार नार्वे म्यूजियम में ऋषभदेव की मूर्तियाँ हैं। वे नग्न और खड्गासन हैं। तर्जिकिस्तान में सराज्य के पुरातात्विक उत्खनन में प्राप्त पंचमार्क सिक्कों तथा सीलों पर नग्न मुद्रायें बनीं हैं। जो कि सिंधु घाटी सभ्यता के सदृश हैं। हंगरी के ‘बुडापेस्ट’ नगर में ऋषभदेव की मूर्ति एवं भगवान महावीर की मूर्ति भूगर्भ से मिली हैं।
ईसा से पूर्व ईराक, ईरान और फिलिस्तीन में जैन मुनि और बौद्ध भिक्षु हजारों की संख्या में चहुं ओर फैले थे, पश्चिमी एशिया, मिर, यूनान और इथियोपिया के पहाड़ों और जंगलों में उन दिनों अगणित श्रमण-साधु रहते थे, जो अपने त्याग और विद्या के लिए प्रसिद्ध थे। ये साधु नग्न थे। वानक्रेपर के अनुसार मध्य-पूर्व में प्रचलित समानिया सम्प्रदाय श्रमण का अपभ्रंश है। यूनानी लेखक मिस्र एचीसीनिया और इथियोपिया में दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व बताते हैं।
प्रसिद्ध इतिहास-लेखक मेजर जनरल जे.जी. आर फर्लांग ने लिखा है कि अरस्तू ने ईसवी सन् से ३३० वर्ष पहले कहा है, कि प्राचीन यहूदी वास्तव में भारतीय इक्ष्वाकु-वंशी जैन थे, जो जुदिया में रहने के कारण ‘यहूदी’ कहलाने लगे थे। इस प्रकार यहूदीधर्म का स्रोत भी जैनधर्म प्रतीत होता है। इतिहासकारों के अनुसार तुर्किस्तान में भारतीय-सभ्यता के अनेकानेक चिन्ह मिले हैं। इस्तानबुल नगर से ५७० कोस की दूरी पर स्थित तारा तम्बोल नामक विशाल व्यापारिक नगर में बड़े-बड़े विशाल जैन मंदिर उपाश्रय, लाखों की संख्या में जैन धर्मानुयायी चतुर्विध संघ तथा संघपति जैनाचार्य अपने शिष्यों-प्रशिष्यों के साथ विद्यमान थे। आचार्य का नाम उदयप्रभ सूरि था। वहाँ का राजा और सारी प्रजा जैन धर्मानुयायी थी।
प्रसिद्ध जर्मन-विद्वान वानक्रूर के अनुसार मध्य पूर्व एशिया प्रचलित समानिया सम्प्रदाय श्रमण जैन-सम्प्रदाय था। विद्वान जी.एफ कार ने लिखा है कि ईसा की जन्मशती के पूर्व मध्य एशिया ईराक, डबरान और फिलिस्तीन, तुर्कीस्तान आदि में जैन मुनि हजारों की संख्या में फैलकर अहिंसा धर्म का प्रचार करते रहे। पश्चिमी एशिया, मिस्र, यूनान और इथियोपिया के जंगलों में अगणित जैन-साधु रहते थे।
मिस्र के दक्षिण भाग के भू-भाग को राक्षस्तान कहते हैं। इन राक्षसों को जैन-पुराणों में विद्याधर कहा गया है। ये जैन धर्म के अनुयायी थे। उस समय यह भू भाग सूडान, एबीसिनिया और इथियोपिया कहलाता था। यह सारा क्षेत्र जैनधर्म का क्षेत्र था।
मिस्र (एजिप्ट) की प्राचीन राजधानी पैविक्स एवं मिस्र की विशिष्ट पहाड़ी पर मुसाफिर लेखराम ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘कुलपति आर्य मुसाफिर’ में इस बात की पुष्टि की है कि उसने वहाँ ऐसी मूर्तियाँ देखी है, जो जैन तीर्थ गिरनार की मूर्तियों से मिलती जुलती है।
प्राचीन काल से ही भारतीय
मिस्र, मध्य एशिया, यूनान आदि देशों से व्यापार करते थे, तथा अपने व्यापार के प्रसंग में वे उन देशों में जाकर बस गये थे। बोलान के अनेक जैन मंदिरों का निर्माण हुआ। पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत (उच्चनगर) में भी जैनधर्म का बड़ा प्रभाव था। उच्चनगर का जैनों से अतिप्राचीनकाल से संबंध चला आ रहा है तथा तक्षशिला के समान ही वह जैनों का केन्द्र-स्थल रहा है। तक्षशिला, पुण्डवर्धन, उच्चनगर आदि प्राचीन काल में बड़े ही महत्वपूर्ण नगर रहे हैं, इन अतिप्राचीन नगरों में भगवान ऋषभदेव के काल से ही हजारों की संख्या में जैन परिवार आबाद थे। घोलक के वीर धवल के महामंत्री वस्तुपाल ने विक्रम सं. १२७५ से १३०३ तक जैनधर्म के व्यापक प्रसार के लिए योगदान किया था। इन लोगों ने भारत और बाहर के विभिन्न पर्वत शिखरों पर सुन्दर जैन मंदिरों का निर्माण कराया, और उनका जीर्णोद्धार कराया एवं सिंध (पाकिस्तान), पंजाब, मुल्तान, गांधार, कश्मीर, सिंधुसोवीर आदि जनपदों में उन्होंने जैन मंदिरों, तीर्थों आदि का नव निर्माण कराया था, कम्बोज (पामीर) जनपद में जैनधर्म पेशावर से उत्तर की ओर स्थित था। यहाँ पर जैनधर्म की महती प्रभावना और जनपद में बिहार करने वाले श्रमण-संघ कम्बोज, याकम्बेडिग गच्छ के नाम से प्रसिद्ध थे। गांधार गच्छ और कम्बोज गच्छ सातवीं शताब्दी तक विद्यामान थे। तक्षशिला के उजड़ जाने के समय तक्षशिला में बहुत से जैन मंदिर और स्तूप विद्यमान थे।
अरबिया में जैनधर्म इस्लाम के फैलने पर अरबिया स्थित आदिनाथ नेमिनाथ और बाहुबली के मंदिर और अनेक मूर्तियाँ नष्ट हो गई थीं। अरबिया स्थित पोदनपुर जैनधर्म का गढ था, और यह वहाँ की राजधानी थी। वहाँ बाहुबली की उत्तुंग प्रतिमा विद्यमान थी।
ऋषभदेव को अरबिया में ‘‘बाबा आदम’’ कहा जाता है। मौर्य सम्राट सम्प्रति के शासनकाल में वहाँ और फारस में जैन संस्कृति का व्यापक प्रचार हुआ था, तथा वहाँ अनेक बस्तियाँ विद्यमान थी।
मक्का में इस्लाम की स्थापना के पूर्व वहाँ जैनधर्म का व्यापक प्रचार प्रसार था। वहाँ पर अनेक जैन मंदिर विद्यमान थे। इस्लाम का प्रचार होने पर जैन मूर्तियाँ तोड़ दी गई, और मंदिरों को मस्जिद बना दिया गया। इस समय वहाँ जो मस्जिदें हैं, उनकी बनावट जैन मंदिरों के अनुरूप है। इस बात की पुष्टि जैम्सफग्र्यूसन ने अपनी ‘विश्व की दृष्टि’ नामक प्रसिद्ध पुस्तक के पृष्ठ २६ पर की है। मध्यकाल में भी जैन दार्शनिकों के अनेक संघ बगदाद और मध्य एशिया गये थे, और वहाँ पर अहिंसा धर्म का प्रचार किया था।
यूनानियों के धार्मिक इतिहास से भी ज्ञात होता है, कि उनके देश में जैन सिद्धांत प्रचलित थे। पाइथागोरस, पायरों, प्लोटीन आदि महापुरूष श्रमणधर्म और श्रमण दर्शन के मुख्य प्रतिपादक थे। एथेन्स में दिगम्बर जैन संत श्रमणाचार्य का चैत्य विद्यमान है, जिससे प्रकट है कि यूनान में जैनधर्म का व्यापक प्रसार था। प्रोफेसर रामस्वामी ने कहा था कि बौद्ध और जैन श्रमण अपने-अपने धर्मों के प्रचारार्थ यूनान रोमानिया और नार्वें तक गये थे। नार्वे के अनेक परिवार आज भी जैन धर्म का पालन करते हैं। आस्ट्रिया और हंगरी में भूकम्प के कारण भूमि में से बुडापेस्ट नगर के एक बगीचे से महावीर स्वामी की एक प्राचीन मूर्ति हस्तगत हुई थी। अत: यह स्वत: सिद्ध है कि वहाँ जैन श्रावकों की अच्छी बस्ती थी।
सीरियां में निर्जनवासी श्रमण सन्यासियों के संघ और आश्रम स्थापित थे। ईसा ने भी भारत आकर संयास और जैन तथा भारतीय दर्शनों का अध्ययन किया था। ईसा मसीह ने बाइबिल में जो अहिंसा का उपदेश दिया था, वह जैन संस्कृति और जैन सिद्धांत के अनुरूप है।
स्केडिनेविया में जैन धर्म के बारे में कर्नल टाड अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘राजस्थान’ में लिखते हैं कि ‘‘मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल में चार बुद्ध या मेधावी महापुरुष हुये हैं। इनमें पहले आदिनाथ और दूसरे नेमिनाथ थे। ये नेमिनाथ की स्केडिनेविया निवासियों के प्रथम औडन तथा चीनियों के प्रथम ‘फे’ नामक देवता थे। डॉ. प्राणनाथ विद्यालंकार के अनुसार सुमेर जाति में उत्पन्न बाबुल के सिल्दियन सम्राट नेबुचंद नेजर ने द्वारका जाकर ईसा पूर्व ११४० में लगभग नेमिनाथ का एक मंदिर बनवाया था। सौराष्ट में इसी सम्राट नेबुचंद नेजर का एक ताम्र पत्र प्राप्त हुआ है।’’ कोश्पिया में जैनधर्म मध्य एशिया में बलख क्रिया मिशी, माकेश्मिया, उसके बाद मासवों नगरों अमन, समरवंâद आदि में जैनधर्म प्रचलित था, इसका उल्लेख ईसापूर्व पांचवीं, छठी शती में यूनानी इतिहास में किया गया था। अत: यह बिल्कुल संभव है कि जैनधर्म का प्रचार केश्पिया, रूकाबिया और समरवंâद बोक आदि नगरों में रहा था।
ब्रह्मदेश (वर्मा) में जैनधर्म
शास्त्रों में ब्रह्मदेश को स्वर्णद्वीप कहा गया है। जनमत प्रसिद्ध जैनाचार्य कालकाचार्य और उसके शिष्य गया स्वर्णद्वीप में निवास करते थे, वहाँ से उन्होंने आसपास के दक्षिण-पूर्व एशिया के अनेक देशों में जैनधर्म का प्रचार किया था। थाइलैण्ड स्थित नागबुद्ध की नागफणवाली प्रतिमायें पाश्र्वनाथ की प्रतिमायें हैं।
श्रीलंका में जैनधर्म
भारत और लंका (सिंहलद्वीप) के युगों पुराने सांस्कृतिक संबंध रहे हैं। सिंहलद्वीप में प्राचीनकाल में जैनधर्म का प्रचार था। मंदिर, मठ, स्मारक विद्यमान थे, जो बाद में बौद्ध संघाराम बना लिये गये।
सम्पूर्ण सिंहलद्वीप के जन-जीवन पर जैन संस्कृति की स्पष्ट छाप दृष्टिगोचर होती है। जैन मुनि यश:कीर्ति ने ईसाकाल की प्रारंभिक शताब्दियों में सिंहलद्वीप जाकर जैनधर्म का प्रचार किया था। श्री लंका में जैन-श्रावकों और साधुओं के स्थान-स्थान पर चौबीसों जैन तीर्थंकरों के भव्य मंदिर बनवाये। सुप्रसिद्ध पुरातत्वविद् फग्र्यूसन ने लिखा है कि कुछ यूरोपियन लोगों ने श्रीलंका में सात ओर तीन फणों वाली मूर्तियों के चित्र लिये। ये सात फण पाश्र्वनाथ की मूर्तियों पर और तीन फण उनके शासनदेव-धरणेन्द्र और शासनदेवी पद्मावती की मूर्ति पर बनाये जाते हैं। भारत के सुप्रसिद्ध इतिहासवेत्ता श्री पी.सी. राय चौधरी ने श्रीलंका में जैनधर्म के विषय में विस्तार से शोध-खोज की है।
तिब्बत देश में जैनधर्म
तिब्बत के हिमिन मठ में रूसी पर्यटक नोटोबिच ने पालीभाषा का एक ग्रंथ प्राप्त किया था, उसमें स्पष्ट लिखा है कि ‘‘ईसा ने भारत तथा मौर्य देश जकार वहाँ अज्ञातवास किया था, और वहाँ उन्होंने जैन-साधुओं के साथ साक्षात्कार किया था।’’ हिमालय क्षेत्र के निवासित वर्तमान हिमरी जाति के पूर्वज तथा गढ़वाल और तराई के क्षेत्र में पूर्वज जैनों हेतु प्रयुक्त ‘हिमरी’ शब्द ‘दिगम्बरी’ शब्द का अपभ्रंशरूप है। जैन-तीर्थ अष्टापद (कैलाश पर्वत) हिम-प्रदेश के नाम से विख्यात है, जो हिमालय-पर्वत के बीच शिखरमाल में स्थित है, और तिब्बत में है, जहाँ आदिनाथ भगवान की निर्वाण भूमि है।
अफगानिस्तान में जैनधर्म
अफगानिस्तान प्राचीनकाल में भारत का भाग था, तथा अफगानिस्तान में सर्वत्र जैन साधु निवास करते थे। भारत सरकार के पुरातत्व विभाग के भूतपूर्व संयुक्त महानिर्देशक श्री टी.एन. रामचंद्रन अफगानिस्तान गये। उन्होंने एक शिष्टमंडल के नेता के रूप में यह मत व्यक्त किया था, कि ‘‘मैंने ई. छठी, सातवीं शताब्दी के प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग के इस कथन का सत्यापन किया है, कि यहाँ जैन तीर्थंकरों के अनुयायी बड़ी संख्या में हैं। उस समय एलेग्जेन्ड्रा में जैनधर्म और बौद्धधर्म का व्यापक प्रचार था।’’
चीनी यात्री ह्वेनसांग ६८६-७१२ ईस्वी के यात्रा के विवरण के अनुसार कपिश देश में १० जैनमंदिर हैं। वहाँ निग्र्रन्थ जैन मुनि भी धर्म प्रचारार्थ विहार करते हैं। ‘काबुल’ में भी जैनधर्म का प्रसार था। वहाँ जैन-प्रतिमायें उत्खनन में निकलती रहती हैं।
हिन्द्रेशिया, जावा, मलाया, कम्बोडिया आदि देशों में जैनधर्म-
इन द्वीपों के सांस्कृतिक इतिहास और विकास में भारतीयों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इन द्वीपों के प्रारंभिक अप्रवासियों का अधिपति सुप्रसिद्ध जैन महापुरूष ‘कौटिल्य’ था, जिसका कि जैनधर्म-कथाओं में विस्तार से उल्लेख हुआ है। इन द्वीपों के भारतीय आदिवासी विशुद्ध शाकाहारी थे। इन देशों से प्राप्त मूर्तियाँ तीर्थंकर मूर्तियों से मिलती जुलती है। यहाँ पर चैत्यालय भी मिलते हैं, जिनका जैन परम्परा में बड़ा महत्व है।
नेपाल देश में जैनधर्म
नेपाल का जैनधर्म के साथ प्राचीनकाल से ही बड़ा संंबंध रहा है। आचार्य भद्रबाहु वीर निर्वाण संवत् १७० में नेपाल गये थे, और नेपाल की कन्दराओं में उन्होंने तपस्या की थी, जिससे सम्पूर्ण हिमालय क्षेत्र में जैनधर्म की बड़ी प्रभावना हुई थी।
नेपाल का प्राचीन इतिहास भी इस बात का साक्षी है। उस क्षेत्र की बद्रीनाथ, केदारनाथ एवं पशुपतिनाथ की मूर्तियाँ जैन मुद्रा ‘पद्मासन’ में हैं, और उन पर ऋषभ-प्रतिमा के अन्य चिन्ह भी विद्यमान हैं। नेपाल के राष्ट्रीय अभिलेखागार में अनेक जैन ग्रंथ उपलब्ध है, तथा पशुपतिनाथ के पवित्र क्षेत्र में जैन तीर्थंकरों की अनेक मूर्तियाँ विद्यमान हैं। वर्तमान में संयुक्त जैन समाज द्वारा नेपाल की राजधानी काठमाण्डू में एक विशाल जैन मंदिर का निर्माण किया जा चुका है। वर्तमान नेपाल में लगभग ५०० परिवार जैनधर्म को मानने वाले हैं। यहाँ श्री उमेशचंद जैन एवं श्री अनिल जैन आदि सामाजिक कार्यकर्ता हैं।
भूटान में जैनधर्म
भूटान में जैनधर्म का खूब प्रसार था, तथा जैन मंदिर और जैन साधु-साध्वियाँ विद्यमान थे। विक्रम संवत् १८०६ में दिगम्बर जैन तीर्थयात्री लागचीदास गोलालारे ब्रह्मचारी भूटान देश में जैन तीर्थयात्रा के लिए गया था, जिसके विस्तृत यात्रा विवरण की १०८ प्रतियाँ भिन्न भिन्न जैन शास्त्र भण्डारों (एक प्रति जैन शास्त्र भंडार, तिजारा राजस्थान) में सुरक्षित है।
पाकिस्तान की परवर्ती-क्षेत्रों में जैनधर्म
आदिनाथ स्वामी ने भरत को अयोध्या, बाहुबली को पोदनपुर तथा शेष ९८ पुत्रों को अन्य देश प्रदान किये थे। बाहुबली ने बाद में अपने पुत्र महाबलि को पोदनपुर का राज्य सौंपकर मुनि दीक्षा ली थी। पोदनपुर वर्तमान पाकस्तिान क्षेत्र में विन्ध्यार्ध पर्वत के निकट सिंधु नदी के सुरम्य एवं रम्यक देश के उत्तरार्ध में था और जैन-संस्कृति का जगत विख्यात विश्व केन्द्र था। कालांतर में पोदनपुर अज्ञात कारणों से नष्ट हो गया।
तक्षशिला जनपद में जैनधर्म
तक्षशिला अति प्राचीनकाल में शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था, तथा जैनधर्म के प्रचार का भी महत्वपूर्ण केन्द्र रहा। इस दृष्टि से प्राचीन जैन परम्परा से यह स्थान तीर्थस्थल सा हो गया था। सिंहपुर भी प्राचीन जैन प्रसार केन्द्र के रूप में विख्यात था। सम्राट हर्षवर्धन के काल में चीनी यात्री ह्वेनसांग ने यहाँ की यात्रा की थी, जिसने इस स्थान पर जगह जगह जैन श्रमणों का निवास बताया था।
सिंहपुर जैन महातीर्थ
यहाँ एक जैन स्तूप के पास जैन मंदिर और शिलालेख थे, यह जैन महातीर्थ १४ वीं शताब्दी तक विद्यमान था। इस महाजैन तीर्थ का विध्वंस सम्भवत: सुल्तान सिकन्दर बुतशिकन ने किया था। डॉ. बूह्लर की प्रेरणा से डॉ. स्टॉइन ने सिंहपुर के जैन मंदिरों का पता लगाने पर कटाक्ष से दो मील की दूरी पर स्थित मूर्ति गांव में खुदाई से बहुत सी जैन मूर्तियाँ और जैन मंदिरों तथा स्तूपों के खण्डहर प्राप्त किये, जो २६ ऊँटों पर लादकर लाहौर लाये गये, और वहाँ के म्यूजियम में सुरक्षित किये गये।
ब्राह्मीदेवी मंदिर-एक जैन महातीर्थ
यह स्थान किसी समय श्रमण संस्कृति का प्रमुख केन्द्र था। इस क्षेत्र में जैन साधुओं की यह परम्परा एक लम्बे समय से अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है। ‘कल्पसूत्र’ के अनुसार भगवान ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी इस देश की महाराज्ञी थी, अंत में वह साध्वी-प्रमुख भी बनीं, और उसने तप किया।
मोअनजोदड़ों आदि की खुदाइयों में जो अनेकानेक सीलें प्राप्त हुई हैं, उन पर नग्न दिगम्बर मुद्रा में योगी अंकित हैं।
मोअनजोदड़ों, हड्प्पा, कालीबंगा आदि २०० से अधिक स्थानों के उत्खनन से जो सीलें, मूर्तियाँ एवं अन्य पुरातात्विक सामग्री प्राप्त हुई है, वह सब शाश्वत जैन परम्परा की द्योतक हैं।
कश्यपमेरु (कश्मीर जनपद) में जैनधर्म
कवि कल्हणकृत राजतरि गिरि के अनुसार कश्मीर अफगानिस्तान का राजा सत्यप्रतिज्ञ अशोक जैन था, जिसने और जिसके पुत्रों ने अनेक जैन मंदिरों का निर्माण कराया था, तथा जैनधर्म का व्यापक प्रसार किया।
हड़प्पा-परिक्षेत्र में जैनधर्म
इसके अतिरिक्त सक्खर मो-अन-जो-दड़ों, हड़प्पा, कालीबंगा आदि की खुदाईयों से भी महत्वपूर्ण जैन पुरातत्व सामग्री प्राप्त हुई है, जिसमें बड़ी संख्या में जैन-मूर्तियाँ, प्राचीन सिक्के, बर्तन आदि विशेष ज्ञातव्य हैं।
गांधार और पुण्ड जनपद में जैनधर्म
सिंधु नदी के काबुल नदी तक का क्षेत्र मुल्तान और पेशावर गांधारमण्डल में सम्मिलित थे, पश्चिमी पंजाब और पूर्वी अफगानिस्तान भी इसमें सम्मिलित थे। गांधार जनपद में विहार करने वाले जैन साधु गांधार कच्छ के नाम से विख्यात थे। सम्पूर्ण जनपद जैनधर्म बहुल जनपद था।
बांग्लादेश एवं निकटवर्ती-क्षेत्रों में जैनधर्म
बांग्लादेश और उसके निकटवर्ती पूर्वी क्षेत्र और कामरूप जनपद में जैन संस्कृति का व्यापक प्रचार प्रसार रहा है, जिसके प्रचुर संकेत सम्पूर्ण वैदिक और परवर्ती साहित्य में उपलब्ध हैं।
आज इस कामरूप प्रदेश में जिसमें बिहार, उड़ीसा और बंगाल भी आते हैं, सर्वत्र गाँव-गाँव जिलों-जिलों में प्राचीन सराक जैन संस्कृति की व्यापक शोध खोज हो रही है, और नये नये तथ्य उद्घाटित हो रहे हैं।
पहाड़पुर (राजशाही बंगलादेश) में उपलब्ध ४७८ ईस्वी के ताम्रपत्र के अनुसार पहाड़पुर में एक जैन मंदिर था, जिसमें ५००० जैन मुनि, ध्यान अध्ययन करते थे, और जिसके ध्वंसावशेष चारों ओर बिखरे पड़े हैं। ‘मौज्डवर्धन’ और उसके समीपस्थ ‘कोटिवर्ष’ दोनों ही प्राचीनकाल में जैनधर्म के प्रमुख केन्द्र थे। श्रुतकेवली भद्रबाहु और आचार्य अर्हद्बलि दोनों ही आचार्य इसी नगर के निवासी थे। परिणामत: जैनधर्म बंगाल एवं उसके आसपास के क्षेत्रों में अत्यधिक लोकप्रिय हो गया। सम्भवत: प्रारंभिक काल में बंगाल के लोकप्रिय बन जाने के कारण ही जैनधर्म इस प्रदेश के समुद्री तटवर्ती भू भागों से होता हुआ उत्कल प्रदेश के विभिन्न भू-भागों में भी अत्यंत शीघ्र गति से फैल गया।
विदेशों में जैन-साहित्य और कला-सामग्री
लंदन-स्थित अनेक पुस्तकालयों में भारतीय ग्रंथ विद्यमान हैं, जिनमें से एक पुस्तकालय में तो लगभग १५०० हस्तलिखित भारतीय ग्रंथ हैं। अधिकतर ग्रंथ प्राकृत, संस्कृत भाषाओं में हैं, और जैनधर्म सें संबंधित हैं।
जर्मनी में भी बर्लिन स्थित एक पुस्तकालय में बड़ी संख्या में जैन ग्रंथ विद्यमान हैं, अमेरिका के बाशिंगटन और बोस्टन नगर में ५०० से अधिक पुस्तकालय हैं, इनमें से एक पुस्तकालय में ४० लाख हस्तलिखित पुस्तवेंâ हैं, जिनमें से २०००० पुस्तवेंâ प्राकृत, संस्कृत भाषाओं में हैं, जो भारत से गई हुई हैं।
में ११०० से अधिक बड़े पुस्तकालय हैं, जिनमें पेरिस स्थित बिब्लियोथिक नामक पुस्तकालय में ४० लाख पुस्तवेंâ हैंं। उनमें १२ हजार पुस्तवेंâ प्राकृत, संस्कृत भाषा की हैं, जिनमें जैन ग्रंथों का अच्छी संख्या है।
रूस में एक राष्ट्रीय पुस्तकालय है, जिसमें ५ लाख पुस्तवेंâ हैं। उनमें २२ हजार पुस्तवेंâ प्राकृत, संस्कृत की हैं। इसमें जैन ग्रंथों की भी बड़ी संख्या है।
इटली के पुस्तकालयों में ६० हजार पुस्तवें तो प्राकृत, संस्कृत की हैं, और इसमें जैन पुस्तकें बड़ी संख्या में हैं।
नेपाल के काठमाण्डू स्थित पुस्तकालयों में हजारों की संख्या में जैन प्राकृत और संस्कृत ग्रंथ विद्यमान हैं।
इसी प्रकार चीन, तिब्बत, वर्मा, इंडोनेशिया, जापान मंगोलिया, कोरिया, तुर्की, ईरान, अल्जीरिया, काबुल आदि के पुस्तकालयों में भी जैन-भारतीय ग्रंथ बड़ी संख्या में उपलब्ध है।
भारत से विदेशों में ग्रंथ ले जाने की प्रवृत्ति केवल अंग्रेजीकाल से ही प्रारंभ नहीं हुई, अपितु इससे हजारों वर्ष पूर्व भी भारत की इस अमूल्य निधि को विदेशी लोग अपने अपने देशों में ले जाते रहे हैं।
वे लोग भारत से कितने ग्रंथ ले गये, उनकी संख्या का सही अनुमान लगाना कठिन है। इसके अतिरिक्त म्लेच्छों, आततायियों, धर्मद्वेषियों ने हजारों, लाखों की संख्या में हमारे साहित्य रत्नों को जला दिया।
इसी प्रकार जैन मंदिरों, मूर्तियों, स्मारकों, स्तूपों आदि पर भी अत्यधिक अत्याचार हुये हैं। बड़े-बड़े जैन तीर्थ, मंदिर स्मारक आदि भंजकों ने धराशायी किये। अफगानिस्तान, काश्यपक्षेत्र, सिंधु, सोवीर, बलूचिस्तान, बेबीलोन, सुमेरिया, पंजाब, तक्षशिला तथा कामरूप प्रदेश बांग्लादेश आदि प्राचीन जैन संस्कृति बहुल क्षेत्रों में यह विनाशलीला चलती रही। अनेक जैन मंदिरों को हिन्दु और बौद्ध मंदिरों में परिवर्तित कर लिया गया या उनमें मस्जिदें बना ली गई। अनेक जैन मंदिर, मूर्तियों आदि अन्य धर्मियों के हाथों में चले जाने से अथवा अन्य देवी-देवताओं के रूप में पूजे जाने से जैन इतिहास और पुरातत्व एवं कला सामग्री को भारी क्षति पहुँची है।

No comments:

Post a Comment