Sunday 5 October 2014

अंग्रेजों की भूमि में रहकर भारत की स्वातंत्रता हेतु कार्यरत निर्भय क्रांतिकारी पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा

वर्तमान की दृष्टि से तुलना करें, तो स्वातंत्र्यपूर्व काल बडा भाग्यशाली था; क्योंकि उस समय युवकों के समक्ष स्वराज्य का तेजस्वी ध्येय था तथा उस ध्येयपथ पर अग्रसर होते हुए कठिनाइयों का सामना करनेमें प्राप्त होनेवाला आनंद अवर्णनीय था । जीवनमें ऐसा कुछ अलौकिक था तथा उस हेतु उस कालके युवकोंको कठोर परिश्रम करनेका अवसर प्राप्त होता था । जीवन सार्थक होनेका समाधान उन्हें मिलता था । स्वतंत्रताके यज्ञमें अनेक समिधाएं अर्पण होती हैं, हम भी उनमेंसे एक हैं, इसका आनंद उन्हें प्राप्त होता था । ऐसे प्रयत्न करनेवाले इस देशमें बहुत थे; किंतु शत्रुके घरमें रहकर भी स्वतंत्रता हेतु प्रयत्न करनेवाले कुछ गिनेचुने ही निर्भय क्रांतिकारी थे और पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा उनमेंसे ही एक थे ।

१. पाश्चात्त्योंका यह कहना कि भारतीयोंको लेखनकला
पता नहीं होनेकी बातको प्रमाणसमेत झूठ सिद्ध करनेवाले पंडितजी !

शिक्षा प्राप्त करने हेतु पंडितजीको छोटी आयुमें ही लोगोंके घर कपडे धोने तथा पानी भरनेका काम भी करना पडा । विद्यार्थीदशामें वे स्वामी दयानंद सरस्वतीजीके संपर्कमें आए तथा उससे उनके जीवनको उचित दिशा प्राप्त हुई । इसी कालमें उन्होंने संस्कृतपर प्रभुत्व प्राप्त किया । उसके पश्चात वे कुछ काल ब्रिटेनके ऑक्सफर्ड विश्वविद्यालयमें संस्कृतके अध्यापकके पदपर कार्यरत रहे । लेखनकला तथा लिपि भारतीयोंने परायोंसे ग्रहण की, पाश्चात्योंका ऐसा ही अभिप्राय था । वेदोंपर आधारित प्रमाणानुसार वेदकालीन भारतीयोंको लेखनकला एवं लिपिका ज्ञान था, पंडितजीने इसे प्रत्यक्ष प्रमाण देकर सिद्ध किया । उनकेद्वारा प्रस्तुत निबंधके कारण विदेशमें उनकी बडी प्रशंसा हुई । जर्मनीद्वारा उन्हें ‘पंडित’उपाधि प्रदान की गई, एवं ऑक्सफर्ड विश्वविद्यालयद्वारा उन्हें ‘एम. ए.’ उपाधि अर्पण की गई । इसके पश्चात वे भारत आए; किंतु पुन: उन्हें वैयक्तिक कार्य हेतु ब्रिटेन जाना पडा । अपना देश परतंत्र है, इस विचारसे वे व्यथित रहते थे । ब्रिटेनके स्वतंत्र वातावरणमें भारतकी स्वतंत्रताके विषयमें अपने अभिप्राय अधिक आत्मविश्वाससे प्रस्तुत कर सकेंगे, यह ध्यानमें आनेपर उन्होंने वहींपर निवास करनेका निश्चय किया ।

२. अंग्रेजोंकी भूिममें स्थापित ‘इंडिया हाउस’
बना सशस्त्र क्रांतिकारियों आश्रयस्थान (मायका) !

पंडितजीने ‘ होमरूल सोसाइटी ’ एवं  `इंडियन सोशिओलॉजिस्ट’ ये दो पत्रिकाएं आरंभ कीं । इन पत्रिकाओंमें ब्रिटिश साम्राज्यपर आलोचना की जाती थी । ब्रिटेनमें पढाईके उद्देश्यसे आनेवाले भारतीय युवकों हेतु उन्होंने `इंडिया हाउस’ नामके निवासस्थानकी स्थापना की । वहां भारतीय युवकोंके रहने तथा खानेकी सुविधा की गई थी । यहां क्रांतिकारियोंकी कार्रवाई चलती थी । आगे चलकर अंग्रेजोंको इंडिया हाउसका इतना भय बैठ गया कि किसी वाचनालयमें किसी भारतीयने इंडिया हाउसका पता पूछा तो, तुम क्रांतिकारी होगे ही, अंग्रेज ऐसी प्रतिक्रिया व्यक्त करते थे ।

३. ब्रिटेनमें पढनेवाले भारतीय विद्यार्थियोंको
छात्रवृत्तिके माध्यमसे, तो भारतमें स्वतंत्रता हेतु कार्य
करनेवाले राष्ट्रप्रेमियोंको आर्थिकसहायता करनेवाले राष्ट्रप्रेमी पंडितजी !

पंडितजीने ब्रिटेनमें पढने हेतु आए भारतीय विद्यार्थियोंको महान भारतीय पुरुषोंके नामसे छात्रवृत्ति देना चालू किया । इन्हीं छात्रवृत्तियोंमेंसे स्वातंत्र्यवीर सावरकरजीको शिवाजी छात्रवृत्ति प्राप्त हुई । उन्होंने इस छात्रवृत्तिका सम्मान बढाया । ब्रिटेनमें रहते समय स्वातंत्र्यवीर सावरकरजीका निवास इंडिया हाउसमें था ।
भारतको स्वतंत्रता कैसे प्राप्त हो, इस सूत्रका जितना महत्त्व था, उतना ही स्वतंत्रता प्राप्तिके पश्चात स्वराज्यकी रचना कैसे करें, यह सूत्र भी पंडितजीको महत्त्वपूर्ण लगा । अत: इस विषयपर विद्वत्तापूर्ण निबंध लिखनेवालेको भी उन्होंने पारितोषक घोषित किया था । भारतके कोनेकोनेसे स्वतंत्रता हेतु कार्य करनेवालोंकी वे आर्थिक सहायता करते थे ।

४. अंग्रेजोंके चंगुलसे निकलकर ब्रिटेनसे पलायन करनेवाले तथा अंततक
विदेशमें निवास कर भारतकी स्वतंत्रता हेतु समर्पित होकर कार्य करनेवाले पंडितजी !

पंडितजीने स्वातंत्र्यवीर सावरकरजीद्वारा आरंभ किए गए अभिनव भारत संगठनके कार्यकी पहचान करवा ली तथा वे अभिनव भारतके कट्टर समर्थक बन गए । तदुपरांत उन्होंने प्रकट रूपसे इस संगठनकी मदद करना आरंभ किया । स्वराज्यके विषयमें पं. श्यामजीका कार्य अंग्रेजोंकी दिृष्टसे छुपा  नहीं रह सका । अंग्रेज शासन कार्यवाही करेगा, यह ध्यानमें आनेपर पंडितजीने स्वयंको सबकी दिृष्टसे बचाकर पेरिस प्रयाण किया । वे पेरिस पहुंचें इससे पूर्व ही ब्रिटेनके अधिकोषमें जमा उनका सारा धन फ्रान्सके अधिकोषमें जमा हो चुका था । अत: उनकी उपाधियां वापस लेनेके अतिरिक्त अंग्रेज उनके विरोधमें कोई भी कार्यवाही नहीं कर सके । महायुद्ध आरंभ होनेपर फ्रान्समें रहना भी उन्हें धोखादायी लगा, अत: उन्होंने स्विटजरलैंड प्रयाण किया ।
स्वतंत्रता हेतु अंततक कार्य करनेवाले पंडित श्यामजी कृष्ण वर्माजीने ३० मार्च १९३० को अंतिम सांस ली । (स्वतंत्रतायुद्धके अमर क्रांतिकारी, संकलक : वि.द. कयाळ)

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