23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई। फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की नहीं बल्कि राम प्रसाद 'बिस्मिल' की जीवनी[4] पढ़ रहे थे जो सिन्ध (वर्तमान पाकिस्तान का एक सूबा) के एक प्रकाशक भजन लाल बुकसेलर ने आर्ट प्रेस, सिन्ध से छापी थी।
कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- "ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले।" फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले - "ठीक है अब चलो।" फाँसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे - मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे; मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला।। फाँसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाये इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किये फिर इसे बोरियों में भरकर फिरोजपुर की ओर ले गये जहाँ घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा। गाँव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आये। इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंका और भाग गये।
जब गाँव वाले पास आये तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया। और भगत सिंह हमेशा के लिये अमर हो गये। इसके बाद लोग अंग्रेजों के साथ-साथ गान्धी को भी इनकी मौत का जिम्मेवार समझने लगे। इस कारण जब गान्धी कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में हिस्सा लेने जा रहे थे तो लोगों ने काले झण्डों के साथ गान्धीजी का स्वागत किया। एकाध जग़ह पर गान्धी पर हमला भी हुआ, किन्तु सादी वर्दी में उनके साथ चल रही पुलिस ने बचा लिया
........................
23 मार्च का दिन उन आम दिनों की तरह ही शुरू हुआ जब सुबह के समय राजनीतिक बंदियों को उनके बैरक से बाहर निकाला जाता था। आम तौर पर वे दिन भर बाहर रहते थे और सूरज ढलने के बाद वापस अपने बैरकों में चले जाते थे। लेकिन आज वार्डन चरत सिंह शाम करीब चार बजे ही सभी कैदियों को अंदर जाने को कह रहा था। सभी हैरान थे, आज इतनी जल्दी क्यों। पहले तो वार्डन की डांट के बावजूद सूर्यास्त के काफी देर बाद तक वे बाहर रहते थे। लेकिन आज वह आवाज काफी कठोर और दृढ़ थी। उन्होंने यह नहीं बताया कि क्यों? बस इतना कहा, ऊपर से ऑर्डर है।
चरत सिंह द्वारा क्रांतिकारियों के प्रति नरमी और माता-पिता की तरह देखभाल उन्हें दिल तक छू गई थी। वे सभी उसकी इज्जत करते थे। इसलिए बिना किसी बहस के सभी आम दिनों से चार घंटे पहले ही अपने-अपने बैरकों में चले गए। लेकिन सभी कौतूहल से सलाखों के पीछे से झांक रहे थे। तभी उन्होंने देखा बरकत नाई एक के बाद कोठरियों में जा रहा था और बता रहा था कि आज भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी पर चढ़ा दिया जाएगा।
हमेशा की तरह मुस्कुराने वाला बरकत आज काफी उदास था। सभी कैदी खामोश थे, कोई कुछ भी बात नहीं कर पा रहा था। सभी अपनी कोठरियों के बाहर से जाते रास्ते की ओर देख रहे थे। वे उम्मीद कर रहे थे कि शायद इसी रास्ते से भगत सिंह और उनके साथी गुजरेंगे।
फांसी के दो घंटे पहले भगत सिंह के वकील मेहता को उनसे मिलने की इजाजत मिल गई। उन्होंने अपने मुवक्किल की आखिरी इच्छा जानने की दरखास्त की थी और उसे मान लिया गया। भगत सिंह अपनी कोठरी में ऐसे आगे-पीछे घूम रहे थे जैसे कि पिंजरे में कोई शेर घूम रहा हो। उन्होंने मेहता का मुस्कुराहट के साथ स्वागत किया और उनसे पूछा कि क्या वे उनके लिए 'दि रेवोल्यूशनरी लेनिन' नाम की किताब लाए हैं। भगत सिंह ने मेहता से इस किताब को लाने का अनुरोध किया था। जब मेहता ने उन्हें किताब दी, वे बहुत खुश हुए और तुरंत पढ़ना शुरू कर दिया, जैसे कि उन्हें मालूम था कि उनके पास वक्त ज्यादा नहीं है। मेहता ने उनसे पूछा कि क्या वे देश को कोई संदेश देना चाहेंगे, अपनी निगाहें किताब से बिना हटाए भगत सिंह ने कहा, मेरे दो नारे उन तक पहुंचाएं..इंकलाब जिंदाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद। मेहता ने भगत सिंह से पूछा आज तुम कैसे हो? उन्होंने कहा, हमेशा की तरह खुश हूं। मेहता ने फिर पूछा, तुम्हें किसी चीज की इच्छा है? भगत सिंह ने कहा, हां मैं दुबारा इस देश में पैदा होना चाहता हूं ताकि इसकी सेवा कर सकूं । भगत ने कहा, सरदार पटेल और सुभाष चंद्र बोस ने जो रुचि उनके मुकदमे में दिखाई उसके लिए दोनों का धन्यवाद करें ।
मेहता के जाने के तुरंत बाद अधिकारियों ने भगत सिंह और उनके साथियों को बताया कि उन्हें फांसी का समय 11 घंटा घटाकर कल सुबह छह बजे की बजाए आज साम सात बजे कर दिया गया है। भगत सिंह ने मुश्किल से किताब के कुछ पन्ने ही पढ़े थे। उन्होंने कहा, क्या आप मुझे एक अध्याय पढ़ने का भी वक्त नहीं देंगे? बदले में अधिकारी ने उनसे फांसी के तख्ते की तरफ चलने को कहा। एक-एक करके तीनों का वजन किया गया। फिर वे नहाए और कपड़े पहने। वार्डन चतर सिंह ने भगत सिंह के कान में कहा, वाहे गुरु से प्रार्थना कर ले। वे हंसे और कहा, मैंने पूरी जिंदगी में भगवान को कभी याद नहीं किया, बल्कि दुखों और गरीबों की वजह से कोसा जरूर हूं। अगर अब मैं उनसे माफी मांगूगा तो वे कहेंगे कि यह डरपोक है जो माफी चाहता है क्योंकि इसका अंत करीब आ गया है।
तीनों के हाथ बंधे थे और वे संतरियों के पीछे एक-दूसरे से ठिठोली करते हुए सूली की तरफ बढ़ रहे थे। उन्होंने फिर गाना शुरू कर दिया-'कभी वो दिन भी आएगा कि जब आजाद हम होंगे, ये अपनी ही जमीं होगी ये अपना आसमां होगा। शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मिटने वालों का बाकी यही नाम-ओ-निशां होगा।'
जेल की घड़ी में साढ़े छह बज रहे थे। कैदियों ने थोड़ी दूरी पर, भारी जूतों की आवाज और जाने-पहचाने गीत, 'सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है' की आवाज सुनी। उन्होंने एक और गीत गाना शुरू कर दिया, 'माई रंग दे मेरा बसंती चोला' और इसके बाद वहां 'इंकलाब जिंदाबाद' और 'हिंदुस्तान आजाद हो' के नारे लगने लगे। सभी कैदी भी जोर-जोर से नारे लगाने लगे।
तीनों को फांसी के तख्ते तक ले जाया गया। भगत सिंह बीच में थे। तीनों से आखिरी इच्छा पूछी गई तो भगत सिंह ने कहा वे आखिरी बार दोनों साथियों से गले लगना चाहते हैं और ऐसा ही हुआ। फिर तीनों ने रस्सी को चूमा और अपने गले में खुद पहन लिए। फिर उनके हाथ-पैर बांध दिए गए। जल्लाद ने ठीक शाम 7:33 बजे रस्सी खींच दी और उनके पैरों के नीचे से तख्ती हटा दी गई। उनके दुर्बल शरीर काफी देर तक सूली पर लटकते रहे फिर उन्हें नीचे उतारा और जांच के बाद डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया।
सब कुछ शांत हो चुका था। फांसी के बाद चरत सिंह वार्ड की तरफ आया और फूट-फूट कर रोने लगा। उसने अपनी तीस साल की नौकरी में बहुत सी फांसियां देखी थीं, लेकिन किसी को भी हंसते-मुस्कराते सूली पर चढ़ते नहीं देखा था, जैसा कि उन तीनों ने किया था ।
कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- "ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले।" फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले - "ठीक है अब चलो।" फाँसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे - मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे; मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला।। फाँसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाये इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किये फिर इसे बोरियों में भरकर फिरोजपुर की ओर ले गये जहाँ घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा। गाँव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आये। इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंका और भाग गये।
जब गाँव वाले पास आये तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया। और भगत सिंह हमेशा के लिये अमर हो गये। इसके बाद लोग अंग्रेजों के साथ-साथ गान्धी को भी इनकी मौत का जिम्मेवार समझने लगे। इस कारण जब गान्धी कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में हिस्सा लेने जा रहे थे तो लोगों ने काले झण्डों के साथ गान्धीजी का स्वागत किया। एकाध जग़ह पर गान्धी पर हमला भी हुआ, किन्तु सादी वर्दी में उनके साथ चल रही पुलिस ने बचा लिया
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23 मार्च का दिन उन आम दिनों की तरह ही शुरू हुआ जब सुबह के समय राजनीतिक बंदियों को उनके बैरक से बाहर निकाला जाता था। आम तौर पर वे दिन भर बाहर रहते थे और सूरज ढलने के बाद वापस अपने बैरकों में चले जाते थे। लेकिन आज वार्डन चरत सिंह शाम करीब चार बजे ही सभी कैदियों को अंदर जाने को कह रहा था। सभी हैरान थे, आज इतनी जल्दी क्यों। पहले तो वार्डन की डांट के बावजूद सूर्यास्त के काफी देर बाद तक वे बाहर रहते थे। लेकिन आज वह आवाज काफी कठोर और दृढ़ थी। उन्होंने यह नहीं बताया कि क्यों? बस इतना कहा, ऊपर से ऑर्डर है।
चरत सिंह द्वारा क्रांतिकारियों के प्रति नरमी और माता-पिता की तरह देखभाल उन्हें दिल तक छू गई थी। वे सभी उसकी इज्जत करते थे। इसलिए बिना किसी बहस के सभी आम दिनों से चार घंटे पहले ही अपने-अपने बैरकों में चले गए। लेकिन सभी कौतूहल से सलाखों के पीछे से झांक रहे थे। तभी उन्होंने देखा बरकत नाई एक के बाद कोठरियों में जा रहा था और बता रहा था कि आज भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी पर चढ़ा दिया जाएगा।
हमेशा की तरह मुस्कुराने वाला बरकत आज काफी उदास था। सभी कैदी खामोश थे, कोई कुछ भी बात नहीं कर पा रहा था। सभी अपनी कोठरियों के बाहर से जाते रास्ते की ओर देख रहे थे। वे उम्मीद कर रहे थे कि शायद इसी रास्ते से भगत सिंह और उनके साथी गुजरेंगे।
फांसी के दो घंटे पहले भगत सिंह के वकील मेहता को उनसे मिलने की इजाजत मिल गई। उन्होंने अपने मुवक्किल की आखिरी इच्छा जानने की दरखास्त की थी और उसे मान लिया गया। भगत सिंह अपनी कोठरी में ऐसे आगे-पीछे घूम रहे थे जैसे कि पिंजरे में कोई शेर घूम रहा हो। उन्होंने मेहता का मुस्कुराहट के साथ स्वागत किया और उनसे पूछा कि क्या वे उनके लिए 'दि रेवोल्यूशनरी लेनिन' नाम की किताब लाए हैं। भगत सिंह ने मेहता से इस किताब को लाने का अनुरोध किया था। जब मेहता ने उन्हें किताब दी, वे बहुत खुश हुए और तुरंत पढ़ना शुरू कर दिया, जैसे कि उन्हें मालूम था कि उनके पास वक्त ज्यादा नहीं है। मेहता ने उनसे पूछा कि क्या वे देश को कोई संदेश देना चाहेंगे, अपनी निगाहें किताब से बिना हटाए भगत सिंह ने कहा, मेरे दो नारे उन तक पहुंचाएं..इंकलाब जिंदाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद। मेहता ने भगत सिंह से पूछा आज तुम कैसे हो? उन्होंने कहा, हमेशा की तरह खुश हूं। मेहता ने फिर पूछा, तुम्हें किसी चीज की इच्छा है? भगत सिंह ने कहा, हां मैं दुबारा इस देश में पैदा होना चाहता हूं ताकि इसकी सेवा कर सकूं । भगत ने कहा, सरदार पटेल और सुभाष चंद्र बोस ने जो रुचि उनके मुकदमे में दिखाई उसके लिए दोनों का धन्यवाद करें ।
मेहता के जाने के तुरंत बाद अधिकारियों ने भगत सिंह और उनके साथियों को बताया कि उन्हें फांसी का समय 11 घंटा घटाकर कल सुबह छह बजे की बजाए आज साम सात बजे कर दिया गया है। भगत सिंह ने मुश्किल से किताब के कुछ पन्ने ही पढ़े थे। उन्होंने कहा, क्या आप मुझे एक अध्याय पढ़ने का भी वक्त नहीं देंगे? बदले में अधिकारी ने उनसे फांसी के तख्ते की तरफ चलने को कहा। एक-एक करके तीनों का वजन किया गया। फिर वे नहाए और कपड़े पहने। वार्डन चतर सिंह ने भगत सिंह के कान में कहा, वाहे गुरु से प्रार्थना कर ले। वे हंसे और कहा, मैंने पूरी जिंदगी में भगवान को कभी याद नहीं किया, बल्कि दुखों और गरीबों की वजह से कोसा जरूर हूं। अगर अब मैं उनसे माफी मांगूगा तो वे कहेंगे कि यह डरपोक है जो माफी चाहता है क्योंकि इसका अंत करीब आ गया है।
तीनों के हाथ बंधे थे और वे संतरियों के पीछे एक-दूसरे से ठिठोली करते हुए सूली की तरफ बढ़ रहे थे। उन्होंने फिर गाना शुरू कर दिया-'कभी वो दिन भी आएगा कि जब आजाद हम होंगे, ये अपनी ही जमीं होगी ये अपना आसमां होगा। शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मिटने वालों का बाकी यही नाम-ओ-निशां होगा।'
जेल की घड़ी में साढ़े छह बज रहे थे। कैदियों ने थोड़ी दूरी पर, भारी जूतों की आवाज और जाने-पहचाने गीत, 'सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है' की आवाज सुनी। उन्होंने एक और गीत गाना शुरू कर दिया, 'माई रंग दे मेरा बसंती चोला' और इसके बाद वहां 'इंकलाब जिंदाबाद' और 'हिंदुस्तान आजाद हो' के नारे लगने लगे। सभी कैदी भी जोर-जोर से नारे लगाने लगे।
तीनों को फांसी के तख्ते तक ले जाया गया। भगत सिंह बीच में थे। तीनों से आखिरी इच्छा पूछी गई तो भगत सिंह ने कहा वे आखिरी बार दोनों साथियों से गले लगना चाहते हैं और ऐसा ही हुआ। फिर तीनों ने रस्सी को चूमा और अपने गले में खुद पहन लिए। फिर उनके हाथ-पैर बांध दिए गए। जल्लाद ने ठीक शाम 7:33 बजे रस्सी खींच दी और उनके पैरों के नीचे से तख्ती हटा दी गई। उनके दुर्बल शरीर काफी देर तक सूली पर लटकते रहे फिर उन्हें नीचे उतारा और जांच के बाद डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया।
सब कुछ शांत हो चुका था। फांसी के बाद चरत सिंह वार्ड की तरफ आया और फूट-फूट कर रोने लगा। उसने अपनी तीस साल की नौकरी में बहुत सी फांसियां देखी थीं, लेकिन किसी को भी हंसते-मुस्कराते सूली पर चढ़ते नहीं देखा था, जैसा कि उन तीनों ने किया था ।
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