Friday, 15 August 2014

WTO का दरवाजा बंद कर ठीक किया 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिल्कुल ठीक कह रहे हैं। पिछले दिसंबर में बाली में हुए विश्व व्यापार संगठन की मंत्रीस्तरीय बैठक में भारत ने जिस समझौते पर हस्ताक्षर किया था, वह वाकई में देश के 60 करोड़ किसानों के भविष्य के साथ खिलवाड़ था। तत्कालीन वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा बखूबी जानते थे कि दांव पर क्या लगा है। आज भले वह नरेंद्र मोदी के बयान को ′तथ्यहीन और झूठा′ बताएं, पर सच्चाई यही है कि उन्होंने जान-बूझकर गरीब किसानों के हितों को गिरवी रख दिया था। वह जिस अंतरिम प्रावधान पर सहमत हुए थे, उसमें भारत चार वर्ष यानी दिसंबर, 2017 तक ही न्यूनतम समर्थन मूल्य के जरिये अपने किसानों का संरक्षण कर सकता था। इसका संदेश साफ था। भारत चाहता था कि बाली बैठक सफल हो, भले ही किसानों की आजीविका खत्म हो जाए।

आनंद शर्मा जानते थे कि कई अमेरिकी कृषि कंपनियों ने अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि माइकल फ्रोमैन और कृषि मंत्री थॉमस विल्सॉक को पत्र लिखकर समर्थन मूल्य के साथ खाद्य सुरक्षा को जोड़ने पर आपत्ति जताई थी। अपने घरेलू खाद्य सहायता कार्यक्रमों को सही मानने वाली कृषि उत्पादों से जुड़ी इन 30 अमेरिकी निर्यातक कंपनियों के समूहों ने उस ′समर्थन मूल्य′ योजना पर सवाल उठाया था, जो गरीबों का पेट भरने के बजाय कृषि आय और खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने में ही मददगार साबित होती है। इस निर्यातक समूह ने, जिसे खुद तो हर वर्ष अमेरिकी सरकार से भारी सहायता मिलती है, मौजूदा मसौदे में रियायत देने संबंधी किसी भी तरह के बदलाव की जरूरत पर सवाल किया था, चाहे वह अस्थायी रूप से ही क्यों न हो। तर्क यह था कि ऐसी छूट का नतीजा अत्यधिक सब्सिडी के रूप में आएगा, जिससे अमेरिकी व्यापारिक हित प्रभावित होंगे।

बाली बैठक के बाद अमेरिका और पाकिस्तान उन देशों में शामिल थे, जिन्होंने भारत के गेहूं और चावल निर्यात पर यह कहकर सवाल उठाए कि किसानों को अधिक समर्थन मूल्य देने के कारण इन उत्पादों पर सब्सिडी काफी ज्यादा है। भारत में किसानों को दी जा रही सरकारी मदद का स्थायी हल ढूंढने में बाली बैठक विफल रही। अगर बाली में ही भारत मजबूती से अपना पक्ष रखता और कठोर फैसला लेता, तो यह संकट नहीं पनपता।

किसानों की निश्चित आय और खाद्यान्न के भंडारण की स्थायी गारंटी के बिना 31 जुलाई की समयसीमा तक व्यापार सुगमता समझौता (टीएफए) के संशोधन को स्वीकार करने से इन्कार कर भारत ने सत्ता समीकरण में हुए बदलाव का भी संकेत दिया है। खाद्य सुरक्षा संबंधी अपनी चिंताओं और 60 करोड़ किसानों की आजीविका सुरक्षित रखने के मुद्दे पर भारत के निर्णायक रुख से व्यापार कूटनीति में नए युग के सूत्रपात की उम्मीद बंधती है।

अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी के अंतिम मिनट तक किए गए प्रयासों के बावजूद नरेंद्र मोदी जिस तरह अपने रुख पर अड़े रहे, उससे आशा की किरण जगी है। यह पहला मौका है, जब कोई भारतीय प्रधानमंत्री अपने वार्ताकारों की टीम के पीछे चट्टान की तरह खड़ा रहा। विगत बीस वर्षों की व्यापार वार्ताओं में यह एक बड़ा बदलाव है। इस दौरान हमने देखा कि किस तरह एक के बाद एक वाणिज्य मंत्री पहले सही आवाज उठाकर वैश्विक मीडिया में जगह पाते थे, पर निर्णायक अवसर पर वही करते थे, जो तय होता था।

अगर बाली बैठक में तत्कालीन वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा उस ′शांति प्रावधान′ को मानने से इन्कार कर देते, जिसके तहत चार वर्ष तक ही न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की बात थी, और अब जिसके उल्लंघन का आरोप लगाया जा रहा है, तो पूरा वैश्विक व्यापारिक परिदृश्य बदल गया होता। भारत को ऐसे स्थायी समाधान की जरूरत है, जो उसकी संप्रभुता सुनिश्चित करने के साथ ही लाखों भूखे लोगों तक खाद्यान्न पहुंचाने में उसकी विशाल भूमिका निश्चित करे। हम यह समझने में विफल रहे कि सभी विकसित देशों में खाद्य सुरक्षा को व्यापार समझौते पर तरजीह दी जाती है। खुद अमेरिका ने करीब तीस अवसरों पर व्यापार समझौतों को रोका है। पर अपने यहां कहा जा रहा है कि विश्व व्यापार संगठन के खिलाफ भारत का कड़ा रुख उसे दुनिया में अलग-थलग कर देगा। इन अर्थशास्त्रियों ने कहा कि हमारी सरकार ने राई का पहाड़ बना दिया।

पर अगर साठ करोड़ किसानों की आजीविका की सुरक्षा से, जो आबादी में अमेरिका से लगभग दोगुने हैं, समझौता करना राई के बराबर है, तो इसे आंकड़ों के साथ छेड़छाड़ ही कहेंगे। अमेरिका और यूरोपीय संघ में किसानों को मिलने वाली भारी सब्सिडी की अनदेखी कर कुछ आलोचकों ने यह कहा कि भारतीय किसान दुनिया में सबसे धनी हैं। ये लोग यह नहीं देखते कि भारत में खेती किस तरह घाटे का सौदा हो गई है, और पिछले डेढ़ दशकों में करीब तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। विश्व व्यापार संगठन चाहता था कि भारत में किसानों को जो न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जा रहा है, वह या तो खत्म हो अथवा उत्पादन मूल्य का महज 10 प्रतिशत हो। उस पर सहमत होने का अर्थ है किसानों को सड़कों पर लाना।

भारत ने दरवाजा बंद कर ठीक किया है, हालांकि उसने बातचीत की खिड़की खोल रखी है। आगामी सितंबर में जब फिर विश्व व्यापार संगठन के सदस्य बैठेंगे, तो भारत की व्यापार नीति की असली झलक दिखेगी। वस्तुतः अब विकासशील और कम विकासशील देशों के लिए ′फूड सिक्योरिटी बॉक्स′ की जरूरत है। अभी तक हमने ग्रीन बॉक्स, एंबर बॉक्स और ब्लू बॉक्स जैसे शब्द सुने हैं, जो विकसित देशों में कृषि सब्सिडी को सुरक्षा देते हैं। फूड सिक्योरिटी बॉक्स ऐसा हो, जिससे भूखी आबादी तक भोजन तो पहुंचे ही, छोटे किसानों को बाजार की तानाशाही के खिलाफ सुरक्षा भी मिले। खाद्य सुरक्षा संबंधी अपनी चिंताओं और साठ करोड़ किसानों की आजीविका सुरक्षित रखने के मुद्दे पर डब्ल्यूटीओ में भारत के निर्णायक रुख से व्यापार कूटनीति में एक नए युग के सूत्रपात की उम्मीद बंधती है।

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