Monday 12 October 2015

जब मनुष्य का विवेक ही कुंठित हो जाए


"धर्म की मान्यताएं हो या विज्ञान के तर्क, दोनों नें ही यह सिद्ध और स्वीकार किया है की जंतुओं की तरह भी वनस्पति भी जीव हैं , ऐसे में , क्या अपनी भूख मिटाने के लिए किसी भी जीव को आहार बनाना अगर अपराध है तो शाकाहारी और मांसाहारी में अंतर नहीं होना चाहिए ;
प्रकृति ने जीवों को मांसाहारी और शाकाहारी इसलिए बनाया ताकि पर्यावरण का संतुलन और जीव एवं प्रकृति का समन्वय बना रहे ; दोनों में अंतर आहार का नहीं बल्कि भूख का है ; समझाता हूँ कैसे !
शेर माँसाहारी है पर वह मुर्गी पालन नहीं कर सकता और बकरी शाकाहारी है पर वह खेती नहीं कर सकती; अगर ध्यान दिया जाए तो यह जानना मुश्किल नहीं की मनुष्य के अलावा प्रकृति के सभी जीव जंतु अपनी उत्तरजीविता के लिए इस प्रकृति पर आश्रित हैं ;
मनुष्य इस श्रिष्टि की श्रेष्ट योनि इसीलिए है क्योंकि उसके पास निर्णय का अधिकार है और उसके निर्णय से प्रकृति भी बाध्य है। मनुष्य के अलावा किसी भी योनि के पास स्वेक्षा से समाज , राष्ट्र और धर्म के लिए जीवन पर्यन्त प्रयास करने के निर्णय का अधिकार ही नहीं और न ही ऐसे किसी भी कारन से वह अपने मृत्यु को प्राप्त कर सकते हैं ; अतः प्रकृति ने बड़े सहज, सरल और स्वाभाविक तरीके से सभी जीव जंतुओं को श्रिष्टि के लिए उपयोगी एवं पर्यावरण का पूरक बनाया है; सभी की अपनी अपनी विशिष्ट उपयोगिता है पर प्रयोग के निर्णय का अधिकार केवल मनुष्य को मिला है ;
पर जब मनुष्य का विवेक ही कुंठित हो जाए तो उसके निर्णय का आधार स्वभाविकतः गलत होगा जिसके प्रभाव में पर्यावरण का प्रदूषित और प्रकृति का असंतुलित होना स्वाभाविक है ; यही वर्त्तमान की वास्तविकता है;
हम सांपों की भी पूजा करते हैं और चूहों की भी,गरुड़ की भी और हाथी की भी क्योंकि हिन्दू धर्म ने सभी जीव जंतुओं को ईश्वर का प्रारूप माना है ; हिंदुत्व को यह ज्ञान है की ईश्वर ऊर्जा का पर्याय है, फिर प्रारूप का आवरण जो हो ; पर साथ ही हमारे यहाँ पशु बलि प्रथा का भी प्रचलन था ; यह दोनों ही दृष्टिकोण परस्पर विरोधी उनको प्रतीत होगा जो अपने समझ से हिंदुत्व को परिभाषित करते हैं।
जन्म और मृत्यु हिंदुत्व के लिए एक प्रक्रिया मात्र है, महत्व जीवन की उपयोगिता का होता है इसीलिए हिंदुत्व कर्मप्रधान है, फिर सन्दर्भ मनुष्य या मानवीय रिश्तों का ही क्यों न हो ; यही कारन है की एक ब्राह्मण के रूप में दाढीची पूजनीय हैं पर रावण जैसा ब्राह्मण हमारे लिए राक्षसों का पर्याय बना ; हमने कंश को भी देखा है और शैल्य को भी, भरत भी भाई था और दुर्योधन भी; हर सन्दर्भ में महत्व समय की आवश्यकता ने निर्धारित किया है मानवीय आकांक्षाओं ने नहीं; यही हिंदुत्व के लिए धर्म है !
चूँकि मनुष्य के अलावा निर्णय का अधिकार किसी भी जीव के पास नहीं है इसलिए, जब किसी जीव के लिए जीवन का कष्ट मृत्यु से अधिक हो जाता था तो ऐसे बीमार, पीड़ित और लाचार जीवों को जीवन के कष्टों से मुक्ति देने की दृष्टि से भी बलि प्रथा महत्वपूर्ण थी, जहाँ एक झटके में वध होता था, और मृत्यु को तड़प भी नहीं होती थी ; कुर्बानी की औपचारिकता के लिए हिंदुत्व में बलि का कोई स्थान नहीं, क्योंकि इसे धर्म नहीं बल्कि पाखण्ड व् आडम्बर मन जाएगा ; वैसे भी जिस समाज को रक्त के दृश्य से शिकायत हो वहां वीर नहीं जन्म ले सकते इसलिए भी बलि प्रथा महत्वपूर्ण थी,
हम भारतियों की भी पराकाष्ठा जीने की विचित्र आदत है; जब तक सम्राट अशोक ने शांति के लिए बुद्ध धर्म को नहीं अपनाया था भारत कभी गुलाम नहीं हुआ था और बाद में, हम इतने शांति प्रिय हो गए की आत्म रक्षा के लायक भी नहीं रहे,तभी तो सैकड़ों वर्षों की पराधीनता झेलनी पड़ी;
आज जब हम भ्रस्टता की पराकाष्टा जी रहे हैं, हमारे लीये स्वाद की आकांक्षा भूख की आवश्यकता से अधिक हो गई है !.
मेरी व्यक्तिगत राय में जिस भी वस्तु का उत्पाद खाद्य सामग्री के रूप में हो उसे भोजन के रूप में स्वीकार करना अथवा न करना व्यक्तिगत निर्णय का विषय होना चाहिए जिसमे व्यक्तिगत विवेक की भूमिका एहम है ; यहाँ मैं यह स्पष्ट कर दूँ की मैं 'गौ हत्या' और गौ मांश के आहार का समर्थन नहीं करता ; कारन एक जीव के रूप में गाय की उपयोगिता है;
जिस एलपीजी की सब्सिडी आज प्रचार और अभियान का मुद्दा बन गई है गाय अगर दूध भी न दे तो भी उस समस्या का समाधान है ;
आज ब्राज़ील का विश्व में गौ मांश उत्पादन में पहला स्थान है और भारत का दूसरा ; वहीँ दूसरी ओर काफी समय तक अर्जेंटीना दुग्ध उत्पदान में विश्व में अग्रणी रहा है ; हमें किसका अनुसरण करना है यह देश का शीर्षतम नेतृत्व तय करेगा ; कम से कम देश की सामान्य जनता होने के नाते हम बहस का मुद्दा तो सही चुन ही सकते हैं; हमें आकांक्षाओं से ऊपर उठकर आवश्यकताओं को ध्यान का केंद्र बिंदु बनाना होगा और तब भूख स्वाद से अधिक महत्वपूर्ण स्वतः हो जाएगा आपकी क्या राय है ?"

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