Tuesday 12 December 2017

दक्षिण भारत में संस्कृत और हिंदी विरोध का बैकगॉउन्ड की स्थापना
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हम लोग जानते हैं ,जब भी हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने की कोशिश होती है, दक्षिण भारत का एक बड़ा तबका अंग्रेजी के साथ खड़ा नजर आता है। उत्तर भारत के लोगों को लगता है कि ये लोग राष्ट्र विरोधी हैं जबकि बात कुछ और है ।
सच्चाई ये है कि दक्षिण भारतीय , खास तौर पर तमिलवासी , संस्कृत / हिंदी के विरोध में खड़ा होता है, न कि अंग्रेजी के पक्ष में। उसके इस रिएक्शन के पीछे एक इतिहास है, लेकिन वो इतिहास 150 साल से ज्यादा का नहीं है ।
इसी का अब हम पोस्ट मोर्टेम करेंगे ।
जिस तरह आपने देखा कि संस्कृत ग्रंथों के अनुसार "आर्य' शब्द को शाश्त्रों में एक आदरसूचक सम्बोधन को कहते हैं , लेकिन क्रिस्चियन /यूरोपियन संस्कृतविदों ने उसको आर्यन रेस / नश्ल घोषित करके,भारतीय समाज का सत्यानाश किया,और विश्व के #सुप्रीम_आर्य_हिटलर और जर्मन इसाइयों ने 60 लाख यहूदियों और 40 लाख रोमा जिप्सियों की बर्बरतापूर्वक हत्या करवाई ।
उसी तरह एक शब्द है -"#द्रविड़" जिसको कि पादरियों ने एक नयी रेस/ नश्ल का नाम दे दिया . इस "द्रविड़ रेस" को आर्यों के हांथो पराजित और विश्थापित नश्ल सिद्ध किया , जो अभी भी सबसे बड़ा राजनैतिक हथियार है दक्षिण भारत में । और अभी भी वहां की क्रिस्चियन मिशनरियां उस तथाकथित पराजित और विश्थापित कौम के कपोलकल्पित इतिहास की दुहाई देकर आज भी धर्म परिवर्तन का खुला खेल खेल रहीं है ।
पहले ये चर्चा करेंगे कि "द्रविड़ शब्द" को "द्रविड़ रेस" में कैसे परिवर्तित किया गया , और फिर ऐतिहासिक संस्कृत ग्रन्थ के अनुसार द्रविड़ शब्द का अर्थ क्या होता है। इसी शब्द को कालांतर में दलित चिंतकों ने शूद्रों से कैसे जोड़ा, अछूतों से कैसे जोड़ा ? 150 वर्षों में 700 % टेचनोक्रट्स जो बेरोजगार और बेघर हो गए उनसे कैसे इनका रिश्ता जोड़ा ? कैसे ब्रम्हानिस्म और ब्राम्हण शब्द को खलनायक की तरह प्रस्तुत किया गया ?
ब्रिटिश अधिकारीयों और धर्म परिवर्तन का एजेंडा वाले क्रिश्चियन पादरिओं की मिलीजुली शाजिश का परिणाम है - द्रविड़ और द्रविड़ियन रेस के उपज की थ्योरी। "कल्पना की उड़ान" । जोकि अभी भी वामपंथ और दलित चिंतकों का मुख्य "Modus oparandi " है, जिसके जरिये वे बिना तथ्यों के इतिहास को अपने मनमाने हिसाब से लिखते हैं ।
दो अधिकारी फ्रांसिस व्हीट एलिस और अलेक्सैंडर डी कैम्पवेल ने तेलगु और तमिल भाषाओँ के व्याकरण का अध्ययन किया, और एक नए सिद्धांत कि परिकल्पना रची , कि ये भाषाएँ अन्य भारतीय भाषाओँ से भिन्न हैं।
फिर एक नए अधिकारी B H Houghton ने एक नए शब्द कि रचना की -"#तमिलियन ", और एक नयी तथ्यहीन और कपोल कल्पित कहानी को जन्म दिया कि- " ये तमिलियन ही भारत के मूल निवासी थे" / इस तरह एक नयी आधारहीन परिकल्पना ने जन्म लिया/ फ्रांसिस व्हीट एलिस और अलेक्सैंडर डी कैम्पवेल ने तमिल और तेलगू भाषियों को भाषायी, और B H Hondsgon ने नश्लीय / रेसियल भिन्नता के आधार एक अलग नश्ल की परिकल्पना की /
परन्तु इन तेलगु और तमिलभाषी भारतीयों को एक अलग नश्ल / रेस सिद्ध करने के असली खड़यन्त्र, बिशप रोबर्ट कलडवेल (1814-91 ) नामक एक पादरी ने की/ जिसने ऊपर वर्णित भाषायी और नश्लीय भिन्नता को आधार बनाकर एक पुस्तक लिखी (लेखन परंपरा / श्रवण परंपरा ) जिसका नाम था -"Comperative Grammer of the Dravidian Race " जो आज भी बहुत पॉपुलर है /बिशप रोबर्ट कलडवेल ने नए विचार का जन्म दिया कि dravidians भारत के #मूल_निवासी थे , आर्यों के आने के पूर्व / परन्तु -"आर्यों के एजेंट ब्राम्हणों " ने इन भोले भाले द्रविडिअन्स को धूर्ततापूर्व (Cunning ) धर्म के बंधनों में जकड रखा है ,, और जब तक संस्कृत शब्दों को तमिल भाषा से बाहर नहीं निकला जाएगा,,,,ये भोले भाले द्रविड़ लोग अन्धविश्वास से मुक्ति नहीं पायेगे /
(ज्ञातब्व हो की जो नेटिव परम्पराएँ और शाश्त्र ,बाइबिल के फ्रेमवर्क में फिट न हो , उसे क्रिस्चनों ने ने मिथ और अन्धविश्वास की श्रेणी में रखा )
इसलिए कड्वेल जैसे यूरोपीय लोंगो का कर्तव्य है कि भोले भाले द्रविडिअन्स को अंध विश्वास से मुक्ति दिला कर उनकी आत्माओ को अवलोकित करें ,,यानि क्रिस्चियन धर्म में शामिल करे /
इस तरह रखी गयी ब्राम्हणवाद और ब्रम्हानिस्म के विरोध और गाली देने की आधार शिला / cunning Bramhans जैसे शब्दों का प्रयोग ,पहली बार क्रिश्चियनिटी को स्थापित करने के लिए हुवा /
H T COLEBROOKE ने 1801 में एक लेख लिखा - की सभी भारतीय भाषाएँ संस्कृत से निकली हैं / लेकिन ALAXANDER डी कैम्पबेल और व्हीट एलिस , जो की मद्रास का कलेक्टर था , दोनों ने एक पुस्तक लिखी - "ग्रामर ऑफ़ तेलगू लैंग्वेज " (१८१६) - जिसमे उन्होंने कल्पना और खड़यन्त्रकारी तरीके से ये तथ्य पेश किया कि तमिल और तेलगु की उत्पत्ति संस्कृत से नहीं किसी अन्य भाषा से हुयी है / ये एक क्रांतिकारी और विघटनकारी नया खेल खेल गया , विदेशियों के द्वारा भारतीय समाज को बांटने का /
अब इस तथ्य को बाइबिल के फ्रेमवर्क में फिट करना था ,,तो व्हीट एलिस ने दावा किया कि #द्रविड़ियन_लैंग्वेजेज (तमिल और तेलगू ) कि उत्पत्ति #हिब्रू भाषा से हुयी है /
वो कैसे ??
अब देखिये इससे एक तीर से तीन शिकार किया उन्होने /
(१) इन भाषाओँ को संस्कृत और संस्कृत भाषियों से डिसकनेक्ट --( ईसाइयत फ़ैलाने के लिए मैदान साफ़)
(२) हिब्रू किसकी भाषा है ...ये वो भाषा है जो जीसस क्राइस्ट बोलते थे / ( ईसाइयत से कनेक्ट - ईसाइयत फैलाने का आधार )
(३) अगले 100 सालों में जब भारत की जीडीपी, विश्व जीडीपी की 25 प्रतिशत हिस्सेदारी खोकर , मात्र 2 प्रतिशत का shareholder रह जाएगा , और लगभग 700 प्रतिशत टेचनोक्रट्स , व्यापारी और अन्य लोग ,जब बेरोजगार और बेघर हो जाएंगे , तो एक वर्ग का उदय होगा जिसको दलित वर्ग कहा जाएगा , , और फिर ईसाइयत को फ़ैलाने का बड़ा मजबूत तबका एक साथ , इन पादरियों को उपलब्ध होगा / facts have been taken from a book -Breaking India by Rajiv Malhotra
#द्रविड़ियन_रेस_का_पोस्ट_मोर्टेम : #भाग_2 एक झूठ जो विदेशी ईसाइयों ने ईसाइयत फैलाने के लिए रचा /
दक्षिण भारत में संस्कृत और हिंदी विरोध का बैकगॉउन्ड की स्थापना .......................................................................................................... ..
अब एक स्कॉटिश पादरी जॉन stevension ने ये कहा कि दक्षिण भारत कि मूल भाषाए संस्कृत से पुरानी हैं / फिर दो पादरी आये एक का नाम है बिशप Caldwell , और दूसरे G U पोप जिनकी मूर्तिया आज मद्रास के मरीना बीच पर आज ईसाइयत का परचम लहरा रहीं है /
बिशप Caldwell पहले लिखा "कम्पेरेटिव ग्रामर ऑफ द्रविड़ियन लैंग्वेजेज" जिसमें ये घोषित किया कि संस्कृत नहीं बल्कि हिब्रू दक्षिण भारतीय भाषाओँ की जननी है /
दूसरी पुस्तक लिखी -" अ पोलिटिकल एंड जनरल हिस्ट्री ऑफ़ तिन्नेवेली " 1881 में ,,, जहाँ कि चर्च में वे पादरी थे / इसमें उन्होंने ये स्टैब्लिश किया कि तमिल भाषा बहुत ही सुन्दर और सुदृढ़ है , लेकिन ये संस्कृत से भिन्न है , लेकिन जब ब्राम्हण आर्यों ने , भारत के मूल निवासियों को उत्तर से विस्थापित करके दक्षिण में विस्थापित किया और उनको अपना गुलाम बनाया ,,तो मूल तमिल भाषाके शब्दों में , संस्कृत के शब्द घुसेड़ कर उसको corrupt कर दिया , और इसीलिये इन तमिलों में धूर्त ब्राम्हणों के हिन्दू धर्म के सुपरस्टीशन्स ( जो प्रथाए और सिद्धांत बाइबिल से न मिले वो अन्धविश्वास और मिथक है ) सम्मिलित हो गए हैं ,,इसीलिये ये हिन्दू धर्म कि बेड़ियों में जकड गए है /
तो अब इनको शुद्ध कैसे किया जाय ????
उसका उपाय बताते हुए बिशप कालद्वेल्ल कहते हैं कि -- सबसे पहले इन धूर्त ब्राम्हणों कि भाषा संस्कृत को, तमिल डिक्शनरी से और शब्दावली से बाहर निकाला जाय / और दूसरा काम इन तमिलों को सभ्य बनाया जाय / ( यानि इनको false रिलिजन से निकालकर true रिलिजन -यानि ईसाइयत में शामिल किया जाय) .
दक्षिण भारत में संस्कृत और हिंदी विरोध का बैकग्राउंड देखिये ,,,इन्हीं पादरिओं ने रखा /.
एक बार ये स्थापित करने के बाद कि भोले - भाले द्रविड़ियन को जो कि भारत के मूल निवासी थे , उनको संस्कृत बोलने वाले आर्यों और ...... चालाक और धूर्त ब्राम्हणों ने .......पहले से मौजूद और उच्चीकोटि की भाषा तमिल और तेलगु ,(,जिनकी उत्पत्ति नूह के पुत्र शेम के वंशजों हिबू से हुयी थे ) में संस्कृत को घुशेड कर अशुद्ध बना दिया / इस तरह से ये पादरी इस शाजिश को अंजाम देने में कामयाब रहा कि ब्राम्हणों ने तमिल और तेलगु भाषियों को छल पूर्वक बेवकूफ बनाया ,और आर्यों कि रीति रिवाज और भाषा को इनके ऊपर जबरजस्ती लादा /
अब एक माहौल बनाने में कालद्वेल्ल जी कामयाब रहे कि अल्पसंख्यक ब्राम्हणों ने द्रविडिअन्स को गुलाम बनाया , विस्थापित किया , और उनकी संस्कृति को भ्रस्ट किया /
(एक coloniser ने देशवासी ब्राम्हणों को coloniser साबित किया )
अब रहा तमिल ग्रंथों को कैसे बाइबिल के फ्रेमवर्क में कैसे फिट किया जाय , तो ये पुनीत कार्य किया दूसरे पादरी G U पोप ने , उन्होंने दो काम किया /
(१) थिरुकुराल ग्रन्थ जो कि ऋषि थिरुवल्लार ने लिखा है , वो तमिलभाषा का बड़ा महान ग्रन्थ माना जाता है , उसे ये सिद्ध किया कि आर्यों के ग्रंथों से इसलिए पृथक है क्योंकि इसे अर्थ धर्म काम का वर्णन तो है , लेकिन मोक्ष का वर्णन नहीं है , इस लिए ये संस्कृत भाषी आर्यों से इतर ग्रन्थ है / फिर और आगे जाकर उन्होंने ये प्रमाणित कर दिखाया कि
ऋषि थिरुवल्लार ने इस ग्रन्थ को रचाने की प्रेरणा ईसाई पुस्तकों से ली / इस थ्योरी को आज भी धर्म परिवर्तन के लिए किया जा रहा है /
(२) दूसरा है शैव सिद्धांत - अब इस पर ये तर्क रकह गया ,,कि ये शैव सिद्धांत ईसाईयत फलसफा 'Monogod रिलिजन " से मिलता जुलता है ,,इस लिए ये आर्यों के बहुदेवबाद से अलग है , और क्रिश्चियनिटी के ज्यादा निकट है /
इस तरह एक अलग द्रविड़ आइडेंटिटी , जो आर्यों से भिन्न लेकिन ईसाइयत के निकट तैयार कि गयी , जो धूर्त ब्रांहनों के फैलाये जाल में अन्धविस्वाशी हो गये हैं / इनको सभ्य बनाये जाने और असली धर्म यानि ईसाइयत के उजाले में ले जाने कि जरूरत है , इनको ब्रांाणों के कुचक्र से फैलाये हुए अंधविश्वासों से बाहर निकालने के लिए /
Sabhar
Dr. Tribhuwan Singh

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