Saturday, 13 February 2016

भामाशाह एक योद्धा थे, जिनकी छवि एक व्यापारी की बना दी गई|

हर कोई मानता है और लिख देता है कि भामाशाह ने अपनी कमाई सारी पूंजी महाराणा को अकबर के साथ संघर्ष करने हेतु राष्ट्र्हीत में दान कर दी थी| इस तरह भामाशाह को महान दानवीर साबित कर दिया जाता है. ऐसा करने वाले समझते ही नहीं कि वे भामाशाह के बारे में ऐसा लिखकर उसके व्यक्तित्त्व, स्वामिभक्ति, कर्तव्य व राष्ट्रहित में दिए असली योगदान को किनारे कर उसके साथ अन्याय कर रहे होते है| आज भामाशाह की जो छवि बना दी गई है उसके अनुरूप भामाशाह का नाम आते ही आमजन में मन-मस्तिष्क में छवि उभर जाती है- एक मोटे पेट वाला बड़ा व्यापार करने वाला सेठ, जिसने जो व्यापार में कमाया था वो महाराणा को दान दे दिया| 

भामाशाह द्वारा महाराणा को दान देने की कहानी को राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार ओझा जी कल्पित मानते है| ओझा जी के मतानुसार- यह धनराशि मेवाड़ राजघराने की ही थी जो महाराणा कुंभा और सांगा द्वारा संचित की हुई थी और मुसलमानों के हाथ ना लगे, इस विचार से चितौड़ से हटाकर पहाड़ी क्षेत्र में सुरक्षित की गई थी और प्रधान होने के कारण केवल भामाशाह की जानकारी में थी और वह इसका ब्यौरा अपनी बही में रखता था|"

 यही नहीं कई इतिहासकारों के अनुसार भामाशाह ने मालवा अभियान में प्राप्त धन महाराणा को दिया था| यदि इतिहासकारों की बात माने तो भामाशाह व्यापारी नहीं, महाराणा के राज्य की वित्त व्यवस्था व राजकीय खजाने की व्यवस्था देखते थे| साथ ही वे एक योद्धा भी थे, जिन्होंने मालवा अभियान का सैन्य नेतृत्व कर वहां से धन लुटा और महाराणा को दिया| इस तरह भामाशाह एक योद्धा थे, जिनकी छवि एक व्यापारी की बना दी गई|



इतिहासकार डा.गोपीनाथ शर्मा अपनी पुस्तक "राजस्थान का इतिहास" के पृष्ठ 233-34 पर लिखते है कि- "विपत्ति काल के संबंध में एक जनश्रुति और प्रसिद्ध है| बताया जाता है कि जब महाराणा के पास सम्पत्ति का अभाव हो गया तो उसने देश छोड़कर रेगिस्तानी भाग में जाकर रहने का निर्णय किया, परन्तु उसी समय उसके मंत्री भामाशाह ने अपनी निजी सम्पत्ति लाकर समर्पित कर दी जिससे 25 हजार सेना का 12 वर्ष तक निर्वाह हो सके| इस घटना को लेकर भामाशाह को मेवाड़ का उद्धारक तथा दानवीर कहकर पुकारा जाता है| यह तो सही है कि भामाशाह के पूर्वज तथा स्वयं वे भी मेवाड़ की व्यवस्था का काम करते आये थे, परन्तु यह मानना कि भामाशाह ने निजी सम्पत्ति देकर राणा को सहायता दी थी, ठीक नहीं| भामाशाह राजकीय खजाने को रखता था और युद्ध के दिनों में उसे छिपाकर रखने का रिवाज था| जहाँ द्रव्य रखा जाता था, उसका संकेत मंत्री स्वयं अपनी बही में रखता था| संभव है कि राजकीय द्रव्य भी जो छिपाकर रखा हुआ था, लाकर समय पर भामाशाह ने दिया हो या चूलिया गांव में मालवा से लूटा हुआ धन भामाशाह ने समर्पित किया हो|"

तेजसिंह तरुण अपनी पुस्तक "राजस्थान के सूरमा" के पृष्ठ 99 पर हल्दीघाटी की विफलता के बाद की परिस्थितियों पर प्रकाश डालते हुए लिखते है-"भामाशाह मालवे की सीमा पर स्थित रामपुरा चले गए| अब तक ताराचंद भी यहाँ पहुँच गया था| 1578 ई. में दोनों भाइयों ने मेवाड़ की बिखरी सैनिक शक्ति को एकत्रित कर अकबर के सूबे मालवे पर ऐसा धावा बोला कि पूरे सूबे में खलबली मच गई| मुग़ल सत्ता को भनक भी नहीं लगी और वहां से 25 लाख रूपये अधिक राशी वसूलकर पुन: मेवाड़ आये| इस धन राशी से प्रताप को बहुत बड़ा सहारा मिला और वे पुन: मुगलों से संघर्ष को तैयार हो गए| यही वह धन राशी थी जिससे भामाशा, भामाशाह बने और हिंदी शब्दकोष को एक नया शब्द "भामाशाह" (अर्थात संकट में जो काम आये) दे गये| कई किंवदंतियों को जन्म मिला| कुछेक कलमधर्मियों व इतिहासकारों ने उक्त राशी को भामाशाह की निजी धनराशि मानकर भामाशाह को एक उदारचेता व दानवीर शब्दों से सम्मान दर्शाया, लेकिन वास्तविकता में यह धनराशि मालवा से लूटी हुई धनराशि थी|" 

इस तरह इतिहास पर नजर डालें तो भामाशाह ने जो धन दिया वह राणा का राजकीय धन था, ना कि दान| लेकिन भारत के इतिहास को तोड़ मरोड़कर उसे विकृत करने की मानसिकता रखने वाली गैंग ने यह झूंठ प्रचारित कर दिया कि राणा महज हल्दीघाटी के युद्ध में धनविहीन हो गए थे और भामाशाह ने उन्हें दान दिया| यह बात भी समझने योग्य है कि क्या ये संभव है मेवाड़ जैसी रियासत का खजाना महज एक युद्ध में खाली हो सकता है और उसके एक मंत्री के पास इतना धन हो सकता है कि उस धन से 25 हजार संख्या वाली सेना 12 वर्ष तक अपना निर्वाह कर सके| यह बातें साफ़ जाहिर करती है कि भामाशाह द्वारा राणा को निजी सम्पत्ति दान में देना निहायत झूंठ है, दुष्प्रचार है|

हाँ ! भामाशाह युद्धकाल में खजाने को बचाने में सफल रहे और राष्ट्र्हीत में अपने कर्तव्य का भली प्रकार निर्वाह किया या मालवा सैनिक अभियान के द्वारा धन संग्रह कर राष्ट्र की स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे महाराणा के सहायक बने, इसके लिए भामाशाह निसंदेह सम्मान व प्रसंशा के पात्र है| लेकिन अफ़सोस जो भामाशाह वीर, साहसी, नितिज्ञ, कुशल प्रबंधक, स्वामिभक्त, उदारमना, योग्य प्रशासक, देशभक्त था उसे महज एक नाम दानवीर दे दिया गया जो उसके व्यक्तित्व के साथ अन्याय है| 

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