बाल गंगाधर तिलक भारत के एक प्रमुख नेता, समाज सुधारक और स्वतन्त्रता सेनानी थे। इन्होने सबसे पहले ब्रिटिश राज के दौरान पूर्ण स्वराज की माँग उठायी। इनका यह कथन कि "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा" बहुत प्रसिद्ध हुआ। सन् 1897 ई. में उन पर पहली बार सरकार ने राजद्रोह का आरोप लगाकर उन्हें जेल भेज दिया जिसके कारण उन्हें लोकमान्य की उपाधि मिली।
तिलक ने प्लेग की बीमारी के दौरान देशवासियों की जो सेवा की, उसे भी नहीं भुलाया जा सकता। जैसे ही पूना में प्लेग के लक्षण प्रकट हुए उन्होंने 'हिन्दू प्लेग अस्पताल' शुरू किया और कई दिनों तक इसके लिए धन जुटाने का कार्य किया। जहाँ पूना के अधिकांश नेता नगर छोड़कर भाग गए थे, तिलक वहीं रहे। उन्होंने 'इंडियन होमरूल लीग' की स्थापना सन् 1914 ई. में की और इसके अध्यक्ष रहे |
इसके बाद उन्होंने दो साप्ताहिक समाचार पत्रों, मराठी में केसरी और अंग्रेज़ी में द मराठा, के माध्यम से लोगों की राजनीतिक चेतना को जगाने का काम शुरू किया। कटु आलोचना के लिए वह विख्यात हो गए। सन् 1884 ई. के उत्तरार्द्ध में उन्होंने स्वयं को क़ानूनी अस्तित्व देने का निश्चय किया और 'डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी', पूना का गठन किया और वे इस सोसाइटी के पहले आजीवन सदस्य बने। सन 1885 ई. में 'डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी' के तत्वावधान में 'फर्ग्युसन कॉलेज' की स्थापना की गई और सभी आजीवन सदस्यों ने इस कॉलेज में 20 वर्ष तक प्रोफेसर के रूप में काम करने की स्वीकृति दी। सोसाइटी की संस्थाऐं शीघ्र ही समृद्ध हो गईं।
सन1896 ई. में 'बंबई प्रेसीडेंसी' को भंयकर अकाल का सामना करना पड़ा। तिलक पूरी तरह राहत-कार्यों में जुट गए। उन्होंने अकाल- संहिता (फैमीन कोड) लागू करने का आग्रह 'बंबई सरकार' से किया। पूना में उन्होंने समय से सस्ते अनाज की दुकानें खोलकर अकाल के कारण होने वाले दंगों को रोका।
अपने ख़ाली समय का उपयोग उन्होंने अपनी प्रिय पुस्तकों भगवद्गीता और ऋग्वेद के पठन-पाठन में लगाया। वेदों के काल-निर्धारण से संबंधित अपने अनुसंधान के परिणामस्वरूप उन्होंने वेदों की प्राचीनता पर एक निबंध लिखा। जो गणित-ज्योतिषीय अवलोकन के प्रमाणों पर आधारित था। उन्होंने इस निबंध का सारांश इंटरनेशनल कांग्रेस ऑफ ओरिएंटलिस्ट के पास भेजा जो सन् 1892 ई. में लंदन में हुई। अगले वर्ष उन्होंने इस पूरे निबंध को पुस्तकाकार में दि ओरिऑन या दि रिसर्च इनटु द एंटिक्विटी ऑफ द वेदाज शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित किया। उन्होंने इस पुस्तक में ओरिऑन की ग्रीक परंपरा और 'लक्षत्रपुंज' के संस्कृत अर्थ 'अग्रायण या अग्रहायण' के बीच संबंध को ढूंढा है। क्योंकि अग्रहायण शब्द का अर्थ वर्ष का प्रारंभ है, वे इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि ऋग्वेद के सभी स्रोत जिनमें इस शब्द का संदर्भ है या इसके साथ जो भी विभिन्न परंपराएँ जुड़ी थीं, की रचना ग्रीक लोगों के हिंदुओं से पृथक होने से पूर्व की गई होगी। यह वह समय रहा होगा, जब वर्ष का प्रारंभ सूर्य के ओरिऑन या मृगशिरा नक्षत्र पुंज में रहते समय अर्थात ईसा से 4000 वर्ष पहले हुआ होगा। इस पुस्तक की प्रशंसा यूरोप और अमेरिकी विद्वानों ने की। अब यह कहा जा सकता है कि तिलक के निष्कर्षों को लगभग सभी ने स्वीकार कर लिया है।
1 अगस्त, सन् 1920 ई. में बंबई में तिलक की मृत्यु हो गई। उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए महात्मा गाँधी ने उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता और नेहरू जी ने भारतीय क्रांति के जनक की उपाधि दी।
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