Monday 4 September 2017

मथुरा का इतिहास .......
मथुरा उत्तरप्रदेश प्रान्त का एक जिला है। मथुरा एक ऐतिहासिक एवं धार्मिक पर्यटन स्थल के रूप में प्रसिद्ध है। लंबे समय से मथुरा प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का केंद्र रहा है। भारतीय धर्म,दर्शन कला एवं साहित्य के निर्माण तथा विकास में मथुरा का महत्त्वपूर्ण योगदान सदा से रहा है। आज भी महाकवि सूरदास, संगीत के आचार्य स्वामी हरिदास, स्वामी दयानंद के गुरु स्वामी विरजानंद, कवि रसखान आदि महान आत्माओं से इस नगरी का नाम जुड़ा हुआ है। मथुरा को श्रीकृष्ण जन्म भूमि के नाम से भी जाना जाता है।
#मथुरा का परिचय......
मथुरा, भगवान कृष्ण की जन्मस्थली और भारत की परम प्राचीन तथा जगद्-विख्यात नगरी है। शूरसेन देश की यहाँ राजधानी थी। पौराणिक साहित्य में मथुरा को अनेक नामों से संबोधित किया गया है जैसे- शूरसेन नगरी, मधुपुरी, मधुनगरी, मधुरा आदि। भारतवर्ष का वह भाग जो हिमालय और विंध्याचल के बीच में पड़ता है, प्राचीनकाल में आर्यावर्त कहलाता था। यहाँ पर पनपी हुई भारतीय संस्कृति को जिन धाराओं ने सींचा वे गंगा और यमुना की धाराएं थीं। इन्हीं दोनों नदियों के किनारे भारतीय संस्कृति के कई केन्द्र बने और विकसित हुए। वाराणसी, प्रयाग, कौशाम्बी, हस्तिनापुर,कन्नौज आदि कितने ही ऐसे स्थान हैं, परन्तु यह तालिका तब तक पूर्ण नहीं हो सकती जब तक इसमें मथुरा का समावेश न किया जाय। यह आगरा से दिल्ली की ओर और दिल्ली से आगरा की ओर क्रमश: 58 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम एवं 145 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में यमुना के किनारे राष्ट्रीय राजमार्ग 2 पर स्थित है।
वाल्मीकि रामायण में मथुरा को मधुपुर या मधुदानव का नगर कहा गया है तथा यहाँ लवणासुर की राजधानी बताई गई है-[46] इस नगरी को इस प्रसंग में मधुदैत्य द्वारा बसाई, बताया गया है। लवणासुर, जिसको शत्रुघ्न ने युद्ध में हराकर मारा था इसी मधुदानव का पुत्र था।[47] इससे मधुपुरी या मथुरा का रामायण-काल में बसाया जाना सूचित होता है। रामायण में इस नगरी की समृद्धि का वर्णन है।[48] इस नगरी को लवणासुर ने भी सजाया संवारा था। [49]दानव, दैत्य, राक्षस आदि जैसे संबोधन विभिन्न काल में अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं, कभी जाति या क़बीले के लिए, कभी आर्य अनार्य सन्दर्भ में तो कभी दुष्ट प्रकृति के व्यक्तियों के लिए। प्राचीनकाल से अब तक इस नगर का अस्तित्व अखण्डित रूप से चला आ रहा है।
मथुरा के चारों ओर चार शिव मंदिर हैं- पूर्व में पिपलेश्वर का, दक्षिण में रंगेश्वर का और उत्तर में गोकर्णेश्वर का और पश्चिम में भूतेश्वर महादेव का मन्दिर है। चारों दिशाओं में स्थित होने के कारण शिवजी को मथुरा का कोतवाल कहते हैं। मथुरा को आदि वाराह भूतेश्वर क्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है। वाराह जी की गली में नीलवारह और श्वेतवाराह के सुंदर विशाल मंदिर हैं। श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ ने श्री केशवदेवजी की मूर्ति स्थापित की थी पर औरंगजेब के काल में वह रजधाम में पधरा दी गई व औरंगजेब ने मंदिर को तोड़ डाला और उसके स्थान पर मस्जिद खड़ी कर दी। बाद में उस मस्जिद के पीछे नया केशवदेवजी का मंदिर बन गया है। प्राचीन केशव मंदिर के स्थान को केशवकटरा कहते हैं। खुदाई होने से यहाँ बहुत सी ऐतिहासिक वस्तुएँ प्राप्त हुई थीं।
पास ही एक कंकाली टीले पर कंकालीदेवी का मंदिर है। कंकाली टीले में भी अनेक वस्तुएँ प्राप्त हुई थीं। यह कंकाली वह बतलाई जाती है, जिसे देवकी की कन्या समझकर कंस ने मारना चाहा था पर वो उसके हाथ से छूटकर आकाश में चली गई थी। (देखें विद्याधर चक्रवर्ती) मस्जिद से थोड़ा सा पीछे पोतराकुण्ड के पास भगवान्‌ श्रीकृष्ण की जन्मभूमि है, जिसमें वसुदेव तथा देवकी की मूर्तियाँ हैं, इस स्थान को मल्लपुरा कहते हैं। इसी स्थान में कंस के चाणूर, मुष्टिक, कूटशल, तोशल आदि प्रसिद्ध मल्ल रहा करते थे। नवीन स्थानों में सबसे श्रेष्ठ स्थान श्री पारखजी का बनवाया हुआ श्री द्वारकाधीश का मंदिर है। इसमें प्रसाद आदि का समुचित प्रबंध है। संस्कृत पाठशाला, आयुर्वेदिक तथा होमियोपैथिक लोकोपकारी विभाग भी हैं।
इस मंदिर के अलावा गोविंदजी का मंदिर, किशोरीरमणजी का मंदिर, वसुदेव घाट पर गोवर्द्धननाथजी का मंदिर, उदयपुर वाली रानी का मदनमोहनजी का मंदिर, विहारीजी का मंदिर, रायगढ़वासी रायसेठ का बनवाया हुआ मदनमोहनजी का मंदिर, उन्नाव की रानी श्यामकुंवरी का बनाया राधेश्यामजी का मंदिर, असकुण्डा घाट पर हनुमान्‌जी, नृसिंहजी, वाराहजी, गणेशजी के मंदिर आदि हैं, जिनमें कई का आय-व्यय बहुत है, प्रबंध अत्युत्तम है, साथ में पाठशाला आदि संस्थाएँ भी चल रही हैं। विश्राम घाट या विश्रान्त घाट एक बड़ा सुंदर स्थान है, मथुरा में यही प्रधान तीर्थ है। विश्रांतिक तीर्थ (विश्राम घाट) असिकुंडा तीर्थ (असकुंडा घाट) वैकुंठ तीर्थ, कालिंजर तीर्थ और चक्रतीर्थ नामक पांच प्रसिद्ध मंदिरों का वर्णन किया गया है। इस ग्रंथ में कालवेशिक, सोमदेव, कंबल और संबल, इन जैन साधुओं को मथुरा का बतलाया गया है। जब यहाँ एक बार घोर अकाल पड़ा था तब मथुरा के एक जैन नागरिक खंडी ने अनिवार्य रूप से जैन आगमों के पाठन की प्रथा चलाई थी।
भगवान्‌ ने कंस वध के पश्चात्‌ यहीं विश्राम लिया था। नित्य प्रातः-सायं यहाँ यमुनाजी की आरती होती है, जिसकी शोभा दर्शनीय है। यहाँ किसी समय दतिया नरेश और काशी नरेश क्रमशः 81 मन और 3 मन सोने से तुले थे और फिर यह दोनों बार की तुलाओं का सोना व्रज में बांट दिया था। यहाँ मुरलीमनोहर, कृष्ण-बलदेव, अन्नपूर्णा, धर्मराज, गोवर्द्धननाथ आदि कई मंदिर हैं।
यहाँ चैत्र शु. 6 (यमुना-जाम-दिवस), यमद्वितीया तथा कार्तिक शु. 10 (कंस वध के बाद) को मेला लगता है। विश्रान्त से पीछे श्रीरामानुज सम्प्रदाय का नारायणजी का मंदिर, इसके पीछे पुराना गतश्रम नारायणजी का मंदिर, इसके आगे कंसखार हैं। सब्जी मंडी में पं॰ क्षेत्रपाल शर्मा का बनवाया घंटाघर है। पालीवाल बोहरों के बनवाए राधा-कृष्ण, दाऊजी, विजयगोविंद, गोवर्द्धननाथ के मंदिर हैं।
रामजीद्वारे में श्री रामजी का मंदिर है, वहीं अष्टभुजी श्री गोपालजी की मूर्ति है, जिसमें चौबीस अवतारों के दर्शन होते हैं। यहाँ रामनवमी को मेला होता है। यहाँ पर वज्रनाभ के स्थापित किए हुए ध्रुवजी के चरणचिह्न हैं। चौबच्चा में वीर भद्रेश्वर का मंदिर, लवणासुर को मारकर मथुरा की रक्षा करने वाले शत्रुघ्नजी का मंदिर, होली दरवाजे पर दाऊजी का मंदिर, डोरी बाजार में गोपीनाथजी का मंदिर है।
आगे चलकर दीर्घ विष्णुजी का मंदिर, बंगाली घाट पर श्री वल्लभ कुल के गोस्वामी परिवारों के बड़े-छोटे दो मदनमोहनजी के और एक गोकुलेश का मंदिर है। नगर के बाहर ध्रुवजी का मंदिर, गऊ घाट पर प्राचीन विष्णुस्वामी सम्प्रदाय का श्री राधाविहारीजी का मंदिर, वैरागपुरा में प्राचीन विष्णुस्वामी सम्प्रदाय के विरक्तों का मंदिर है। वैरागपुरा में गोहिल छिपि जाति के चाउधरि श्रि गोर्धनदास नागर पुत्र श्रि हरकरन दास नागर ने सकल पन्च मथुरा को सम्वत १९८१ (सन १९२४) में मन्दिर बनाने के हेतु अपनै भुमि दान में दै। और उस भुमि के ऊपर दाउजि माहारज और रेवति देवि कि मुर्ति पधार क्र्र मन्दिर दान कर दिया। इससे आगे मथुरा के पश्चिम में एक ऊंचे टील पर महाविद्या का मंदिर है, उसके नीचे एक सुंदर कुण्ड तथा पशुपति महादेव का मंदिर है, जिसके नीचे सरस्वती नाला है। किसी समय यहाँ सरस्वतीजी बहती थीं और गोकर्णेश्वर-महादेव के पास आकर यमुनाजी में मिलती थीं।
एक प्रसंग में यह वर्णन है कि एक सर्प नंदबाबा को रात्रि में निगलने लगा, तब श्रीकृष्ण ने सर्प को लात मारी, जिस पर सर्प शरीर छोड़कर सुदर्शन विद्याधर हो गया। किन्हीं-किन्हीं टीकाकारों का मत है कि यह लीला इन्हीं महाविद्या की है और किन्हीं-किन्हीं का मत है कि अम्बिकावन दक्षिण में है। इससे आगे सरस्वती कुण्ड और सरस्वती का मंदिर और उससे आगे चामुण्डा का मंदिर है।
चामुण्डा से मथुरा की ओर लौटते हुए बीच में अम्बरीष टीला पड़ता है, यहाँ राजा अम्बरीष ने तप किया था। अब उस स्थान पर नीचे जाहरपीर का मठ है और टीले के ऊपर हनुमान्‌जी का मंदिर है। ये सब मथुरा के प्रमुख स्थान हैं। इनके सिवाय और बहुत छोटे-छोटे स्थान हैं। मथुरा के पास नृसिंहगढ़ एक स्थान है, जहाँ नरहरि नाम के एक पहुंचे हुए महात्मा हो गए हैं। कहा जाता है इन्होंने 400 वर्ष के होकर अपना शरीर त्याग किया था।
#मथुरा की परिक्रमा ......
प्रत्येक एकादशी और अक्षय नवमी को मथुरा की परिक्रमा होती है। देवशयनी और देवोत्थापनी एकादशी को मथुरा-गरुड गोविन्द्-वृन्दावन् की एक साथ परिक्रमा की जाती है। यह परिक्र्मा २१ कोसी या तीन वन की भी कही जाती है। वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को रात्रि में परिक्रमा की जाती है, जिसे वनविहार की परिक्रमा कहते हैं।

#विश्राम घाट, यमुना, मथुरा
स्थान-स्थान में गाने-बजाने का तथा पदाकन्दा नाटक का भी प्रबंध रहता है। श्री दाऊजी ने द्वारका से आकर, वसन्त ऋतु के दो मास व्रज में बिताकर जो वनविहार किया था तथा उस समय यमुनाजी को खींचा था, यह परिक्रमा उसी की स्मृति है।
#सप्तपुरियों में मथुरा .....
भारतवर्ष के सांस्कृतिक और आधात्मिक गौरव की आधारशिलाऐं इसकी सात महापुरियां हैं। 'गरुडपुराण' में इनके नाम इस क्रम से वर्णित हैं-
इनमें मथुरा का स्थान अयोध्या के पश्चात अन्य पुरियों के पहिले रखा गया है। पदम पुराण में मथुरा का महत्व सर्वोपरि मानते हुए कहा गया है कि यद्यपि काशी आदि सभी पुरियाँ मोक्ष दायिनी है तथापि मथुरापुरी धन्य है। यह पुरी देवताओं के लिये भी दुर्लभ है। २ इसी का समर्थन 'गर्गसंहिता' में करते हुए बतलाया गया है कि पुरियों की रानी कृष्णापुरी मथुरा बृजेश्वरी है, तीर्थेश्वरी है, यज्ञ तपोनिधियों की ईश्वरी है यह मोक्ष प्रदायिनी धर्मपुरी मथुरा नमस्कार योग्य है।
#ब्रज का प्राचीन संगीत .....
ब्रज के प्राचीन संगीतज्ञों की प्रामाणिक जानकारी 16वीं शताब्दी के भक्तिकाल से मिलती है। इस काल में अनेकों संगीतज्ञ वैष्णव संत हुए। संगीत शिरोमणि स्वामी हरिदास जी, इनके गुरु आशुधीर जी तथा उनके शिष्य तानसेन आदि का नाम सर्वविदित है। बैजूबावरा के गुरु भी श्री हरिदास जी कहे जाते हैं, किन्तु बैजू बावरा ने अष्टछाप के कवि संगीतज्ञ गोविन्द स्वामी जी से ही संगीत का अभ्यास किया था। निम्बार्क सम्प्रदाय के श्रीभट्ट जी इसी काल में भक्त, कवि और संगीतज्ञ हुए। अष्टछाप के महासंगीतज्ञ कवि सूरदास, नन्ददास, परमानन्ददास जी आदि भी इसी काल में प्रसिद्ध कीर्तनकार, कवि और गायक हुए, जिनके कीर्तन बल्लभकुल के मन्दिरों में गाये जाते हैं। स्वामी हरिदास जी ने ही वस्तुत: ब्रज–संगीत के ध्रुपद–धमार की गायकी और रास–नृत्य की परम्परा चलाई।
मथुरा में संगीत का प्रचलन बहुत पुराना है, बांसुरी ब्रज का प्रमुख वाद्य यंत्र है। भगवान श्रीकृष्ण की बांसुरी को जन–जन जानता है और इसी को लेकर उन्हें 'मुरलीधर' और 'वंशीधर' आदि नामों से पुकारा जाता है। वर्तमान में भी ब्रज के लोक संगीत में ढोल मृदंग, झांझ, मंजीरा, ढप, नगाड़ा, पखावज, एकतारा आदि वाद्य यंत्रों का प्रचलन है। 16 वीं शती से मथुरा में रास के वर्तमान रूप का प्रारम्भ हुआ। यहाँ सबसे पहले बल्लभाचार्य जी ने स्वामी हरदेव के सहयोग से विश्रांत घाट पर रास किया। रास ब्रज की अनोखी देन है, जिसमें संगीत के गीत गद्य तथा नृत्य का समिश्रण है। ब्रज के साहित्य के सांस्कृतिक एवं कलात्मक जीवन को रास बड़ी सुन्दरता से अभिव्यक्त करता है। अष्टछाप के कवियों के समय ब्रज में संगीत की मधुरधारा प्रवाहित हुई। सूरदास, नन्ददास, कृष्णदास आदि स्वयं गायक थे। इन कवियों ने अपनी रचनाओं में विविध प्रकार के गीतों का अपार भण्डार भर दिया। स्वामी हरिदास संगीत शास्त्र के प्रकाण्ड आचार्य एवं गायक थे। तानसेन जैसे प्रसिद्ध संगीतज्ञ भी उनके शिष्य थे। सम्राट अकबर भी स्वामी जी के मधुर संगीत- गीतों को सुनने का लोभ संवरण न कर सका और इसके लिए भेष बदलकर उन्हें सुनने वृन्दावन आया करता था। मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, गोवर्धन लम्बे समय तक संगीत के केन्द्र बने रहे और यहाँ दूर से संगीत कला सीखने आते रहे।
#लोक गीत .......
ब्रज में अनेकानेक गायन शैलियां प्रचलित हैं और रसिया ब्रज की प्राचीनतम गायकी कला है। भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से सम्बन्धित पद, रसिया आदि गायकी के साथ रासलीला का आयोजन होता है। श्रावण मास में महिलाओं द्वारा झूला झूलते समय गायी जाने वाली मल्हार गायकी का प्रादुर्भाव ब्रज से ही है। लोकसंगीत में रसिया, ढोला, आल्हा, लावणी, चौबोला, बहल–तबील, भगत आदि संगीत भी समय –समय पर सुनने को मिलता है। इसके अतिरिक्त ऋतु गीत, घरेलू गीत, सांस्कृतिक गीत समय–समय पर विभिन्न वर्गों में गाये जाते हैं।
#कला ......
यहाँ स्थापत्य तथा मूर्ति कला के विकास का सबसे महत्त्वपूर्ण युग कुषाण काल के प्रारम्भ से गुप्त काल के अन्त तक रहा। यद्यपि इसके बाद भी ये कलायें 12वीं शती के अन्त तक जारी रहीं। इसके बाद लगभग 350 वर्षों तक मथुरा कला का प्रवाह अवरूद्ध रहा, पर 16वीं शती से कला का पुनरूत्थान साहित्य, संगीत तथा चित्रकला के रूप में दिखाई पड़ने लगता है।
#जय श्रीकृष्णा !!!!

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