भारत विश्व का पहला ऐसा देश है,जहां इस पद्धति का प्रयोग हो रहा है। इस प्रक्रिया में एनिमा के जरिए बकरे के खून को बड़ी आंत तक पहुंचाया जाता है, जहां रक्तकणों को अवशोषित कर लिया जाता है। बकरे के खून में ब्लड गु्रप, एड्स या अन्य किसी प्रकार के संक्रमण की चिंता नहीं रहती। हीमोग्लोबिन घटने की भी फिक्र नहीं रहती। अब तक डेढ़ सौ से भी ज्यादा रोगी इस प्रक्रिया का लाभ उठा चुके हैं।
गुजरात सरकार के अहमदाबाद स्थित अखंडानंद आयुर्वेद अस्पताल का यह प्रयोग लाखों रोग ग्रस्त बच्चों और उनके परिजनों के लिए राहत की एक बड़ी खबर है। दरअसल, पीड़ित बच्चों को हर दो हफ्ते में दो-तीन बोतल मानव रक्त चढ़ाना पड़ता है। महंगी होने के साथ ही इस प्रक्रिया में कई दिक्कतें भी आती हैं। वहीं, बकरे का खून दो से तीन माह में चढ़ाना पड़ता है। अस्पताल के प्रबंध निदेशक डॉ अतुल भावसार के मुताबिक, थैलेसीमिया पीड़ित के रक्त में रुधिर कणिकाएं टूटने लगती हैं जिससे हीमोगलोबीन घटने लगता है,जिससे किडनी, लीवर व हृदय में जहर फैल जाता है और पीड़ित की मौत हो जाती है। चूंकि बकरे के खून में रक्त कणों की मात्रा अधिक होती है। संरचना जटिल होने से रक्त कण आसानी से नहीं टूटते हैं। उन्होंने कहा, अस्पताल के थैलेसीमिया वार्ड में भर्ती गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के बच्चों पर किया गया प्रयोग सफल रहा है। 2010-11 से मार्च 2013 तक 130 बच्चे इस पद्धति का लाभ उठा चुके हैं। उन्होंने कहा,अहमदाबाद नगर निगम के स्लाटर हाउस से बकरे का रक्त मुफ्त मिलता है। अत: मरीजों को यह सेवा मुफ्त में दी जा रही है। भावसार के मुताबिक, यह पद्धति नई नहीं है बल्कि पांच हजार साल पुरानी है। आयुर्वेद में बकरे के रक्त को अजारक्त बस्ती कहा जाता है। महर्षि चरक की संहिता [चरक संहिता] में इसका उल्लेख है। साथ ही थैलेसीमिया पीड़ित बच्चों के उपचार में इसे उपयोगी बताया गया है।
भावसार ने कहा, गुजरात सरकार ने इस पद्धति को बढ़ावा देने को अहमदाबाद, जूनागढ, भावनगर व वडोदरा में इसके केंद्र खोलने को 25-25 लाख के अनुदान की घोषणा की है। कई अन्य राज्यों ने भी अपने यहां ऐसे केंद्र खोलने का सुझाव मांगा है।
एलोपैथी को पद्धति की वैज्ञानिकता पर शक :
एलोपैथी के डॉक्टर इस पद्धति को ठीक नहीं मानते। उन्हें आयुर्वेद की इस चिकित्सा पद्धति की वैज्ञानिकता पर शक है।
गुजरात सरकार के अहमदाबाद स्थित अखंडानंद आयुर्वेद अस्पताल का यह प्रयोग लाखों रोग ग्रस्त बच्चों और उनके परिजनों के लिए राहत की एक बड़ी खबर है। दरअसल, पीड़ित बच्चों को हर दो हफ्ते में दो-तीन बोतल मानव रक्त चढ़ाना पड़ता है। महंगी होने के साथ ही इस प्रक्रिया में कई दिक्कतें भी आती हैं। वहीं, बकरे का खून दो से तीन माह में चढ़ाना पड़ता है। अस्पताल के प्रबंध निदेशक डॉ अतुल भावसार के मुताबिक, थैलेसीमिया पीड़ित के रक्त में रुधिर कणिकाएं टूटने लगती हैं जिससे हीमोगलोबीन घटने लगता है,जिससे किडनी, लीवर व हृदय में जहर फैल जाता है और पीड़ित की मौत हो जाती है। चूंकि बकरे के खून में रक्त कणों की मात्रा अधिक होती है। संरचना जटिल होने से रक्त कण आसानी से नहीं टूटते हैं। उन्होंने कहा, अस्पताल के थैलेसीमिया वार्ड में भर्ती गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के बच्चों पर किया गया प्रयोग सफल रहा है। 2010-11 से मार्च 2013 तक 130 बच्चे इस पद्धति का लाभ उठा चुके हैं। उन्होंने कहा,अहमदाबाद नगर निगम के स्लाटर हाउस से बकरे का रक्त मुफ्त मिलता है। अत: मरीजों को यह सेवा मुफ्त में दी जा रही है। भावसार के मुताबिक, यह पद्धति नई नहीं है बल्कि पांच हजार साल पुरानी है। आयुर्वेद में बकरे के रक्त को अजारक्त बस्ती कहा जाता है। महर्षि चरक की संहिता [चरक संहिता] में इसका उल्लेख है। साथ ही थैलेसीमिया पीड़ित बच्चों के उपचार में इसे उपयोगी बताया गया है।
भावसार ने कहा, गुजरात सरकार ने इस पद्धति को बढ़ावा देने को अहमदाबाद, जूनागढ, भावनगर व वडोदरा में इसके केंद्र खोलने को 25-25 लाख के अनुदान की घोषणा की है। कई अन्य राज्यों ने भी अपने यहां ऐसे केंद्र खोलने का सुझाव मांगा है।
एलोपैथी को पद्धति की वैज्ञानिकता पर शक :
एलोपैथी के डॉक्टर इस पद्धति को ठीक नहीं मानते। उन्हें आयुर्वेद की इस चिकित्सा पद्धति की वैज्ञानिकता पर शक है।
No comments:
Post a Comment