Sunday 10 July 2016


लड़ाई आतंकवाद से नहीं उस संस्कृति से है जो इसकी जननी है
आधुनिक विश्व में आतंकवाद की जो समस्या है वह मूलतः दो संस्कृतियों के बीच के लड़ाई का प्रतिबिम्ब भर है। उसमे एक जी लड़ाई ले नजाम दे रही है वह है ' ही ' संस्कृति। अर्थात मेरा मजहब ही अंतिम सत्य है शेष सभी असत्य और अधर्म ओर शत्रु है। यहां तर्क की गुंजाइस प्रायः नहीं रहती है। उनसे असहमति रखने वालो के प्रति हिंसा का प्रयोग करने वाले सहज रूप से मजहब की आड़ में पनपते हैं। ऐसे लोग धर्मनिरपेक्षता की ट्रेन पर सवार तभी तक रहते हैं जब तक उनका स्टेशन नहीं आ जाता है। अर्थात मजहब का बहुमत। कुरान में 164 बार और हदीथ में 199 बार जिहाद का उल्लेख है। इसकी उदार व्याख्या तो होती है पर हिंसात्मक व्याख्या भी कम लोकप्रिय नहीं है। आपके शब्द में क्या है यह महत्व्पूर्ण नहीं है महत्व्पूर्ण है आपके मन में कौन सी व्याख्या है। आखिर LeT ISIS Indian Mujaniddin ये सब तो उसी हिंसात्मक व्याख्या को लेकर चल रहे हैं। इस्लाम तो अपने इतिहास में इसी व्याख्या को लेकर आगे बढ़ा है।
एक दूसरी संस्कृति है। इसे 'भी' संस्कृति कहते हैं। यह किसी बात को अंतिम सत्य, किसी धर्म गुरु को अंतिम गुरु, यहां तक कि किसी ईश्वर को अंतिम ईश्वर , किसी दर्शन को अंतिम दर्शन नहीं मानता है। इसे अंग्रेजी में Spiritual Democracy कह सकते हैं। अर्थात नए धर्म , नए दर्शन , नए ईश्वर और नई पूजा पद्धति की संभावना को स्वीकार किया जाता है। हिन्दू संस्कृति इसी को वैचारिक आधार मानती रही है। तभी तो केरल के हिन्दू राजा ने मुस्लिमो के इबादत के लिए एक मंदिर को रातो रात मस्जिद में तब्दील कर दिया था जिसे चेरामन मस्जिद कहते हैं और यह दुनिया का दूसरा सबसे पुराना मस्जिद है। औरंगजेब का बड़ा भाई दारा शिकोह इसी 'भी' संस्कृति में भारत के इस्लाम को ढालने की जमीन तैयार कर रहा था जिसका सेकुलरवादी पत्रकारों और इतिहासकारो का प्रिय नायक औरंगजेब ने कत्ल करा दिया था। आज सवाल सिर्फ जाकिर नायक का नहीं है न ही LeT या ISIS के बैनर का है। कल कोई और जाकिर नायक या कोई और बैनर आ जाएगा। हम कब तक इस तरह आतंकवाद से बचते बचाते और मरते मारते भागते रहेंगे ? मूल विषय को address करना होगा। वह है theological question . इस्लाम को बहसांस्कृतिकवाद , लोकतंत्र और पंथनिरपेक्ष धारणाओं के प्रति अपने आपको ढ़ालना होगा /चाहिए। बच निकलने से , इधर उधर की बात कर समस्या को टालने से स्थायी समाधान नहीं निकलेगा।
इस 'भी' और 'ही' संस्कृतियों के टकराव पर मीडिया बहस नहीं करना चाहती है। हम पर तात्कालिकता इतना हावी है कि मूल प्रश्न गौण हो जता है। आधुनिक युग में धार्मिक पुस्तकों को शब्दशः मानकर संवाद करना संघर्ष को आमंत्रित करना है। क्या भारत के मुसलमान इस बदलाव को अंजाम देने के लिए तैयार हैं..... विरासत में उनके सामने सिर्फ दारा शिकोह ही नहीं सैकड़ो उदाहरण विदयमान है। समय और संभवनाए दोनों ही दस्तक दे रही हैं उसे अवसर में बदलने की इच्छाशक्ति होनी चाहिए। '
Rakesh Sinha

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