कोहनूर हीरे का इतिहास बहुत पुराना है। कुछ इसे
महाभारत काल की प्रसिद्ध स्यमंतक मणि बताते हैं।
गोलकुंडा की खान से निकले इस हीरे को
अत्यधिक आभा के कारण प्रकाश का पर्वत (कोह-ए-नूर) कहा
गया। इसे पाने की अभिलाषा हर राजा की
रही। एक समय यह भारत के मुगल शासकों के पास
था। इसके बाद यह नादिरशाह तथा फिर अफगानिस्तान की
सत्ता के साथ क्रमशः अहमद शाह अब्दाली, तैमूर,
शाह जमन और फिर शाह शुजा के पास स्थानांतरित होता रहा। आगे
चलकर असली सत्ता प्रधानमंत्री फतेह
खान के पास आ गयी; पर हीरा शाह शुजा
और उसकी बेगम के पास ही रहा। फतेह
खान ने शुजा के छोटे भाई शाह महमूद को गद्दी पर बैठा
दिया।
इन दिनों पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह का शासन था।
शुजा के याचना करने पर महाराजा ने अपनी सेना भेजकर
उसे सत्ता दिलवा दी;पर कुछ समय बाद फतेहखान ने
फिर महमूद को गद्दी पर बैठा दिया। शुजा भाग कर अटक
जा पहुंचा। वहां के सूबेदार जहांदाद ने पहले उसे शरण
दी; पर फिर शक होने पर उसे बन्दी बनाकर
रावलपिंडी भेज दिया। उस समय उसका सबसे बड़ा भाई
जमन भी वहां बन्दी था,
जिसकी आंखें महमूद ने निकलवा दी
थीं।
कुछ समय बाद रणजीत सिंह ने इन दोनों भाइयों को लाहौर
बुलवा लिया। उधर अफगान प्रधानमंत्री फतेहखान ने
कश्मीर जीतने के लिए महाराजा से
सहयोग मांगा। लूट का आधा माल तथा प्रतिवर्ष नौ लाख रु0 देने
की शर्त पर महाराजा तैयार हो गये। इससे
शरणार्थी शाह परिवार को लगा कि महाराजा फतेहखान के
प्रभाव में आकर कहीं उन्हें मार न दें। अतः शुजा
की बेगम ने शुजा की जान के बदले कोहनूर
हीरा महाराजा को देने का प्रस्ताव रखा।
1812 की वसंत ऋतु में योजनाबद्ध रूप से एक ओर से
हिन्दू तथा दूसरी ओर से अफगान सेनाओं ने
कश्मीर में प्रवेश किया; पर फतेहखान के मन में धूर्तता
थी। उसने कुछ सेनाएं पंजाब में भी घुसा
दीं। इसी प्रकार उसने कश्मीर
के दो किलों को जीत कर वहां का आधा खजाना
भी हिन्दू सेना को नहीं दिया। महाराजा को
अपने सेनापति दीवान मोहकमचंद और दलसिंह से सब
सूचना मिल रही थी; पर वे शांत रहकर
सन्धि को निभाते रहे।
उन दिनों शाह शुजा शेरगढ़ के किले में बन्दी था।
फतेहखान की इच्छा उसे मारने की
थी। यह देखकर मोहकमचंद एक छोटे रास्ते से वहां
गये और उसे उठाकर अपने खेमे में ले आये। फतेहखान को जब
यह पता लगा, तो उसने शुजा की मांग की;
पर मोहकमचंद ने यह मांग ठुकरा दी। इस पर
फतेहखान ने आधा माल तथा नौ लाख रु0 प्रतिवर्ष की
सन्धि तोड़ दी। इस प्रकार लूट का माल तथा
कश्मीर की भूमि फतेहखान के पास
ही रह गयी।
इस अभियान में भी महाराजा को काफी हानि
हुई। उनके 1,000 सैनिक मारे गये तथा खजाना भी
लगभग खाली हो गया। शुजा लाहौर आकर
अपनी बेगम से मिला। अब महाराजा ने शर्त के अनुसार
कोहनूर की मांग की; पर बेगम उसे देने में
हिचक रही थी। अंततः महाराजा ने उसे
तीन लाख रु0 नकद तथा 50,000 रु0 की
जागीर देकर कोहनूर प्राप्त कर लिया।
इस प्रकार एक जून, 1813 को यह दुर्लभ हीरा फिर
से भारत को मिला;पर दुर्भाग्यवश कुछ समय बाद यह अंग्रेजों के
पास चला गया और तब से आज तक वहीं है।
महाभारत काल की प्रसिद्ध स्यमंतक मणि बताते हैं।
गोलकुंडा की खान से निकले इस हीरे को
अत्यधिक आभा के कारण प्रकाश का पर्वत (कोह-ए-नूर) कहा
गया। इसे पाने की अभिलाषा हर राजा की
रही। एक समय यह भारत के मुगल शासकों के पास
था। इसके बाद यह नादिरशाह तथा फिर अफगानिस्तान की
सत्ता के साथ क्रमशः अहमद शाह अब्दाली, तैमूर,
शाह जमन और फिर शाह शुजा के पास स्थानांतरित होता रहा। आगे
चलकर असली सत्ता प्रधानमंत्री फतेह
खान के पास आ गयी; पर हीरा शाह शुजा
और उसकी बेगम के पास ही रहा। फतेह
खान ने शुजा के छोटे भाई शाह महमूद को गद्दी पर बैठा
दिया।
इन दिनों पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह का शासन था।
शुजा के याचना करने पर महाराजा ने अपनी सेना भेजकर
उसे सत्ता दिलवा दी;पर कुछ समय बाद फतेहखान ने
फिर महमूद को गद्दी पर बैठा दिया। शुजा भाग कर अटक
जा पहुंचा। वहां के सूबेदार जहांदाद ने पहले उसे शरण
दी; पर फिर शक होने पर उसे बन्दी बनाकर
रावलपिंडी भेज दिया। उस समय उसका सबसे बड़ा भाई
जमन भी वहां बन्दी था,
जिसकी आंखें महमूद ने निकलवा दी
थीं।
कुछ समय बाद रणजीत सिंह ने इन दोनों भाइयों को लाहौर
बुलवा लिया। उधर अफगान प्रधानमंत्री फतेहखान ने
कश्मीर जीतने के लिए महाराजा से
सहयोग मांगा। लूट का आधा माल तथा प्रतिवर्ष नौ लाख रु0 देने
की शर्त पर महाराजा तैयार हो गये। इससे
शरणार्थी शाह परिवार को लगा कि महाराजा फतेहखान के
प्रभाव में आकर कहीं उन्हें मार न दें। अतः शुजा
की बेगम ने शुजा की जान के बदले कोहनूर
हीरा महाराजा को देने का प्रस्ताव रखा।
1812 की वसंत ऋतु में योजनाबद्ध रूप से एक ओर से
हिन्दू तथा दूसरी ओर से अफगान सेनाओं ने
कश्मीर में प्रवेश किया; पर फतेहखान के मन में धूर्तता
थी। उसने कुछ सेनाएं पंजाब में भी घुसा
दीं। इसी प्रकार उसने कश्मीर
के दो किलों को जीत कर वहां का आधा खजाना
भी हिन्दू सेना को नहीं दिया। महाराजा को
अपने सेनापति दीवान मोहकमचंद और दलसिंह से सब
सूचना मिल रही थी; पर वे शांत रहकर
सन्धि को निभाते रहे।
उन दिनों शाह शुजा शेरगढ़ के किले में बन्दी था।
फतेहखान की इच्छा उसे मारने की
थी। यह देखकर मोहकमचंद एक छोटे रास्ते से वहां
गये और उसे उठाकर अपने खेमे में ले आये। फतेहखान को जब
यह पता लगा, तो उसने शुजा की मांग की;
पर मोहकमचंद ने यह मांग ठुकरा दी। इस पर
फतेहखान ने आधा माल तथा नौ लाख रु0 प्रतिवर्ष की
सन्धि तोड़ दी। इस प्रकार लूट का माल तथा
कश्मीर की भूमि फतेहखान के पास
ही रह गयी।
इस अभियान में भी महाराजा को काफी हानि
हुई। उनके 1,000 सैनिक मारे गये तथा खजाना भी
लगभग खाली हो गया। शुजा लाहौर आकर
अपनी बेगम से मिला। अब महाराजा ने शर्त के अनुसार
कोहनूर की मांग की; पर बेगम उसे देने में
हिचक रही थी। अंततः महाराजा ने उसे
तीन लाख रु0 नकद तथा 50,000 रु0 की
जागीर देकर कोहनूर प्राप्त कर लिया।
इस प्रकार एक जून, 1813 को यह दुर्लभ हीरा फिर
से भारत को मिला;पर दुर्भाग्यवश कुछ समय बाद यह अंग्रेजों के
पास चला गया और तब से आज तक वहीं है।
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