Monday, 13 April 2015

 व्‍यक्ति के समक्ष नेहरू का 'औरा' कहां टिकता। लेकिन आईबी की रिपोर्ट इतना तो साबित करती ही है कि नेहरू जानते थे कि सुभाष की मौत विमान दुर्घटना में नहीं हुई है। उनके अंदर सुभाष के लौटने का भय समाया था कि कहीं वो आ गए तो उनकी सत्‍ता चली जाएगी।
उस समय के 'आज' अखबार की रिपोर्ट बताती है कि जब सुभाष ने 1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में गांधी के उम्‍मीदवार को पराजित कर दिया था तो नौजवानों में खुशी की लहर दौड़ गई थी, जब सुभाष अंग्रेजों को चकमा देकर भागे थे तो लोगों में यह विश्‍वास जाग उठा था कि अब नेताजी भारत को आजाद करा देंगे, जब देश का बंटवारा हुआ था तो लोगों का कहना था कि यदि नेताजी होते तो देश का बंटवारा नहीं होता और जब हिंदुस्‍तान में दंगे हो रहे थे तो लोगों का कहना था, गांधी एक जिन्‍ना तक का हृदय परिवर्तन नहीं कर सके। आज यदि नेताजी होते तो न कोई हिंदू होता और न मुसलमान, सभी केवल हिंदुस्‍तानी होते।
आजाद हिंद फौज में जिस तरह से हिंदू-मुसलमान मिलकर लड़े थे, जिस तरह आजाद हिंद फौज के एक मुस्लिम सिपाही को सजाए मौत देने की घोषणा से नौ सेना में विद्रोह हो गया था, वह यह दर्शाता है कि सुभाष होते तो शायद हिंदू-मुस्लिम समस्‍या का पूरी तरह से समाधान हो जाता। जिन्‍ना-नेहरू की राजनीति इच्‍छा तब शायद परवान ही नहीं चढ पाती। नेताजी गांधी की तरह आदर्श की नहीं, वास्‍तविक धरातल की राजनीति करते थे।
मैं उस वक्‍त का अखबार देख देख कर हैरान हूं कि छुप कर विदेश भागने के बाद सुभाष बोस के आगे गांधी का व्‍यक्तित्‍व इतना छोटा हो गया था कि उन्‍हें मजबूरन अपनी अहिंसा नीति से विचलित होकर उसी सुभाष की नीति पर चलना पड़ा और कहना पड़ा, '' अंग्रेजों भारत छोडो'' और '' करो या मरो''। अहिंसक गांधी ने इससे पहले कभी इतने कठोर शब्‍दों का प्रयोग नहीं किया था। मरने की बात तो गांधी के दर्शन में ही नहीं था। सममुच सुभाष चंद्र बोस जनता की उम्‍मीद बन गए थे और नेहरू इसी उम्‍मीद से डरते थे कि कहीं वो लौट कर न आ जाएं...

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