Saturday 16 August 2014

किसी गाँव में एक बालक रहता था। उसने हाथी, बैलगाड़ी, रेल, मोटर आदि सभी सवारियाँ चढ़ी थीं। ऊँट के विषय में उसने सुना था, चढ़ा नहीं था। उसकी इच्छा सदैव ऊँटकी सवारी करने को हुआ करती थी।
एक बार वह घर को लौट रहा था। रास्ते में एक व्यापारी अपने ऊँट को बिठाकर नदी में स्नान करने चला गया था। ऊँट को विश्राम देने के लिए उसने काँठी और नकेल दोनों खोल दी थीं। ऊँट देखते ही बालक प्रसन्नता से नाचने लगा। वर्षों की अधूरी साध पूरी करने का इससे सुंदर अवसर कहाँ मिलताॽ छलाँग लगाई और ऊँट की पीठ पर जाबैठा। अपने स्वभाव के अनुसार ऊँट एकाएक उठा और रास्ते–कुरास्ते भाग चला। लड़का घबराया, पर अब क्या हो सकता थाॽ नकेल थी नहीं, ऊँट को काबू कैसे करताॽ जिधर जी आया, ऊँट उधर ही भागता रहा। बालक की घबराहट भी उतनी बढ़ती गई।
मार्ग में दो पथिक जा रहे थे, बालक की घबराहट देखकर उनने पूछा–– बालक कहाँ जाओगेॽ लड़के ने सिसकते हुए जवाब दिया–– भाई जाना तो घर था किंतु अब तो जहाँ ऊँट ले जाए वहीं जाना है। इसी बीच वह एक पेड़ की डाली से टकराया और लहूलुहान होकर भूमि पर जा गिरा।
बालक की कहानी पढ़कर लोग मन ही मन उसकी मूर्खता पर हँसेंगे, पर आज संसार की स्थिति भी ठीक उस बालक जैसी ही है। मन के ऊँट पर चढ़कर उसे बेलगाम छोड़ देने का ही परिणाम है कि आज सर्वत्र अपराध, स्वेच्छाचारिता, कलह और कुटिलता के दर्शन हो रहे हैं। मन के नियंत्रण में न होने के कारण ही लोग पारलौकिक जीवन की यथार्थता, आवश्यकता और उपयोगिता को भूलकर लौकिक सुख–स्वार्थ की पूर्ति में संलग्न हो गए हैं कि उन्हें भले–बुरे, उचित–अनुचित का भी ध्यान नहीं रहा।

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