Sunday 17 July 2016


अष्टावक्र जब
बारह वर्ष के थे तब राज्य के राजा जनक ने
विशाल शास्त्रार्थ सम्मेलन का आयोजन
किया। सारे देश के प्रकांड पंडितों को
निमंत्रण दिया गया, चूंकि अष्टावक्र के
पिता भी प्रकांड पंडित और शास्त्रज्ञ थे तो
उन्हें भी विशेष आमंत्रित किया गया। जनक ने
आयोजन स्थल के समक्ष 1000 गाएं बांध ‍दीं।
गायों के सींगों पर सोना मढ़ दिया और गले
में हीरे-जवाहरात लटका दिए और कह दिया
कि जो भी विवाद में विजेता होगा वह ये
गाएं हांककर ले जाए।
संध्या होते-होते खबर आई कि अष्टावक्र के
पिता हार रहे हैं। सबसे तो जीत चुके थे ‍लेकिन
वंदनि (बंदी) नामक एक पंडित से हारने की
स्थिति में पहुंच गए थे। पिता के हारने की
स्थिति तय हो चुकी थी कि अब हारे या तब
हारे। यह खबर सुनकर अष्टावक्र खेल-क्रीड़ा
छोड़कर राजमहल पहुंच गए। अष्टावक्र भरी
सभा में जाकर खड़े हो गए। उनका आठ जगहों से
टेढ़ा-मेढ़ा शरीर और अजीब चाल देखकर
सारी सभा हंसने लगी। अष्टावक्र यह नजारा
देखकर सभाजनों से भी ज्यादा जोर से
खिलखिलाकर हंसे।
जनक ने पूछा, 'सब हंसते हैं, वह तो मैं समझ सकता
हूं, लेकिन बेटे, तेरे हंसने का कारण बता?
अष्टावक्र ने कहा, 'मैं इसलिए हंस रहा हूं कि इन
चमारों की सभा में सत्य का निर्णय हो रहा
है, आश्चर्य! ये चमार यहां क्या कर रहे हैं।'
सारी सभा में सन्नाटा छा गया। सब अवाक्
रह गए। राजा जनक खुद भी सन्न रह गए। उन्होंने
बड़े संयत भाव से पूछा, 'चमार!!! तेरा मतलब
क्या?'
अष्टाव्रक ने कहा, 'सीधी-सी बात है। इनको
चमड़ी ही दिखाई पड़ती है, मैं नहीं दिखाई
पड़ता। ये चमार हैं। चमड़ी के पारखी हैं। इन्हें
मेरे जैसा सीधा-सादा आदमी दिखाई नहीं
पड़ता, इनको मेरा आड़ा-तिरछा शरीर ही
दिखाई देता है। राजन, मंदिर के टेढ़े होने से
आकाश कहीं टेढ़ा होता है? घड़े के फूटे होने से
आकाश कहीं फूटता है? आकाश तो
निर्विकार है। मेरा शरीर टेढ़ा-मेढ़ा है लेकिन
मैं तो नहीं। यह जो भीतर बसा है, इसकी तरफ
तो देखो। मेरे शरीर को देखकर जो हंसते हैं, वे
चमार नहीं तो क्या हैं?
यह सुनकर मिथिला देश के नरेश एवं भगवान राम
के श्वसुर राजा जनक सन्न रह गए। जनक को
अपराधबोध हुआ कि सब हंसे तो ठीक, लेकिन
मैं भी इस बालक के शरीर को देखकर हंस
दिया। राजा जनक के जीवन की सबसे बड़ी
घटना थी। देश का सबसे बड़ा ताम-झाम।
सबसे सुंदर गाएं। सबसे महंगे हीरे-जवाहरात।
सबसे विद्वान पंडित और सारे संसार में इस
कार्यक्रम का समाचार और सिर्फ एक ही
झटके में सब कुछ खत्म। जनक को बहुत पश्चाताप
हुआ। सभा भंग हो गई।
रातभर राजा जनक सो न सके। दूसरे दिन
सम्राट जब घूमने निकले तो उन्हें वही बालक
अष्टावक्र खेलते हुए नजर आया। वे अपने घोड़े से
उतरे और उस बालक के चरणों में गिर पड़े। कहा-
'आपने मेरी नींद तोड़ दी। आपमें जरूर कुछ बात
है। आत्मज्ञान की चर्चा करने वाले शरीर पर
हंसते हैं तो वे कैसे ज्ञानी हो सकते हैं। प्रभु आप
मुझे ज्ञान दो।'

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