Tuesday, 24 March 2015

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इस गांव में सब्ज़ी खरीदिए संस्कृत में


भारत में केंद्रीय विद्यालयों में संस्कृत या जर्मन पढ़ाए जाने की बहस से कर्नाटक का मत्तूरु गाँव लगभग अछूता है।
कर्नाटक की राजधानी बैंगलुरु से ३०० किलोमीटर दूर स्थित मत्तूरु गाँव के इस बहस से दूर होने की वजह थोड़ी अलग है ।
 यह एक ऐसा गाँव है जहाँ संस्कृत रोज़मर्रा की ज़बान है।
इस गाँव में यह बदलाव ३२ साल पहले स्वीकार की गई चुनौती के कारण आया। १९८१-८२ तक इस गाँव में राज्य की
 कन्नड़ भाषा ही बोली जाती थी।
कई लोग तमिल भी बोलते थे, क्योंकि पड़ोसी तमिलनाडु राज्य से बहुत सारे मज़दूर क़रीब १०० साल पहले यहाँ काम के
 सिलसिले में आकर बस गए थे।
इस गाँव के निवासी और स्थानीय शिमोगा कॉलेज में वाणिज्य विषय पढ़ाने वाले प्रोफ़ेसर एमबी श्रीनिधि ने बीबीसी हिन्दी को बताया,
 “दरअसल यह अपनी जड़ों की ओर लौटने जैसा एक आंदोलन था, जो संस्कृत-विरोधी आंदोलन के ख़िलाफ़ शुरू हुआ था। संस्कृत को
 ब्राह्मणों की भाषा कहकर आलोचना की जाती थी। इसे अचानक ही नीचे करके इसकी जगह कन्नड़ को दे दी गई। “
प्रोफ़ेसर श्रीनिधि कहते हैं, “इसके बाद पेजावर मठ के स्वामी ने इसे संस्कृत भाषी गाँव बनाने का आह्वान किया । हम सबने संस्कृत
में बातचीत का निर्णय करके एक नकारात्मक प्रचार को सकारात्मक मोड़ दे दिया । मात्र १० दिनों तक रोज़ दो घंटे के अभ्यास से पूरा 
गाँव संस्कृत में बातचीत करने लगा।”
तब से ३,५०० जनसंख्या वाले इस गाँव के न केवल संकेथी ब्राह्मण ही नहीं बल्कि दूसरे समुदायों को लोग भी संस्कृत में बात करते हैं।
इनमें सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित तबका भी शामिल है।
संकेथी ब्राह्मण एक छोटा सा ब्राह्मण समुदाय है जो सदियों पहले दक्षिणी केरल से आकर यहाँ बस गया था।
पूरे देश में क़रीब ३५,००० संकेथी ब्राह्मण हैं और जो कन्नड़, तमिल, मलयालम और थोड़ी-मोड़ी तेलुगु से बनी संकेथी भाषा बोलते हैं। 
लेकिन इस भाषा की कोई अपनी लिपि नहीं है।


स्थानीय स्कूल में स्थित सरस्वती देवी की मूर्ति

स्थानीय श्री शारदा विलास स्कूल के ४०० में से १५० छात्र राज्य शिक्षा बोर्ड के निर्देशों के अनुरूप कक्षा छह से आठ तक पहली भाषा के
 रूप में संस्कृत पढ़ते हैं।
कर्नाटक के स्कूलों में त्रिभाषा सूत्र के तहत दूसरी भाषा अंग्रेज़ी और तीसरी भाषा कन्नड़ या तमिल या कोई अन्य क्षेत्रीय भाषा पढ़ाई
 जाती है।
स्कूल के संस्कृत अध्यापक अनंतकृष्णन सातवीं कक्षा के सबसे होनहार छात्र इमरान से संस्कृत में एक सवाल पूछते हैं, जिसका वो
फ़ौरन जवाब देता है।


स्थानीय स्कूल में पढ़ाई करने वाली बच्चियाँ

इमरान कहते हैं, “इससे मुझे कन्नड़ को ज़्यादा बेहतर समझने में मदद मिली।”
उत्तरी कर्नाटक के सिरसी ज़िले के रहने वाले अनंतकृष्णन कहते हैं, “इमरान की संस्कृत में रुचि देखने लायक है।”
अनंतकृष्णन कहते हैं, “यहाँ के लोग अलग हैं। किंवदंती है कि यहाँ के लोगों ने विजयनगर के राजा से भूमि दान लेने से मना कर दिया
 था। क्या आपको पता है कि इस गाँव में कोई भूमि विवाद नहीं हुआ है?”
संस्कृत के विद्वान अश्वतनारायण अवधानी कहते हैं, “संस्कृत ऐसी भाषा है जिससे आप पुरानी परंपराएँ और मान्यताएँ सीखते हैं। 
ह्रदय की भाषा है और यह कभी नहीं मर सकती।”
संस्कृत भाषा ने इस गाँव के नौजवानों को इंजीनियरिंग या मेडिकल की पढ़ाई करने के लिए गाँव से बाहर जाने से रोका नहीं है।


स्थानीय स्कूल में स्थित विवेकानंद की मूर्ति

क्या संस्कृत सीखने से दूसरी भाषाएँ, ख़ासकर कम्प्यूटर विज्ञान की भाषाओं को सीखने में कोई मदद मिलती है?
बैंगलुरु की एक आईटी सॉल्यूशन कंपनी चलाने वाले शशांक कहते हैं, “अगर आप संस्कृत भाषा में गहरे उतर जाएं तो यह मदद 
करती है। मैंने थोड़ी वैदिक गणित सीखी है जिससे मुझे मदद मिली। दूसरे लोग कैलकुलेटर का प्रयोग करते हैं जबकि मुझे उसकी 
नहीं पड़ती।”
हालांकि वैदिक स्कूल से जुड़े हुए अरुणा अवधानी कहते हैं, “जीविका की चिंता की वज़ह से वेद पढ़ने में लोगों की रुचि कम हो
 गई है। स्थानीय स्कूल में बस कुछ दर्जन ही छात्र हैं।”
मत्तूरु में संस्कृत का प्रभाव काफ़ी गहरा है। गाँव की गृहिणी लक्ष्मी केशव आमतौर पर तो संकेथी बोलती हैं, लेकिन अपने बेटे या 
परिवार के किसी और सदस्य से ग़ुस्सा होने पर संस्कृत बोलने लगती हैं।
कर्नाटक के मत्तूरु गाँव में सुपारी की सफ़ाई का काम करती महिलाएँ
मज़दूर के रूप में सुपारी साफ़ करने वाले संयत्र में काम करने वाली तमिल भाषी चित्रा के लिए भी स्थिति ज़्यादा अलग नहीं है।
वो कहती हैं, “हम संस्कृत समझ लेते हैं। हालांकि हम में से कुछ इसे बोल नहीं पाते, लेकिन हमारे बच्चे बोल लेते हैं।”
प्रोफ़ेसर श्रीनिधि कहते हैं, “यह विवाद फ़जूल है। जिस तरह यूरोप की भाषाएँ यूरोप में बोली जाती हैं उसी तरह हमें संस्कृत बोलने
की ज़रूरत है। संस्कृत सीखने का ख़ास फ़ायदा यह है कि इससे न केवल आपको भारतीय भाषाओं को बल्कि जर्मन और फ़्रेंच जैसी
 भाषाओं को भी सीखने में मदद मिलती है ।”
स्त्रोत : बी बी सी हिंदी
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महाभारत के युद्ध में कौरवों और पांडवों द्वारा रचित व्यूह रचनाएँ....
१. वज्र व्यूह .. महाभारत युद्ध के प्रथम दिन अर्जुन ने अपनी सेना को इस व्यूह के आकार में सजाया था... इसका आकार देखने में इन्द्रदेव के वज्र जैसा होता था अतः इस प्रकार के व्यूह को "वज्र व्यूह" कहते हैं!
२. चक्रशकट व्यूह ... अभिमन्यु की हत्या के पश्चात जब अर्जुन, जयद्रथ के प्राण लेने को उद्धत हुए, तब गुरु द्रोणाचार्य ने जयद्रथ की रक्षा के लिए युद्ध के चौदहवें दिन इस व्यूह की रचना की थी!
३. मंडल व्यूह ... भीष्म पितामह ने युद्ध के सांतवे दिन कौरव सेना को इसी मंडल व्यूह द्वारा सजाया था... इसका गठन परिपत्र रूप में होता था... ये बेहद कठिन व्यूहों में से एक था... पर फिर भी पांडवों ने इसे वज्र व्यूह द्वारा भेद दिया था... इसके प्रत्युत्तर में भीष्म ने "औरमी व्यूह" की रचना की थी... इसका तात्पर्य होता है समुद्र... ये समुद्र की लहरों के समान प्रतीत होता था... फिर इसके प्रत्युत्तर में अर्जुन ने "श्रीन्गातका व्यूह" की रचना की थी... ये व्यूह एक भवन के समान दिखता था...
४. क्रौंच व्यूह ... क्रौंच एक पक्षी होता है... जिसे आधुनिक भाषा में Demoiselle Crane कहते हैं... ये सारस की एक प्रजाति है...इस व्यूह का आकार इसी पक्षी की तरह होता है... युद्ध के दूसरे दिन युधिष्ठिर ने पांचाल पुत्र को इसी क्रौंच व्यूह से पांडव सेना सजाने का सुझाव दिया था... राजा द्रुपद इस पक्षी के सर की तरफ थे, तथा कुन्तीभोज इसकी आँखों के स्थान पर थे... आर्य सात्यकि की सेना इसकी गर्दन के स्थान पर थे... भीम तथा पांचाल पुत्र इसके पंखो (Wings) के स्थान पर थे... द्रोपदी के पांचो पुत्र तथा आर्य सात्यकि इसके पंखो की सुरक्षा में तैनात थे...इस तरह से हम देख सकते है की, ये व्यूह बहुत ताकतवर एवं असरदार था... पितामह भीष्म ने स्वयं इस व्यूह से अपनी कौरव सेना सजाई थी... भूरिश्रवा तथा शल्य इसके पंखो की सुरक्षा कर रहे थे... सोमदत्त, अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा इस पक्षी के विभिन्न अंगों का दायित्व संभाल रहे थे...
५. प्रसिद्ध चक्रव्यूह ... इसके बारे में सभी ने सुना है... इसकी रचना गुरु द्रोणाचार्य ने युद्ध के तेरहवें दिन की थी... दुर्योधन इस चक्रव्यूह के बिलकुल मध्य (Centre) में था... बाकि सात महारथी इस व्यूह की विभिन्न परतों (layers) में थे... इस व्यूह के द्वार पर जयद्रथ था... सिर्फ अभिमन्यु ही इस व्यूह को भेदने में सफल हो पाया... पर वो अंतिम द्वार को पार नहीं कर सका... तथा बाद में ७ महारथियों द्वारा उसकी हत्या कर दी गयी...इसके व्यूह के बारे में ज्यादा चर्चा की आवश्यकता नहीं है... इस व्यूह का संपूर्ण विवरण आपको हर कही मिल जाएगा...
६. अर्धचन्द्र व्यूह ... इसकी रचना अर्जुन ने कौरवों के गरुड़ व्यूह के प्रत्युत्तर में की थी... पांचाल पुत्र ने इस व्यूह को बनाने में अर्जुन की सहायता की थी ... इसके दाहिने तरफ भीम थे... इसकी उर्ध्व दिशा में द्रुपद तथा विराट नरेश की सेनाएं थी... उनके ठीक आगे पांचाल पुत्र, नील, धृष्टकेतु, और शिखंडी थे... युधिष्ठिर इसके मध्य में थे... सात्यकि, द्रौपदी के पांच पुत्र, अभिमन्यु, घटोत्कच, कोकय बंधु इस व्यूह के बायीं ओर थे... तथा इसके अग्र भाग पर अर्जुन स्वयं सच्चिदानंद स्वरुप भगवन श्रीकृष्ण के साथ थे!
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होनहार बिरवान के होत चिकने पात. जी हां अगर किसी  में प्रतिभा हो, तो वह उसकी शख्सियत में बचपन से ही नजर आता है. इसकी उदाहरण बनी हैं आंध्र प्रदेश की तीन वर्षीय तीरंदाज डॉली शिवानी. शिवानी ने आंध्रप्रदेश में आयोजित तीरदांजी प्रतियोगिता में 388 अंक प्राप्त किये और एक नया राष्ट्रीय रिकॉर्ड कायम किया. 

पांच मीटर और सात मीटर की दूरी से तीरंदाजी करके शिवानी ने 200 अंक हासिल किये और सबसे कम उम्र की भारतीय बन गयी हैं.डॉली शिवानी का जन्म सरोगेसी तकनीक के जरिये हुआ है. शिवानी का बड़ा भाई अंतरराष्ट्रीय स्तर का तीरंदाज था, उसकी मृत्यु सड़क दुर्घटना में हो गयी थी और उसकी बड़ी बहन का देहांत 2004 में हो गया था. शिवानी के पिता सत्यनारायण चेरूकुरी एक तीरंदाजी अकादमी चलाते हैं उन्होंने बताया कि शिवानी के जन्म से पहले ही उन्होंने उसे तीरंदाज बनाने का सोच लिया था. 


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