1857 के स्वतंत्रता आंदोलन के अनजाने तथ्य : 1857 सैनिक विद्रोह नहीं अपितु आजादी का जन आँदोलन था
1857 की क्रांति एक क्रांति है जिसे इतिहास ने गाया नहीं भारत का इतिहास बताता हैं की प्रथम संग्राम की ज्वाला मेरठ की छावनी में भड़की थी किन्तु इन ऐतिहासिक तथ्यों के पीछे एक सचाई गुम है, वह यह कि आजादी की लड़ाई शुरू करने वाले मेरठ के संग्राम से भी 15 साल पहले बुन्देलखंड की धर्मनगरी चित्रकूट में एक क्रांति का सूत्रपात हुआ था।
पवित्र मंदाकिनी के किनारे गोकशी के खिलाफ एकजुट हुई जनता ने मऊ तहसील में अदालत लगाकर पांच फिरंगी अफसरों को फांसी पर लटका दिया। इसके बाद जब-जब अंग्रेजों या फिर उनके किसी पिछलग्गू ने बुंदेलों की शान में गुस्ताखी का प्रयास किया तो उसका सिर कलम कर दिया गया।
इस क्रांति के नायक थे आजादी के प्रथम संग्राम की ज्वाला के सीधे-साधे हरबोले।
संघर्ष की दास्तां को आगे बढ़ाने में महिलाओं की ‘घाघरा पलटन’ की भी अहम हिस्सेदारी थी।
आजादी के संघर्ष की पहली मशाल सुलगाने वाले बुन्देलखंड के रणबांकुरे इतिहास के पन्नों में जगह नहीं पा सके, लेकिन उनकी शूरवीरता की तस्दीक फिरंगी अफसर खुद कर गये हैं। अंग्रेज अधिकारियों द्वारा लिखे बांदा गजट में एक ऐसी कहानी दफन है, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं।
गजेटियर के पन्ने पलटने पर मालूम होता है कि वर्ष 1857 में मेरठ की छावनी में फिरंगियों की फौज के सिपाही मंगल पाण्डेय के विद्रोह से भी 15 साल पहले चित्रकूट में क्रांति की चिंगारी भड़क चुकी थी। दरअसल अतीत के उस दौर में धर्मनगरी की पवित्र मंदाकिनी नदी के किनारे अंग्रेज अफसर गायों का वध कराते थे।
आजादी के संघर्ष की पहली मशाल सुलगाने वाले बुन्देलखंड के रणबांकुरे इतिहास के पन्नों में जगह नहीं पा सके, लेकिन उनकी शूरवीरता की तस्दीक फिरंगी अफसर खुद कर गये हैं। अंग्रेज अधिकारियों द्वारा लिखे बांदा गजट में एक ऐसी कहानी दफन है, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं।
गजेटियर के पन्ने पलटने पर मालूम होता है कि वर्ष 1857 में मेरठ की छावनी में फिरंगियों की फौज के सिपाही मंगल पाण्डेय के विद्रोह से भी 15 साल पहले चित्रकूट में क्रांति की चिंगारी भड़क चुकी थी। दरअसल अतीत के उस दौर में धर्मनगरी की पवित्र मंदाकिनी नदी के किनारे अंग्रेज अफसर गायों का वध कराते थे।
गौमांस को बिहार और बंगाल में भेजकर वहां से एवज में रसद और हथियार मंगाये जाते थे। आस्था की प्रतीक मंदाकिनी किनारे एक दूसरी आस्था यानी गोवंश की हत्या से स्थानीय जनता विचलित थी, लेकिन फिरंगियों के खौफ के कारण जुबान बंद थी।कुछ लोगों ने हिम्मत दिखाते हुए मराठा शासकों और मंदाकिनी पार के ‘नया गांव’ के चौबे राजाओं से फरियाद लगायी, लेकिन दोनों शासकों ने अंग्रेजों की मुखालफत करने से इंकार कर दिया। गुहार बेकार गयी, नतीजे में सीने के अंदर प्रतिशोध की ज्वाला धधकती रही। इसी दौरान गांव-गांव घूमने वाले हरबोलों ने गौकशी के खिलाफ लोगों को जागृत करते हुए एकजुट करना शुरू किया। फिर वर्ष 1842 के जून महीने की छठी तारीख को वह हुआ, जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। हजारों की संख्या में निहत्थे मजदूरों, नौजवानों और महिलाओं ने मऊ तहसील को घेरकर फिरंगियों के सामने बगावत के नारे बुलंद किये। तहसील में गोरों के खिलाफ आवाज बुलंद हुई तो बुंदेलों की भुजाएं फड़कने लगीं।देखते-देखते अंग्रेज अफसर बंधक थे, इसके बाद पेड़ के नीचे ‘जनता की अदालत’ लगी और बाकायदा मुकदमा चलाकर पांच अंग्रेज अफसरों को फांसी पर लटका दिया गया। जनक्रांति की यह ज्वाला मऊ में दफन होने के बजाय राजापुर बाजार पहुंची और अंग्रेज अफसर खदेड़ दिये गये। वक्त की नजाकत देखते हुए मर्का और समगरा के जमींदार भी आंदोलन में कूद पड़े। दो दिन बाद 8 जून को बबेरू बाजार सुलगा तो वहां के थानेदार और तहसीलदार को जान बचाकर भागना पड़ा। जौहरपुर, पैलानी, बीसलपुर, सेमरी से अंग्रेजों को खदेड़ने के साथ ही तिंदवारी तहसील के दफ्तर में क्रांतिकारियों ने सरकारी रिकार्डो को जलाकर तीन हजार रुपये भी लूट लिये। आजादी की ज्वाला भड़कने पर गोरी हुकूमत ने अपने पिट्ठू शासकों को हुक्म जारी करते हुए क्रांतिकारियों को कुचलने के लिए कहा। इस फरमान पर पन्ना नरेश ने एक हजार सिपाही, एक तोप, चार हाथी और पचास बैल भेजे, छतरपुर की रानी व गौरिहार के राजा के साथ ही अजयगढ़ के राजा की फौज भी चित्रकूट के लिए कूच कर चुकी थी। दूसरी ओर बांदा छावनी में दुबके फिरंगी अफसरों ने बांदा नवाब से जान की गुहार लगाते हुए बीवी-बच्चों के साथ पहुंच गये। इधर विद्रोह को दबाने के लिए बांदा-चित्रकूट पहुंची भारतीय राजाओं की फौज के तमाम सिपाही भी आंदोलनकारियों के साथ कदमताल करने लगे। नतीजे में उत्साही क्रांतिकारियों ने 15 जून को बांदा छावनी के प्रभारी मि. काकरेल को पकड़ने के बाद गर्दन को धड़ से अलग कर दिया। इसके बाद आवाम के अंदर से अंग्रेजों का खौफ खत्म करने के लिए कटे सिर को लेकर बांदा की गलियों में घूमे।काकरेल की हत्या के दो दिन बाद राजापुर, मऊ, बांदा, दरसेंड़ा, तरौहां, बदौसा, बबेरू, पैलानी, सिमौनी, सिहुंडा के बुंदेलों ने युद्ध परिषद का गठन करते हुए बुंदेलखंड को आजाद घोषित कर दिया। जब इस क्रांति के बारे में स्वयं अंग्रेज अफसर लिख कर गए हैं तो भारतीय इतिहासकारों ने इन तथ्यों को इतिहास के पन्नों में स्थान क्यों नहीं दिया?
सच पूछा जाये तो यह एक वास्तविक जनांदोलन था क्योकि इसमें कोई नेता नहीं था बल्कि आन्दोलनकारी आम जनता ही थी इसलिए इतिहास में स्थान न पाना बुंदेलों के संघर्ष को नजर अंदाज करने के बराबर है..!!
1857 में मेरठ में तैनात ईस्ट इंडिया कंपनी की थर्ड कैवेलरी, 11वीं और 12वीं इन्फेंट्री के ब्रिटिश जवान पारंपरिक चर्च परेड में हिस्सा लेने वाले थे। गर्मी का मौसम था इसीलिए परेड आधे घंटे की देरी से शुरू होनी थी। इस परेड में अंग्रेज सैनिक निहत्थे हुआ करते थे।
राइफल में इस्तेमाल के लिए गाय व सूअर की चर्बी से बने कारतूस दिए जाने को लेकर इस इन्फेंट्री में तैनात भारतीय जवानों में गुस्सा 6 मई से ही था। 90 भारतीय जवानों को ये कारतूसें दी गई थीं और इनमें से 85 में इनका इस्तेमाल करने से इन्कार कर दिया था। नतीजा यह हुआ कि इनका कोर्ट मार्शल किया गया और इन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई। उसी दिन भारतीय जवानों ने बगावत का मन बना लिया। इन जवानों ने सोच-समझ कर रविवार का दिन चुना क्योंकि इन्हें मालूम था कि अंग्रेज सैनिक निहत्थे चर्च परेड में जाएंगे। लेकिन आधे घंटे की देरी की जानकारी उन्हें नहीं थी। लिहाजा वे बैरक में रखे हथियार व कारतूसों पर तो कब्जा नहीं जमा पाए लेकिन कई अफसरों को मौत के घाट जरूर उतार दिया। अंग्रेज सैनिकों ने खुद की और हथियारों की रक्षा जरूर की लेकिन भारतीय जवानों का सामना नहीं कर पाए। इधर ये क्रांतिकारी हिंदुस्तानी सैनिक आजीवन कारावास में कैद अपने साथियों को छुड़ाकर ‘मारो फिरंगियों को’ के नारे बुलंद करने लगे। इससे पहले कि अंग्रेज बहादुर और उनके सैनिक कुछ समझ पाते इन सैनिकों का यह जत्था दिल्ली के लिए रवाना हो गया।
राइफल में इस्तेमाल के लिए गाय व सूअर की चर्बी से बने कारतूस दिए जाने को लेकर इस इन्फेंट्री में तैनात भारतीय जवानों में गुस्सा 6 मई से ही था। 90 भारतीय जवानों को ये कारतूसें दी गई थीं और इनमें से 85 में इनका इस्तेमाल करने से इन्कार कर दिया था। नतीजा यह हुआ कि इनका कोर्ट मार्शल किया गया और इन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई। उसी दिन भारतीय जवानों ने बगावत का मन बना लिया। इन जवानों ने सोच-समझ कर रविवार का दिन चुना क्योंकि इन्हें मालूम था कि अंग्रेज सैनिक निहत्थे चर्च परेड में जाएंगे। लेकिन आधे घंटे की देरी की जानकारी उन्हें नहीं थी। लिहाजा वे बैरक में रखे हथियार व कारतूसों पर तो कब्जा नहीं जमा पाए लेकिन कई अफसरों को मौत के घाट जरूर उतार दिया। अंग्रेज सैनिकों ने खुद की और हथियारों की रक्षा जरूर की लेकिन भारतीय जवानों का सामना नहीं कर पाए। इधर ये क्रांतिकारी हिंदुस्तानी सैनिक आजीवन कारावास में कैद अपने साथियों को छुड़ाकर ‘मारो फिरंगियों को’ के नारे बुलंद करने लगे। इससे पहले कि अंग्रेज बहादुर और उनके सैनिक कुछ समझ पाते इन सैनिकों का यह जत्था दिल्ली के लिए रवाना हो गया।
महत्वपूर्ण यह है कि मेरठ में इतना बड़ा कांड हो चुका था लेकिन शहर में आमतौर पर शांति थी और किसी को इस पूरे वाकये का ठीक-ठीक पता भी नहीं था!
1857 के स्वतंत्रता संग्राम पर उपलब्ध तथ्य और कथ्य बताते हैं कि हिंदुस्तानी सैनिकों ने मई की रात विक्टोरिया जेल तोड़कर अपने 85 सैनिकों को रिहा कराकर कच्चे रास्ते से दिल्ली की ओर कूच किया। यह कच्चा रास्ता और बैरक आज भी बरकरार है। उन्होंने बताया कि तब मेरठ से दिल्ली के लिए सड़क नहीं बनी थी। सैनिकों ने छोटा रास्ता अपनाया। सैनिक कच्चे रास्ते से मोहिद्दीनपुर, मोदीनगर, गाजिउद्दीनपुर से बागपत में यमुना पुल पार करके दिल्ली पहुंच गए। दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के प्राध्यापक डॉ. विजय काचरू का कहना है कि यह क्रांति इतिहास की एक विभाजन रेखा है। इसे केवल सैन्य विद्रोह नहीं कह सकते। क्योंकि जिन लोगों ने दिल्ली कूच किया वह समाज के हर वर्ग से आए थे। यह व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह था। इस विद्रोह के बाद भारतीय और अंग्रेज दोनों की विचारधारा में परिवर्तन आया। भारतीय और राष्ट्रवादी हुए और अंग्रेज और प्रतिरक्षात्मक। दादरी क्षेत्र के जिन क्रांतिकारियों को अंग्रेजों ने फांसी पर लटकाया था, उनके नाम का शिलालेख दादरी तहसील में लगा हुआ है। यहां एक छोटा स्मारक भी बना है। यहां राव उमराव सिंह की मूर्ति दादरी तिराहे पर लगी है। इसके अलावा, शहीदों का कोई चिन्ह जिले में शेष नहीं बचा है।
1857 के गदर में 10 मई को मेरठ के ज्वाला की आग जब कानपुर पहुंची तो कई नवाब यहां से लखनऊ चले गए। जिन्हें बाद में अंग्रेज गिरफ्तार करके ऊंट पर बिठाकर कानपुर ले आए और मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया। सामान कुर्क कर उन्हें कैद कर लिया। 1अक्टूबर 1896 में सैयद कमालुद्दीन हैदर ने अपनी पुस्तक तारीख-ए-अवध में लिखा है कि नवाब दूल्हा हाता पटकापुर में एक मेम मारी गईं। इस जुर्म में अंग्रेजों ने नवाब दूल्हा और उनके भांजे नवाब मौतमुद्दौला को गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद नवाब निजामुद्दौला, नवाब बाकर अली खां लखनऊ चले गए। अंग्रेजों ने नवाबों को लखनऊ में गिरफ्तार किया और उन्हें ऊंट से कानपुर लाकर अदालत के सामने पेश किया। नवाबों के घर का सारा सामान कुर्क कर उन्हें कैद कर लिया। इस सदमे में नवाब बाकर खां के बेटे की मौत हो गई।
इलाहाबाद से कत्लेआम करते हुए जनरल हैवलाक की फौज बकरमंडी स्थित सूबेदार के तालाब पर पहुंची तो अहमद अली वकील और कुछ महाजनों ने जनरल का स्वागत किया। लेकिन अंदर ही अंदर वे अंग्रेजों के खिलाफ रणनीति तैयार करते रहे।
जनरल हैवलाक की फौज ने 3000 लोगों को फांसी दी। बड़ी करबला नवाबगंज में सबील के लिए लगाए गए अहमद अली वकील के कारखास राना को अंग्रेजों ने पकड़ लिया तो राना ने पूछा कि मेरा कसूर क्या है। जनरल हैवलाक ने कहा कि तुम्हें तीसरे दिन फांसी देंगे। तुम्हारी कौम हमारे बेगुनाह लोगों को मार रही है।
1857 के मुगलिया सल्तनत दिल्ली में 10 मई के बाद हालत पूरी तरह से बेकाबू हो गए थे। बागी सैनिकों और आम जन का आक्रोश चरम पर था। यमुना पार करके दिल्ली पहुंचे विद्रोही सैनिकों की टुकड़ियों ने दरियागंज से शहर में प्रवेश करना शुरू कर दिया था।
यमुना नदी (दरिया) के करीब होने कारण इस जगह का नाम दरियागंज पड़ा। दरियागंज से हथियारों से लैस बागी सैनिक नारे लगाते जा रहे थे। फौजियों को आता देख पहले तो अंग्रेज छिप गए लेकिन कुछ ने मुकाबला किया। दरिया गंज की गलियों और भवनों में हुई मुठभेड़ में दोनों ओर से लोग घायल हुए और मारे गए। इस दौरान अंग्रेजों के घरों में आग लगा दी गई। कुछ अंग्रेज भागकर बादशाह के पास पहुंचे और पनाह कीे गुहार की। लेकिन दिल्ली के हालात बेकाबू थे ,,बागी सैनिकों और आम जन का गुस्सा चरम पर था। ऐसे भी प्रमाण हैं कि अंग्रेजों के नौकर भी उन दिनों विद्रोह में शामिल हुए थे। लाल किले के दक्षिण में बसाई गई दरिया गंज पहली बस्ती थी। यहां पर आम लोग नहीं रहते थे। यह जगह धनी वर्ग के लिए थी यहां नवाब, सूबेदार और पैसे वाले रहा करते थे। किले के समीप इस बस्ती में शानदार कोठियां और बंगले बने थे। कुछ के अवशेष अब भी देखे जा सकते हैं।
1803 में जब अंग्रेज अपनी फौज के साथ दिल्ली पहुंचे तो किले के पास ही नदी के किनारे अपना डेरा जमाया और इसे छावनी का रूप दिया। इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि दरियागंज दिल्ली में अंग्रेजों की सबसे पहली छावनी थी। और शायद इसीलिए बागियों ने इसके महत्व को समझ कर इसे निशाना भी बनाया। इस संबंध में प्रसिद्ध इतिहासकार इरफान हबीब का कहना है कि शाहजहांनाबाद की दीवार से दरियागंज लगा था।
1803 में जब अंग्रेज अपनी फौज के साथ दिल्ली पहुंचे तो किले के पास ही नदी के किनारे अपना डेरा जमाया और इसे छावनी का रूप दिया। इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि दरियागंज दिल्ली में अंग्रेजों की सबसे पहली छावनी थी। और शायद इसीलिए बागियों ने इसके महत्व को समझ कर इसे निशाना भी बनाया। इस संबंध में प्रसिद्ध इतिहासकार इरफान हबीब का कहना है कि शाहजहांनाबाद की दीवार से दरियागंज लगा था।
इसका नाम दरियागंज कब पड़ा इसकी बारे में जानकारी नहीं है लेकिन यह जगह भी 1857 में प्रभावित थी। 1857 की क्रांति पर पुस्तकों का संपादन करने वाले मुरली मनोहर प्रसाद सिंह का कहना है कि उस दौर में दरियागंज में आतंक का माहौल था। अंग्रेजों द्वारा आसपास के इलाके से मुस्लिम आबादी हटा दी गई थी। अजमेरी गेट, कश्मीरी गेट,तुर्कमान गेट आदि जगहों से भी अंग्रेजों ने मुस्लिम बस्तियों को उजाड़ दिया था।
1857 की क्रान्ति का विस्तार एवं फैलाव लगभग समूचे देश में था। यद्यपि अंग्रेज एवं अंग्रेजी के इतिहासकार ऐसा मानते है कि यह एक स्थानीय गदर था पंरतु वास्तविकता ऐसी नहीं थी यह बात जरुर सही है कि इसका केन्द्रीय क्षेत्र दिल्ली एवं उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों में था लेकिन व्यापकता का असर लगभग समूचे देश में था।
उत्तर भारत मे देखे तो इसके मुख्य स्थान बैरकपुर, मेरठ, दिल्ली, लखनऊ, कानपुर, झाँसी, बुंदेलखंड़, बरेली, बनारस व इलाहाबाद रहे जहाँ इस क्रांति का पूरा जोर था।
बंगाल व असम का पूरा क्षेत्र उस समय कलकत्ता रेजीड़ेसी के अधीन पड़ता था वहाँ कलकत्ता व असम में आम जनता व राजाओं व रियासतों ने भाग लिया।
बिहार में यह संघर्ष पटना,दानापुर, जगदीशपुर (आरा) आदि अनेक स्थानों पर हुआ था।
उस समय में पंजाब में आधुनिक भारत व पाकिस्तान के क्षेत्र आते थे। वहाँ लाहोर, फ़िरोजपुर, अमृतसर, जांलधर, रावलपिड़ी, झेलम, सियालकोट, अंबालातथा गुरुदासपुर में सैनिको व आम जनता ने इस संग्राम में बढ़ चढकर हिस्सा लिया था।
हरियाणा का योगदान भी इस संग्राम में महत्वपूर्ण था यहाँ के गुड़गाँव, मेवात, बहादुरगढ़, नारनोल, हिसार, झज्झर आदि स्थानों पर यह संग्राम अपने परवान पर था।
उस समय में मध्य भारत में इंदौर, ग्वालियर, महू सागर, बुंदेलखंड़ व रायपुर स्थानों को केन्द्र में रखते हुए यह संग्राम आगे बढ़ा था।
भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को यह कहना कि यह केवल उत्तर भारत तक सीमित था असत्य एवं भ्रामक है। दक्षिण भारत में यह संघर्ष करीब- करीब हर जगह व्याप्त था।
महाराष्ट्र में यह संघर्ष जिन स्थानों पर हुआ था उनमें सतारा, कोल्हापुर, पूना, मुम्बई, नासिक, बीजापुर, औरंगाबाद, अहमदनगर मुख्य थे।
आंध्र प्रदेश में यह संग्राम रायल सीमा, हैदराबाद, राजमुड़ी, तक फ़ैला हुआ था जहाँ किसानों ने भी इस संघर्ष में भाग लिया था।
कर्नाटक में हम देखते है तो पाते है कि मैसूर, कारवाड़, शोरापुर, बैंगलोर स्थानों पर इस संग्राम में लोगों ने अपनी आहुति दी।
तमिलनाडु के मद्रास, चिगंलपुर, आरी, मदुरै में जनता व सिपाहियों ने इस विद्रोह में भाग लिया। यहाँ में भी गुप्त कार्यवाही एवं संघर्ष के केन्द्र थे।
केरल में यह संघर्ष मुख्यतया कालीकट, कोचीन नामक स्थानों पर केन्द्रित था।
उपरोक्त से यह स्पष्ट होता है कि इस संग्राम का फ़ैलाव लगभग पूरे देश में था व इस संघर्ष में प्राय प्रत्येक वर्ग, समुदाय व जाति के लोग़ों ने भाग लिया था।
अंग्रेजों के खिलाफ़ देश के इस संघर्ष से प्रभावित होकर पुर्तगाल की बस्तियों में ग़ोवा में विद्रोह हुआ। फ़्रांसिसियों के अधीन पांड़िचेरी में भी बगावत हुई। यह एक ऐसा समय था जब समूचे दक्षिण एशिया में हलचल व्याप्त रही इसमें नेपाल, अफ़गानिस्तान, भूटान, तिब्बत आदि देश शामिल थे।
यह भारत में महाभारत के बाद लड़ा गया सबसे बडा युद्ध था। इस संग्राम की मूल प्रेरणा स्वधर्म की रक्षा के लिये स्वराज की स्थापना करना था। यह स्वाधीनता हमें बिना संघर्ष, बिना खड़ग-ढ़ाल के नहीं मिली, लाखों व्यक्तियों द्वारा इस महायज्ञ में स्वयं की आहुति देने से मिली है।
लार्ड डलहौजी ने 10 साल के अन्दर भारत की 21 हजार जमीदारियाँ जब्त कर ली और हजारों पुराने घरानों को बर्बाद कर दिया।
ब्रितानियों ने अपने अनुकूल नवशिक्षित वर्ग तैयार किया तथा भारतीय शिक्षा पर द्विसूत्रीय शिक्षा प्रणाली लागू की ताकि ये लोग ब्रितानी सरकार को चलाने मे मदद कर सके।
ब्रिटिश सरकार ने 1834 में सभी स्कूलों में बाइबिल का अध्ययन अनिवार्य बना दिया क्योंकि ईस्ट इंडिया कंपनी के सभी अधिकारी सामान्यत: अपने व्यापारिक काम के साथ-साथ ईसाई मत का प्रचार करते हुए लोगों को धर्मांतरित करना अपना धर्मिक कर्त्तव्य मानते थे।
विश्व में चित्तौड ही एक मात्र वह स्थान है, जहाँ 900 साल तक आजादी की लड़ाई लड़ी गई।
भारत में ब्रिटिश सरकार के शासन काल के समय जहां-जहां ब्रितानियों का राज था वहाँ आम लोग उनके सामने घुड़सवारी नहीं कर पाते थे।
क्रांति के समय प्रत्येक गाँव में रोटी भेजी जाती थी जिसे सब मिलकर खाते व क्रांति का संकल्प करते थे। कई रोटियाँ बनकर आस पास के गाँवो में जाती। सिपाहियों के पास कमल के फ़ूल जाते व हर सैनिक इसे हाथ में लेकर क्रांति की शपथ लेता था।
दिल्ली पर चारों तरफ़ से ब्रितानियों ने हमला किया जिसमें पहले ही दिन उनके तीन मोर्चो के प्रमुख कमांडर भयंकर रू प से घायल हुए, 66 अधिकारी व 404 जवान मृत हुए।
बनारस के आसपास जनरल नील ने बदले की भावना से भंयकर अत्याचार किए। हजारों लोगों को फ़ांसी देना, गाँव जलाकर लोगों को जिन्दा जलाना जैसे कई प्रकार के अत्याचार किए। वे बड़े वृक्ष की हर डाली पर लोगों को फ़ांसी पर लटकाते चले गये।
24 जुलाई को क्रांतिकारी पीर अली को ब्रितानियों ने पटना में फ़ांसी देते ही दानापुर की पलटन ने संग्राम प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने जगदीशपुर के 80 साल के वयोवृद्ध राजपूत कुंवरसिह को अपना नेता बनाया। कुंवरसिह ने इस उम्र में जिस तरह से कई लड़ाइयां लड़ी वह वास्तव में प्रेरणादायी है। उनकी प्रेरणा से पटना आरा, गया, छपरा, मोतीहरी, मुज्जफ़रनगर आदि स्थानों पर भी क्रांति हो पाई थी।
भारत के वीर सेनानी तांत्या टोपे को ब्रितानियों ने 7 अप्रेल 1859 की सुबह गिरफ़्तार किया और 15 अप्रैल को ग्वालियर के निकट शिवपुरी में सैनिक न्यायालय में मुकदमे का नाटक किया गया और उनको फ़ांसी देने की घोषणा की गई। 18 अप्रैल 1859 को शाम 7 बजे उन्होंने वीर योद्धा की तरह खुद ही अपनी गर्दन फ़ांसी के फ़ंदे में डाली व अनंत यात्रा पर निकल पडे।
यह बात सरासर झूठ है कि 1857 की क्रांति केवल सिपाही विद्रोह था क्योंकि शहीद हुए 3 लाख लोगों में आधे से ज्यादा आम लोग थे। जब इतनी बड़ी संख्या में लोग शामिल होते हैं तो वह विद्रोह नहीं बल्कि क्रांति या संग्राम कहलाता है।
केवल दिल्ली में 27,000 लोगों को फ़ांसी दी ग़यी।
भगवा, विरसामंुडा जैसे कई जनजाति नेता, क्रांतिकारी वसुदेव, बलदेव फ़डके से लेकर सावरकर, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह जैसे कई दीवाने एवं सुभाष की आजाद हिन्द फ़ौज तथा गाँधीजी का अहिंसक आंदोलन आदि सभी ने इसी 1857 की क्रांति से प्रेरणा पाई थी।
इस क्रांति के समय मुम्बई में 1213, बंगाल में 1994, मद्रास में 1044 सैनिकों के कोर्ट मार्शल किये गये थे।
इस आंदोलन में तीन लाख से भी अधिक लोग शहीद हुए, अकेले अवध में 1 लाख 20 हजार लोगेंे ने अपनी आहुति दी थी। लखनऊ में 20 हजार, इलाहबाद में 6000 लोगों को ब्रितानियों ने सरेआम कत्ल किया था।
1857 के स्वाधीनता संग्राम के बाद 1857 में ईस्ट इंडिया कम्पनी के 100 पौंड की कीमत का शेयर 10000 पौंड में खरीदकर ब्रिटिश सरकार ने भारत पर अपना अधिकार कर लिया था।
1857 में ब्रिटिश अत्याचारों के कुछ अमानवीय उदाहरण –
ब्रिटिश सरकार ने मौलवी अहमद शाह की मृत्यु के बाद उनके सिर को कोतवाली में लटका दिया व मौलवी साहब को मौत के घाट उतारने वाले ब्रितानियों के समर्थक पवन राजा जगन्नाथ सिंह को 5000 रु का इनाम भी दिया।
एक बार ब्रितानी कानपुर के बहुत से ब्राह्मणों को पकड़ कर लाये ओर उनमें से जिनका सम्पर्क क्रांतिकारियों से था, उन्हें फ़ांसी पर चढ़ाया। इतना ही नहीं फ़ांसी देने से पूर्व वह रक्त की भूमि जिस पर क्रांतिकारियों ने ब्रितानियों को मारा था उसको चाटने के लिये और बुहारी से रक्त के धब्बे धोने के लिये उन्हें बाध्य किया गया क्योंकि हिन्दू धर्म की दृष्टि से इन कृत्यों से उच्च वर्ण के लोगों का पतन होता है।
ब्रितानियों ने रानी लक्ष्मी बाई की उत्तराधिकार वाली याचिका खारिज कर दी व डलहौजी ने बालक दामोदर को झाँसी का उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया क्योंकि वे झाँसी को अपने अधिकार में लेना चाहते थे। मार्च 1854 में ब्रिटिश सरकार ने रानी को महल छोड़ने का आदेश दिया साथ ही उनकीसालाना राशि में से 60,000 रुपये हर्जाने के रूप में हड़प लिये।
बितानी सेना का विरोध करने के कारण बहादुर शाह को बंदी बनाकर बर्मा भेज दिया गया । उनके साथ उनके दोनों बेटों को भी कारावास में डाल दिया गया। वहाँ उनके दोनों बेटों को मार दिया गया।
26 जनवरी 1851 में जब बाजीराव द्वितीय की मृत्यु हो गई तो ब्रिटिश सरकार ने उनके दत्तक पुत्र नाना साहब को पेशवा की उपाधि व व्यक्तिगत सुविधाओं से वंचित कर दिया।
ब्रितानियों ने भारतीय सिपाहियों व मंगल पांडे आदि को उनकी धार्मिक भावनाओं व उनकी हिन्दू धर्म की मान्यताओ को ठेस पहुँचाने के लिये गाय व सुअर की चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग करने के लिये बाध्य किया। जब उन लोगों ने विरोध किया तो ब्रिटिश सरकार ने मंगल पांड़े का कोर्ट मार्शल किया व उनको फ़ांसी पर चढ़ा दिया। रेजिमेंट के जिन सिपाहियों ने मंगल पांड़े का विद्रोह में साथ दिया था। ब्रिटिश सरकार ने उनकों सेना से निकाल दिया और पूरी रेजिमेंट को खत्म कर दिया।
जबलपुर के राजा शंकर शाह ने नागपुर व जबलपुर की फ़ौज में विद्रोह का काम किया। उन्हें तोप से बांधकर निर्दयता से उड़ा दिया गया।
संदर्भ-
हिंदी पत्रिका : पाथेय कण, अंक : 1,
दिनांक 13 अप्रैल (संयुक्तांक) 2007
हिंदी पत्रिका : पाथेय कण, अंक : 1,
दिनांक 13 अप्रैल (संयुक्तांक) 2007
ब्रितानियोें के राक्षसी कृत्य
(चाँद के फाँसी अंक (1928) का एक लेख)
(चाँद के फाँसी अंक (1928) का एक लेख)
आज से सौ वर्ष पूर्व पत्रकारिता का उद्देश्य राष्ट्र का पुनर्जागरण था। पं. सुंदर लाल का ‘कर्मयोगी’, कृष्णकांत मालवीय का ‘अभ्युदय’, गणेश शंकर विद्यार्थी का ‘प्रताप’, पं. पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र का ‘स्वदेश’, प्रयाग से निकलने वाला ‘चाँद’ और कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले ‘हिंदू पंच’ ऐसे ही पत्र-पत्रिकाएँ थे जिन्होंने ब्रिटिश-काल में राष्ट्रभक्ति की अलख जगाई। ‘चाँद’ का प्रकाशन वर्ष 1922 में रामरिख सहगल ने शुरू किया था। इस तरह ‘हिन्दूपंच’ का प्रकाशन ईश्वरीदत्त शर्मा ने 1926 में प्रारंभ किया। ‘चाँद’ का फाँसी अंक, ‘हिंदू पंच’ का बलिदान अंक (1930) और ‘स्वदेश’का विजयांक (1924) उस समय काफ़ी चर्चित हुए तथा प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंधित कर दिए गए। मासिक ‘चाँद’ का वर्ष 1928 में नवंबर माह का अंक ‘फाँसी अंक’ था। इसके संपादक प्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य चतुरसेन शास्त्री थे। इस अंक में अमर हुतात्माओं पं. राम प्रसाद बिस्मिल, भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त तथा शिव वर्मा के लेख भी छद्म नामों से प्रकाशित हुए थे। मासिक के सातवें वर्ष का यह पहला अंक था। ब्रितानियोें ने इस फाँसी अंक का प्रकाशन होते ही इस पर रोक लगा कर पत्रिका के कार्यालय पर छापा मारा और वहाँ बची सारी प्रतियाँ ज़ब्त कर लीं। मासिक ‘चाँद’ के इस अंक में ‘सन् 57 के कुछ संस्मरण’ नाम से एक लेख प्रकाशित हुआ था। इसमें प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में ब्रितानियोें के नृशंस अत्याचारों का वर्णन किया गया है। अँग्रेज़ लेखकों के पत्र, लेख, पुस्तकों आदि के अंशों को उदृत कर लेख में सभ्यता का ढिंढोरा पीटने वाले ब्रितानियोें की वास्तविकता बताई गई है। इस लेख के कुछ अंश वहाँ आभार सहित दिए जा रहे हैं- सं.
एक अँग्रेज़ अपने पत्र में लिखता है-
“हमने एक बड़े गाँव में आग लगा दी, जो कि लोगों से भरा हुआ था। हमने उन्हें घेर लिया और जब वे आग की लपटों से निकलकर भागने लगे तो हमने उन्हें गोलियों से उड़ा दिया।” (Charles Ball’s Indian Mutiny, vol. 1, pp 243-44)
ग्राम-निवासियों सहित ग्रामो को जलाया जाना
इलाहाबाद के अपने एक दिन के कृत्यों का वर्णन करते हुए एक अँग्रेज़ अफ़सर लिखता है – “एक यात्रा में मुझे अद्भुत आनंद आया। हम लोग एक तोप लेकर एक स्टीमर पर चढ़ गए। सिक्ख और गोरे सिपाही शहर की तरफ़ बढ़े। हमारी किश्ती ऊपर को चलती जाती थी और हम अपनी तोप से दाएँ और बाएँ गोले फेंकते जाते थे। यहाँ तक कि हम बुरे-बुरे ग्रामों में पहुँचे। किनारे पर जाकर हमने अपनी बंदूकों से गोलियाँ बरसानी शुरू कीं। मेरी पुरानी दोनली बंदूक ने कई काले आदमियो को गिरा दिया। मैं बदला लेने का इतना प्यासा था कि हमने दाएँ और बाएँ गाँवों में आग लगानी शुरू की, लपटें आसमान तक पहुँची और चारों ओर फैल गई। हवा ने उन्हें फैलाने में और भी मदद दी, जिससे मालूम होता था कि बाग़ी और बदमाशों से बदला लेने का मौक़ा आ गया है। हर रोज़ हम लोग विद्रोही ग्रामों को जलाने और मिटा देने के लिए निकलते थे और हमने बदला ले लिया है। लोगों की जान हमारे हाथों में है और मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि हम किसी को नहीं छोड़ते। अपराधी को एक गाड़ीं के ऊपर बैठा कर किसी दरख़्त के नीचे ले ज़ाया जाता है। उसकी गर्दन में रस्सी का फँदा डाल दिया जाता है और फिर गाड़ीं हटा दी जाती है और वह लटका हुआ रह जाता है।” (Charles Ball’s Indian Mutiny, vol. L. P. 257.)
इलाहाबाद के अपने एक दिन के कृत्यों का वर्णन करते हुए एक अँग्रेज़ अफ़सर लिखता है – “एक यात्रा में मुझे अद्भुत आनंद आया। हम लोग एक तोप लेकर एक स्टीमर पर चढ़ गए। सिक्ख और गोरे सिपाही शहर की तरफ़ बढ़े। हमारी किश्ती ऊपर को चलती जाती थी और हम अपनी तोप से दाएँ और बाएँ गोले फेंकते जाते थे। यहाँ तक कि हम बुरे-बुरे ग्रामों में पहुँचे। किनारे पर जाकर हमने अपनी बंदूकों से गोलियाँ बरसानी शुरू कीं। मेरी पुरानी दोनली बंदूक ने कई काले आदमियो को गिरा दिया। मैं बदला लेने का इतना प्यासा था कि हमने दाएँ और बाएँ गाँवों में आग लगानी शुरू की, लपटें आसमान तक पहुँची और चारों ओर फैल गई। हवा ने उन्हें फैलाने में और भी मदद दी, जिससे मालूम होता था कि बाग़ी और बदमाशों से बदला लेने का मौक़ा आ गया है। हर रोज़ हम लोग विद्रोही ग्रामों को जलाने और मिटा देने के लिए निकलते थे और हमने बदला ले लिया है। लोगों की जान हमारे हाथों में है और मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि हम किसी को नहीं छोड़ते। अपराधी को एक गाड़ीं के ऊपर बैठा कर किसी दरख़्त के नीचे ले ज़ाया जाता है। उसकी गर्दन में रस्सी का फँदा डाल दिया जाता है और फिर गाड़ीं हटा दी जाती है और वह लटका हुआ रह जाता है।” (Charles Ball’s Indian Mutiny, vol. L. P. 257.)
असहाय स्त्रियों और बच्चों का संहार
इतिहास-लेखक होम्स लिखता है-
“बूढ़ें आदमियों ने हमें कोई नुकसान न पहुँचाया था; असहाय स्त्रियों से, जिनकी गोद में दूध पीते बच्चे थे, हमने उसी तरह बदला लिया जिस तरह बुरे से बुरे आदमियों से।”
(Holmes, Sepoy War, pp. 229-30)
इतिहास-लेखक होम्स लिखता है-
“बूढ़ें आदमियों ने हमें कोई नुकसान न पहुँचाया था; असहाय स्त्रियों से, जिनकी गोद में दूध पीते बच्चे थे, हमने उसी तरह बदला लिया जिस तरह बुरे से बुरे आदमियों से।”
(Holmes, Sepoy War, pp. 229-30)
सर र्जोर्ज कैम्पवेल लिखता है-
“और में जानता हूँ कि इलाहाबाद में बिना किसी तमीज़ के कत्लेआम किया गया था और इसके बाद नील ने वे काम किए थे जो कत्लेआम से अधिक मालूम होते थे। उसने लोगों को जान-बूझकर इस तरह की यातनाएँ दे-देकर मारा इस तरह की यातनाएँ, जहाँ तक हमें सुबूत मिलें हैं, भारतवासियों ने कभी किसी को नहीं दीं।”
(Sir George Campbell Provisional Civil commissioner in the Mutiny, as quotexd in the other side of Medal by Edward Thomson. P. 18)
“और में जानता हूँ कि इलाहाबाद में बिना किसी तमीज़ के कत्लेआम किया गया था और इसके बाद नील ने वे काम किए थे जो कत्लेआम से अधिक मालूम होते थे। उसने लोगों को जान-बूझकर इस तरह की यातनाएँ दे-देकर मारा इस तरह की यातनाएँ, जहाँ तक हमें सुबूत मिलें हैं, भारतवासियों ने कभी किसी को नहीं दीं।”
(Sir George Campbell Provisional Civil commissioner in the Mutiny, as quotexd in the other side of Medal by Edward Thomson. P. 18)
एक अंग्रेज लेखक लिखता है-
“55 नवम्बर पलटन के कैदियों के साथ अधिक भयंकर व्यवहार किया गया, ताकि दूसरों को शिक्षा मिले। उनका कोर्ट-मार्शल हुआ, उन्हे दण्ड दिया गया और उनमें से हर तीसरे मनुष्य को तोप के मुँह से उड़ाने के लिए चुन लिया गया।”
(Narative of the Indian Revolt P. 36)
“55 नवम्बर पलटन के कैदियों के साथ अधिक भयंकर व्यवहार किया गया, ताकि दूसरों को शिक्षा मिले। उनका कोर्ट-मार्शल हुआ, उन्हे दण्ड दिया गया और उनमें से हर तीसरे मनुष्य को तोप के मुँह से उड़ाने के लिए चुन लिया गया।”
(Narative of the Indian Revolt P. 36)
एक अंग्रेज अफसर जो इन लोगों के तोप से उड़ाए जाने के समय उपस्थित था, उस दृश्य का वर्णन करते हुए लिखता है-
“उस दिन की परेड का दृश्य विचित्र था। परेड पर लगभग नौ हजार सिपाही थे। एक चौरस मैदान के तीनों और फौज खड़ी कर दी गई। चौथी और दस तोपे थीं। पहले दस कैदी तोपों के मुँह से बाँध दिए गए। इसके बाद तोपखाने के अफसर ने अपनी तलवार हिलाई, तुरन्त तोपों की गरज सुनाई दी और धुँए के ऊपर हाथ, पैर और सिर हवा में उड़ते हुए दिखाई देने लगे। यह दृश्य चार बार दुहराया था। हर बार समस्त सेना में से जोर की गूंझ सुनाई देती थी, जो दृश्य की वीभत्सता के कारण लोगों के हृदयों से निकलती थी। उस समय से हर सप्ताह में एक या दो बार उस तरह के प्राण-दण्ड की परेड होती रहती है और हम अब उससे ऐसे अभ्यस्त हो गए हैं कि हम पर उसका कोई असर नहीं होता।”
(Narrative of the Indian Revolt, p. 36)
(Narrative of the Indian Revolt, p. 36)
मनुष्यो का शिकार
सन् 57 में जनरल हेवलॉक और रिर्नाड के अधीन कम्पनी की सेना की इहालाबाद से कानपुर तक की यात्रा के विषय में सर चार्ल्स डिल्क लिखाता है-
सन् 57 में जनरल हेवलॉक और रिर्नाड के अधीन कम्पनी की सेना की इहालाबाद से कानपुर तक की यात्रा के विषय में सर चार्ल्स डिल्क लिखाता है-
“सन 1857 में जो पत्र इंगलिस्तान पहुँचे उनमें एक ऊँचे दर्ज का अफसर, जो कानपुर की ओर सेना की यात्रा में साथ था, लिखता है- ‘ मैंने आज की अंग्रेजी तारीख में खूब शिकार मारा। बागियों को उड़ा दिया। यह याद रखना चाहिए कि जिन लोगों को इस प्रकार फाँसी दी गई या तोप से उड़ाया गया, वे सशस्त्र बागी न थे , बल्कि गाँव के रहने वाले थे, जिन्हें केवल सन्देह पर पकड़ लिया जाता था। इस कूच में गाँव के गाँव इस क्रूरता के साथ जला डाले गए और इस निर्दयता के साथ निर्दोष ग्रामवासियों का संहार किया गया कि जिसे देखकर एक बार मुहम्मद तुगलक भी शरमा जाते।”
(Greater Britian, by Sir Charles Dilke.)
(Greater Britian, by Sir Charles Dilke.)
कानपुर में फाँसियाँ
17 जुलाई, सन् 57 को जनरल हेवलॉक की सेना ने कानपुर में प्रवेश किया। उस समय चार्ल्स बॉल लिखता है-
“जनरल हेवलॉक ने सर ह्यू व्हीलर की मृत्यु के लिए भयंकर बदला चुकाना शुरू किया। हिंदुस्तानियों के गिरोह के गिरोह फाँसी पर लटका दिया गए। मृत्यु के समय कुछ विप्लवकारियों ने जिस प्रकार चित्त की शान्ति और अपने व्यवहार में ओज का परिचय दिया, वह उन लोगों के सर्वथा योग्य था, जो किसी सिद्धान्त के कारण शहीद होते हैं।”
(Charles Balls Indian Muting, Vol. 1, p. 338)
17 जुलाई, सन् 57 को जनरल हेवलॉक की सेना ने कानपुर में प्रवेश किया। उस समय चार्ल्स बॉल लिखता है-
“जनरल हेवलॉक ने सर ह्यू व्हीलर की मृत्यु के लिए भयंकर बदला चुकाना शुरू किया। हिंदुस्तानियों के गिरोह के गिरोह फाँसी पर लटका दिया गए। मृत्यु के समय कुछ विप्लवकारियों ने जिस प्रकार चित्त की शान्ति और अपने व्यवहार में ओज का परिचय दिया, वह उन लोगों के सर्वथा योग्य था, जो किसी सिद्धान्त के कारण शहीद होते हैं।”
(Charles Balls Indian Muting, Vol. 1, p. 338)
दिल्ली में कत्लेआम और लूट
सन् 57 में दिल्ली के पतन के बाद दिल्ली के अन्दर कम्पनी के अत्याचारों के विषय में लॉर्ड एल्फिस्टन ने सर जॉन लॉरेन्स को लिखा है-
“मौहासरे के खत्म होने के बाद से हमारी सेना ने जो अत्याचार किया हैं, उन्हें सुनकर हृदय फटने लगता है। बिना मित्र अथवा शत्रु में भेद किए ये लोग सबसे एक सा बदला ले रहे हैं। लूट में तो वास्तव में हम नादिरशाह से भी बढ़ गए।”
(Life of Lord Lawrence, Vol. II, P. 262)
सन् 57 में दिल्ली के पतन के बाद दिल्ली के अन्दर कम्पनी के अत्याचारों के विषय में लॉर्ड एल्फिस्टन ने सर जॉन लॉरेन्स को लिखा है-
“मौहासरे के खत्म होने के बाद से हमारी सेना ने जो अत्याचार किया हैं, उन्हें सुनकर हृदय फटने लगता है। बिना मित्र अथवा शत्रु में भेद किए ये लोग सबसे एक सा बदला ले रहे हैं। लूट में तो वास्तव में हम नादिरशाह से भी बढ़ गए।”
(Life of Lord Lawrence, Vol. II, P. 262)
मॉण्टगुमरी मार्टिन लिखता है-
“जिस समय हमारी सेना ने शहर में प्रवेश किया जो जितने नगर-निवासी शहर की दीवारों के अन्दर पाए जाए, उन्हें उसी जगह मार डाला गया। आप समझ सकते हैं कि उनकी संख्या कितनी अधिक रही होगी, जब मैं आपको यह बतलाऊँ कि एक-एक मकान में चालीस-चालीस, पचास-पचास आदमी छिपे हुए थे। ये लोग विद्रोही न थे, बल्कि नगर-निवासी थे, जिन्हें हमारी दयालुता और क्षमाशीलता पर विश्वास था। मुझे खुशी है कि उनका भ्रम दूर हो गया। ”
(Letter in the Bombay Telegraph by Mont-gomery Martin.)
“जिस समय हमारी सेना ने शहर में प्रवेश किया जो जितने नगर-निवासी शहर की दीवारों के अन्दर पाए जाए, उन्हें उसी जगह मार डाला गया। आप समझ सकते हैं कि उनकी संख्या कितनी अधिक रही होगी, जब मैं आपको यह बतलाऊँ कि एक-एक मकान में चालीस-चालीस, पचास-पचास आदमी छिपे हुए थे। ये लोग विद्रोही न थे, बल्कि नगर-निवासी थे, जिन्हें हमारी दयालुता और क्षमाशीलता पर विश्वास था। मुझे खुशी है कि उनका भ्रम दूर हो गया। ”
(Letter in the Bombay Telegraph by Mont-gomery Martin.)
रसल लिखता है-
“मुसलमानों को मारने से पहले उन्हे सुअर की खालों में सी दिया जाता था, उन पर सूअर की चर्बीं मल दी जाती थी, और फिर उनके शरीर जला दिए जाते थे और हिन्दूओं का भी जबरदस्ती धर्मभ्रष्ट किया जाता था।”
(Russell ‘s Diary, Vol. II P. 43.)
“मुसलमानों को मारने से पहले उन्हे सुअर की खालों में सी दिया जाता था, उन पर सूअर की चर्बीं मल दी जाती थी, और फिर उनके शरीर जला दिए जाते थे और हिन्दूओं का भी जबरदस्ती धर्मभ्रष्ट किया जाता था।”
(Russell ‘s Diary, Vol. II P. 43.)
पंजाब का ब्लैक होल और अजनाले का कुआँ
26 नवम्बर पलटन के कुछ थके हुए सिपाही अमृतसर की एक तहसील अजनाले से 6 मील दूर रावी नदी के किनार पड़े हुए थे। ये वे सिपाही थे जो 30 जुलाई को रात को लाहौर की छावनी के पहरे से निकल भागे थे। इन लोगों ने विद्रोह में किसी प्रकार का भाग नहीं लिया था, परन्तु केवल सन्देह के कारण इनसे हथियार रखवा लिए गए थे और इन्हें कैद कर लिया गया था। इन निर्दोष सिपाहियों के साथ जुडीशल कमिश्नर सर रॉबर्ट मॉण्टगुमरी ने जैसा व्यवहार किया उसका वर्णन अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर फ्रेड्रिक कूपर ने अपनी “The Crisis in the Punjab ” नामक पुस्तक में बड़े विस्तार के साथ किया है। उसका सारांश संक्षेप में कूपर के ही शब्दो में नीचे दिया जाता है-
26 नवम्बर पलटन के कुछ थके हुए सिपाही अमृतसर की एक तहसील अजनाले से 6 मील दूर रावी नदी के किनार पड़े हुए थे। ये वे सिपाही थे जो 30 जुलाई को रात को लाहौर की छावनी के पहरे से निकल भागे थे। इन लोगों ने विद्रोह में किसी प्रकार का भाग नहीं लिया था, परन्तु केवल सन्देह के कारण इनसे हथियार रखवा लिए गए थे और इन्हें कैद कर लिया गया था। इन निर्दोष सिपाहियों के साथ जुडीशल कमिश्नर सर रॉबर्ट मॉण्टगुमरी ने जैसा व्यवहार किया उसका वर्णन अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर फ्रेड्रिक कूपर ने अपनी “The Crisis in the Punjab ” नामक पुस्तक में बड़े विस्तार के साथ किया है। उसका सारांश संक्षेप में कूपर के ही शब्दो में नीचे दिया जाता है-
31 जुलाई को दोपहर के समय जब हमें मालूम हुआ कि ये लोग रावी के किनारे पड़े हुए तो हमने अजनाले के तहसीलदार को कुछ सशस्त्र सिपाहियों सहित उन्हें घेरने के लिए भेज दिया। शाम को चार बजे के करीब हम 80 या 90 सवारों को लेकर मौके पर पहुँचे। बस फिर क्या था। शीघ्र ही उन थके-माँदे लोगों पर गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं गई। उनमें से बहुत तो रावी में कूद पडे और बहुत से बुरी तरह घायल होकर निकल भागे। उनकी संख्या पाँच सौ थी। भूख-प्यास के कारण वे इतने निर्बल हो गए थे कि रावी नदी की धारा में न ठहर सके। नदी के ऊपर की ओर लगभग एक मील के फासले पर एक टापु था। जो लोग तैरते हुए रावी पार कर गए उन्होंने भाग कर यहाँ शरण ली पर यहाँ भी भाग्य ने उनका साथ न दिया। दो किश्तियाँ मौके पर मौजूद थीं। तीन सशस्त्र सवार इन किश्तियों पर बैठाकर उन्हें पकड़ने के लिए भेज दिए गए तथा 60 बन्दूकों के मुँह उनकी तरफ कर दिए गए। जब उन लोगों ने बन्दूकें देखी तो उन्होंने हाथ जोड़कर अपनी निर्दोषता प्रकट की और प्राण-भिक्षा माँगी। परन्तु इन्हें शीध्र ही गिरफ्तार कर लिया गया और थोड़े थोड़े कर रावी के पास उस पार पहुँचा दिया गया। गिरफ्तार होने से पहले इनमें से करीब पचास निराश होकर रावी में कूद पड़े और फिर न दिखाई दिए। किनारे पर पहुँचकर इन लोगों को खूब कसकर बाँध दिया गया और उनकी कण्ठी-मालाएँ तोड़कर पानी में फेंक दी गई। उस समय जोर की वर्षा हो रही थी, पर उस वर्षा में ही उन्हें सिक्ख सवारों की देख-रेख में अजनाले पहुँचा दिया गया।
अजनाले के थाने में हमने इनको फाँसी देने के लिए और गोलियों से उड़ाने के लिए रस्सियों एवं पचास सशस्त्र सिक्ख सिपाहियों का प्रबन्ध कर रखा था। 282 बँधे हुए सिपाही, जिनमें कई देशी अफसर भी थे, आधी रात के समय अजनाले के थाने पर पहुँचे। सब को अजनाले के थाने में बन्द कर दिया गया। जो थाने में न आ सके उन्हें पास ही की तहसील में जो कि बिलकुल नई बनी थी, एक छोटे से गुम्बद में भर दिया गया। वह गुम्बद बहुत तंग था, पर तो भी उसके दरवाजे चारों तरफ से बन्द कर दिए गए और वर्षा के कारण फाँसी दूसरे दिन सवेरे के लिए स्थगित कर दी गई।
दूसरे दिन बकरीद थी। प्रात: काल इन अभागों को दस-दस करके बाहर निकाला गया। दस सिक्ख एक ओर बन्दूकें लिए खड़े हुए थे और चालीस उनकी मदद के लिए। सामने आते ही इन लोगों को गोली से उड़ा दिया जाता था।
जब थाना खाली हो गया तो तहसील की बारी आई। जब गुम्बद के 21 सिपाही बन्दूक का निशाना बन चुके तो मालूम हुआ कि बाकी सिपाही गुम्बद में से बाहर नहीं निकलना चाहते। अन्दर जाकर देखा तो 45 सिवाही पड़े-पड़े सिसक रहे थे। अनजाने ही हौल-वेल का ब्लैक होल हत्याकाण्ड फिर से दुहराया गया।
शीघ्र ही इन लोगों की लाशें घसीट कर बाहर निकाली गईं और उन्हे एक पुराने कुएँ में, जो कि अजनाले के धाने से सौ गज के फासले पर था, डाल दिया गया। कुएँ में जो जगह बाकी रही थी वह ऊपर से मिट्टी डलवा कर भर दी गई और उस पर एक ऊँचा टीला बना दिया गया। एक कुआँ कानपुर में है, परन्तु एक कुआँ अजनाले मे भी है। जो सिपाही गोली से उड़ा दिए गए अथवा कुएँ में डाल दिए गए, उनमें से अधिकांश हिन्दू थे। उन्होंने मरते समय सिक्खों को गंगाजी की दुहाई देकर लानत-मलामत की।
संदर्भ-
हिंदी पत्रिका : पाथेय कण
हिंदी पत्रिका : पाथेय कण
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