Tuesday 6 September 2016

4 हजार फीट ऊंचे पहाड़ पर है ये गणेश प्रतिमा, किसने और कैसे बनाई है रहस्य...
छत्तीसगढ़ के धुर नक्सल प्रभावित दंतेवाड़ा जिले में ढोलकल पहाड़ी पर मिली गणपति की विशाल प्रतिमा का यह रहस्य अब तक नहीं सुलझा है कि करीब चार हजार फीट की ऊंचाई पर उसे बनाया या स्थापित कैसे किया गया। क्षेत्र के लोग उन्हें अपना रक्षक मानकर उनकी पूजा करते हैं।
 ढोलकल पहाड़ी दंतेवाड़ा शहर से करीब 22 किलोमीटर दूर है। कुछ ही साल पहले पुरातत्व विभाग ने प्रतिमा की खोज की।
- करीब तीन फीट ऊंची और ढाई फीट चौड़ी ग्रेनाइट पत्थर से बनी यह प्रतिमा बेहद कलात्मक है।
- स्थानीय भाषा में कल का मतलब पहाड़ होता है। इसलिए ढोलकल के दो मतलब निकाले जाते हैं।
- एक तो ये कि ढोलकल पहाड़ी की वह चोटी जहां गणपति प्रतिमा है वह बिलकुल बेलनाकार ढोल की की तरह खड़ी है और दूसरा, वहां ढोल बजाने से दूर तक उसकी आवाज सुनाई देती है।
- प्रतिमा के दर्शन के लिए उस पहाड़ पर चढ़ना बहुत कठिन है। विशेष मौकों पर ही लोग वहां पूजा-पाठ के लिए जाते हैं।

अनोखी है प्रतिमा

- गणपति की इस प्रतिमा में ऊपरी दाएं हाथ में फरसा और ऊपरी बाएं हाथ में टूटा हुआ एक दांत है जबकि आशीर्वाद की मुद्रा में नीचले दाएं हाथ में वे माला धारण किए हुए हैं और बाएं हाथ में मोदक है।
- आर्कियोलॉजिस्ट के मुताबिक पूरे बस्तर में कहीं नहीं है। इसलिए यह रहस्य और भी गहरा हो जाता है कि ऐसी एक ही प्रतिमा यहां कहां से आई।


गणेश-परशुराम के युद्ध की कहानी

- पौराणिक कथाओं में हुए गणेश और परशुराम के बीच युद्ध को इस प्रतिमा से जोड़कर देखा जाता है।
- कथा के मुताबिक एक बार परशुराम शिवजी से मिलने कैलाश पर्वत गए। उस वक्त शिवजी आराम कर रहे थे और गणेश जी पहरा दे रहे थे।
- गणेश जी ने परशुराम को रोका तो दोनों में युद्ध हो गया। गुस्से में परशुराम ने अपने फरसे से गणेश का एक दांत काट दिया।

क्षेत्र में कैलाश गुफा नाम की एक जगह है, जिसका कनेक्शन शिव जी से जोड़ा जाता है।
- ढोल कल जाते समय रास्ते में फरस पाल नाम की जगह आती है जिसे लोग परशुराम का गढ़ मानते हैं।
- बगल में कोतवाल पारा गांव है। कोतवाल मतलब रक्षक या पहरेदार। लोग यहां गणेश को अपने क्षेत्र का रक्षक मानते हैं।
- इन सब कडिय़ों को जोड़कर किवदंती प्रचलित है कि गणेश और परशुराम का युद्ध यहीं हुआ होगा।
- शिव जी की शक्ति रक्तदंतिका देवी हैं। दंतेवाड़ा की दंतेश्वरी माई को रक्तदंतिका का ही रूप माना जाता है।



अब जानिए इतिहास

- प्रतिमा के बारे में रिसर्चर्स का कहना है कि वह करीब एक हजार साल पुरानी है। तब क्षेत्र में नागवंशियों का शासन था।
- गणपति के पेट पर नाग का चित्र भी अंकित है। इस आधार पर माना जाता है कि उसकी स्थापना नागवंशी राजाओं ने कराई होगी।
- हालांकि उतनी ऊंचाई पर ले जाने या वहां बनाने के लिए कौन सी तकनीक अपनाई ये अब भी रहस्य है।

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पौराणिक कथाओं में परशुराम और भगवान गणेश के बीच जिस युद्ध का वर्णन है वह छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले के ढोलकल पहाडिय़ों पर हुआ था। यहां आज भी इस बात के प्रमाण मिलते हैं। यहां समुद्र तल से 2994 फीट ऊंची चोटी पर भगवान गणेश विराजे हुए हैं।

यह कोई नहीं जानता, इतनी ऊंचाई पर गणेश की प्रतिमा कैसे पहुंची। स्थानीय आदिवासी भगवान गणेश को अपना रक्षक मानकर पूजा करते हैं। यहां के आदिवासी बताते हैं ढोलकल शिखर के पास स्थित दूसरे शिखर पर सूर्यदेव की प्रतिमा स्थापित थी जो 15 साल पहले चोरी हो चुकी है।हालांकि इतनी ऊंचाई पर ले जाने या इसे बनाने के लिए कौन सी तकनीक अपनाई गई यह रहस्य है। आर्कियोलॉजिस्ट के मुताबिक पूरे बस्तर में ऐसे प्रतिमा और कहीं नहीं है। इसलिए यह रहस्य और भी गहरा हो जाता है कि ऐसी एक ही प्रतिमा यहां कहां से आई।

रहस्मय है यहां के गणेश

लोक मान्यता है प्रचलित


यहां प्रचलित किवदंतियां भी इस बात की पुष्टि करती है। दक्षिण बस्तर के भोगामी आदिवासी परिवार अपनी उत्पत्ति ढोलकट्टा (ढोलकल) की महिला पुजारी से मानते हैं। क्षेत्र में यह कथा प्रचलित है कि भगवान गणेश और परशूराम का युद्ध इसी शिखर पर हुआ था। युद्ध के दौरान भगवान गणेश का एक दांत यहां टूट गया।

इस घटना को चिरस्थाई बनाने के लिए छिंदक नागवंशी राजाओं ने शिखर पर गणेश की प्रतिमा स्थापति की। चूंकि परशूराम के फरसे से गणेश का दांत टूटा था, इसलिए पहाड़ी की शिखर के नीचे के गांव का नाम फरसपाल रखा गया। बगल में कोतवाल पारा गांव है। कोतवाल मतलब रक्षक या पहरेदार। लोग यहां गणेश को अपने क्षेत्र का रक्षक मानते हैं।
प्रतिमा के दर्शन के लिए उस पहाड़ पर चढऩा बहुत कठिन है। विशेष मौकों पर ही लोग वहां पूजा-पाठ के लिए जाते हैं। करीब तीन फीट ऊंची और ढाई फीट चौड़ी ग्रेनाइट पत्थर से बनी यह प्रतिमा बेहद कलात्मक है। गणपति की इस प्रतिमा में ऊपरी दाएं हाथ में फरसा और ऊपरी बाएं हाथ में टूटा हुआ एक दांत है जबकि आशीवाज़्द की मुद्रा में नीचले दाएं हाथ में वे माला धारण किए हुए हैं और बाएं हाथ में मोदक है।

इसलिए पड़ा ढोलकल नाम
ढोलकल पहाड़ी दंतेवाड़ा शहर से करीब 22 किलोमीटर दूर है। कुछ ही साल पहले पुरातत्व विभाग ने प्रतिमा की खोज की।
थानीय भाषा में कल का मतलब पहाड़ होता है। इसलिए ढोलकल के दो मतलब निकाले जाते हैं।

एक तो ये कि ढोलकल पहाड़ी की वह चोटी जहां गणपति प्रतिमा है वह बिलकुल बेलनाकार ढोल की की तरह खड़ी है और दूसरा, वहां ढोल बजाने से दूर तक उसकी आवाज सुनाई देती है।

कठिन है यहां तक पहुंचना


दंतेवाड़ा से 22 किमी दूर ढोलकल शिखर तक पहुंचने के लिए दंतेवाड़ा से करीब 18 किलोमीटर दूर फरसपाल जाना पड़ता है। यहां से कोतवाल पारा होकर जामपारा तक पहुंच मार्ग है।

जामपारा में वाहन खड़ी कर तथा ग्रामीणों के सहयोग से शिखर तक पहुंचा जा सकता है। जामपारा पहाड़ के नीचे है। यहां से करीब तीन घंटे पैदल चलकर तक पहाड़ी पगडंडियों से होकर ऊपर पहुंचना पड़ता है। बारिश के दिनों में पहाड़ी नाला बाधक है।





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