Monday, 27 April 2015

Anti Modi Propaganda and Secular Intellectuals in India

विकास एजेंडे को पीछे करती दुष्प्रचार की दुर्गन्ध...

गत दिनों एक सामूहिक चर्चा के दौरान कुछ युवाओं ने मुझसे शिकायत की, कि नरेंद्र मोदी तो तेजी से अपने आर्थिक एजेंडे, विदेश नीति एवं विकास की राजनीति को बढ़ाने में लगे हुए हैं, ताकि देश की अर्थव्यवस्था मजबूत हो और युवाओं को रोजगार मिले, लेकिन विभिन्न चर्चों पर लगातार “हिन्दूवादियों” द्वारा किए जा रहे हमलों के कारण देश की छवि भी खराब हो रही है और अंदरूनी माहौल पर भी बुरा असर पड़ रहा है... इसे जल्द से जल्द रोकना होगा. उस समय मैंने स्पष्टीकरण देने की कोशिश की, परन्तु मीडिया का “प्रभाव” (?) इतना ज्यादा है कि उन युवाओं को यह भरोसा दिलाना कठिन था कि चर्च पर हुए तमाम हमलों की सच्चाई कुछ और है.

जैसा कि सभी जानते हैं स्वतन्त्र मीडिया एक दोधारी तलवार की तरह होता है. यदि इसकी कुछ जिम्मेदारियाँ होती हैं तो कुछ अधिकार भी होते हैं. भारत के मुख्यधारा के मीडिया के सन्दर्भ में यह बात अर्धसत्य है. यहाँ मीडिया सिर्फ अपने अधिकारों की बात करता है, जिम्मेदारी की नहीं. ऊपर से इस मीडिया को सेकुलर-प्रगतिशील “कहे जाने वाले” एवं वामपंथी बुद्धिजीवियों का पूर्ण आर्थिक, नैतिक, वैचारिक और राजनैतिक समर्थन हासिल है. इस कारण स्थिति “करेला, वह भी नीम चढ़ा” जैसी हो गई है... इसीलिएहमारा तथाकथित “नेशनल” मीडिया दिल्ली के किसी मामूली से चर्च की दो खिडकियों के काँच फूटने अथवा छोटी-मोटी चोरी को “चर्च पर हमला”, “हिन्दूवादियों की करतूत”, “अल्पसंख्यकों में आक्रोश” जैसी ब्रेकिंग न्यूज़ तो चलाता है ताकि TRP हासिल हो, लेकिन यही मीडिया उन घटनाओं के हल होने के बाद यह कभी नहीं बताता कि चर्च की खिड़कियाँ फोड़ने वाले शराबी भी ईसाई ही थे और दूसरे चर्च में चोरी करने वाला चोर भी उसी चर्च का कर्मचारी था, जो वेतन नहीं मिलने से नाराज था... मीडिया को यह दूसरा पक्ष दिखाना ही नहीं है, क्योंकि उसका स्वार्थ सिद्ध हो चुका है. चाहे जैसे भी हो नरेंद्र मोदी सरकार को बदनाम करो... चाहे जो भी हो नरेंद्र मोदी के भाषणों में कोई विवादास्पद मुद्दा खोजो... चाहे कुछ भी करना पड़े, मोदी सरकार के मंत्रियों के खिलाफ आलोचना एवं दुष्प्रचार जारी रखो... यही इनका मूल एजेंडा है. 


क्या यह महज संयोग है कि जब भी नरेंद्र मोदी विदेश यात्रा पर जाते हैं, तभी भारत में किसी चर्च पर हमला होता है. फिर अचानक अमेरिका सरकार की सार्वजनिक नसीहत भी सुनाई देती है और इधर दिल्ली में मोमबत्ती मार्च भी होता है. इसीलिए जब-जब दिल्ली-आगरा-मुम्बई आदि स्थानों पर चर्च हमले अथवा मूर्ति तोड़ने जैसे मामले सामने आते हैं, तब-तब मीडिया को “सेकुलर हिस्टीरिया” के दौरे पड़ने शुरू हो जाते हैं. कहने का तात्पर्य यह है कि चर्च पर हमले, आज़म-आज़मी-ओवैसी के जहरीले बयान, मीडिया द्वारा भाजपा अथवा मोदी के बयानों को तोड़मरोड़ कर पेश करना... ध्यान से देखें तो इन घटनाओं में एक “निश्चित पैटर्न” है.

फरवरी 2015 में जब बीबीसी की संवाददाता लेस्ली उडविन ने तिहाड़ जेल जाकर निर्भया बलात्कार मामले में सजायाफ्ता मुकेश सिंह से मुलाक़ात कर उसका इंटरव्यू बीबीसी पर दिखाया था, उस समय भी यही बौद्धिक षड्यंत्र काम कर रहा था कि, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि “बलात्कारियों के देश” के रूप में बनाने की पूरी कोशिश की जाए. ज़ाहिर है कि मोदी सरकार द्वारा NGOs पर लगाम कसने तथा भ्रष्टाचार के तमाम रास्ते धीरे-धीरे बन्द करते जाने एवं विकासवादी एजेंडे को लागू किए जाने के कारण विपक्षी खेमे में बौखलाहट का माहौल है. अभी तक पिछले एक वर्ष में दिल्ली विधानसभा चुनावों को छोड़कर लगभग सभी चुनावों में मोदी की लोकप्रियता बरकरार दिखी है और भाजपा ने चुनाव जीते हैं. इसीलिए काँग्रेस, जनता परिवार, NGOs “गिरोह” तथा बुद्धि बेचकर जीविका कमाने वाले प्रगतिशील बुद्धिजीवियों में भारी बेचैनी है और अब वे दुष्प्रचार के जरिये मोदी सरकार पर हमले किए जा रहे हैं, और इस काम में इन्हें काँग्रेस और मिशनरी का पूरा सहयोग प्राप्त हो रहा है. जैसा कि विश्व भर के तमाम उदाहरण बताते हैं कि मिशनरी संस्थाएँ दुष्प्रचार के मामले में बेहद निपुण और संसाधन सम्पन्न हैं.

मिशनरी संस्थाओं की संगठित शक्ति येन-केन-प्रकारेण नरेंद्र मोदी सरकार की छवि को आम जनमानस तथा विदेशों में बदनाम और बदरंग करने के लिए कमर कसे हुए है. मीडिया के साथ मिली-जुली संयुक्त शक्ति द्वारा समूचे विश्व में यह बात फैलाई जा रही है कि भारत में एक “हिन्दू-सरकार” है, जो सिर्फ हिंदुओं के हित देखती है और अल्पसंख्यकों पर भारी अत्याचार हो रहे हैं. इसीलिए पाकिस्तान अथवा बांग्लादेश में हजारों हिन्दू महिलाओं पर रोज़ाना हो रहे बलात्कारों के बारे में भारत का कोई चैनल अथवा अखबार जनता को सच्चाई नहीं बताता, परन्तु पश्चिम बंगाल के दूरदराज इलाके में एक वृद्ध नन के साथ हुई लूटपाट को “नन के साथ बलात्कार” कहकर इतना जबरदस्त कवरेज मिलता है कि पश्चिमी देशों की कुछ सरकारें भी इस पर अपने चिंता व्यक्त कर देती है... और जब जाँच में यह पता चलता है कि उस वृद्धा नन के साथ कोई बलात्कार हुआ ही नहीं था, अपितु यह एक सामान्य लूटपाट की घटना थी तथा लूटपाट करने वाले भी किसी हिन्दू संगठन के सदस्य नहीं बल्कि बांग्लादेश से आए हुए अवैध मुस्लिम घुसपैठिये थे, तो मीडिया ने तत्काल इस मामले को ठन्डे बस्ते में डाल दिया.

सामान्य तथ्य है कि दृश्य माध्यमों का प्रभाव (बल्कि दुष्प्रभाव कहना अधिक उचित होगा) ज्यादा पड़ता है, बजाय प्रिंट माध्यम के. इसीलिए भारत के टीवी चैनल “पीड़ितों”(?) को अधिकाधिक नाटकीय बनाकर पेश करने की कोशिश करते हैं. पीड़ित अथवा बलात्कृत महिला के मामले में भी यह देखा जाता है कि महिला किस जाति अथवा धर्म की है. इसीलिए दूरदराज के किसी इलाके में हुए बलात्कार की खबर अचानक राष्ट्रीय स्तर पर बेहद महत्त्वपूर्ण हो जाती है. सिर्फ दिल्ली में पिछले एक वर्ष में २५६ मंदिरों में चोरी, मूर्तियों से छेड़छाड़ आदि के मामले हुए हैं, लेकिन क्या किसी ने भी इनके बारे में कथित नेशनल मीडिया में कोई खबर देखी? अथवा किसी हिन्दू संगठन को मोमबत्ती लेकर प्रदर्शन करते देखा? परन्तु दिल्ली के किसी मामूली से चर्च की चार खिड़कियों के कांच फूटना अथवा किसी शराबी कर्मचारी द्वारा अपने ही चर्च में चोरी की घटना को अन्तर्राष्ट्रीय रंग मिल जाता है... जब तक जाँच नहीं होती, तब तक सेकुलरिज़्म के पुरोधा बलात्कार को धर्म से जोड़कर हिन्दू धर्म (अर्थात प्रकारांतर से मोदी सरकार) पर लगातार हमले बोलते हैं, लेकिन जब जाँच के बाद यह पता चलता है कि पूरी घटना में किसी हिन्दू संगठन का हाथ नहीं था, बल्कि यह कोई अंदरूनी घटना थी या इसमें किसी मुस्लिम व्यक्ति का ही हाथ था, तो अचानक सभी बुद्धिजीवी चुप्पी साध लेते हैं. जब अधिक कुरेदा जाता है तो बड़े दार्शनिक अंदाज में कह दिया जाता है कि “अपराधी का कोई धर्म नहीं होता..”... यही असली पेंच है.

सेकुलर बुद्धिजीवियों द्वारा महाराष्ट्र और हरियाणा सरकारों द्वारा गौहत्या बंदी क़ानून तथा गौमांस पर प्रतिबन्ध के खिलाफ भी यही “बदनाम करो... पीड़ित दर्शाओ” का खेल खेला गया. भारत के तेजी से घटते गौवंश की सुरक्षा एवं हिंदुओं की पूज्य गौ की हत्या से उत्पन्न आक्रोश के कारण जब महाराष्ट्र की सरकार ने “बीफ” पर प्रतिबन्ध की घोषणा की, तो मानो तूफ़ान ही आ गया. सारे के सारे प्रगतिशील बुद्धिजीवियों को अचानक गरीबों के प्रोटीन की चिंता सताने लगी... भोजन के अधिकार याद आने लगे... कुरैशी समुदाय के आर्थिक हितों के बारे में बौद्धिक विमर्श होने लगे. मजे की बात यह कि इस मामले में मुस्लिमों की तरफ से कोई धरना-प्रदर्शन आदि आयोजित नहीं हुआ, बल्कि उच्चवर्गीय कहे जाने वाले कथित हिन्दू सेलेब्रिटी ही आगे बढ़चढ़कर भाजपा सरकारों के खिलाफ धार्मिक भेदभाव के आरोप लगाने लगे. गिरीश कर्नाड जैसे कथित बुद्धिजीवी ने तो सरेआम गौमांस खाकर सरकार के खिलाफ नाराजगी व्यक्त कर डाली, मानो वे बचपन से गौमांस खाकर ही बड़े हुए हों. वास्तव में इन बुद्धिजीवियों को गौमांस के प्रोटीन अथवा गरीबों की कतई चिंता नहीं है, इनका असली उद्देश्य था देश-विदेश में भाजपा सरकारों की छवि खराब करना, यह प्रचारित करना कि मोदी सरकार मुस्लिम एवं ईसाई विरोधी है... क्योंकि जहाँ एक तरफ मुस्लिम समुदाय बीफ कारोबार से गहरे जुड़ा हुआ है, वहीं केरल, तमिलनाडु, आंधप्रदेश, गोवा के ईसाई परिवारों में गौमांस उनके नियमित भोजन का हिस्सा है. भले ही वैज्ञानिक रूप से साबित हो चुका हो कि बीफ (गौमांस) का निर्माण करने में पानी की खपत सर्वाधिक होती है, भले ही यह साबित हो चुका हो कि बीफ के मुकाबले सोयाबीन में प्रोटीन की मात्रा अधिक होती है... फिर भी गौमांस पर प्रतिबन्ध के खिलाफ सर्वाधिक हल्ला मचाया गया क्योंकि इससे सेकुलरिज़्म के पुरोधाओं का अपने विदेशी आकाओं की निगाह में स्कोर बढ़ता है और फडनवीस और खट्टर सरकारों के खिलाफ हमला बोलने का मौका भी बार-बार मिलता रहता है. हालाँकि दोनों ही सरकारें फिलहाल इस निर्णय पर कायम हैं, इसलिए महाराष्ट्र के सीमावर्ती जिलों से गौवंश की तस्करी भी थमी है. कसाईयों ने धीरे-धीरे अपने लिए दुसरे काम खोजने शुरू कर दिए हैं और उधर सुदूर बांग्लादेश में गौमांस की कीमतें आसमान छूने लगी हैं क्योंकि अब पश्चिम बंगाल तक अवैध गौवंश पहुँच ही नहीं रहा... लेकिन भारत में सेक्यूलरिज्म के नाम पर इस प्रकार की नौटंकियाँ सतत जारी रहती हैं.

कहावत है कि धूर्त दावा करते हैं और मूर्ख उसे मान लेते हैं. भारत में ऐसा ही कुछ “सेक्यूलरिज्म” के नाम पर भी होता आया है. विश्व के अन्य देशों में सेक्यूलरिज्म का अर्थ है “धर्म को राजनीति से अलग रखना” और इस परिभाषा का उद्भव भी पश्चिम में ही हुआ. लेकिन जो मुस्लिम संगठन अरब देशों में सेक्यूलरिज़्म का “स” भी नहीं उच्चारते वे भारत में सेक्यूलरिज़्म की माला जपते हैं. यही हाल ईसाई संगठनों का है, पश्चिम में चर्च और वेटिकन प्रत्येक राजनैतिक मामले में अपनी पूरी दखल रखते हैं (यहाँ तक कि भारत में भी केरल, उड़ीसा में कई मामलों में चर्च ने खुद अपने “सेक्यूलर उम्मीदवार” तय किए हैं). लेकिन यही ईसाई संगठन भारत में सेक्यूलरिज्म के पुरोधा बने फिरते हैं. ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि भारत में सेक्यूलरिज़्म की अवधारणा “हिन्दू विरोधी विचारधारा” के रूप में है. हिन्दू धर्म, हिंदुत्व, हिन्दू परम्पराओं, हिन्दू विश्वासों-अंधविश्वासों के खिलाफ जो भी अधिकाधिक जोरशोर से चिल्लाएगा, उसे भारत में सेक्यूलर माना जाएगा... परन्तु यह नियम विश्व के इस्लामी-ईसाई देशों में लागू नहीं होता. ज़ाहिर है कि कोई भी ईसाई अथवा मुस्लिम कभी सेक्यूलर हो ही नहीं सकता. इसलिए जब हम सेक्यूलर शब्द का उच्चारण करते हैं तो वह वास्तव में जन्मना हिन्दू के लिए ही होता है जिसके मन में भारतीय परम्पराओं एवं हिन्दू धर्म के प्रति संशय की भावना बलवती है.

इस नकली सेक्यूलरिज़्म का ही दबाव है कि जब मिशनरी संस्थाएँ बाकायदा सुसंगठित अभियान के तहत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भाजपा सरकारों को बदनाम करती हैं, चर्चों पर “कथित हमलों” अथवा “नन के साथ बलात्कार” अथवा “ग्राहम स्टेंस की हत्या” के खिलाफ हाहाकाल मचाती हैं तो सरकार मजबूती से कभी यह नहीं पूछती कि इन तमाम हमलों में कोई वैचारिक कोण नहीं है, ये सिर्फ चोरी-लूटपाट की सामान्य घटनाएँ हैं तो इन्हें धर्म से जोड़कर क्यों देखा जा रहा है? उलटे वह सार्वजनिक रूप से आश्वासन देती है कि “चर्च पर हुए हमलों” के प्रति सख्त दृष्टिकोण अपनाएगी... ऐसा करके भाजपा खुद अपने ही शत्रुओं के जाल में फँस जाती है. यही दब्बूपन कश्मीर मसले पर भी होता आया है. पाकिस्तान से जोर देकर पाक अधिकृत कश्मीर खाली करने को कहना हो, अथवा पाक अधिकृत कश्मीर का कुछ हिस्सा चीन को सौंपने के के विरोध में दबाव बनाना हो अथवा बलूचिस्तान में आत्मनिर्णय की माँग को हवा देना हो... भारत की सरकारें दब्बूपन की शिकार रही हैं.


सेक्यूलरिज़्म के नाम पर चल रहे इसी अन्तर्राष्ट्रीय “गेम” का एक हिस्सा है स्मृति ईरानी पर लगातार हमले तथा दीनानाथ बत्रा का कड़ा विरोध. स्मृति ईरानी के मानव संसाधन मंत्रालय संभालने के पहले दिन से ही वे कथित बुद्धिजीवियों की आँखों का काँटा बनी हुई हैं. स्मृति ईरानी को लेकर सतत मीडिया में विवाद पैदा किए जाते रहे हैं, चाहे वह उनके ज्योतिषी को हाथ दिखाने वाला मामला हो अथवा गोवा के स्टोर में छिपा हुआ कैमरा पकड़ने का मामला हो अथवा विश्वविद्यालयों की नियुक्तियों तथा भारतीय इतिहास संकलन एवं अन्य संस्थानों में नियुक्ति का विवाद हो... बारम्बार स्मृति ईरानी को निशाना बनाया जाता रहा है. ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि अब इन कथित सेक्यूलर बुद्धिजीवियों को लग रहा है कि अगले पाँच वर्ष में कुछ ऐसा बदलाव आ सकता है जो इनके पिछले साठ वर्षों के झूठ, दुष्प्रचार और इतिहास को विकृत करने के षड्यंत्र की पोल खोलकर रख देगा. एक बार भारतीय जनमानस को उसके वैभवशाली इतिहास एवं संस्कृति की जानकारी हो गई तो वह हनुमान की तरह उठ खड़ा होगा. यही बात प्रगतिशील बुद्धिजीवी नहीं चाहते. सेक्यूलरिज़्म के नाम पर अभी तक अकबर को महान और राणा प्रताप को भगोड़ा कहा जाता रहा है, तात्या टोपे अथवा चाफेकर जैसे वीरों की तो बात ही छोडिये, छत्रपति शिवाजी महाराज को भी जानबूझकर पुस्तकों में वह स्थान नहीं दिया गया, स्वतन्त्र भारत में जिसके वे हकदार हैं. यह पराजित मानसिकता और गुलामगिरी के पाठ्यक्रमों को बदलने की कवायद शुरू करने के कारण ही स्मृति ईरानी और दीनानाथ बत्रा दोनों ही वामपंथी बुद्धिजीवियों के निशाने पर रहे हैं.

अंग्रेज लेखिका वेन्डी डोनिगर द्वारा हिन्दू धर्म की दुराग्रही आलोचना हो, बीबीसी की संवाददाता लेस्ली उडविन द्वारा निर्भया के बलात्कारी मुकेश सिंह का चेहरा-नाम सार्वजनिक किया जाना, लेकिन चालबाजी के साथ “कथित” नाबालिग, लेकिन दुर्दांत आरोपी मोहम्मद अफरोज का नाम और उसके परिवार की पहचान छिपाते हुए पूरी डाक्यूमेंट्री का प्रदर्शन कुछ इस प्रकार करना कि सभी भारतीय मर्द बलात्कारी दिखाई दें... फिर चर्चों पर “कथित हमले” या नन के साथ कथित बलात्कार की मीडियाई चीख-पुकार हों... देखने में भले ही यह सब कड़ियाँ अलग-अलग दिखाई दे रही हों, परन्तु वास्तव में यह सब एक ही छतरी के नीचे से संचालित हो रही हैं. सनद रहे कि मैंने “कथित हमले” शब्द का उपयोग इसलिए किया क्योंकि ना तो इन हमलों(?) में कोई घायल हुआ, ना ही इन हमलों(?) में चर्च का कोई कर्मचारी अथवा पादरी मारा गया, मीडिया द्वारा बहुप्रचारित धार्मिक रंग देने के इन प्रयासों में किसी किसी हिन्दू संगठन द्वारा किसी बिशप पर कोई प्राणघातक हमला नहीं हुआ... जबकि उधर केन्या में एक मुस्लिम आतंकवादी संगठन ने एक कॉलेज में बाकायदा धर्म पूछ-पूछकर सौ से अधिक ईसाई युवकों को गोलियों से भून दिया, परन्तु वेटिकन को उस तरफ झाँकने की भी फुर्सत नहीं मिली. ज़ाहिर है कि जिससे “माल” मिल रहा है और जहाँ “माल” कमाया जा रहा है, उसी के अनुसार ख़बरें बनाई, गढी और प्लांट की जाएँगी.

जिस समय नरेंद्र मोदी सरकार ने कश्मीर में PDP के साथ मिलकर सरकार बनाने का फैसला किया था, वह बहुत सोच-समझकर ली गई “कैलकुलेटेड रिस्क” थी. सरकार बनने के पहले दिन से ही मोदी विरोधी प्रोपोगेंडा चलाने वालों ने मुफ्ती-मोदी के इस मिलन की खिल्ली उड़ाना शुरू कर दी थी. यह एक स्वाभाविक सी बात थी, क्योंकि घाटी में पहली बार कोई ऐसी सरकार बनी है, जिसमें भाजपा-संघ की सीधी हिस्सेदारी है. भला यह बात दिल्ली में बैठे बुद्धिजीवियों को कैसे हजम होती? जिसे अंग्रेजी में “टीथिंग पेन्स” (बच्चों को दाँत निकलने वाला दर्द) कहते हैं, फिलहाल वैसा ही वैसा ही कश्मीर की सरकार के साथ भी हो रहा है और यह प्रत्येक सरकार के साथ होता है. पिछली दो अब्दुल्ला-काँग्रेस सरकारों ने मसर्रत आलम के खिलाफ कभी कोई मजबूत केस नहीं बनाया. ज़ाहिर है कि कोर्ट के आदेशों के बाद उसे छोड़ना पड़ा. मसर्रत की रिहाई मोदी सरकार के खिलाफ दुष्प्रचार करने वालों के लिए अंधे के हाथ बटेर जैसी लगी. तमाम चैनलों-अखबारों में मोदी-मुफ्ती सरकार के इस निर्णय की छीछालेदार हुई, आलोचनाएं की गईं, लेकिन किसी भी बुद्धिजीवी ने यह नहीं पूछा कि पिछली सरकारों ने मसर्रत के खिलाफ कमज़ोर धाराएं क्यों लगाईं कि वह न्यायालय द्वारा बरी कर दिया जाए? और फिर जैसा कि होना था, वही हुआ. मसर्रत ने जेल से रिहा होते ही अपने रंग दिखाने शुरू किए. मोदी-मुफ्ती सरकार भी उसे ढील देती रही, झाँसा देती रही कि उस पर कोई कार्रवाई नहीं होगी, उसे गलतियाँ करने के लिए पूरा मौका दिया गया. इससे मसर्रत _अति-आत्मविश्वास” और “अति-उत्साह” में आ गया तथा उसने एक रैली में न सिर्फ भारत विरोधी नारे लगाए, बल्कि पाकिस्तान के झण्डे भी लहराए... एक बार पुनः मोदी विरोधियों को “कोहराम” मचाने का मौका मिल गया. मसर्रत को गिरफ्तार करो, गिरफ्तार करो की चीख-पुकार होने लगी. मोदी-मुफ्ती सरकार इसी मौके की तलाश में थी, उसने मसर्रत को गिरफ्तार कर लिया. अब दिल्ली के बुद्धिजीवियों में चारों तरफ सन्नाटा है, उन्हें समझ नहीं आ रहा कि जब खुद ही गिरफ्तारी की माँग की थी तो अब विरोध कैसे करें? फिर सदाबहार दिग्गी राजा सामने आए और सरकार से पूछा कि “मसर्रत साहब”(?) को किन धाराओं के तहत गिरफ्तार किया गया है? यदि उस समय रिहा होते ही मसर्रत को गिरफ्तार कर लेते तो उसे सहानुभूति भी मिल सकती थी, ज़ाहिर है कि अब मसर्रत को लंबे समय तक जेल में रखने की पूरी व्यवस्था की जाएगी. बहरहाल, अब जम्मू-कश्मीर में भाजपा की टांग प्रत्येक निर्णय में फँसी हुई है, जो सेकुलरों को रास नहीं आ रहा. कश्मीरी पंडितों के मामले पर भी गाड़ी धीरे-धीरे आगे बढ़ रही है, इसीलिए यासीन मालिक और अग्निवेश जैसे लोग बेचैन हैं. पाखण्ड की इन्तहा यह है कि जिन लोगों ने इस्लाम के नाम पर पंडितों को वहाँ से बेदखल किया, हत्याओं की अगुआई की अब वही लोग पंडितों की अलग कालोनी बसाने का विरोध कर रहे हैं, भाई-चारे के झूठे नारे लगा रहे हैं... क्या यह “अच्छे दिन” नहीं हैं? परन्तु मोदी सरकार विरोधी दुष्प्रचारियों की “Paid” सेना को यह मंजूर नहीं, अब कुछ दिनों बाद वह कोई नया मुद्दा खोजेंगे.

उधर उत्तरप्रदेश और बिहार में भी “राजनैतिक तंदूर” गरम होना शुरू हो गया है, इसीलिए आज़म खान की सेकुलर कारगुजारियों की भी शुरुआत हो चुकी है. इसके अलावा नए-नए समधी बने मुलायम-लालू की जोड़ी ने समूचे जनता परिवार को हाईजैक करके खुद का कब्ज़ा लगभग स्थापित कर लिया है. समाजवादियों के इस झगड़ालू और “पीठ में खंजर घोंपने की प्रवृत्ति” से भरपूर जमावड़े को समाजवादी जैसा कुछ नाम भी मिल गया है. इधर 59 दिन गुमनामी बाबा बने रहने के बाद अचानक “राजकुमार” की वापसी हुई है जिसे “दुष्प्रचारी बुद्धिजीवी गिरोह” ने बुद्ध की वापसी जैसी हास्यास्पद तुलना तक कर डाली है. साठ वर्ष तक सत्ता में रहने और जमाई राजा द्वारा DLF के साथ मिलकर जमीन हड़पने वाले फाईव स्टार किसानों की पार्टी काँग्रेस को अब अचानक किसानों की चिंता सताने लगी है. चूँकि भूमि अधिग्रहण बिल के मुद्दे पर मोदी सरकार राज्यसभा में अल्पमत में घिरी हुई है इसलिए फिलहाल वह फूँक-फूँककर कदम रख रही है, और विरोधी इसे कमज़ोरी और हार कहकर खुश हो रहे हैं. ज़ाहिर है कि मोदी की सफल विदेश यात्राओं तथा घरेलू विकास के मुद्दों पर बढ़ती लोकप्रियता के बीच भूमि अधिग्रहण का यही एक मुद्दा रह गया है जो यूपी-बिहार में काँग्रेस और क्षेत्रीय दलों की खोई हुई जमीन वापस लौटा सकता है. मीडिया, मिशनरी और NGOs “गिरोह” की मिलीभगत से किसानों के फायदे वाले इस क़ानून को लेकर जमकर झूठ बोला जा रहा है. जब नितिन गड़करी ने सोनिया गाँधी को भूमि अधिग्रहण बिल पर सार्वजनिक बहस की चुनौती दी तो दुष्प्रचारी गिरोह ने उसे नज़रअंदाज कर दिया, लेकिन जैसे ही बैंकाक से “आत्मचिंतन”(??) करके लौटे बाबा ने संसद में अपना (दस साल में शायद दूसरा या तीसरा) भाषण दिया तो सभी “दरबारी”, जय हो महाराज, जय हो महाराज करने लगे. कुल मिलाकर बात यह है कि अभी मोदी सरकार को एक वर्ष भी नहीं हुआ है, लेकिन विभिन्न गुटों में बेचैनी बढ़ती जा रही है. मोदी सरकार सुभाषचंद्र बोस के रहस्यों को उजागर करने जैसे कई महत्त्वपूर्ण “राजनैतिक” मुद्दों पर चुपचाप काम कर रही है और इसके नतीजे जल्दी ही देखने को मिलेंगे. 


हाल ही में गुजरात सरकार ने फोर्ड फाउन्डेशन और तीस्ता सीतलवाड की मिलीभगत एवं झूठ व दुष्प्रचार फैलाने के मामले में आधिकारिक रूप से फोर्ड फाउन्डेशन से जवाब-तलब किया है. जबकि इधर केन्द्र सरकार ने “ग्रीनपीस” नामक जाने-माने अन्तर्राष्ट्रीय NGO के हिसाब-किताब की जाँच हेतु कार्रवाई आरम्भ की है. ज़ाहिर है कि सेकुलर-प्रगतिशील खेमे में खलबली है, क्योंकि इन दोनों ही परजीवियों का पेट NGOs को मिले चन्दे से ही चलता है. हाल ही में एक शोध किया गया जिसमें UPA-2 सरकार के कार्यकाल के दौरान भारत सरकार के FCRA (विदेशी मुद्रा विनियमन क़ानून) के माध्यम से विदेशी धन प्राप्त करने वाली संस्थाओं की जानकारी निकाली गई. समूचे भारत में सिर्फ बाईस हजार संस्थाओं ने FC-6 फॉर्म के माध्यम से संस्था को मिली रकम का ब्यौरा दिया है. जबकि इनके अलावा कम से कम दो लाख संस्थाएँ और भी ऐसी हैं जिन्होंने अपनी संस्था का पंजीकरण “समाजसेवा” के नाम पर करवा रखा है और इसमें धार्मिक कोण को गायब कर दिया है. यदि हम इन सिर्फ बाईस हजार संस्थाओं के आँकड़े भी ध्यान से देखें तो पाते हैं कि 5200 संस्थाएँ ऐसी हैं जिन्होंने घोषित रूप से अपने कॉलम में “ईसाई धर्म प्रचार” लिखा हुआ है, अर्थात विदेशी मुद्रा प्राप्त करने वाली कुल संस्थाओं में से कुल लगभग बीस-बाईस प्रतिशत सिर्फ “ईसाई” संस्थाएँ हैं. ऐसा क्यों है? क्या भारत में ईसाई धर्म प्रचार करने का मार्केट इतना जबरदस्त है? सिर्फ दिल्ली में लगभग 200 संस्थाएं हैं जिन्हें लगभग छः सौ करोड़ रूपए से अधिक का विदेशी “दान”(??) प्राप्त हुआ है. सवाल उठता है कि क्या वास्तव में इतना सारा धन सिर्फ धर्म प्रचार में लगता है? सामान्य समझ का कोई भी व्यक्ति कह देगा कि नहीं, यह पैसा निश्चित रूप से विभिन्न चैनलों के माध्यम से शहरी मीडिया एवं प्रचार संस्थानों, ग्रामीण क्षेत्रों में दुष्प्रचार फैलाने तथा स्कूलों-अस्पतालों की आड़ में अपना उल्लू सीधा करने में काम आता है. यह इसी बात से सिद्ध होता है कि जैसे ही फोर्ड फाउन्डेशन से सरकार ने जवाबतलबी की, तो यहाँ भारत में कई कथित पत्रकारों के पेट में मरोड़ उठने लगे. कोर्ट के निर्देशों के अनुसार फोर्ड फाउन्डेशन अथवा गुजरात दंगों के समय सुप्रीम कोर्ट में लगातार झूठ बोलने वाली तथा दंगापीड़ितों का पैसा खा जाने वाली तीस्ता सीतलवाड के बैंक खातों और लेन-देन की जाँच से भला किसी को क्या तकलीफ हो सकती है? इसी प्रकार जब “ग्रीन-पीस” नामक भारी-भरकम NGO से जवाब माँगे गए, तब भी एक पत्रकारों की विशिष्ट लॉबी ने यह दुष्प्रचार किया कि सरकार बदले की कार्रवाई कर रही है. फोर्ड फाउन्डेशन ने सन 2006 में 104 संस्थाओं को 41 करोड़ रूपए, 2007 में 128 संस्थाओं को 75 करोड़ रूपए गरीबी मिटाने के नाम पर “दान”(?) दिए... इस प्रकार UPA-2 के शासनकाल में 2006-2012 के छः वर्षों में फोर्ड फाउन्डेशन ने लगभग पाँच सौ करोड़ रूपए भारत की सैकड़ों समाजसेवी संस्थाओं को चन्दा दिया. सवाल घूम-फिरकर वही आता है कि क्या वाकई उक्त संस्थाएँ समाजसेवा कर रही हैं? क्या फोर्ड फाउन्डेशन इतना बड़ा समाजसेवी है कि वह अपने दिए हुए धन का उपयोग, सदुपयोग, दुरुपयोग आदि के बारे में पूछताछ नहीं करता? यदि नहीं करता, तो भारत के नियम-कानूनों के अनुसार इस विशाल फंडिंग की जाँच की शुरुआत करते ही भारत सरकार के खिलाफ अचानक यह दुष्प्रचार क्यों आरम्भ हो जाता है? और बुद्धिजीवियों से असली सवाल यह है कि अपने देश की सरकार पर भरोसा करने की बजाय, विदेशी संस्थाओं से यह कैसा प्रेम और गठबंधन है?

प्रधानमंत्री सड़कों की बात करते हैं तो “कथित रूप से दस लाख के सूट” का झूठा मुद्दा उछल जाता है, प्रधानमंत्री बिजली उत्पादन और परमाणु समझौतों की बात करते हैं तो अचानक किसी नामालूम सी साध्वी के किसी दूरदराज इलाके में दिए गए बयानों को हेडलाईन बनाकर चार दिनों तक चबाया जाता है... मानव संसाधन मंत्री शिक्षा और पाठ्यक्रम में सुधार की बात करें तो उन्हें संसद में ही अपमानित कर दिया जाए... जनरल वीके सिंह हिम्मत दिखाकर युद्धग्रस्त यमन से पाँच हजार भारतीयों को निकाल लाएँ तो उनकी तारीफ़ करना तो दूर उनकी पाकिस्तानी दूतावास संबंधी ट्वीट को ब्रेकिंग न्यूज़ बनाया जाता है. अब समय आ गया है कि सरकार NGOs, मिशनरी संस्थाओं, मीडिया में घुसे बैठे चंद स्वार्थी तत्त्वों और शैक्षणिक संस्थाओं में पनाह लिए हुए बुद्धिजीवियों के इस नापाक गठबंधन के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई करे.

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