Thursday, 9 April 2015

“सेकुलर बुद्धिजीवी गैंग” का नकाब उतरा – सन्दर्भ : गुलाम नबी फ़ई.... 

हाल ही में अमेरिका ने दो ISI एजेंटों गुलाम नबी फाई और उसके एक साथी को गिरफ्तार किया। ये दोनों पाकिस्तान से रूपये लेकर पूरे विश्व में कश्मीर मामले पर पाकिस्तान के लिए लॉबिंग और सेमिनार आयोजित करते थे। इसमें होने वाले तमाम खर्चों का आदान प्रदान हवाला के जरिये होता था। इन सेमिनारों में बोलने वाले वक्ताओ और सेलिब्रिटीज को खूब पैसे दिए जाते थे। ये एजेंट उनको भारी धनराशि देकर कश्मीर पर पाकिस्तान का पक्ष मजबूत करते थे।

अमेरिका ने उनसे पूछताछ के बाद उनके भारतीय दलालों के नाम भारत सरकार को बताए हैं। इन भारतीय "दलालों" के नाम सुनकर भारत सरकार के हाथ पांव फ़ूल गए हैं, ना तो भारत सरकार में इतनी हिम्मत है कि इन देशद्रोहियों को गिरफ्तार करे और ना ही इतनी हिम्मत है कि इन दलालों पर रोक लगाये। जो हिम्मत(?) कांग्रेस ने रामलीला मैदान में दिखाई थी, वही हिम्मत इन दलालो को गिरफ्तार करने में नहीं दिखाई जा सकती, क्योंकि ये लोग बेहद “प्रभावशाली”(?) हैं।


(चित्र में - गुलाम नबी फ़ई, अमेरिका में भारतीय दूतावास के सामने KAC के बैनर तले कश्मीर की आजादी की माँग करते हुए) 

पहले जरा आप उन तथाकथित "बुद्धिजीवियों", "सफेदपोशो" एवं "परजीवियों" के नाम जान लीजिए जो"ISI" से पैसे लेकर भारत में कश्मीर, मानवाधिकार, नक्सलवाद इत्यादि पर सेमिनारों में भाषणबाजी किया करते थे…. ये लोग पैसे के आगे इतने अंधे थे कि इन्होंने कभी यह जाँचने की कोशिश भी नहीं की, कि इन सेमिनारों को आयोजित करने वाले, इनके हवाई जहाजों के टिकट और होटलों के खर्चे उठाने वाले लोग "कौन हैं, इनके क्या मंसूबे हैं…", इन लोगों को कश्मीर पर पाकिस्तान का पक्ष लेने में भी जरा भी संकोच नहीं होता था। हो सकता है कि इन "महानुभावों" में से एक-दो, को यह पता न हो कि इन सेमिनारों में ISI का पैसा लगा है और गुलाम नबी फ़ई एक पाकिस्तानी एजेण्ट है। लेकिन ये इतने विद्वान तो हैं ना कि इन्हें यह निश्चित ही पता होगा कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है? तब भी ऐसे देशद्रोही"प्रायोजित" सेमिनारों में ये लोग लगातार कश्मीर के "पत्थर-फ़ेंकुओं" के प्रति सहानुभूति जताते रहते, कश्मीर के आतंकवाद को "भटके हुए नौजवानों" की करतूत बताते एवं बस्तर व झारखण्ड के जंगलों में एके-47 खरीदने लायक औकात रखने वाले, एवं अवैध खनन एवं ठेकेदारों से "रंगदारी" वसूलने वाले नक्सलियों को "गरीब", "सताया हुआ", "शोषित आदिवासी" बताते रहे और यह सब रुदालियाँ वे अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर गाते थे। 

१- लेखक और संपादक कुलदीप नैयर :- (पाकिस्तान को लेकर हमेशा नॉस्टैल्जिक मूड में रहने वाले "महान" पत्रकार)। इन साहब को 1947 से ही लगता रहा है कि पाकिस्तान भारत का छोटा "शैतान" भाई है, जो कभी न कभी "बड़े भाई" से सुलह कर लेगा और प्यार-मोहब्बत से रहेगा…

२- स्वामी(?) अग्निवेश :- (महंगे होटलों में ठहरते हैं, हवाई जहाज में सफ़र करते हैं, कश्मीर नीति पर हमेशा भारत-विरोधी सुर अलापते हैं, नक्सलवादियों और सरकार के बीच हमेशा "दलाल" की भूमिका में दिखते हैं)

३- दिलीप पडगांवकर :- (कश्मीर समस्या के हल हेतु मनमोहन सिंह द्वारा नियुक्त विशेष समिति के अध्यक्ष)। यह साहब अपने बयान में फ़रमाते हैं कि मुझे पता नहीं था कि गुलाम नबी फ़ाई ISI का मोहरा है…। अब इन पर लानत भेजने के अलावा और क्या किया जाए? टाइम्स ऑफ़ इण्डिया जैसे "प्रतिष्ठित"(???) अखबार के सम्पादक को यह नहीं पता तो किसे पता होगा? वह भी उस स्थिति में जबकि टाइम्स अखबार में ISI, कश्मीरी आतंकवादियों और KAC (कश्मीर अमेरिकन सेण्टर) के "संदिग्ध रिश्तों" के बारे में हजारों पेज सामग्री छप चुकी है… क्या पडगाँवकर साहब अपना ही अखबार नहीं पढ़ते?

४-मीरवाइज उमर फारूक - ये तो घोषित रूप से भारत विरोधी हैं, इसलिए ये तो ऐसे सेमिनारों में रहेंगे ही, हालांकि इन्हें भारतीय पासपोर्ट पर यात्रा करने में शर्म नहीं आती।

५-राजेंद्र सच्चर :- ये सज्जन ही "सच्चर कमिटी" के चीफ है, जिन्होंने एक तरह से ये पूरा देश मुसलमानों को देने की सिफ़ारिश की है, अब पता चला कि गुलाम फ़ई के ऐसे सेमिनारों और कान्फ़्रेंसों में जा-जाकर ही इनकी यह "हालत" हुई।

६ - पत्रकार एवं "सामाजिक"(?) कार्यकर्ता गौतम नवलखा - "सो-कॉल्ड" सेकुलरिज़्म के एक और झण्डाबरदार, जिन्हें भारत का सत्ता-तंत्र और केन्द्रीय शासन पसन्द नहीं है, ये साहब अक्सर अरुंधती रॉय के साथ विभिन्न सेमिनारों में दुनिया को बताते फ़िरते हैं कि कैसे दिल्ली की सरकार कश्मीर, नागालैण्ड, मणिपुर इत्यादि जगहों पर "अत्याचार"(?) कर रही है। ये साहब चाहते हैं कि पूरा भारत माओवादियों के कब्जे में आ जाए तो "स्वर्ग" बन जाए…। कश्मीर पर कोई सेमिनार गुलाम नबी फ़ई आयोजित करें, भारत को गरियाएं और दुनिया के सामने "रोना-धोना" करें तो वहाँ नवलखा-अरुंधती की उपस्थिति अनिवार्य हो जाती है।

7- यासीन मालिक :- ISI का सेमिनार हो, पाकिस्तान का गुणगान हो, कश्मीर की बात हो और उसमें यासीन मलिक न जाए, ऐसा कैसे हो सकता है? ये साहब तो भारत सरकार की "मेहरबानी" से ठेठ दिल्ली में, फ़ाइव स्टार होटलों में पत्रकार वार्ता करके, सरकार की नाक के नीचे आकर गरिया जाते हैं और भारत सरकार सिर्फ़ हें-हें-हें-हें करके रह जाती है।

तात्पर्य यह है कि ऊपर उल्लिखित "महानुभावों" के अलावा भी ऐसे कई "चेहरे" हैं जो सरेआम भारत सरकार की विदेश नीतियों के खिलाफ़ बोलते रहते हैं। परन्तु अब जबकि अमेरिका ने इस राज़ का पर्दाफ़ाश कर दिया है तथा गिरफ़्तार करके बताया कि गुलाम नबी फ़ाई को पाकिस्तान से प्रतिवर्ष लगभग पाँच  से सात लाख डॉलर प्राप्त होते थे जिसका एक बड़ा हिस्सा अमेरिकी सांसदों को खरीदने, कश्मीर पर पाकिस्तानी "राग" अलापने और "विद्वानों"(?) की आवभगत में खर्च किया जाता था। भारत के ये तथाकथित बुद्धिजीवी और “थिंक टैंक” कहे जाने वाले महानुभाव यूरोप-अमेरिका घूमने, फ़ाइव स्टार होटलों के मजे लेने और गुलाम नबी फ़ई की आवभगत के ऐसे “आदी” हो चुके थे कि देश के इन लगभग सभी “बड़े नामों” को कश्मीर पर बोलना जरूरी लगने लगा था। इन सभी महानुभावों को "अमन की आशा" का हिस्सा बनने में मजा आता है, गाँधी की तर्ज पर शान्ति के ये पैरोकार चाहते हैं कि, "एक शहर में बम विस्फ़ोट होने पर हमें दूसरा शहर आगे कर देना चाहिए…।

ऊपर तो चन्द नाम ही गिनाए गये हैं, जबकि गुलाम नबी फ़ई के सेमिनारों, कान्फ़्रेंसों और गोष्ठियों में जाने वालों की लिस्ट दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है, कश्मीर में मानवाधिकार के उल्लंघन(?) और भारत-पाकिस्तान के बीच “शान्ति” की खोज करने वालों में हरीश खरे (प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार), रीता मनचन्दा, वेद भसीन (कश्मीर टाइम्स के प्रमुख), हरिन्दर बवेजा (हेडलाइन्स टुडे), प्रफ़ुल्ल बिदवई (वरिष्ठ पत्रकार), अंगना चटर्जी, कमल मित्रा के अलावा संदीप पाण्डेय, अखिला रमन… जैसे एक से बढ़कर एक “बुद्धिजीवी” शामिल हैं। चिंता की बात यह है कि इन्हीं में से अधिकतर बुद्धिजीवी UPA-2 की नीतियों, विदेश नीतियों, कश्मीर निर्णयों को प्रभावित करते हैं। इन्हीं में से अधिकांश बुद्धिजीवी, हमें सेकुलरिज़्म और साम्प्रदायिकता का मतलब समझाते नज़र आते हैं, इन्हीं बुद्धिजीवियों के लगुए-भगुए अक्सर हिन्दुत्व और नरेन्द्र मोदी को गरियाते मिल जाएंगे, लेकिन पिछले 10 साल में कश्मीर को “विवादित क्षेत्र” के रूप में प्रचारित करने में, भारतीय सेना के बलिदानों को नज़रअंदाज़ करके अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर बार-बार सेना के “कथित दमन” को हाइलाईट करने में यह गैंग सदा आगे रही है। ये वही “गैंग” है जिसे कश्मीर के विस्थापित पंडितों से ज्यादा फ़िलीस्तीन के मुसलमानों की चिन्ता रहती है… 

इनके अलावा जेएनयू एवं कश्मीर विश्वविद्यालय के कई प्रोफ़ेसर भी गुलाम नबी फ़ई द्वारा आयोजित मजमों में शामिल हो चुके हैं। अमेरिकी सरकार एवं FBI का कहना है कि गुलाम नबी के ISI सम्बन्धों पर पिछले 3 साल से निगाह रखी जा रही थी, ऐसे में सवाल उठता है कि क्या अमेरिकी सरकार ने भारत सरकार से यह सूचना शेयर की थी? मान लें कि भारत सरकार को यह सूचना थी कि फ़ई पाकिस्तानी एजेण्ट है तो फ़िरसरकार ने “शासकीय सेवकों” यानी जेएनयू और अन्य विवि के प्रोफ़ेसरों को ऐसे सेमिनारों में विदेश जाने की अनुमति कैसे और क्यों दी? बुरका हसीब दत्त, वीर संघवी तथा हेंहेंहेंहेंहेंहें उर्फ़ प्रभु चावला जैसे लोग तो पहले ही नीरा राडिया केस में बेनकाब हो चुके हैं, अब गुलाम नबी फ़ई मामले में भारत के दूसरे “जैश-ए-सेकुलर पत्रकार” भी बेनकाब हो रहे हैं।

यदि देश में काम कर रहे विभिन्न संदिग्ध NGOs के साथ-साथ “स्वघोषित एवं बड़े-बड़े नामों” से सुसज्जित NGOs जैसे AID, FOIL, FOSA, IMUSA की गम्भीरता से जाँच की जाए तो भारत के ये “लश्कर-ए-बुद्धिजीवी” भी नंगे हो जाएंगे…। ये बात और है कि पद्मश्री, पद्मभूषण आदि पुरस्कारों की लाइन में यही चेहरे आगे-आगे दिखेंगे।

इसी मुद्दे पर लिखी हुई एक पुरानी पोस्ट भी अवश्य पढ़ें…http://blog.sureshchiplunkar.com/2008/08/secular-intellectuals-terrorism-nation.html
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विशेष नोट :- मुझे बार-बार गोविन्द निहलानी की फ़िल्म “द्रोहकाल” की याद आ रही है, जिन सज्जन ने नहीं देखी हो, वे अवश्य देखें।

सेकुलर बुद्धिजीवी यानी आतंकवादियों की “बी” टीम…

Secular Intellectuals Terrorism & Nation
हाल ही में यासीन मलिक द्वारा एक ब्लॉग शुरु किया गया है जिस पर वह नियमित रूप से लिखा करेगा, कोई बात नहीं…ब्लॉग लिखना हरेक का व्यक्तिगत मामला है और हर व्यक्ति कुछ भी लिखने को स्वतन्त्र है (कम से कम ऐसा “भारतीय” लोग तो मानते हैं)। यासीन मलिक कौन हैं और इन्हें भारत से कितना प्रेम है या भारत के प्रति इनके विचार कितने “महान” हैं यह अलग से बताने की ज़रूरत नहीं है।समस्या शुरु होती है ऐसे “महान व्यक्ति”(?) के ब्लॉग को प्रचारित करने की कोशिश से और भारत में ही रहने वाले कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा इसका प्रचार करने से। यह भी पता चला है कि यासीन मलिक जैसों को एक “प्लेटफ़ॉर्म” प्रदान करने की यह एक सोची-समझी चाल है, और जिन प्रसिद्ध(?) व्यक्तियों को हिन्दी में ब्लॉग लिखने में दिक्कत हो उसे “भाड़े के टट्टू” भी प्रदान किये जायेंगे। इस सेवा के ज़रिये ये “जयचन्द” अपना आर्थिक उल्लू तो सीधा करेंगे ही, किसी पुरस्कार की जुगाड़ में भी लगे हों तो कोई बड़ी बात नहीं। असल में भारत में पैदा होने वाली यह “सेकुलर बुद्धिजीवी” नाम की “खरपतवार” अपने कुछ मानवाधिकारवादी “गुर्गों” के साथ मिलकर एक “गैंग” बनाती हैं, फ़िर “अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता” (यानी चाहे विचारधारा भारत विरोधी हो या किसी को खुल्लमखुल्ला गरियाना हो, या देवी-देवताओं के नंगे चित्र बनाने हों) के नाम पर एक विलाप-प्रलाप शुरु किया जाता है, जिसकी परिणति किसी सरकारी पुरस्कार या किसी NGO की मानद सदस्यता अथवा किसी बड़े विदेशी चन्दे के रूप में होती है। 

इन मानवाधिकारवादियों का चेहरा कई बार बेनकाब हो चुका है, लेकिन “शर्म हमको आती नहीं” वाली मानसिकता लेकर ये लोग डटे रहते हैं। संसद पर हमले को लेकर सारा देश सन्न है, उद्वेलित होता है, देश की सर्वोच्च न्यायालय अफ़ज़ल गुरु नाम के आतंकवादी को फ़ाँसी की सजा सुना चुकी है, देश आतुरता से प्रतीक्षा कर रहा है कि कब उसका नाश हो, लेकिन नहीं साहब… भारत में यह इतना आसान नहीं है। फ़ाँसी की सजा को “अमानवीय” बताते हुए “सेकुलरिस्ट” और मानवाधिकारवादी (Human Right Activitsts) एक सोचा-समझा मीडिया अभियान चलाते हैं ताकि उस आतंकवादी की जान बचाई जा सके। चूंकि मीडिया में भी इन लोगों के “पिठ्ठू” बैठे होते हैं सो वे इन “महान विचारों” को हाथोंहाथ लेते हैं, और महात्मा गाँधी को “पोस्टर बॉय” बनाकर रख देने वाली कांग्रेस, तो तैयार ही बैठी होती है कि ऐसी कोई “देशप्रेमी” माँग आये और वह उस पर तत्काल विचार करे। इन सेकुलर बुद्धिजीवियों ने कई ख्यात(?) लोगों को अपने साथ मिला लिया है, कुछ को बरगलाकर, कुछ को झूठी कहानियाँ सुनाकर, तो कुछ को विभिन्न पुरस्कारों और चन्दे का “लालच” देकर। सबसे पहला नाम है मेगसायसाय पुरस्कार विजेता संदीप पांडे का, बहुत महान व्यक्ति हैं ये साहब… ये गाँधीवादी हैं, ये शांति के पक्षधर हैं, ये भारत-अमेरिका परमाणु करार के विरोध में हैं… ये सज्जन उन सभाओं में भी भाषण देते फ़िरते हैं जहाँ आम आदमियों और सरकारी कर्मचारियों का कत्ल करने वाले नक्सली संगठनों का सम्मान किया जाता है, मतलब ये कि “बहुत बड़े आदमी” हैं। पांडे जी को गुजरात में हुई हिंसा से बेहद दुख हुआ, लेकिन अपने ही देश में विस्थापित किये गये 3.50 लाख कश्मीरी पंडितों के लिये इनके पास एक भी सहानुभूति भरा शब्द नहीं है, उलटा अफ़ज़ल गुरु की फ़ाँसी को रोकने की दलील देकर ये एक तरह से कश्मीर के आतंकवादियों की मदद ही करते हैं। एक खाँटी कम्युनिस्ट की तरह इन्हें भी “राष्ट्रवाद” शब्द से परहेज है। “आशा” और “एड” नाम के दो संगठन ये चलाते हैं, जिन पर यदा-कदा अमेरिका से भारी पैसा लेने के आरोप लगते रहते हैं।
एक और महान हस्ती हैं बुकर पुरस्कार प्राप्त “अरुन्धती रॉय”… गुजरात के दंगों पर झूठ लिख-लिखकर इन्हें कई बार वाहवाही मिली। अरुन्धती रॉय भारत को कश्मीर में आक्रांता और घुसपैठिया मानती हैं। अपनी अंतरराष्ट्रीय सभाओं और भाषणों में ये अक्सर भारत को उत्तर-पूर्व में भी जबरन घुसा हुआ बताती हैं। अरुन्धती रॉय जी ने दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर SAR गिलानी (संसद हमले के एक आरोपी) की भी काफ़ी पैरवी की थी, जिन्होंने खुल्लमखुल्ला टीवी पर कहा था कि “मैं कश्मीर आंदोलन के लिये अपना संघर्ष जारी रखूंगा…”। ऐसा बताया जाता है कि अपनी ईसाई परवरिश पर गर्व करने वाली यह मोहतरमा विभिन्न चर्चों से भारी राशि लेती रहती हैं। इनके महान विचार में “भारत कभी भी एक देश नहीं था, न है, भारत तो विभिन्न समूहों का एक संकुल भर है, कश्मीर और समूचा उत्तर-पूर्व भारत का स्वाभाविक हिस्सा नहीं है…” (आशा है कि आप इन विचारों से गदगद हुए होंगे)। एक और महान नेत्री हैं “मेधा पाटकर”… सरदार सरोवर के विस्थापितों का आंदोलन चलाने वाली इन नेत्री को पता नहीं क्या सूझा कि अफ़ज़ल गुरु के समर्थन में दिल्ली जाकर धरने पर बैठ गईं और हस्ताक्षर अभियान में भी भाग लिया। इनके संगठन पर भी बाँध के निर्माण को रोकने या उसमें “देरी करवाने” के लिये विदेशी पैसा लेने के आरोप लगते रहते हैं। अफ़ज़ल गुरु की फ़ाँसी इन्हें “सत्ता प्रतिष्ठान की दादागिरी” प्रतीत होती है। मेधा कहती हैं कि “केन्द्र की सेकुलर सरकार को अफ़ज़ल गुरु की दया याचिका पर निर्णय लेना चाहिये…” पता नहीं उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय में सेकुलरवाद कहाँ से आ गया? शायद वे यह कहना चाहती हैं कि उच्चतम न्यायालय साम्प्रदायिक है? एक और प्रसिद्ध(?) मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं नन्दिता हक्सर, वे कहती हैं… “हमें अभी तक अफ़ज़ल गुरु की पूरी कहानी तक मालूम नहीं है…” अब हक्सर मैडम को कौन बताये कि हम यहाँ कहानी सुनने-सुनाने नहीं बैठे हैं, और जो भी सुनना था सुप्रीम कोर्ट सुन चुका है। एक कान्फ़्रेंस में उन्होंने कहा कि बुश और नरेन्द्र मोदी को फ़ाँसी दी जाना चाहिये, क्योंकि ये लोग नरसंहार में शामिल हैं…तब शायद ये इनकी कहानी सुनने की प्रतीक्षा नहीं करना चाहतीं।

उपरोक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि इन सेकुलरों, मानवाधिकारवादियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं में से किसी एक ने भी दिल्ली, वाराणसी, अहमदाबाद, बंगलोर आदि में मारे गये मासूम लोगों की तरफ़दारी नहीं की है। इन कथित बुद्धिजीवियों की निगाह में भारत का “आम आदमी” मानव नहीं है, उसके कोई मानवाधिकार नहीं हैं, और यदि हैं भी तो तभी जब वह मुसलमान हो या ईसाई हो, ज़ोहरा शेख की बेकरी जले या ग्राहम स्टेंस को जलाया जाये, ये लोग तूफ़ान खड़ा कर देंगे, भले ही बम विस्फ़ोटों में तमाम हिन्दू गाहे-बगाहे मरते रहें, इनकी बला से। इनके अनुसार सारे मानवाधिकार या तो अपराधियों, आतंकवादियों, गुण्डों आदि के लिये हैं या फ़िर अल्पसंख्यकों का मानवाधिकार पर एकतरफ़ा कब्जा है। कश्मीर और नागालैण्ड में हिन्दुओं के कोई मानवाधिकार नहीं होते, ये बुद्धिजीवी “वन्देमातरम” और सरस्वती वन्दना का विरोध करते हैं, लेकिन मदरसों में पढ़ाया जाने वाला साहित्य इन्हें स्वीकार्य है।

इन उदाहरणों का मकसद यह नहीं है कि उपरोक्त सभी “महानुभाव” देशद्रोही हैं या कि उनकी मानसिकता भारत विरोधी है, लेकिन साफ़ तौर पर ऐसा लगता है कि ये लोग किन्हीं खास “सेकुलरों” के बहकावे में आ गये हैं। हमारे देश में ऐसे हजारों वास्तविक समाजसेवक हैं जो “मीडिया मैनेजर” नहीं हैं, वे लोग सच में समाज के कमजोर वर्गों के लिये प्राणपण से और सकारात्मक मानसिकता के साथ काम कर रहे हैं, उनके पास फ़ालतू के धरने-प्रदर्शनों में भाग लेने का समय ही नहीं है, उन लोगों को आज तक कोई पुरस्कार नहीं मिला, न ही उन्हें कोई अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से चन्दा मिलता है। जबकि दूसरी तरफ़ ये “सेकुलर” बुद्धिजीवी (Secular Intellectuals) हैं जो अपने सम्बन्धों को बेहतर “भुनाना” जानते हैं, ये मीडिया के लाड़ले हैं, जाहिर है कि इन्हें संसद पर हमले में मारे गये शहीद जवानों से ज्यादा चिन्ता इस बात की है कि अफ़ज़ल गुरु को खाना बराबर मिल रहा है या नहीं। अवार्ड, पुरस्कार, मीडिया की चकाचौंध, इंटरव्यू आदि के चक्कर में इन्हें हुसैन या तसलीमा नसरीन की बेहद चिन्ता है, लेकिन ईसाई संस्थाओं द्वारा किया जा रहा धर्मान्तरण नहीं दिखाई देता। ये लोग नाम-दाम के लिये कहीं भी धरने पर बैठ जायेंगे, हस्ताक्षर अभियान चलायेंगे, मानव श्रृंखला बनायेंगे, लेकिन सेना के जवानों का पैसा खाते हुए सचिवालय के अफ़सर इन्हें नहीं दिखाई देंगे, पेट्रोल पंप के आवंटन के लिये भटकती हुई शहीद की विधवा के लिये इनके दिल में कोई आँसू नहीं है, गोधरा हत्याकांड को ये खारिज कर देंगे। राष्ट्र का मानसिक पतन कैसे किया जाये इसमें ये लोग माहिर होते हैं। लोकतन्त्र का फ़ायदा उठाकर ये सेकुलर बुद्धिजीवी जब चाहे, जहाँ चाहे बकवास करते रहते हैं, बिना ये सोचे समझे कि वे क्या कर रहे हैं, किसका पक्ष ले रहे हैं, क्योंकि इन लोगों की “राष्ट्र” और राष्ट्रवाद की अवधारणा ही एकदम अलग है।
अहमदाबाद विस्फ़ोटों के आरोपी पकड़े गये हैं, अब इनका काम शुरु होगा। लालू जैसे चारा-चोर सिमी के पक्ष में खुलकर बोल चुके हैं, बस अब सेकुलर बुद्धिजीवियों का “कोरस-गान” चालू होगा। सबसे पहले तमाम आरोपियों के मुसलमान होने पर सवाल उठाये जायेंगे… फ़िर गुजरात पुलिस की कार्यशैली पर सवाल और उसकी दक्षता को संदेह के घेरे में लाने के प्रयास… कुछ “खास” सेकुलर चैनलों के ज़रिये अपराधियों का महिमामण्डन (जैसे दाऊद और सलेम को “ग्लोरिफ़ाई” करना), अखबारों में लेख छपवाकर (और अब तो यासीन मलिक से ब्लॉग लिखवाकर भी) भारत विरोधियों की पैरोकारी करना, मुसलमानों की गरीबी और अशिक्षा को आतंकवाद का असली कारण बताना (मानो सारे गरीब और अशिक्षित हिन्दू आतंकवादी बनने को तैयार ही बैठे हों), फ़िर फ़ाइव स्टार होटलों में प्रेस कान्फ़्रेन्स आयोजित कर मानवाधिकार की चोंचलेबाजी, आतंकवादियों की पैरवी के लिये एक ख्यात वकील भी तैयार, यानी कि सारे पैंतरे और हथकण्डे अपनाये जायेंगे, कि कैसे पुलिस को उलझाया जाये, कैसे न्याय-प्रक्रिया में देरी की जाये, कैसे मानवाधिकारों की दुहाई देकर मामले को लटकाया जाये।

क्या आपको नहीं लगता कि “सेकुलर बुद्धिजीवी” नाम के यह प्राणी आतंकवादियों की “बी” टीम के समान हैं? ये लोग आतंकवाद का “सोफ़िस्टिकेटेड” (Sofisticated) चेहरा हैं, जब आतंकवादी अपना काम करके निकल जाते हैं तब इस टीम का “असली काम” शुरु होता है। “भेड़ की खाल में छुपे हुए” सेकुलर बुद्धिजीवी बेहद खतरनाक लोग हैं, इनसे सिर्फ़ बचना ही पर्याप्त नहीं होगा, बल्कि इन लोगों को बेनकाब भी करते चलें…






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