Wednesday, 4 March 2015

गर्भ संस्कार क्या है?

सुवर्णप्राशन संस्कार -
 आयुर्वेदिक ईम्युनाईझेशनजब बालक का जन्म होता है तबसोनाया चांदी की शलाका (सली) से उसके जीभ पर शहद+घीचटाने की या जीभ पर ॐ लिखने की एक परँपरा है। यह परंपरा सुवर्णप्राशन संस्कारकी जगह की जाती है। यदि विश्वस्तसुवर्णप्राशनमिले तोसुवर्णप्राशन संस्कारही करना चाहिए।सुवर्णप्राशन सुवर्ण के साथ आयुर्वेद के कुछ औषध,गाय का घी और शहद के मिश्रण से बनाया जाता है। और यह जन्म के दिन से शुरु करके पूरी बाल्यावस्था या कम से कम छह महिने तक चटाना चाहिये। अगर यह हमसे छूट गया है तो बाल्यावस्था के भीतर यानि12साल की आयु तक कभी भी शुरु करके इसका लाभ ले सकते है।आयुर्वेद के बालरोग के ग्रंथ काश्यप संहिता के पुरस्कर्ता महर्षि काशयप ने सुवर्णप्राशन के गुणों का निम्न रूप से निरूपणकिया है..सुवर्णप्राशन हि एतत मेधाग्निबलवर्धनम् ।आयुष्यं मंगलमं पुण्यं वृष्यं ग्रहापहम् ॥मासात् परममेधावी क्याधिभिर्न च धृष्यते ।षडभिर्मासै: श्रुतधर: सुवर्णप्राशनाद् भवेत् ॥{सूत्रस्थानम्,काश्यपसंहिता)अर्थात्,सुवर्णप्राशन मेधा (बुद्धि),अग्नि ( पाचन अग्नि) और बल बढानेवाला है। यह आयुष्यप्रद,कल्याणकारक,पुण्यकारक,वृष्य,वर्ण्य (शरीर के वर्णको तेजस्वी बनाने वाला) और ग्रहपीडा को दूर करनेवाला है. सुवर्णप्राशन के नित्य सेवन से बालक एक मास मं मेधायुक्त बनता है और बालक की भिन्न भिन्न रोगो से रक्षा होती है। वह छह मास में श्रुतधर (सुना हुआ सब याद रखनेवाला) बनता है,अर्थात उसकी स्मरणशक्त्ति अतिशय बढती है।
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माता मनचाहे बालक को जन्म दे सकती है, शर्त ये है की गर्भ से से संस्कार दिया जाए। रानी मदालसा जब भी गर्भवती होती थी तब ढंढेरा पिटवाती थी कि मेरा बच्चा योगी होगा। और उसके बाद वो गर्भ में बच्चे को योग और अध्यात्म के संस्कार देती थी। वास्तव में बालक बड़ा होकर योगी बनता था। उसे तीन बच्चों को जन्म दिया, ओर तीनों योगी बने। राजा ॠतुध्वज ने कहा, मुझे एक बालक ऐसा चाहिए जो राजा हो। मदालसा ने कहा कि अब ऐसा होगा। फिर से वह गर्भवती बनी तो गर्भ में बच्चे को राजनीति, युद्धकौशल और प्रजापालन इत्यादि के संस्कार दिये। और वहबालक जन्म के बाद बड़ा होकर राजा बना। उसकानाम था अलर्क
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एक गुजराती लोककविने कहा है की ,जननी जण तो भक्त जणकां दाता कां शुरनहीं तो रहेजे वांझणीमत गुमावीश नुरअर्थात, हे माता, अगर जन्म देना है तो कोई भक्त या योगी, या फिर दानवीर या शूरवीर कोतुम जन्म दो, वनॅा बांझ ही रहे, फोगट में अपना नुर मत गवांना।ये अपनी भारतीय परंपरा है कि हम श्रेष्ठ संतान की ही कामना करते थे। और उसके लिए भरपूर प्रयास भी करते थे।
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प्राचीनकाल से ही भारतीय संस्कृति में मनुष्य के लिए जन्म से
मृत्यु तक सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है। इनमें गर्भ
संस्कार भी एक प्रमुख संस्कार माना गया है।
चिकित्सा विज्ञान यह स्वीकार कर चुका है कि गर्भस्थ शिशु
किसी चैतन्य जीव की तरह व्यवहार करता है तथा वह
सुनता और ग्रहण भी करता है। माता के गर्भ में आने के बाद से
गर्भस्थ शिशु को संस्कारित किया जा सकता है तथा दिव्य
संतान की प्राप्ति की जा सकती है।
महाभारत काल में अर्जुन
द्वारा अपनी पुत्नी सुभद्रा को चक्रव्यूह की जानकारी देने और
अभिमन्यु द्वारा उसे ग्रहण करके सीखने की पौराणिक
कथा मात्र एक उदाहरण है जिससे गर्भस्थ शिशु के सीखने
की बात प्रामाणिक साबित होती है। सभी धर्मों में यह बात
किसी न किसी रूप मेंकही गई है। जैन धर्म में गर्भस्थ भगवान
महावीर के गर्भस्थ जीवन के बारे में आचार्य भद्रबाहू
स्वामीजी ने कल्पसूत्र नामक ग्रंथ में वर्णन किया है।
बाइबल में गर्भस्थ मरियम और उनकी सहेली अलीशिबा दोनों के
बीच संवाद हुआ है वह गर्भस्थ शिशु के संवेदनशील
स्थिति की ओर संकेत करता है। अलीशीबा मरियम से कहती है
कि आपके गर्भ में दिव्य भगवान के अस्तित्व को महसूस करके
मेरे गर्भ का शिशु आनंद से उछल रहा है। पौराणिक कथाओं में
भक्त प्रहलाद जब गर्भ में थे तब उनकी माँ को घर से निकाल
दिया गया था। उस समय देवर्षि नारद मिले और अपने आश्रम
में शरण दी। वहाँ नारायण नारायण का अखंड जाप चल रहा था।
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान
परीक्षणों द्वारा यह सिद्ध कर चुका है
कि गर्भस्थ शिशु माता के माध्यम से
सुन-समझ सकता है तथा ताउम्र उसे
याद रख सकता है। इसे सिद्ध करने के
लिए एक उदाहरण ही काफी है
कि यदि सोनोग्राफी करते समय
गर्भवती को सुई चुभोई जाए
तो गर्भस्थ शिशु तड़प जाता है
तथा रोने लगता है। इसे सोनोग्राफी के नतीजों में
देखा जा सकता है।

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गर्भावस्था में सेहतमंद रहने के लिए उचित आहार
लेना बेहद जरूरी होता है। सही आहार से
महिला का स्वास्थ्य तो अच्छा रहता ही है साथ
ही साथ गर्भस्थ्य शिशु का भी शारीरिक और मानसिक
विकास सही तरीके से होता है। गर्भावस्था में
क्या खाए जाए से जरूरी यह जानना है कि क्या न
खाया जाए। घर-परिवार की बुजुर्ग महिलाएं अपने
अनुभव के आधार पर यह राय देती रहती हैं। चलिए
जानते हैं कि गर्भावस्था में कौन सी सब्जियों और
फलों से परहेज करना चाहिए।
इसे भी पढ़े- ( क्या आहार डालता है गर्भावस्था में
असर)
आइये जानें, गर्भवस्था के दौरान कौन-कौन से फल और
सब्जियां ना खाएं-
गर्भावस्था के दौरान इन फलों के सेवन बचें-
पपीता खाने से बचें :
कोशिश करें कि गर्भावस्था के दौरान
पपीता ना खाए। पपीता खाने से प्रसव जल्दी होने
की संभावना बनती है। पपीता, विशेष रूप से
अपरिपक्व और अर्द्ध परिपक्व लेटेक्स जो गर्भाशय के
संकुचन को ट्रिगर करने के लिए जाना जाता है
को बढ़ावा देता है। गर्भावस्था के तीसरे और अंतिम
तिमाही के दौरान पका हुआ
पपीता खाना अच्छा होता हैं। पके हुए पपीते में
विटामिन सी और अन्य पौष्टिक
तत्वों की प्रचुरता होती है, जो गर्भावस्था के
शुरूआती लक्षणों जैसे कब्ज को रोकने में मदद करता है।
शहद और दूध के साथ मिश्रित
पपीता गर्भवती महिलाओं के लिए और विशेष रूप से
स्तनपान करा रही महिलाओं के लिए एक उत्कृष्ट
टॉनिक होता है।
इसे भी पढ़े- ( गर्भावस्था में सेब खाने के फायदे )
अनानस से बचें :
गर्भावस्था के दौरान अनानस
खाना गर्भवति महिला के स्वास्थ्ा के लिए
हानिकारक हो सकता है। अनानास में प्रचुर मात्रा में
ब्रोमेलिन पाया जाता है, जो गर्भाशय
ग्रीवा की नरमी का कारण बन सकती हैं, जिसके
कारण जल्दी प्रसव होने की सभांवना बढ़ जाती है।
हालांकि, एक गर्भवती महिला अगर दस्त होने पर
थोड़ी मात्रा में अनानास का रस पीती है तो इससे
उसे किसी प्रकार का नुकसान नहीं होगा। वैसे
पहली तिमाही के दौरान इसका सेवन
ना करना ही सही रहेगा, इससे किसी भी प्रकार के
गर्भाशय के अप्रत्याशित घटना से बचा जा सकता है।
अंगूर से बचें :
डॉक्टर गर्भवती महिलाओं को उसके गर्भवस्था के
अंतिम तिमाही में अंगूर खाने से मना करते है।
क्योंकि इसकी तासिर गरम होती है। इसलिए बहुत
ज्यादा अंगूर खाने से असमय प्रसव हो सकता हैं।
कोशिश करें कि गर्भावस्था के दौरान अंगूर ना खाए।
इसे भी पढ़े- ( क्या गर्भवती महिलाएं आलू खा सकती हैं )
गर्भावस्था के दौरान इन सब्जियों से बचें :
गर्भवती महिलाओं के लिए सबसे महत्वपूर्ण सलाह ये
होती है कि वो कच्चा या पाश्चरीकृत नहीं की हुई
सब्जी और फल ना खाए। साथ ही ये भी महत्वपूर्ण है
कि आप जो भी खाए वो अच्छे से धुला हुआ और साफ हो।
ये गर्भावस्था के दौरान आपको संक्रमण से बचाने के
लिए महत्वपूर्ण है।
फलों और सब्जियों को गर्भावस्था आहार का एक
अभिन्न अंग माना जाता है। इसलिए जम कर खाए
लेकिन साथ ही इन कुछ बातों का ध्यान भी जरूर रखें,
और बचे रहे गर्भवस्था के जटिलओं से।

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कैसे पाएँ दिव्य संताने ं
मातृत्व एक वरदान है तथा प्रत्येक गर्भवती एक तेजस्वी शिशु
को जन्म देकर अपना जन्म सार्थक कर सकती है। दुर्भाग्यवश
इस संवेदनशील स्थिति को गर्भवती महिलाएँ कुटुंब और समाज
सभी नजरअंदाज कर रहे हैं। गर्भ में पल रहे शिशु के मस्तिष्क
का विकास गर्भवती की भावनाएँ, विचार, आहार एवं वातावरण
पर निर्भर होता है।
डॉ.अरनाल्ड शिबेल (न्यूरोलॉजिस्ट) कहते हैं
कि यदि गर्भवती आधे घंटे तक क्रोध या विलाप कर
रही हो तो उस दरमियान गर्भस्थ शिशु के मस्तिष्क का विकास
रुक जाता है जिसका नतीजा गर्भस्थ शिशु कम बौद्धिक
क्षमता के साथ जन्म लेता है। यह महत्वपूर्ण बात हम जानते
ही नहीं हैं। गर्भस्थ शिशु का मस्तिष्क न्यूरोन सेल्स से
बना होता है। यदि मस्तिष्क में न्यूरोन सेल्स की मात्रा अधिक
है तो स्वाभाविक रूप से शिशु के बौद्धिक कार्यकलाप अन्य
शिशुओं की अपेक्षा बेहतर होते हैं।

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गर्भ संस्कार क्या है?
माता-पिता का उत्कृष्ट बीज व दृढ़ संकल्प
ही उत्कृष्ट संतति का कारण होता है। माता-
पिता के छोटे से बीज के संयोग से गर्भधारण व गर्भ
का अणुरूप बीज मानव शरीर में रूपांतरित होता है।
इस वक्त सिर्फ शारीरिक ही नहीं, आत्मा व मन
का परिणाम बीज रूप पर होता है। चैतन्य
शक्ति का छोटा-सा आविष्कार ही गर्भ है। माता-
पिता का एक-एक क्षण व बच्चे का एक-एक कण एक-
दूसरे से जुड़ा है। माता-पिता का खाना-पीना,
विचारधारा, मानसिक परिस्थिति इन सभी का बहुत
गहरा परिणाम गर्भस्थ शिशु पर होता है।
गर्भस्थ शिशु को संस्कारित व शिक्षित करने
का प्रमाण हमें धर्म ग्रंथों में मिलता ही है। कई
वैज्ञानिक भी इस बात से सहमत हैं व उन्होंने इसे
सिद्ध किया है। हमारे धर्म ग्रंथों में प्रचलित
सभी मंत्रों में यही कंपन रहता है- ऊँ, श्रीं,क्लीं,
ह्रीम इत्यादि। गर्भस्थ शिशु को इन बीज
मंत्रों को सिखाने की प्रथा हमारे धर्मग्रंथों में है।
चौथे महीने में गर्भस्थ शिशु के कर्णेंद्रिय का विकास
हो जाता है और अगले महीनों में उसकी बुद्धि व
मस्तिष्क का विकास होने लगता है। अतः,माता-
पिता की हर गतिविधि,बौद्धिक
विचारधारा का श्रवण कर गर्भस्थ शिशु अपने आप
को प्रशिक्षित करता है। चैतन्य
शक्ति का छोटा सा आविष्कार यानी,गर्भस्थ शिशु
अपनी माता को गर्भस्थ चैतन्य शक्ति की 9 महीने
पूजा करना है। एक दिव्य आनंदमय वातावरण का अपने
आसपास विचरण करना है। हृदय प्रेम से लबालब
भरा रखना है जिससे गर्भस्थ शिशु भी प्रेम से
अभिसिप्त हो जाए और उसके हृदय में प्रेम का सागर
उमड़ पड़े। आम का पौधा लगाने पर आम
का पौधा ही बनेगा। उत्कृष्ट देखभाल,खाद-पानी देने
पर उत्कृष्ट किस्म का फल उत्पन्न करना हमारे वश में
है। तेजस्वी संतान की कामना करने वाले
दंपति को गर्भ संस्कार व
धर्मग्रंथों की विधियों का पालन ही उनके मन के
संकल्प को पूर्ण कर सकता है।
गर्भ संस्कार की विधि
गर्भधारण के पूर्व ही,गर्भ संस्कार की शुरूआत
हो जाती है। गर्भिणी की दैनंदिन
दिनचर्या,मासानुसार
आहार,प्राणायाम,ध्यान,गर्भस्थ शिशु की देखभाल
आदि का वर्णन गर्भ संस्कार में किया गया है।
गर्भिणी माता को प्रथम तीन महीने में बच्चे
का शरीर सुडौल व निरोगी हो,इसके लिए प्रयत्न
करना चाहिए। तीसरे से छठे महीने में बच्चे
की उत्कृष्ट मानसिकता के लिए प्रयत्न
करना चाहिए। छठे से नौंवे महीने में उत्कृष्ट
बुद्धिमत्ता के लिए प्रयत्न करना चाहिए।
ऐसे मिलेगी स्वस्थ संतान...
-आहार विशेषज्ञ की सलाह से अपनी खानपान
की आदतों में सुधार लाएं। विभिन्न तरह के
स्वास्थ्यप्रद आहार लें।
-गर्भवती होने से पहले अपने चिकित्सक की सलाह लें।
हमेशा खुश रहने की कोशिश करें।
-विचारों में शुद्धता रखें।
-टीवी अथवा फिल्मों में ऐसे दृश्य देखने से परहेज करें,
जो हिंसा और जुगुत्सा को बढ़ावा देते हों।
-मद्यपान अथवा धूम्रपान करने वालों की संगत में न
बैठें। किटी पार्टी आदि में ताश का जुआ
अथवा तंबोला आदि से बचने की कोशिश करें।
-धार्मिक जीवन चरित्रों को पढ़ें।
-अपने मन में किसी भी प्रकार का टेंशन या मानसिक
दुर्बलता को जगह न बनाने दें। गर्भवती होने से पहले
अपने चिकित्सक की सलाह लें। हमेशा खुश रहने
की कोशिश करें।
-तेजस्वी संतान प्राप्ति के लिए जरूरी है कि आप
मनसा वाचा कर्मणा शुद्ध व्यवहार पर ध्यान दें।
भावी संतान के रखरखाव
संबंधी जानकारियाँ एकत्रित करें।
-अब तक न खाए हों, ऐसे फल-सब्जी खाएँ।
-मांसाहार त्याग दें। बासी आहार न लें। आहार
विशेषज्ञ की सलाह से अपनी खानपान की आदतों में
सुधार लाएँ। विभिन्न तरह के स्वास्थयप्रद आहार
लेने लगें।

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गर्भ से शुरू होती है संस्कार
की शिक्षा। यह सत्य है
कि जैसा गर्भवती स्त्री विचार
करती है, उसका वैसा ही प्रभाव
उसके गर्भ पर पड़ता है। इसका सबसे
अच्छा उदाहरण महाभारत में मिलता है
। अर्जुन पुत्र अभिमन्यु ने चक्रव्यूह भेदन प्रक्रिया गर्भ से
ही सीखी थी, जब अभिमन्यु के पिता अर्जुन
अपनी गर्भवती पत्नी सुभद्रा को चक्रव्यूह भेदन
प्रक्रिया बता रहे थे, कहा जाता है यह प्रक्रिया अर्जुन ने
श्री कृष्ण से सीखी थी, परंतु सुभद्रा ने चक्रव्यूह में प्रवेश
होने तक तो सुना पर उसमे से निकलने की विधि जानने से पहले
ही वे सुनते सुनते सो गयीं। इसलिए महाभारत के कुरुक्षेत्र में
अभिमन्यु चक्रव्यूह में प्रवेश करना तो जानते थे पर उससे
निकलना नहीं जानते थे। इसलिए चक्रव्यूह भेदन प्रक्रिया के
दौरान महाभारत के युध्द में, चक्रव्यूह से बाहर निकलने
का तरीका न जान पाने की कारण वीरगति को प्राप्त हुए।
गर्भवती स्त्री गर्भ काल में जिस महान व्यक्तित्व का ध्यान
करेगी या उसके बारे में पढेगी, वैसा ही उनके शिशु
का व्यक्तित्व बनेगा। इसलिए गर्भकाल में कुछ बातों पर ध्यान
देना अतिआवश्यक है, जैसे कि गर्भवती स्त्री गर्भावस्था में
रहस्यमय उपन्यास न पढे, न ही वह
तामसी प्रव्रत्तियों का निर्वाह करे, न ही हिंसक द्रश्य देखे,
न ही गुस्सा करे तथा अच्छे संस्कार, उच्च
आदर्शों वाली सामग्री पढें। जैसा गर्भवती स्त्री पढेगी,
खाएगी ,सोचेगी वैसा ही शिशु पर प्रभाव पड़ेगा।
उदाहरण के रूप में, जब मैं अपनी माँ के गर्भ में थी, तब
मेरी माँ क्रिकेट बहुत खेली थी, मेरी माँ स्वभाव से खिल्क्कड़ हैं,
और यही स्वभाव मेरे व्यक्तित्व मैं भी है, अपने बाल्यकाल से
आज तक क्रिकेट खेलती हूँ जो मुझे बहुत पसंद है । मेरी माँ ने
गर्भकाल में गुड और मूंगफली बहुत खाई थी, ये बात मुझे
पता भी नहीं थी, पर में बचपन से गुड मूंगफली मिलाकर
खाना बहुत पसंद करती हूँ ।
स्वामी विवेकनन्द की माँ भुवनेश्वरी देवी ध्यान
किया करती थीं और गर्भावस्था में भी उन्होंने ध्यान किया था,
इसलिए स्वामी विवेकानंद बाल्यकाल से ध्यान योग
विद्या जानते थे। ध्यान साधना गर्भावस्था में सबसे उतम है,
गर्भवती स्त्री को जिस देवता, संत अथवा वीरपुरुष के गुण
अपने शिशु में लाने की इच्छा हो, उनकी मूर्ति, छायाचित्र
सामने रखकर उनका ध्यान करें। ध्यान के पश्चात
गर्भवती स्त्री कुछ आवश्यक स्वयं सूचनाएं भी अपने गर्भ
को दे सकती है। गर्भवती स्त्री नामजप करे, माता के आहार-
विहार, विचार तथा इच्छा का गर्भ पर भी प्रभाव होता है।
गर्भवती के उत्तम आचार-विचारों की छाप गर्भ के मन पर
भी उभरती है। गर्भावस्था में स्त्री श्री भगवत गीता,
श्री रामचरित्र मानस आदि व अन्य धर्मग्रंथों का पाठ करें
जिससे महापुरूषों के सर्वक्ष्रेष्ठ विचार संस्कारों के रूप में
गर्भ में पल रहे शिशु के मानस पटल पर अंकित हो जायें ।
आशा करती हूं, आप यहाँ लेख पसंद करेंगे और बाल संस्कार
की शिक्षा गर्भावस्था से ही शुरू करेंगे ।

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वैज्ञानिकों का कहना है कि नवजात बच्चे को मां के गर्भ में
रहते हुए अपनी जननी की और अन्य लोगों की आवाज़ें याद
रहती हैं। यह बात हेलसिंकी विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों ने
सिद्ध की है। उनके द्वारा किए गए शोधकार्यों के दौरान
श्रवण सूचना के लिए ज़िम्मेदार मस्तिष्क के क्षेत्र
का अध्ययन किया गया और
पाया गया कि गर्भावस्था की अंतिम तिमाही में बच्चे
का मस्तिष्क सक्रिय हो जाता है और वह
आवाज़ों तथा संगीत की तरंगों को ग्रहण करता है तथा उन्हें
याद भी रखता है। यह बात एक लंबे समय से साबित
हो चुकी है कि बच्चे, गर्भावस्था के दौरान सुने उस संगीत के
लिए सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं जो उनकी माताएं
सुनती हैं। यह निष्कर्ष शिशुओं के व्यवहार को देखते हुए
निकाला गया था। लेकिन अब वैज्ञानिकों ने परिचित
आवाज़ों के लिए नवजात शिशुओं के मस्तिष्क
की प्रतिक्रिया का अध्ययन किया है। गर्भावस्था के अंतिम
तीन महीनों में महिलाओं के एक समूह को एक ही तरह
का संगीत सुनने की सलाह दी गई। इस शोधकार्य के दौरान
पता चला कि औसतन एक बच्चा एक ही शब्द लगभग २५
हज़ार बार सुन सकता है। जीवन के पहले महीने में बच्चा उस
संगीत के प्रति प्रतिक्रिया दिखाता है जो उसने
गर्भावस्था की अंतिम तिमाही में सुना था।

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प्रसव होती है आसान
- हृदय रहता है स्वस्थ
हनोवर, आईएएनएस : अक्सर गर्भवती महिलाओं
को व्यायाम से बचने की सलाह दी जाती है। लेकिन,
एक नए शोध में पाया गया कि गर्भवती महिलाओं के
लिए व्यायाम करना उनकी सेहत के लिहाज से
फायदेमंद रहता है।
व्यायाम करने से उनके प्रसव में
तो आसानी होती ही है। हृदय भी स्वस्थ रहता है
क्योंकि व्यायाम से रक्त वाहिनियां मजबूत होती हैं
और इससे रक्त का संचार सुचारू रूप से होता है।
म्यूनिख स्थित स्त्री रोग विशेषज्ञ एसोसिएशन
की अध्यक्ष क्रिस्टिन एलब्रिंग ने कहा, 'डाक्टर
की सलाह लेकर गर्भवती महिलाएं व्यायाम कर
सकती हैं।' उन्होंने कहा कि दौड़ना, साइकिल चलाना,
डांस करना और 20 डिग्री सेंटीग्रेट से अधिक
तापमान वाले पानी में तैराकी गर्भवती महिलाओं के
लिए नुकसानदेह नहीं है।
विशेषज्ञों के मुताबिक जो महिलाएं गर्भावस्था के
दौरान सप्ताह में तीन बार आधे घंटे तक व्यायाम
करती हैं उन्हें प्रसव के वक्त अधिक दिक्कत नहीं आती।
विशेषज्ञों की सलाह है कि यदि व्यायाम या अन्य
किसी वजह से यदि गर्भवती महिलाओं को थकान, सिर
दर्द, सांस लेने में परेशानी या कम दिखाई दे तो उन्हें
तुरंत व्यायाम बंद कर देना चाहिए। उन्होंने यह
भी कहा कि व्यायाम हमेशा किसी योग्य प्रशिक्षक
की देखरेख में ही करना चाहिए।

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गर्भावस्था में सेहतमंद रहने के लिए उचित आहार लेना बेहद
जरूरी होता है। सही आहार से महिला का स्वास्थ्य
तो अच्छा रहता ही है साथ ही साथ गर्भस्थ्य शिशु
का भी शारीरिक और मानसिक विकास सही तरीके से होता है।
गर्भावस्था में क्या खाए जाए से जरूरी यह जानना है
कि क्या न खाया जाए। घर-परिवार की बुजुर्ग महिलाएं अपने
अनुभव के आधार पर यह राय देती रहती हैं। चलिए जानते हैं
कि गर्भावस्था में कौन सी सब्जियों और फलों से परहेज
करना चाहिए।
इसे भी पढ़े- (क्या आहार डालता है गर्भावस्था में असर)
आइये जानें, गर्भवस्था के दौरान कौन-कौन से फल और
सब्जियां ना खाएं-
गर्भावस्था के दौरान इन फलों के सेवन बचें-
पपीता खाने से बचें :
कोशिश करें कि गर्भावस्था के दौरान पपीता ना खाए।
पपीता खाने से प्रसव जल्दी होने की संभावना बनती है।
पपीता, विशेष रूप से अपरिपक्व और अर्द्ध परिपक्व लेटेक्स
जो गर्भाशय के संकुचन को ट्रिगर करने के लिए जाना जाता है
को बढ़ावा देता है। गर्भावस्था के तीसरे और अंतिम
तिमाही के दौरान पका हुआ पपीता खाना अच्छा होता हैं। पके
हुए पपीते में विटामिन सी और अन्य पौष्टिक
तत्वों की प्रचुरता होती है, जो गर्भावस्था के
शुरूआती लक्षणों जैसे कब्ज को रोकने में मदद करता है। शहद
और दूध के साथ मिश्रित पपीता गर्भवती महिलाओं के लिए
और विशेष रूप से स्तनपान करा रही महिलाओं के लिए एक
उत्कृष्ट टॉनिक होता है।
इसे भी पढ़े- ( गर्भावस्था में सेब खाने के फायदे)
अनानस से बचें :
गर्भावस्था के दौरान अनानस खाना गर्भवति महिला के
स्वास्थ्ा के लिए हानिकारक हो सकता है। अनानास में प्रचुर
मात्रा में ब्रोमेलिन पाया जाता है, जो गर्भाशय
ग्रीवा की नरमी का कारण बन सकती हैं, जिसके कारण
जल्दी प्रसव होने की सभांवना बढ़ जाती है। हालांकि, एक
गर्भवती महिला अगर दस्त होने पर थोड़ी मात्रा में अनानास
का रस पीती है तो इससे उसे किसी प्रकार का नुकसान
नहीं होगा। वैसे पहली तिमाही के दौरान इसका सेवन
ना करना ही सही रहेगा, इससे किसी भी प्रकार के गर्भाशय
के अप्रत्याशित घटना से बचा जा सकता है।
अंगूर से बचें :
डॉक्टर गर्भवती महिलाओं को उसके गर्भवस्था के अंतिम
तिमाही में अंगूर खाने से मना करते है। क्योंकि इसकी तासिर
गरम होती है। इसलिए बहुत ज्यादा अंगूर खाने से असमय
प्रसव हो सकता हैं। कोशिश करें कि गर्भावस्था के दौरान
अंगूर ना खाए।
इसे भी पढ़े- ( क्या गर्भवती महिलाएं आलू खा सकती हैं)
गर्भावस्था के दौरान इन सब्जियों से बचें :
गर्भवती महिलाओं के लिए सबसे महत्वपूर्ण सलाह ये होती है
कि वो कच्चा या पाश्चरीकृत नहीं की हुई सब्जी और फल
ना खाए। साथ ही ये भी महत्वपूर्ण है कि आप जो भी खाए
वो अच्छे से धुला हुआ और साफ हो। ये गर्भावस्था के दौरान
आपको संक्रमण से बचाने के लिए महत्वपूर्ण है।
फलों और सब्जियों को गर्भावस्था आहार का एक अभिन्न
अंग माना जाता है। इसलिए जम कर खाए लेकिन साथ ही इन
कुछ बातों का ध्यान भी जरूर रखें, और बचे रहे गर्भवस्था के
जटिलओं से।

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कैसे पाएँ दिव्य संतानें
दिव्य संतान पाएँ गर्भ संस्कार से...
आज की कम्प्यूटर भाषा में कहा जाए तो मस्तिष्क को हम
हार्ड
डिस्क कह सकते हैं। यह हाई डिस्क गर्भवती के मस्तिष्क
से
जुड़ी होती है। फलस्वरूप गर्भवती के विचार, भावनाएँ,
जीवन
की ओर देखने का दृष्टिकोण, तर्क आदि गर्भस्थ शिशु के
मस्तिष्क में संग्रहीत होता जाता है। परिणामतः जब
वह इस
जगत में आता है तो अपना एक अनूठा व्यक्तित्व लेकर
आता है।
इसी के कारण आनुवांशिकत रूप से एक होते हुए
भी दो भाइयों में
भिन्नता दिखाई देती है क्योंकि प्रत्येक गर्भावस्था के
दरमियान गर्भवती की मनोदशा भिन्न होती है। आज
गर्भवती अपने गर्भस्थ शिशु को संस्कार देकर
तेजस्वी संतान
प्राप्त कर सकती है।
गर्भसंस्कार का अर्थ है गर्भधारणा से लेकर प्रसूति तक
के
280 दिनों में घटने वाली हर घटना, गर्भवती के
विचार,
उसकी मनोदशा, गर्भस्थ शिशु से उसका संवाद, सुख,
दुःख,
डर, संघर्ष, विलाप, भोजन, दवाएँ, ज्ञान, अज्ञान
तथा धर्म
और अधर्म जैसे सभी विचार आने वाले शिशु
की मानसिकता पर
छाए रहते हैं। अमेरिका के एक अन्य वैज्ञानिक चिकित्सक
डॉ.
पीटर नाथांजिल अपने अध्ययन के बाद इस नतीजे पर
पहुँचे हैं
कि गर्भावस्था के दौरान आहार में परिवर्तन, आहार
की कमी,
गलत आहार सेगर्भस्थ शिशु को कई बीमारियाँ मिल
जाती हैं।
शिशु के भावी जीवन में स्वास्थ्य संबंधी क्या तकलीफें
हो सकती हैं उसकी नींव गर्भावस्था के दौरान ही पड़
जाती है।

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श्री कृष्ण के भांजे अभिमन्यु की कथा की विज्ञान ने की पुष्टि ...... महाभारत आदि को मिथ्या मानने वालो के मुँह पर एक और थाप | महाभारत के इस प्रसंग को सभी जानते है की एक समय जब श्री कृष्ण की बहन सुभद्रा गर्भ धारण किये हुए थी तब श्री कृष्ण उन्हें चक्रव्युह का तोड़ बता रहे थे असल में श्री कृष्ण तो ठहरे सर्वज्ञ, वे बता तो उसी शिशु ( अर्जुन पुत्र :- अभिमन्यु ) को रहे थे जो सुभद्रा के गर्भ में था क्योंकि वे जानते थे की इस शिशु को आगे जा कर इस रणनीति की परम आवश्यकता पड़ेगी । परन्तु नियति कुछ और ही थी । चक्रव्युह का वर्णन सुनते सुनते सुभद्रा जी की आंख लग गई और वर्णन केवल चक्रव्युह में घुसने (तोड़ने) तक ही हो पाया था निकलने का सुनने से पूर्व ही सुभद्रा जी सो गई । और इसी कारण श्री अभिमन्यु चक्रव्युह में घिर कर ही वीरगति को प्राप्त हुए थे | इस प्रसंग को श्री व्यास जी ने इस प्रकार लिखा है : श्री कृष्णेन सुभद्राये गर्भवत्येनिरुपितम चक्रव्यूह प्रवेशस्य रहस्यम चातुदम्भितत अभिमन्यु स्तिथो गर्भे द्विवेद्यनानयुतो श्रुणो रहस्यम चक्रव्यूहस्य स.म्पूर्णम असत्यातवा यदार्जुनो गतोदुरम योदूं सम्शप्तदैसः अभिमन्यु.म बिनानान्यः समर्द्योव्यूहभेदने भेदितेचक्रव्यूहेपि अतएव विबिणेवा पार्थपुत्रस्य एकाकी कौरवे निगुर्णेवतः लोग इस पौराणिक कथा को कल्पना पर आधारित मानते हैं | ये कल्पना नही हमारा इतिहास है और अक्षर अक्षर सत्य है | हालही में हुए एक प्रयोग (2 जनवरी 2013 को) में वैज्ञानिकों ने खोज निकाला है के गर्भ केशिशुओं भी भाषण की ध्वनि सीखता है | तथा वैज्ञानिकों ने महाभारत के इस प्रसंग पर भी मुहर लगाई | नवीनतम वैज्ञानिक सबूत से पता चला है कि बच्चे उनके गर्भ के समय से ही सुनते है और भाषा कौशल सीखते है। फ्रांसीसी वैज्ञानिकों का कहना है कि गर्भ के बच्चे अपने जन्म के 3 महीने पहले ही भाषण ध्वनियों में अंतर करना सीख जाता है। (vedicbharat.com) अमेरिका में Pacific Lutheran University के शोधकर्ताओं ने एक नए अध्ययन में पता लगाया है कि बच्चे गर्भाशय में भी मातृभाषा के विशिष्ट ध्वनियों चुन सकते हैं। अध्ययन ने इस अनुमान को नकार दिया है कि बच्चे पैदा होने के बाद ही भाषा सीखते है। “ यह पहला अध्ययन है जिससे पता चलता है की हम पैदा होने से पहले ही अपनी मातृभाषा की भाषण ध्वनियों को सीखते हैं ! क्रिस्टीन मुन, जो अध्ययन का नेतृत्व कर रहे उन्होंने कहा:- ज्यादातर वैज्ञानिक अब आश्वस्त है कि अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु ने युद्ध के चक्रव्यूह गठन को भेदने की कला माँ सुभद्रा के गर्भ में सीखी। जिन्हें केवल गोरी चमड़ी वालो का कहा सत्य लगता है वो यहाँ अपनी खुजली मिटायें :-http://www.dailymail.co.uk/indiahome/indianews/article-2256312/Tale-Abhimanyu- true-scientists-babies-pick-language-skills- womb.htmlhttp://www.washington.edu/news/2013/01/02/ while-in-womb-babies-begin-learning-language- from-their-mothers/ http://www.abc.net.au/news/2013-02-26/unborn-babies-learn-sounds-of-speech3a- study/4541788 http://ilabs.uw.edu/http://www.shrinews.com/DetailNews.aspx ? NID=8237.
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“दिव्य मानव निर्माण योजना” भारत स्वाभिमान ट्रस्ट”
>>>> हजारों अभिमन्यु के जन्म को सफल बनाएंगे स्वामी रामदेव जी :- <<<<
इस पोस्ट को एक बार धायन से पूरा जरूर पढे !! और पोस्ट को share like करना भी न भूले ???
अर्जुन और सुभद्रा का पुत्र अभिमन्यु गर्भ से ही चक्रव्यूह तोड़ने की विधि जानता था। जब वह सुभद्रा के गर्भ मंह था तब अर्जुन सुभद्रा को चक्रव्यूह तोड़ने की योजना समझा रहे थे। छह द्वारों को तोड़ने की योजना तक तो सुभद्रा जगी रही, लेकिन सातवें द्वार को तोड़ने की योजना समझने से पहले ही वह सो गई, जिससे गर्भस्थ शिशु अभिमन्यु चक्रव्यूह के सातवें द्वार को तोड़ने और चक्रव्यूह से बाहर आने के बारे में कुछ नहीं जान सका, जो महाभारत के 13वें दिन उसकी मौत का कारण बना। देश के आधुनिक चाणक्य पूज्य स्वामी रामदेव जी महाराज देश में ऐसे हजारों अभिमन्यु को तैयार करने की योजना पर इस संकल्प से काम शुरू कर चुके हैं, जिससे सुभद्रा वाली गलती फिर से न हो ! इस निमित उनकी पूरी योजना ऐसी है, जिसमें मां की चेतना से शिशु की चैतन्यता तो जुड़ेगी ही, मां की सजगता इतनी अधिक बढ़ जाएगी कि अब किसी अभिमन्यु के लिए चूक की कोई संभावना नहीं रहेगी। ऐसे अभिमन्यु ही पूज्य स्वामी जी के दिव्य भारत निर्माण के दिव्य मानव कहलाएंगे....!
स्वामी रामदेव जी महाराज देश में एक राष्ट्रवादी सरकार को अस्तित्व में लाने के बाद राष्ट्र के उस बुनियाद को बदलने की और कदम बढ़ाने जा रहे हैं, जो सभी समस्याओं की जड़ है। करुणा से विहीन मानवता। भ्रष्टाचार, अनाचार, पापाचार, और अनैतिक कर्म में लिप्त मानव से मजबूत राष्ट्र का निर्माण नहीं हो सकता, इसलिए उस मानव का सामाजीकरण गर्भ से ही करने की ठान चुके हैं स्वामी जी!
स्वामी जी ने बताया कि मां की कोख से लेकर 25 वर्ष तक समान रूप से माता-पिता को संस्कारित करने से लेकर बच्चे के जन्म व उसके शिक्षण के लिए दिव्य आहार, दिव्य विचार, दिव्य दिनचर्या और दिव्य संस्कारों का पतंजलि योगपीठ में एक ऐसा वातावरण निर्मित किया जाएगा, जिससे दिव्य मानव का निर्माण संभव हो सके!
इस पूरी प्रक्रिया को जहां तक मैंने समझा है, उसके मुताबिक दिव्य मानव निर्माण की यह पूरी प्रक्रिया चार चरणों से होकर गुज़रेगी। पहला- पति-पत्नी का चयन, दूसरा- गर्भवती माता व गर्भस्थ शिशु के लिए सम्यक वातावरण का निर्माण, तीसरा- शिशु के जन्म से उसके आठ वर्ष होने की अवस्था तक मां-पिता व बच्चे का सम्यक समाजीकरण और चौथा- आठ वर्ष से लेकर 25 वर्ष की अवस्था तक एक ब्रह्मचर्य युवा के रूप में वैदिक व आधुनिक शिक्षा का सम्पूर्ण ज्ञान। इन चार चरणों से गुजर कर निखरने वाला मानव ही दिव्य मानव कहलाएगा, जो सम्पूर्ण मानवता को अपनी करुणा से भर देगा!
>>>> “स्वामी दयानंद सरस्वती ने देखा था दिव्य मानव निर्माण का सपना” <<<<
स्वामी रामदेव जी मूल रूप से आर्य समाजी रहे हैं,इसलिए वह जानते हैं की आरी समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने गर्भ से लेकर शिक्षण तक मनुष्य के पूरे लालन-पालन व शिक्षा का खाका अपनी पुस्तक “सत्यार्थ प्रकाश”में खींचा है। स्वामी दयानंद सरस्वती जी के मुताबिक, शतपथ ब्राह्मण में यह स्पष्ट कहा गया है कि माता, पिता व गुरु ही मनुष्य को ज्ञानवान बनाते हैं। गर्भाधान से लेकर बच्चे की पूरी विध्या हासिल करने तक माता की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है।
स्वामी दयानंद सरस्वती जी के मुताबिक “माता और पिता के लिए यह उचित है कि गर्भाधान के पूर्व, मध्य और पश्चात मादक द्रव्य, शराब, दुर्गंध, रुक्ष और बुद्धिनाशक पदार्थों का सेवन छोड़कर शांति, आरोग्य, बल, बुद्धि, और सुशीलता से सभ्यता को प्राप्त करे। घी, दूध, मिष्ठानों, अन्नपान आदि श्रेष्ठ पदार्थों का सेवन करे, जिससे कि रज व वीर्य भी दोषों से रहित होकर गुणयुक्त हो। पति-पत्नी को चाहिए कि वह चरक और सुश्रुत संहिता में गर्भावस्था में भोजन का जो विधान लिखा है और मनु स्मृति में स्त्री-पुरुष की प्रसन्नतता की जो रीति लिखी है, उसे अपनाएं। गर्भवती स्त्री बुद्धि, बल, रूप, आरोग्य, शांति आदि गुणकारक द्रव्यों का सेवन करती रहें, जब तक कि संतान का जन्म ण हो।“
“जन्म के पश्चात माता अपने बच्चों को उतम शिक्षा प्रदान करे, जिससे संतान सभ्य हो। पांचवें वर्ष तक माता, छह से आठवें वर्ष तक पिता और नवें वर्ष के आरंभ में उपनयन संस्कार कर संतान को उच्च शिक्षा के लिए आचार्य के पास भेज देना चाहिए।
युवा होने पर विषयों की कथा, विषयी लोगों का संग, विषयों का ध्यान, स्त्री का दर्शन, एकांत सेवन, संभाषण आदि कर्म से ब्रह्मचारियों को दूर रहकर शिक्षा ग्रहण करना चाहिए। यदि युवक इस समय सुशिक्षा, विध्या ग्रहण और वीर्य की रक्षा करने से चूक गए तो वह दुर्बल, निस्तेरज, बुद्धिहिन रहेंगे और उत्साह, साहस, धैर्य, बल व प्रखरता आदि गुणों से रहित होकर अपना जीवन नष्ट करेंगे। संतान को चाहिए कि वह अपने माता-पिता व आचार्य से सत्य व धर्मयुक्त कर्म को ग्रहण करे और दुष्ट कर्म का त्याग करे।”
>>>> “वैदिक शिक्षा पद्धति में भी गर्भ से ही संस्कार सृजन की थी व्यवस्था:” <<<<
वैदिक धर्म में मनुष्य के 16 संस्कारों का वर्णन है, जिसमें उसके गर्भ में आने से लेकर मृत्यु तक के विधानों का उल्लेख है। गर्भाधान संस्कार प्रथम संस्कार है। स्त्री और पुरुष के शारीरिक मिलन को गर्भाधान-संस्कार कहा गया है। माता-पिता के रज एवं वीर्य के संयोग से ही जीव सर्वप्रथम माता के गर्भ में प्रविष्ट होता है। हिन्दू धर्म की मान्यता है कि माता-पिता के अन्न और मन का गर्भस्थ शिसु पर प्रभाव पड़ता है। जो माता-पिता मादक द्रव्यों का सेवन करते हैं, मांसाहार करते हैं और अशुद्ध आचार-विचार का आचरण अपनाते हैं, उनके रज-वीर्य दूषित हो जाते हैं। इसलिए दूषित बीज से दूषित पौधा पनपता है और दूषित वृक्ष के समान बड़ा होता है। अत: आचार, विचार, व्यवहार, वातावरण व मंत्राशक्ति से गर्भस्थ शिशु की भावनाओं में परिवर्तन लाया जाता है, जिससे वह दिव्य गुणों से संपन्न बनता है।
गर्भाधान संस्कार के बाद पुंसवन संस्कार किया जाता है, जो गर्भ ठहरने के तीसरे महीने में किया जाता है। वैदिक शास्त्र के अनुसार चार महीने तक गर्भ का लिंग-भेद नहीं होता है, इसलिए लड़का या लड़की के चिह्न की उत्पति से पूर्व ही इस संस्कार को करना चाहिए। पुंसवन संस्कार से गर्भस्थ शिशु बलवान, शक्तिशाली एवं स्वस्थ बनता है।
तीसरा संस्कार सीमंतोन्नयन संस्कार है। इस संस्कार का उद्देश्य गर्भवती स्त्री को मानसिक शक्ति प्रदान करते हुए सकात्मक विचारों से पूर्ण बनाना है। गर्भस्थ शिशु के विकास के साथ माता के हृदय में नए-नए विचार व इच्छाएँ पैदा होती हैं। शिशु के मानसिक विकास में इनका बड़ा योगदान होता है। इस समय गर्भ में वह सब कुछ सुनता, समझता है और मां के प्रत्येक सुख-दु:ख का सहभागी होता हिय। इसलिए छटे से लेकर आठवें मास तक इस संस्कार को करने का विधान है।
अभिमन्यु ने इसी अवधि में चक्रव्यूह भेदन की शिक्षा अपनी माता के गर्भ में रहते हुए प्राप्त कर ली थी। इसी तरह भक्त प्रह्लाद की माता कयाधू को देवर्षि नारद ने जो भगवत भक्ति का उपदेश दिया था, उसे प्रह्लाद ने इसी अवधि में ग्रहण किया था। कुछ इसी तरह इसी अवधि में व्यासपुत्र शुकदेव ने अपनी माँ के गर्भ में सारा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। हिन्दू धर्म के मुताबिक उतम संतान की प्राप्ति के लिए गर्भ ठहरने से लेकर बच्चे के जन्म तक ये तीन संस्कार महत्वपूर्ण रूप से किए जाने चाहिए।
>>>> “गर्भ से लेकर 25 वर्ष की उम्र तक तैयार हो जाएगा स्वामी जी के सपनों का दिव्य मानव:” <<<<
स्वामी रामदेव जी महाराज बहुत कुछ वैदिक विधान और “सत्यार्थ प्रकास” के आलोक में ही शिशु के गर्भ में आने से लेकर उसके चक्रव्यूह होने तक दिव्य वातावरण में दिव्य मानव तैयार करेंगे। स्वामी रामदेव जी महाराज के अनुसार, गर्भवती माता का मन ध्यान-योग, स्वाध्याय युक्त व सात्विक वातावरण में स्वस्थ, मिलावट रहित स्वदेशी खान-पान से युक्त सात्विक भोजन से निर्मित होगा।
गर्भ ठहरने के उपरांत माता-पिता आश्रम में रहेंगे। शिशु के जन्म के बाद पिता को आश्रम से जाना होगा, हालांकि वह बीच-बीच में आता रहेगा। वहीं आठ वर्ष के होने तक माता अपने बच्चे के साथ रहेगी। जब बच्चे आठ वर्ष का हो जाएगा तो माता भी विदा हो जाएगी। उसके बाद बच्चे का 25 वर्ष तक शिक्षण चलेगा। इसमें सह शिक्षा का प्रावधान नहीं होगा, बल्कि युवक व युवती के लिए अलग-अलग शिक्षा व्यवस्था का प्रावधान किया जाएगा। शिक्षा के तहत वैदिक ज्ञान से लेकर आधुनिक ज्ञान तक की शिक्षा प्रदान की जाएगी। युवक-युवती का जितना नियंत्रण संस्कृत व उसकी मातृभाषा पर होगा, उतना ही नियंत्रण अंग्रेजी भाषा पर भी होगा।

“पूज्य स्वामी रामदेव जी महाराज जी के अनुसार, 25 वर्षों तक बिना किसी अशुभ आलंबन के पूर्ण शुभत्व के साथ ये आत्माएं पूर्ण जागृत व पूर्ण समर्थ बनेंगी, तो निश्चित रूप से धरती पर एक दिव्य परिवर्तन घटित होगा। इससे व्यक्ति व व्यवस्था में पूर्ण शुभ, धर्म, सत्य, दिव्यता व न्याय की प्रतिष्ठा होगी। सर्वत्र व्यष्टि व समष्टि में भगवत्ता स्थापित होगी।”
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नारी जो भी सोचेगी, उसी प्रकार के पुत्र को जन्म देगी।
गर्भवती माँ के विचारों की उठती उतराती लहरें शिशु मन
की रचना करती हैं।
मदालसा के सम्बन्ध में प्रचलित है कि अपनी भावी संतान
का जीवन क्रम वे स्वयं निश्चित करती थीं। फिर
उसी हिसाब से क्रियाएँ और चिन्तन गर्भावस्था में
करती थीं। कहा जाता है कि प्रथम तीन संतानों के गर्भकाल
में वे संतों द्वारा सत्संग श्रवण किया करती थीं। प्रभु भजन
व सुमिरन में लीन रहती थीं। गर्भस्थ शिशु को संबोधित करके
कहती थीं- हे मेरे पुत्र! तू शुद्ध है, बुद्ब है, सांसारिक
माया से निर्लिप्त है। उनकी इन्हीं क्रियाओं और
उद्गारों के फलस्वरूप उनकी ये तीनों संतानें विरक्त
ब्रह्मार्षि बनीं। इन सभी ने संन्यास धारण किया। परन्तु
बाद में उनके पति चिन्ताकुल हो गए। उन्होंने मदालसा से
कहा कि यदि हमारी सभी संतानें यूँ ही संन्यास को प्राप्त
हो गईं, तो फिर राज्य का भार कौन सम्भालेगा?
पति की चिन्ता के कारण सती मदालसा ने निर्णय
किया कि वे अपनी चौथी संतान में राजनीति के संस्कार
रोपित करेंगी। उन्होंने वैसा ही आचरण किया और समाज
को एक श्रेष्ठ सम्राट प्रदान किया।
इसी प्रकार नपोलियन बोना पार्ट की माता के संदर्भ में
भी प्रचलित है कि वह गर्भावस्था में विशेष रुचि से सैन्य दल
की परेड देखा करती थीं। वीर रस से ओत प्रोत गान सुनकर
उनमें उत्साह प्रफुल्ल हो उठता था। इसी रुझान के कारण
नेपोलियन जैसे जुझारू योद्धा का निर्माण हुआ।
क्लोनिंग के समर्थकों का मत है कि इस प्रणाली से विकसित
शिशु न्यूक्लिक मैटर देने वाले व्यक्ति की अक्षरश:
प्रतिकृति (क्लोन) होगा। उसके व्यक्तित्व निर्माण में कोख
देने वाली माता की कोई भूमिका नहीं होगी, वह उस
गुणसूत्र से विकसित होगा जो माता-पिता की ओर से आएंगे।
इसी तरह के विश्वास के कारण कई व्यस्त दंपती आजकल
अपनी संतान के लिए किसी किराए की कोख का इंतजाम कर
निश्चिन्त हो जाते हैं।
लेकिन उस कोख में सिर्फ शिशु की देह ही तो विकसित
नहीं होगी, उसकी चेतना भी विकसित होगी, उसमें संस्कार
भी पड़ेंगे। जिसकी कोख में वह होगा, उसके सोचने-विचारने,
उसकी गतिविधियों और उसकी मनोदशा का प्रभाव भी उस
पर पडे़गा। हम मातृत्व की इस भूमिका को पहचान लें,
तो शिशु के अच्छे संस्कारों के लिए भी प्रयास कर सकते हैं।
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गर्भ संस्कार यानी आधुनिक विज्ञान व परंपरागत
संस्कृति, इन दोनों का समायोजन। गर्भस्थ शिशु
की शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक
परिस्थिति का मार्गदर्शन व गर्भस्थ शिशु संस्कार
को ही गर्भसंस्कार कहते हैं। इसका नामकरण, वेद,
आयुर्वेद व धर्म ग्रंथों में मिलता है।
आज के आपाधापी के युग में माता-पिता पर करियर व
स्पर्धा के वातावरण के कारण अपने परिवार व बच्चे
पर ध्यान देने का समय नहीं होता है। वे अपने
बुजुर्गों द्वारा दिए गए संस्कार व शिक्षा का पालन
नहीं कर पाते हैं। आज की पीढ़ी में हमें उद्दंड, विकृत
मानसिकता वाले नीतिभ्रष्ट बच्चे दिखाई दे रहे हैं।
आतंकवाद, जिद्दी मनोवृत्ति, डिप्रेशन, मानसिक
दुर्बलता, ये कई समस्याएँ बड़े रूप में विश्व में दिखाई
दे रही हैं। इन सभी परिस्थितियों से लड़ने के लिए हमें
गर्भसंस्कार को बड़े रूप में लोगों के सामने प्रस्तुत
करना है। यह सिर्फ माता-पिता के लिए उपयोगी न
होकर राष्ट्र व पूर्ण संसार की समस्याओं
का निराकरण करने में उपयोगी सिद्ध होता है। जैसे
हम बाजार से कोई भी चीज खरीदते हैं तो उत्कृष्ट
चीज घर में लेकर आते हैं। अतः बच्चे को जन्म देकर घर
लाना हो तो वह भी उत्कृष्ट व सुसंस्कारित हो,
ऐसा हमारा संकल्प होना चाहिए।

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1.गर्भधारण संस्कार(GarbhDharan Sanskar):जीवन की शुरूआत गर्भ से होती है। क्योंकि यहां एक जिन्दग़ी जन्म लेती है। हम सभी चाहते हैं कि हमारे बच्चे, हमारी आने वाली पीढ़ी अच्छी हो उनमें अच्छे गुण हो और उनका जीवन खुशहाल रहे इसके लिए हम अपनी तरफ से पूरी पूरी कोशिश करते हैं। ज्योतिषशास्त्री कहते हैं कि अगर अंकुर शुभमुहुर्त में हो तो उसका परिणाम भी उत्तम होता है। माता पिता को ध्यान देना चाहिए कि गर्भ धारण शुभ मुहुर्त में हो।ज्योतिषशास्त्री बताते हैं कि गर्भधारण के लिए उत्तम तिथि होती है मासिक के पश्चात चतुर्थ व सोलहवीं तिथि (Fourth and Sisteenth tithi is very Auspicious for Garbh Dharan)। इसके अलावा षष्टी, अष्टमी, नवमी, दशमी, द्वादशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमवस्या की रात्रि गर्भधारण के लिए अनुकूल मानी जाती है।नक्षत्र(Nakshatra):गर्भधारण के लिए उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, मृगशिरा, अनुराधा, हस्त, स्वाती, श्रवण, घनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र बहुत ही शुभ और उत्तम माने गये हैं(For Garbhdharan Utrafalguni, uttrashada,Utrabhadrpad, Rohini, Mrighshira,Anuradha,Hast,Swati,Shravan,Ghanishta and Shatbhisha nakshatra are very Auspicious)।तिथि(Date):ज्योतिषशास्त्र में गर्भ धारण के लिए तिथियों पर भी विचार करने हेतु कहा गया है। इस संस्कार हेतु प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, द्वादशी, त्रयोदशी तिथि को बहुत ही अच्छा और शुभ कहा गया है (As per astrology Pratipada,Dwitiya,Tritya,Panchmi,Saptmi,Dashmi,Dwadashi,Triodashi are auspicious date for Garbhdharan)।वार(Day):गर्भ धारण के लिए वार की बात करें तो सबसे अच्छा वार है बुध, बृहस्पतिवार और शुक्रवार(Wednesday, Thursday and Friday are subh for Garbh Dharan)। इन वारों के अलावा गर्भधारण हेतु सोमवार का भी चयन किया जा सकता है, इसे इस कार्य हेतु मध्यम माना गया है।लग्न(Ascendent):ज्योतिष सिद्धान्त के अनुसार गर्भ धारण के समय लग्न शुभ होकर बलवान होना चाहिए(At the time of Garbh Daharan,Ascendent is alway Strong and Auspicious) तथा केन्द्र (1, 4 ,7, 10) एवं त्रिकोण (5,9) में शुभ ग्रह व 3, 6, 11 भावों में पाप ग्रह हो तो उत्तम रहता है। जब लग्न को सूर्य, मंगल और बृहस्पति देखता है और चन्द्रमा विषम नवमांश में होता है तो इसेश्रेष्ठ स्थिति माना जाता है।निषेध(Nished):ज्योतिषशास्त्र कहता है कि गर्भधारण उन स्थितियों में नहीं करना चाहिए जबकि जन्म के समय चन्द्रमा जिस भाव में था उस भाव से चतुर्थ, अष्टम भाव में चन्द्रमा स्थित हो। इसके अलावा तृतीय, पंचम या सप्तम तारा दोष बन रहा हो और भद्रा दोष लग रहा हो।ज्योतिषशास्त्र के इन सिद्धान्तों का पालन किया जाता तो कुल की मर्यादा और गौरव को बढ़ाने वाली संतान घर में जन्म लेती है।नोट:आप कम्पयूटर द्वारा स्वयं शुभ मुहुर्त निकाल सकते है़
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