Saturday, 16 August 2014

भारतवर्ष और कश्मीरका महत्त्व !

वसुंधरापर सौंदर्यताका प्रतीक : कश्मीर, आज आतंकवादी कार्यवाहियोंका अड्डा बन गया है । १९ जनवरी १९९० को संपूर्ण कश्मीरसे हिंदुओंको निकल जानेके आदेश दिए गए थे । धर्म बचानेके लिए कश्मीरी हिंदुओंने अपनी भूमि, संपत्ति और स्मृतियां, सबका परित्याग कर दिया । . चारुदत्त पिंगलेजी द्वारा  मार्गदर्शनके कुछ अंश प्रस्तुत कर रहे हैं ।

 भूमंडलमें सबसे पवित्रतम भूमि अर्थात यह भारतवर्ष है ! अनेक ऋषिमुनि, अवतार एवं विद्वज्जनोंने भारतभूको गौरवशाली बनाया है । विश्वके सबसे सुसंस्कृत वंशके रूपमें सुप्रसिद्ध आर्य संस्कृतिका विकास इस देशमें ही हुआ । ऐसा भारतदेश हमारी सांस है, तो हिंदू संस्कृति हमारी आत्मा !

प्रारूपमें दिखनेवाला भारत, राष्ट्रपुरुषकी देह है । उसका जम्मू-कश्मीर प्रांत प्रत्यक्ष हमारा दिमाग अर्थात बुद्धि है । यदि भारतवर्ष कश्मीरविहीन हो गया, तो भारतकी अवस्था बुद्धिहीन मानव जैसी, अर्थात पशुवत हो जाएगी !

शारदादेश का महत्त्व 

कश्मीर भारतवर्षकी बुद्धि है, इसका आध्यात्मिक कारण मां सरस्वतीका शारदापीठ है ! ब्रह्मदेवने सृष्टिकी रचना की । तत्पश्चात उन्होंने मानवको पृथ्वीपर भेजा । मानवने ब्रह्मदेवसे प्रार्थना की, हे भगवन्, आप विविध देवताओंको, हमारा उत्कर्ष एवं भला हो, इस हेतु पृथ्वीवर भेजें । तदुपरांत (पृथ्वीपर ) विविध स्थानोंपर देवताओंने अपने-अपने स्थान बनाए । इसी क्रमसे ज्ञानकी देवी सरस्वतीने जो स्थान पसंद किया, वह कश्मीर है । अत: कश्मीरका नाम शारदादेश भी है ।
भारतीय संस्कृतिमें हिंदू प्रतिदिन शारदादेवीके श्लोकका पठन करते समय कहते हैं,
नमस्ते शारदे देवी काश्मीरपुरवासिनी ।
त्वामहं प्रार्थयो नित्यं विद्यादानं च देहि मे ?
अर्थ : हे कश्मीरवासिनी सरस्वती देवी, आपको मेरा प्रणाम । आप हमें ज्ञान दें, यह मेरी आपसे नित्य प्रार्थना है ।
वर्तमानमें कश्मीर स्थित यह शारदापीठ पाकिस्तान व्याप्त कश्मीrरमें है, क्या इस श्लोकका पठन करनेवाले यह बात जानते हैं ? प्रार्थनामें श्री शारदादेवीके जिस स्थानका हम निर्देश करते हैं, अब उसका पूरी तरहसे विध्वंस हो चुका है, तथा वहां जानेपर हिंदुओंको पापस्थानसे (पाकिस्तानसे ) प्रतिबंध किया जाता है, यह बडा क्लेशदायी है ।
ध्यान रखें, हम सरस्वतीपुत्र अर्थात ज्ञानके उपासक हैं । अपना शारदापीठ पुन: भारतभूमि ज्ञानकी धरोहर बनाने हेतु हमें अपना कर्तव्य करना है ।

 कश्मीरकी स्थापना करनेवाले कश्यप ऋषि !

कश्यप ऋषिके नामसे इस भूभागको ‘कश्मीर’ नाम प्राप्त हुआ । असुरोंका नाश कर सज्जनोंको अभय देने हेतु कश्यप ऋषिने कश्मीर उत्पन्न किया । भारतके सारे क्षेत्रोंसे सुसंस्कृत तथा सुविद्य लोगोंको वहां बसनेका आमंत्रण देकर महर्षि कश्यपने यह प्रदेश बसाया है ।

कश्मीरभूमि शिवभक्तों हेतु ही है

महाभारतके युद्धमें सारे राजाओंने धर्मयुद्धमें हिस्सा लिया; किंतु कश्मीरके राजा गोकर्णने उसमें हिस्सा नहीं लिया । तब श्रीकृष्णने उस अधर्मीका वध किया तथा उसके स्थानपर उसकी पत्नी यशोमतीका अभिषेक किया । इस प्रकार विश्वमें पहली बार एक महिलाको शासनकर्ता बनाया गया तथा उसका आरंभ भी कश्मीरसे ही हुआ । उसका अभिषेक करते समय स्वयं श्रीकृष्णने बताया कि कश्मीरकी भूमि साक्षात पार्वतीका रूप है । इस भूमिपर केवल शिवतत्त्व प्राप्त करने हेतु प्रयत्नरत रहनेवालोंको ही राज करनेका अधिकार है । जो शिवतत्त्वकी दिशामें अर्थात धर्मकी दिशामें प्रयास नहीं करते, उन्हें इस भूमिपर रहनेका कोई अधिकार नहीं ।
आजके कश्मीरमें अधर्मी अथवा असुर कौन हैं, तथा शिवप्रेमी कौन हैं, सूज्ञ व्यक्तियोंको यह अलगसे बतानेकी आवश्यकता नहीं !

कश्मीरी संस्कृतिकी भारतीयता

कश्मीरका निर्देश हिंदू धर्मके अनेक प्राचीन संस्कृत ग्रंथोंमें दिखता है । ‘शक्ति-संगमतंत्र’ ग्रंथमें कश्मीरकी व्याप्ति आगे दिए अनुसार है ।

शारदामठमारभ्य कुडःकुमाद्रितटान्तकम् ।
तावत्काश्मीरदेशः स्यात् पन्चाशद्योजानात्मकः ?
अर्थ : शारदा मठसे केशरके पर्वततक ५० योजन
(१ योजन ४ कोस) विस्तृत भूभाग कश्मीर देश है ।
  महाभारतमें इसका निर्देश ‘कश्मीरमंडल’ है । (भीष्म. ९.५३)

भगवान श्रीकृष्ण तथा भगवान बुद्ध इन दो महात्माओंने कश्मीरमें रहकर सम्मान प्रदान किया है । युधिष्ठिरके राज्याभिषेकमें कश्मीरका राजा गोनंद उपस्थित था । इससे कश्मीर हिंदू संस्कृतिसे एकरूप है, यह बात आसानीसे समझमें आती है ।

इ.स. पूर्व २७३-२३२ की इस कालावधिमें सम्राट अशोकने श्रीनगरी राजधानीकी स्थापना की । यही श्रीनगर है ! आज जहां श्रीनगर हवाई अड्डा है, उसके बाजूमें सम्राट अशोकका पोता दामोदरका विशाल प्रासाद (भवन) था । कश्मीर स्थित सारे स्थानोंके नाम परिवर्तन किए गए अथवा उनका इस्लामीकरण किया गया; किंतु आज भी श्रीनगरका नाम परिवर्तन नहीं कर सके, यह सत्य ध्यानमें रखें ! जिस कश्मीरकी राजधानी ही श्रीनगर है, वह राज्य अपना हिंदुत्व कैसे छुपा सकता है ?
ख्रिस्त जन्मपूर्व ३००० वर्ष कश्मीरका अस्तित्व था, ऐसा पुरातत्वीय आधार दिया जाता है । उस समय इस्लामका कोई प्रतिनिधि अस्तित्व़में नहीं था; किंतु ओमरका कोई पूर्वज निश्चित ही उस समय कश्मीरमें रहता होगा । यदि उसे पूछा जाए, तो कश्मीर भारतमें कबका विलय हो गया, ऐसा वह बताएगा ।

 धार्मिकदृष्टिसे

१. हिंदू संस्कृतिमें १६ संस्कारोंका विशेष महत्त्व है । जो उपनयन संस्कार करते हैं, वे उसके पश्चात बच्चेको सात कदम उत्तरकी दिशामें, अर्थात कश्मीरकी दिशामें चलने हेतु कहते हैं । इससे हिंदू संस्कारोंकी दृष्टिसे कश्मीरका महत्त्व ध्यानमें आएगा ।
२. हिंदू संस्कृति, मंदिर संस्कृति है । संपूर्ण कश्मीर घाटी एक समय भव्यदिव्य तथा ऐश्वर्यशाली मंदिरों हेतु सुप्रसिद्ध था । इस्लामी कुदृष्टि पडनेसे आज सर्वत्र इन मंदिरोंके भग्नावशेष  ही देखनेको मिलते हैं । कश्मीरके गरूरा गांवमें ‘जियान मातन’ नामका दैवी तालाब था । इस तालाबके किनारे ६०० वर्षपूर्व ७ मंदिर थे । सिकंदर भूशिकन नामके काश्मीरके मुसलमान राजाने उनमेंसे ६ मंदिर गिराए । सातवां मंदिर गिरानेकी सिद्धतामें था कि उस तालाबसे खून बहने लगा । इस घटनासे सिकंदर भूशिकन आश्चर्यचकित हुआ तथा घबराकर वहांसे भाग गया । इस प्रकार उस क्रूरकर्मीके चंगुलसे सातवा मंदिर मुक्त हुआ, जो आज भी विद्यमान है । यह मंदिर आज क्यों खडा है ? कश्मीर हिंदू संस्कृति है, इसकी पहचान बताने हेतु ही !

अध्यात्मिकदृष्टिसे

१. श्रीविष्णु-लक्ष्मी एवं शारदादेवी एकसाथ कभी भी नहीं रहतीं, ऐसा कहा जाता है; किंतु केवल कश्मीरमें ही लक्ष्मी एवं शारदादेवी एकसाथ रहती आई हैं । यहां एक स्थानपर शारदाका तथा दूसरे स्थानपर श्रीलक्ष्मीका स्थान है ।
२. कश्मीरकी नागपूजक संस्कृति : नागपूजन हिंदू धर्मका अविभाज्य अंग है । कश्मीरमें प्राचीन कालसे नागपूजा प्रचलित है । अत: अनेक तालाब तथा झरनोंको नागदेवताओंके नाम प्राप्त हुए हैं । उदा. नीलनाग, अनंतनाग, वासुकीनाग, तक्षकनाग आदि । नाग उसके संरक्षकदेवता थे । अबुल फजलने ऐने अकबरीमें कहा है कि उस क्षेत्रमें लगभग सातसौ स्थानपर नागकी आकृतियां खोदी हुई दिखती हैं । विष्णुने वासुकीनागको सपरिवार यहां रहनेकी आज्ञा दी थी तथा यहां उसे कोई मारेगा नहीं, ऐसा वचन भी दिया था ।
आप मुझे बताइए, क्या अरबस्थानमें नागपूजन होता है ? वहां तो मूर्र्तिपूजा भी नहीं होती, नागकी आकृतियां खोदनेका प्रश्न ही नहीं उठता !

 सांस्कृतिकदृष्टिसे

प्राचीन कालसे कश्मीरमें उच्च संस्कृतिकी देखभाल होती आ रही है । विद्या एवं कलाओंका उत्कर्ष वहां दो सहस्र वर्षोंसे चला आ रहा है ।
१. संस्कृत भाषा हिंदू संस्कृतिका केंद्रबिंदू है । इस देववाणीमें सब धार्मिक विधियोंकी रचना हुई है । ये सारी धार्मिक विधियां कश्मीरसे केरलतक केवल संस्कृत भाषामें ही पठन की जाती हैं । इससे कश्मीरका केवल केरलसे ही नहीं, अपितु सारे भारतवर्षसे भाषिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक संबंध समझमें आएगा ।
२. क्षेमेंद्र, मम्मट, अभिनवगुप्त, रुद्रट, कल्हण जैसे पंडितोंने अनेक विद्वत्तापूर्ण संस्कृत ग्रंथोंकी रचना की । धर्म तथा तत्त्वज्ञानके क्षेत्रोंमें कश्मीरी लोगोंने प्रशंसनीय कार्य किया था । पंचतंत्र, यह सुबोध देनेवाला हिंदू संस्कृतिका ग्रंथ कश्मीरमें लिखा गया, यह बात कितने लोग जानते हैं ?
३. कुछ सहस्र वर्ष कश्मीर संस्कृत भाषा एवं विद्याका सबसे बडा तथा श्रेष्ठ अध्ययन केंद्र था । दसवें शतकतक भारतके सारे क्षेत्रोंसे छात्र अध्ययन हेतु वहां जाते थे । तत्त्वज्ञान, धर्म, वैद्यक, ज्योतिर्शास्त्र, शिल्प, अभियांत्रिकी, चित्रकला, संगीत, नृत्य आदि अनेक विषयोंमें कश्मीर निष्णात था ।
हिंदुओंके सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक ग्रंथोंमें उनका अभिमानपूर्ण निर्देश है; किंतु आज इस गौरवशाली इतिहासको भीषण एव प्रचंड वर्तमानने पोंछ दिया है । हमें यह परिस्थिति परिवर्तन करनी है ।
४. ललितादित्य, अवंतिवर्मा, यशस्कर, हर्ष इन राजाओंने अनेक विद्वानों तथा कलाकारोंको आश्रय देकर संस्कृतिके विकासमें सहयोग लिया । अनेक भव्य सुंदर मंदिर निमार्ण कर शिल्पकलाके स्मारक बनाकर रखे हैं ।
५. ‘प्रत्यभिज्ञादर्शन’ नामक एक नया दर्शन कश्मीरमें ही उत्पन्न हुआ । अत: वह ‘काश्मीरीय’ नामसे प्रसिद्ध हुआ । वसुगुप्त (इ.स. का ८ वा शतक) कश्मीरी महापंडित इस दर्शनके मूल प्रवर्तक हैं ।
६. कश्मीरी क्रियापदमें भारतीय आर्य विशेषताएं स्पष्ट रूपसे समझमें आती हैं । कश्मीरी साहित्यका विकास भी उसकी भारतीय आर्य परंपराका निदर्शक है । यह भाषा अरबी अथवा जंगली उर्दू से उत्पन्न नहीं है, अपितु देववाणी संस्कृतकी कन्या है, यह ध्यानमें रखें !

 नैसर्गिकदृष्टिसे

१. भारतका नंदनवन : कालिदासने कश्मीर अर्थात दूसरा स्वर्ग ही है, ऐसा लिखकर रखा है । पृथ्वीपर कैलास सर्वोत्तम स्थान, कैलासपर हिमालय सर्वोत्तम स्थान तथा हिमालयमें कश्मीर सर्वोत्तम स्थान, इतिहासकार कल्हणने कश्मीरका ऐसा ही वर्णन लिखकर रखा है ।
२. सर वाल्टर लॉरेन्सने कहा है कि एक समय काश्मीरमें इतनी समृद्धि तथा निरामयता थी कि वहांकी स्त्रियां सृजनशीलतामें जैसे भूमिसे स्पर्धा करती थीं । भूमि जैसे सकस धानसंपदा देती है, वहांकी स्त्रियां वैसी ही सुदृढ संततिको जनम देती थीं । किंतु आज क्या हो रहा है ? उसी कश्मीर घाटीमें ३० वर्षकी इन महिलाओंकी माहवारी बंद हो रही है । यह सब दुर्भाग्यपूर्ण है !

स्त्रियोंको राज्यकर्ताका पद देनेकी परंपरा देनेवाला कश्मीर !

दिद्दा, सुगंधा, सूर्यमती जैसी अनेक कर्तव्यनिष्ठ राज्यकर्ता स्त्रियां भी कश्मीरके इतिहासमें प्रसिद्ध हुर्इं । उन्होंने बडी कुशलतासे राजकारोबार किया तथा प्रजाको सुखी रखा ।

 पूरे विश्वमें हिंदू धर्मप्रचारक भेजनेवाला देश !

सम्राट कनिष्कके राजमें विद्वान वसुमित्रकी अध्यक्षतामें एक विशाल धर्मपरिषद आयोजित की गई थी । भारतके कोने-कोनेसे ५०० धर्मपंडित वहां नीतीनियमोंका विचार-विमर्श करने हेतु गए थे । परिषद संपन्न होनेके पश्चात वहींसे युवा धर्मपंडित तिब्बत, चीन एवं मध्य एशिया गए तथा उन्होंने हिंदू दर्शनके सत्यज्ञानका प्रसार किया । चीनमें भारतके अन्य क्षेत्रोंसे जितने धर्मप्रसारक गए, उससे अधिक धर्मप्रसारक केवल कश्मीरसे गए हैं, एक समय उस क्षेत्रमें ऐसा अभिमानसे कहा जाता था ।

 कश्मीरी हिंदुओंका स्वभूमिसे विस्थापन,  धोखेकी घंटी !

एक समय सुंदरताकी धरोहरके रूपमें भारतकी प्रतिष्ठामें सम्मानका सिरपेंच धारण करनेवाला कश्मीर आज आतंकवादियोंकी कार्यवाहियोंका केंद्र बन गया है । कश्मीरका वर्तमान राजनैतिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक जीवन देखें, तो ६५ वर्ष स्वतंत्रताका उपभोग लेनेवाले भारतकी दृष्टिसे कश्मीर एक कलंक ही होगा ।

अतीतकी जो बातें अपने सामने आती रहती हैं, उन्हें सुनकर भी अनसुना करना, समझकर भी नासमझ बनना, तथा देखकर भी अनदेखा करना, इसके जैसा दूसरा भ्रम नहीं होगा । १९ जनवरी १९९० को संपूर्ण कश्मीरसे हिंदू निकल जाएं, स्थान-स्थानपर ऐसा आदेश दिया गया । खुले आम कहा गया, समाचारपत्रोंमें आवेदन दिए गए, और पूरे हिंदू समाजको वहांसे निकल जाना पडा । उनके सामने तीन पर्याय थे । एकतो धर्म बदलें, जिहादमें सम्मिलित हों, अथवा वहांसे चले जाएं । उन हिंदुओंने बहुत बडा त्याग किया । धर्म बचाने हेतु अपनी भूमि, सम्पत्ति, अपनी यादें, बचपन, सारे मृदु (नाजुक) धागे अपने हाथोंसे तोडकर ये लोग दूसरे स्थानपर जाकर रहे ।
हिंदू धर्म जीवित रखनेका दायित्व भाग्यका नहीं !
अनेक कश्मीरी हिंदुओंने मुझे बताया, १९९० में जब यह सब हुआ, उससे पूर्व यदि मुझे कोई बताता कि २० वर्ष पश्चात आपको यह सब छोडकर जाना पडेगा, तो मैं उसका विश्वास कभी भी न करता; किंतु २० वर्ष पश्चात वह वास्तविकता हमारी आंखोंके सामने प्रत्यक्ष उपस्थित थी । यदि हम कुछ न करें, तो कुछ वर्ष पश्चात यह वास्तविकता हमारे सामने उपस्थित होगी, इस विषयमें मेरे मनमें तिलमात्र संदेह नहीं; क्योंकि यह विधिका विधान है । हम यदि केवल अपने लिए जीवन जीकर हिंदू धर्म हेतु कुछ भी नहीं करेंगे, तो हिंदू धर्म जीवित रखनेका दायित्व ईश्वरपर नहीं । ईश्वरका नियम है कि जो अपनी जडें दृढ पकडकर खडा होता है, वही टिक पाता है । जो अपनी जडें दृढतासे पकडकर खडा नहीं होता, उसे अस्तित्वकाकोई अधिकार नहीं । हम उस हेतु क्या प्रयास करनेवाले हैं, यह महत्त्वपूर्ण बात है ।

हिंदू धर्म, धर्मीय तथा राष्ट्रकी रक्षा करनेकी प्रतिज्ञा करें !

अपने सामने आए शत्रु शस्त्रोंसे सज्ज हैं, उनके पास आर्थिक सामर्थ्य है, उनकी तरफ प्रसारमाध्यम हैं, तथा सबकुछ उनके अनुकूल है । अत: कोई छोटा कृत्य कर अल्पसंतुष्ट रहनेका कोई अर्थ नहीं है । हमें सहस्रों हाथोंसे, सहस्रों मुखोंसे कार्य करने हैं, तथा यह कार्य करनेका समय यही है । यदि यह आज नहीं किया, कल करनेका मन किया, तो कुछ उपयोग नहीं होगा, यह अच्छी तरह जान लें ।

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