Monday 13 February 2017

 शिवाजी को बुढिया की सीख


🔵 शिवाजी उन दिनों मुगलों के विरुद्ध छापा मार युद्ध लड़ रहे थे। रात को थके-माँदे वे एक वनवासी बुढ़िया की झोपड़ी में जा पहुँचे और कुछ खाने-पीने की याचना करने लगे। बुढ़िया के घर में कोदों थी सो उसने प्रेमपूर्वक भात पकाया और पत्तल पर उसने सामने परस दिया। शिवाजी बहुत भूखे थे। सो सपाटे से भात खाने की आतुरता में उँगलियाँ जला बैठे, मुँह से फूँककर जलन शान्त करनी पड़ी। बुढ़िया ने आँखें फाड़कर देखा और बोली-सिपाही तेरी शक्ल शिवाजी जैसी लगती है और साथ ही यह भी लगता है कि तू उसी की तरह मूर्ख भी है। '

🔴 शिवाजी स्तब्ध रह गये। उनने बुढ़िया से पूछा-'भला शिवाजी की मूर्खता तो बताओ और साथ ही मेरी भी। ' बुढ़िया ने कहा-'तू ने किनारे-किनारे से थोड़ी-थोड़ी ठण्डी कोदों खाने की अपेक्षा बीच के सारे भात में हाथ मारा और उँगलियाँ जला लीं। यही बेअकली शिवाजी करता है। वह दूर किनारों पर बसे छोटे-छोटे किलों को आसानी से जीतते हुए शक्ति बढ़ाने की अपेक्षा बड़े किलों पर धावा बोलता है और मार खाता है। 

🔵 शिवाजी को अपनी रणनीति की विफलता का कारण विदित हो गया। उन्होंने बुढ़िया की सीख मानी और पहले छोटे लक्ष्य बनाये और उन्हें पूरी करने की रीति-नीति अपनाई। छोटी सफलताएँ पाने से उनकी शक्ति बढ़ी और अन्तत: बड़ी विजय पाने में समर्थ हुए।

🔴 शुभारम्भ हमेशा छोटे-छोटे कदमों से होता है, पर यथार्थता की प्रकाश किरणें इतने मात्र से एक व्यक्ति की जीवन धारा बदल देती है।

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