रामायण का युद्ध...महाभारत का युद्ध...
कई असुरो से महादेव का युद्ध ये सब तो हमने सुना है... लेकिन वो लोग अस्त्र शस्त्र का प्रयोग करते थे वो वास्तव में क्या था? थोड़ा जानते हैं ..
(1) अमुक्ता - वे शस्त्र जो फेंके नहीं जाते थे।
(2) मुक्ता - वे शस्त्र जो फेंके जाते थे। पर इनके भी दो प्रकार थे-
पाणिमुक्ता, अर्थात् हाथ से फेंके जानेवाले, और
यंत्रमुक्ता, अर्थात् यंत्र द्वारा फेंके जानेवाले।
(3) मुक्तामुक्त - वह शस्त्र जो फेंककर या बिना फेंके दोनों प्रकार से प्रयोग किए जाते थे।
(4) मुक्तसंनिवृत्ती - वे शस्त्र जो फेंककर लौटाए जा सकते थे।
हमारे प्राचीन पूर्वज अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुण थे। उन्होंने अध्यात्म-ज्ञान के साथ-साथ आततियों और दुष्टों के दमन के लिये सभी अस्त्र-शस्त्रों का आविष्कार भी किया था... आर्यों की यह शक्ति धर्म-स्थापना में सहायक होती थी। वो आज की तरह कायर लोगों का समय नहीं था ...
जिन अस्त्र-शस्त्रों का उपयोग होता था, उनका वर्णन इस प्रकार है-
**अस्त्र उसे कहते हैं, जिसे मन्त्रों के द्वारा दूरी से फेंकते हैं। वे अग्नि, गैस और विद्युत तथा यान्त्रिक उपायों से चलते हैं।
**शस्त्र ख़तरनाक हथियार हैं, जिनके प्रहार से चोट पहुँचती है और मृत्यु होती है। ये हथियार अधिक उपयोग किये जाते हैं।
१) अस्त्रों पर देव और देवी का अधिकार होता था.. ये मंत्रो के जोर से चलाये जाते थे .. वस्तुत: इन्हें दिव्य तथा मान्त्रिक-अस्त्र कहते हैं। इनके प्रकार बता देती हूँ बाद में विस्तार से जानेंगे .
आग्नेय
पर्जन्य
वायव्य
पन्नग
गरुड़
ब्रह्मास्त्र
पाशुपत
वैष्णव
आज हम इन सभी अस्त्र-शस्त्रों को भूल गये। श्री राम के हाथ में धनुष-बाण ....भगवान श्रीकृष्ण के हाथ में सुदर्शन चक्र, महादेव के हाथ में त्रिशूल और दुर्गा के हाथ में खड़ग देख कर भी हम सिर्फ कायरों कि तरह कंठी माला हाथ में ले कर दुश्मनों से मुकाबला करना चाहते हैं... तो क्या भगवान् हम जैसे कायरों को अपना भक्त मानेंगे ?
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मध्यप्रदेश के मुरैना में एक ऐसा विश्वविद्यालय है जिसकी तर्ज पर संसद भवन बना है। इस विश्वविद्यालय की स्थापना एक तांत्रिक विश्वविद्यालय के रूप में हुई थी। देश के संसद भवन की डिजाइन से लेकर अंदर की बनावट तक अधिकतर इसी मंदिर की कॉपी-पेस्ट है। इकंतेश्वर महादेव के नाम से प्रसिद्ध यह मंदिर कभी तांत्रिक अनुष्ठान के लिए जाना जाता था। इसलिए इसे तांत्रिक विश्वविद्यालय भी कहते हैं। इस विश्वविद्यालय में न तो कोई प्रोफेसर है और न ही कोई स्टूडेंट। इसके बाद भी यहां लोग तांत्रिक कर्मकांड के लिए अक्सर रात में आते हैं।
करीब 1200 साल पहले 9वीं सदी (वर्ष 801 से 900 के बीच) में प्रतिहार वंश के राजाओं द्वारा बनाए गए इस मंदिर में 101 खंबे और 64 कमरों में एक-एक शिवलिंग है। मंदिर के मुख्य परिसर में भी एक बड़ा शिवलिंग स्थापित है। मंदिर के हर कमरे में शिवलिंग के साथ देवी योगिनी की मूर्ति साथ थी, लेकिन अब ये योगिनियां वहां न होते हुए दिल्ली के संग्रहालय में सुरक्षित रखी हैं। इसी आधार पर इसका नाम चौसठ योगिनी मंदिर पड़ा। पिछले कुछ वर्षों से यहां टूरिस्टों की तेजी से बढ़ोतरी हुई है।
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कई असुरो से महादेव का युद्ध ये सब तो हमने सुना है... लेकिन वो लोग अस्त्र शस्त्र का प्रयोग करते थे वो वास्तव में क्या था? थोड़ा जानते हैं ..
(1) अमुक्ता - वे शस्त्र जो फेंके नहीं जाते थे।
(2) मुक्ता - वे शस्त्र जो फेंके जाते थे। पर इनके भी दो प्रकार थे-
पाणिमुक्ता, अर्थात् हाथ से फेंके जानेवाले, और
यंत्रमुक्ता, अर्थात् यंत्र द्वारा फेंके जानेवाले।
(3) मुक्तामुक्त - वह शस्त्र जो फेंककर या बिना फेंके दोनों प्रकार से प्रयोग किए जाते थे।
(4) मुक्तसंनिवृत्ती - वे शस्त्र जो फेंककर लौटाए जा सकते थे।
हमारे प्राचीन पूर्वज अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुण थे। उन्होंने अध्यात्म-ज्ञान के साथ-साथ आततियों और दुष्टों के दमन के लिये सभी अस्त्र-शस्त्रों का आविष्कार भी किया था... आर्यों की यह शक्ति धर्म-स्थापना में सहायक होती थी। वो आज की तरह कायर लोगों का समय नहीं था ...
जिन अस्त्र-शस्त्रों का उपयोग होता था, उनका वर्णन इस प्रकार है-
**अस्त्र उसे कहते हैं, जिसे मन्त्रों के द्वारा दूरी से फेंकते हैं। वे अग्नि, गैस और विद्युत तथा यान्त्रिक उपायों से चलते हैं।
**शस्त्र ख़तरनाक हथियार हैं, जिनके प्रहार से चोट पहुँचती है और मृत्यु होती है। ये हथियार अधिक उपयोग किये जाते हैं।
१) अस्त्रों पर देव और देवी का अधिकार होता था.. ये मंत्रो के जोर से चलाये जाते थे .. वस्तुत: इन्हें दिव्य तथा मान्त्रिक-अस्त्र कहते हैं। इनके प्रकार बता देती हूँ बाद में विस्तार से जानेंगे .
आग्नेय
पर्जन्य
वायव्य
पन्नग
गरुड़
ब्रह्मास्त्र
पाशुपत
वैष्णव
आज हम इन सभी अस्त्र-शस्त्रों को भूल गये। श्री राम के हाथ में धनुष-बाण ....भगवान श्रीकृष्ण के हाथ में सुदर्शन चक्र, महादेव के हाथ में त्रिशूल और दुर्गा के हाथ में खड़ग देख कर भी हम सिर्फ कायरों कि तरह कंठी माला हाथ में ले कर दुश्मनों से मुकाबला करना चाहते हैं... तो क्या भगवान् हम जैसे कायरों को अपना भक्त मानेंगे ?
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मध्यप्रदेश के मुरैना में एक ऐसा विश्वविद्यालय है जिसकी तर्ज पर संसद भवन बना है। इस विश्वविद्यालय की स्थापना एक तांत्रिक विश्वविद्यालय के रूप में हुई थी। देश के संसद भवन की डिजाइन से लेकर अंदर की बनावट तक अधिकतर इसी मंदिर की कॉपी-पेस्ट है। इकंतेश्वर महादेव के नाम से प्रसिद्ध यह मंदिर कभी तांत्रिक अनुष्ठान के लिए जाना जाता था। इसलिए इसे तांत्रिक विश्वविद्यालय भी कहते हैं। इस विश्वविद्यालय में न तो कोई प्रोफेसर है और न ही कोई स्टूडेंट। इसके बाद भी यहां लोग तांत्रिक कर्मकांड के लिए अक्सर रात में आते हैं।
करीब 1200 साल पहले 9वीं सदी (वर्ष 801 से 900 के बीच) में प्रतिहार वंश के राजाओं द्वारा बनाए गए इस मंदिर में 101 खंबे और 64 कमरों में एक-एक शिवलिंग है। मंदिर के मुख्य परिसर में भी एक बड़ा शिवलिंग स्थापित है। मंदिर के हर कमरे में शिवलिंग के साथ देवी योगिनी की मूर्ति साथ थी, लेकिन अब ये योगिनियां वहां न होते हुए दिल्ली के संग्रहालय में सुरक्षित रखी हैं। इसी आधार पर इसका नाम चौसठ योगिनी मंदिर पड़ा। पिछले कुछ वर्षों से यहां टूरिस्टों की तेजी से बढ़ोतरी हुई है।
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मुंबई स्थित महालक्ष्मी मंदिर के विषय में तो
आपने सुना ही होगा. हिंदू धर्म का एक विशिष्ट
पूजा स्थल माने जाने इस मंदिर की स्थापना के
पीछे भी एक ऐसा चमत्कार है जिस पर विश्वास
कर पाना बहुत से लोगों के लिए कठिन हो सकता
है, लेकिन जो लोग ईश्वरीय शक्ति पर आस्था
रखते हैं उनके लिए यह दैवीय शक्ति का एक और
उदाहरण है.
मुंबई के भूलाभाई देसाई मार्ग पर स्थित यह मंदिर
महालक्षी देवी को समर्पित है. इस पूजा स्थल
का निर्माण सन 1831 में धाक जी दादाजी
नाम के एक हिन्दू व्यापारी ने करवाया था.
Read: जब इंसानी खून से रिझाया गया देवताओं
को
इस मंदिर का इतिहास मुंबई के वरली और
मालाबार हिल से जोड़ा जाता था. इस स्थान
को आज ब्रीच कैंडी भी कहा जाता है. मंदिर से
जुड़े लोगों का कहना है कि जब इस मंदिर का
निर्माण चल रहा था तब इसके दोनों क्षेत्र को
जोड़ने वाली दीवार बार-बार ढह रही थी.
यद्यपि इसका निर्माण ब्रिटिश इंजीनियरों
द्वारा करवाया जा रहा था और वह भी यह
समझने में असफल साबित हो रहे थे कि आखिर इस
दीवार के गिरने का कारण क्या है.
ऐसे में इस प्रोजेक्ट के चीफ इंजीनियर जो एक
भारतीय थे, के सपने में स्वयं माता महालक्ष्मी ने
दर्शन दिए और वरली के पास समुद्र में अपनी मूर्ति
होने की बात कही.
माता के दिए हुए निर्देशों के अनुसार चीफ
इंजीनियर को उसी स्थान पर महालक्ष्मी की
मूर्ति मिल गई. इस आश्चर्यजनक घटना के बाद
चीफ इंजीनियर ने इसी जगह पर एक छोटे से मंदिर
का निर्माण करवाया और उसके बाद बड़े मंदिर
का निर्माण कार्य बड़ी आसानी से संपन्न हो
गया.
यह मंदिर हाजी अली दरगाह के साथ वरली के
समुद्र तट पर स्थित है. इससे महालक्ष्मी मंदिर को
देखा जा सकता है. इस मंदिर के अंदर देवी
महालक्ष्मी, महाकाली और सरस्वती की
प्रतिमाएं स्थापित हैं. तीनों ही मूर्तियां सोने
के गहनों से सुसज्जित हैं.
आपने सुना ही होगा. हिंदू धर्म का एक विशिष्ट
पूजा स्थल माने जाने इस मंदिर की स्थापना के
पीछे भी एक ऐसा चमत्कार है जिस पर विश्वास
कर पाना बहुत से लोगों के लिए कठिन हो सकता
है, लेकिन जो लोग ईश्वरीय शक्ति पर आस्था
रखते हैं उनके लिए यह दैवीय शक्ति का एक और
उदाहरण है.
मुंबई के भूलाभाई देसाई मार्ग पर स्थित यह मंदिर
महालक्षी देवी को समर्पित है. इस पूजा स्थल
का निर्माण सन 1831 में धाक जी दादाजी
नाम के एक हिन्दू व्यापारी ने करवाया था.
Read: जब इंसानी खून से रिझाया गया देवताओं
को
इस मंदिर का इतिहास मुंबई के वरली और
मालाबार हिल से जोड़ा जाता था. इस स्थान
को आज ब्रीच कैंडी भी कहा जाता है. मंदिर से
जुड़े लोगों का कहना है कि जब इस मंदिर का
निर्माण चल रहा था तब इसके दोनों क्षेत्र को
जोड़ने वाली दीवार बार-बार ढह रही थी.
यद्यपि इसका निर्माण ब्रिटिश इंजीनियरों
द्वारा करवाया जा रहा था और वह भी यह
समझने में असफल साबित हो रहे थे कि आखिर इस
दीवार के गिरने का कारण क्या है.
ऐसे में इस प्रोजेक्ट के चीफ इंजीनियर जो एक
भारतीय थे, के सपने में स्वयं माता महालक्ष्मी ने
दर्शन दिए और वरली के पास समुद्र में अपनी मूर्ति
होने की बात कही.
माता के दिए हुए निर्देशों के अनुसार चीफ
इंजीनियर को उसी स्थान पर महालक्ष्मी की
मूर्ति मिल गई. इस आश्चर्यजनक घटना के बाद
चीफ इंजीनियर ने इसी जगह पर एक छोटे से मंदिर
का निर्माण करवाया और उसके बाद बड़े मंदिर
का निर्माण कार्य बड़ी आसानी से संपन्न हो
गया.
यह मंदिर हाजी अली दरगाह के साथ वरली के
समुद्र तट पर स्थित है. इससे महालक्ष्मी मंदिर को
देखा जा सकता है. इस मंदिर के अंदर देवी
महालक्ष्मी, महाकाली और सरस्वती की
प्रतिमाएं स्थापित हैं. तीनों ही मूर्तियां सोने
के गहनों से सुसज्जित हैं.
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