Saturday, 2 August 2014

सोनिया गाँधी को आप कितना जानते हैं? ............
भाग १
जब इंटरनेट और ब्लॉग की दुनिया में आया तो सोनिया गाँधी के बारे में काफ़ी कुछ पढने को मिला । पहले तो मैंने भी इस पर विश्वास नहीं किया और इसे मात्र बकवास सोच कर खारिज कर दिया, लेकिन एक-दो नहीं कई साईटों पर कई लेखकों ने सोनिया के बारे में काफ़ी कुछ लिखा है जो कि अभी तक प्रिंट मीडिया में नहीं आया है (और भारत में इंटरनेट कितने और किस प्रकार के लोग उपयोग करते हैं, यह बताने की आवश्यकता नहीं है) । यह तमाम सामग्री हिन्दी में और विशेषकर "यूनिकोड" में भी पाठकों को सुलभ होनी चाहिये, यही सोचकर मैंने "नेहरू-गाँधी राजवंश" नामक पोस्ट लिखी थी जिस पर मुझे मिलीजुली प्रतिक्रिया मिली, कुछ ने इसकी तारीफ़ की, कुछ तटस्थ बने रहे और कुछ ने व्यक्तिगत मेल भेजकर गालियाँ भी दीं (मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्नाः) । यह तो स्वाभाविक ही था, लेकिन सबसे आश्चर्यजनक बात यह रही कि कुछ विद्वानों ने मेरे लिखने को ही चुनौती दे डाली और अंग्रेजी से हिन्दी या मराठी से हिन्दी के अनुवाद को एक गैर-लेखकीय कर्म और "नॉन-क्रियेटिव" करार दिया । बहरहाल, कम से कम मैं तो अनुवाद को रचनात्मक कार्य मानता हूँ, और देश की एक प्रमुख हस्ती के बारे में लिखे हुए का हिन्दी पाठकों के लिये अनुवाद पेश करना एक कर्तव्य मानता हूँ (कम से कम मैं इतना तो ईमानदार हूँ ही, कि जहाँ से अनुवाद करूँ उसका उल्लेख, नाम उपलब्ध हो तो नाम और लिंक उपलब्ध हो तो लिंक देता हूँ) ।
पेश है "आप सोनिया गाँधी को कितना जानते हैं" की पहली कडी़, अंग्रेजी में इसके मूल लेखक हैं एस.गुरुमूर्ति और यह लेख दिनांक १७ अप्रैल २००४ को "द न्यू इंडियन एक्सप्रेस" में - अनमास्किंग सोनिया गाँधी- शीर्षक से प्रकाशित हुआ था ।
"अब भूमिका बाँधने की आवश्यकता नहीं है और समय भी नहीं है, हमें सीधे मुख्य मुद्दे पर आ जाना चाहिये । भारत की खुफ़िया एजेंसी "रॉ", जिसका गठन सन १९६८ में हुआ, ने विभिन्न देशों की गुप्तचर एजेंसियों जैसे अमेरिका की सीआईए, रूस की केजीबी, इसराईल की मोस्साद और फ़्रांस तथा जर्मनी में अपने पेशेगत संपर्क बढाये और एक नेटवर्क खडा़ किया । इन खुफ़िया एजेंसियों के अपने-अपने सूत्र थे और वे आतंकवाद, घुसपैठ और चीन के खतरे के बारे में सूचनायें आदान-प्रदान करने में सक्षम थीं । लेकिन "रॉ" ने इटली की खुफ़िया एजेंसियों से इस प्रकार का कोई सहयोग या गठजोड़ नहीं किया था, क्योंकि "रॉ" के वरिष्ठ जासूसों का मानना था कि इटालियन खुफ़िया एजेंसियाँ भरोसे के काबिल नहीं हैं और उनकी सूचनायें देने की क्षमता पर भी उन्हें संदेह था ।
सक्रिय राजनीति में राजीव गाँधी का प्रवेश हुआ १९८० में संजय की मौत के बाद । "रॉ" की नियमित "ब्रीफ़िंग" में राजीव गाँधी भी भाग लेने लगे थे ("ब्रीफ़िंग" कहते हैं उस संक्षिप्त बैठक को जिसमें रॉ या सीबीआई या पुलिस या कोई और सरकारी संस्था प्रधानमन्त्री या गृहमंत्री को अपनी रिपोर्ट देती है), जबकि राजीव गाँधी सरकार में किसी पद पर नहीं थे, तब वे सिर्फ़ काँग्रेस महासचिव थे । राजीव गाँधी चाहते थे कि अरुण नेहरू और अरुण सिंह भी रॉ की इन बैठकों में शामिल हों । रॉ के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों ने दबी जुबान में इस बात का विरोध किया था चूँकि राजीव गाँधी किसी अधिकृत पद पर नहीं थे, लेकिन इंदिरा गाँधी ने रॉ से उन्हें इसकी अनुमति देने को कह दिया था, फ़िर भी रॉ ने इंदिरा जी को स्पष्ट कर दिया था कि इन लोगों के नाम इस ब्रीफ़िंग के रिकॉर्ड में नहीं आएंगे । उन बैठकों के दौरान राजीव गाँधी सतत रॉ पर दबाव डालते रहते कि वे इटालियन खुफ़िया एजेंसियों से भी गठजोड़ करें, राजीव गाँधी ऐसा क्यों चाहते थे ? या क्या वे इतने अनुभवी थे कि उन्हें इटालियन एजेंसियों के महत्व का पता भी चल गया था ? ऐसा कुछ नहीं था, इसके पीछे एकमात्र कारण थी सोनिया गाँधी । राजीव गाँधी ने सोनिया से सन १९६८ में विवाह किया था, और हालांकि रॉ मानती थी कि इटली की एजेंसी से गठजोड़ सिवाय पैसे और समय की बर्बादी के अलावा कुछ नहीं है, राजीव लगातार दबाव बनाये रहे । अन्ततः दस वर्षों से भी अधिक समय के पश्चात रॉ ने इटली की खुफ़िया संस्था से गठजोड़ कर लिया । क्या आप जानते हैं कि रॉ और इटली के जासूसों की पहली आधिकारिक मीटिंग की व्यवस्था किसने की ? जी हाँ, सोनिया गाँधी ने । सीधी सी बात यह है कि वह इटली के जासूसों के निरन्तर सम्पर्क में थीं । एक मासूम गृहिणी, जो राजनैतिक और प्रशासनिक मामलों से अलिप्त हो और उसके इटालियन खुफ़िया एजेन्सियों के गहरे सम्बन्ध हों यह सोचने वाली बात है, वह भी तब जबकि उन्होंने भारत की नागरिकता नहीं ली थी (वह उन्होंने बहुत बाद में ली) । प्रधानमंत्री के घर में रहते हुए, जबकि राजीव खुद सरकार में नहीं थे । हो सकता है कि रॉ इसी कारण से इटली की खुफ़िया एजेंसी से गठजोड़ करने मे कतरा रहा हो, क्योंकि ऐसे किसी भी सहयोग के बाद उन जासूसों की पहुँच सिर्फ़ रॉ तक न रहकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक हो सकती थी ।
जब पंजाब में आतंकवाद चरम पर था तब सुरक्षा अधिकारियों ने इंदिरा गाँधी को बुलेटप्रूफ़ कार में चलने की सलाह दी, इंदिरा गाँधी ने अम्बेसेडर कारों को बुलेटप्रूफ़ बनवाने के लिये कहा, उस वक्त भारत में बुलेटप्रूफ़ कारें नहीं बनती थीं इसलिये एक जर्मन कम्पनी को कारों को बुलेटप्रूफ़ बनाने का ठेका दिया गया । जानना चाहते हैं उस ठेके का बिचौलिया कौन था, वाल्टर विंसी, सोनिया गाँधी की बहन अनुष्का का पति ! रॉ को हमेशा यह शक था कि उसे इसमें कमीशन मिला था, लेकिन कमीशन से भी गंभीर बात यह थी कि इतना महत्वपूर्ण सुरक्षा सम्बन्धी कार्य उसके मार्फ़त दिया गया । इटली का प्रभाव सोनिया दिल्ली तक लाने में कामयाब रही थीं, जबकि इंदिरा गाँधी जीवित थीं । दो साल बाद १९८६ में ये वही वाल्टर विंसी महाशय थे जिन्हें एसपीजी को इटालियन सुरक्षा एजेंसियों द्वारा प्रशिक्षण दिये जाने का ठेका मिला, और आश्चर्य की बात यह कि इस सौदे के लिये उन्होंने नगद भुगतान की मांग की और वह सरकारी तौर पर किया भी गया । यह नगद भुगतान पहले एक रॉ अधिकारी के हाथों जिनेवा (स्विटजरलैण्ड) पहुँचाया गया लेकिन वाल्टर विंसी ने जिनेवा में पैसा लेने से मना कर दिया और रॉ के अधिकारी से कहा कि वह ये पैसा मिलान (इटली) में चाहता है, विंसी ने उस अधिकारी को कहा कि वह स्विस और इटली के कस्टम से उन्हें आराम से निकलवा देगा और यह "कैश" चेक नहीं किया जायेगा । रॉ के उस अधिकारी ने उसकी बात नहीं मानी और अंततः वह भुगतान इटली में भारतीय दूतावास के जरिये किया गया । इस नगद भुगतान के बारे में तत्कालीन कैबिनेट सचिव बी.जी.देशमुख ने अपनी हालिया किताब में उल्लेख किया है, हालांकि वह तथाकथित ट्रेनिंग घोर असफ़ल रही और सारा पैसा लगभग व्यर्थ चला गया । इटली के जो सुरक्षा अधिकारी भारतीय एसपीजी कमांडो को प्रशिक्षण देने आये थे उनका रवैया जवानों के प्रति बेहद रूखा था, एक जवान को तो उस दौरान थप्पड़ भी मारा गया । रॉ अधिकारियों ने यह बात राजीव गाँधी को बताई और कहा कि इस व्यवहार से सुरक्षा बलों के मनोबल पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है और उनकी खुद की सुरक्षा व्यवस्था भी ऐसे में खतरे में पड़ सकती है, घबराये हुए राजीव ने तत्काल वह ट्रेनिंग रुकवा दी,लेकिन वह ट्रेनिंग का ठेका लेने वाले विंसी को तब तक भुगतान किया जा चुका था ।
राजीव गाँधी की हत्या के बाद तो सोनिया गाँधी पूरी तरह से इटालियन और पश्चिमी सुरक्षा अधिकारियों पर भरोसा करने लगीं, खासकर उस वक्त जब राहुल और प्रियंका यूरोप घूमने जाते थे । सन १९८५ में जब राजीव सपरिवार फ़्रांस गये थे तब रॉ का एक अधिकारी जो फ़्रेंच बोलना जानता था, उनके साथ भेजा गया था, ताकि फ़्रेंच सुरक्षा अधिकारियों से तालमेल बनाया जा सके । लियोन (फ़्रांस) में उस वक्त एसपीजी अधिकारियों में हड़कम्प मच गया जब पता चला कि राहुल और प्रियंका गुम हो गये हैं । भारतीय सुरक्षा अधिकारियों को विंसी ने बताया कि चिंता की कोई बात नहीं है, दोनों बच्चे जोस वाल्डेमारो के साथ हैं जो कि सोनिया की एक और बहन नादिया के पति हैं । विंसी ने उन्हें यह भी कहा कि वे वाल्डेमारो के साथ स्पेन चले जायेंगे जहाँ स्पेनिश अधिकारी उनकी सुरक्षा संभाल लेंगे । भारतीय सुरक्षा अधिकारी यह जानकर अचंभित रह गये कि न केवल स्पेनिश बल्कि इटालियन सुरक्षा अधिकारी उनके स्पेन जाने के कार्यक्रम के बारे में जानते थे । जाहिर है कि एक तो सोनिया गाँधी तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के अहसानों के तले दबना नहीं चाहती थीं, और वे भारतीय सुरक्षा एजेंसियों पर विश्वास नहीं करती थीं । इसका एक और सबूत इससे भी मिलता है कि एक बार सन १९८६ में जिनेवा स्थित रॉ के अधिकारी को वहाँ के पुलिस कमिश्नर जैक कुन्जी़ ने बताया कि जिनेवा से दो वीआईपी बच्चे इटली सुरक्षित पहुँच चुके हैं, खिसियाये हुए रॉ अधिकारी को तो इस बारे में कुछ मालूम ही नहीं था । जिनेवा का पुलिस कमिश्नर उस रॉ अधिकारी का मित्र था, लेकिन यह अलग से बताने की जरूरत नहीं थी कि वे वीआईपी बच्चे कौन थे । वे कार से वाल्टर विंसी के साथ जिनेवा आये थे और स्विस पुलिस तथा इटालियन अधिकारी निरन्तर सम्पर्क में थे जबकि रॉ अधिकारी को सिरे से कोई सूचना ही नहीं थी, है ना हास्यास्पद लेकिन चिंताजनक... उस स्विस पुलिस कमिश्नर ने ताना मारते हुए कहा कि "तुम्हारे प्रधानमंत्री की पत्नी तुम पर विश्वास नहीं करती और उनके बच्चों की सुरक्षा के लिये इटालियन एजेंसी से सहयोग करती है" । बुरी तरह से अपमानित रॉ के अधिकारी ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों से इसकी शिकायत की, लेकिन कुछ नहीं हुआ । अंतरराष्ट्रीय खुफ़िया एजेंसियों के गुट में तेजी से यह बात फ़ैल गई थी कि सोनिया गाँधी भारतीय अधिकारियों, भारतीय सुरक्षा और भारतीय दूतावासों पर बिलकुल भरोसा नहीं करती हैं, और यह निश्चित ही भारत की छवि खराब करने वाली बात थी । राजीव की हत्या के बाद तो उनके विदेश प्रवास के बारे में विदेशी सुरक्षा एजेंसियाँ, एसपीजी से अधिक सूचनायें पा जाती थी और भारतीय पुलिस और रॉ उनका मुँह देखते रहते थे । (ओट्टावियो क्वात्रोची के बार-बार मक्खन की तरह हाथ से फ़िसल जाने का कारण समझ में आया ?) उनके निजी सचिव विंसेंट जॉर्ज सीधे पश्चिमी सुरक्षा अधिकारियों के सम्पर्क में रहते थे, रॉ अधिकारियों ने इसकी शिकायत नरसिम्हा राव से की थी, लेकिन जैसी की उनकी आदत (?) थी वे मौन साध कर बैठ गये ।
संक्षेप में तात्पर्य यह कि, जब एक गृहिणी होते हुए भी वे गंभीर सुरक्षा मामलों में अपने परिवार वालों को ठेका दिलवा सकती हैं, राजीव गाँधी और इंदिरा गाँधी के जीवित रहते रॉ को इटालियन जासूसों से सहयोग करने को कह सकती हैं, सत्ता में ना रहते हुए भी भारतीय सुरक्षा अधिकारियों पर अविश्वास दिखा सकती हैं, तो अब जबकि सारी सत्ता और ताकत उनके हाथों मे है, वे क्या-क्या कर सकती हैं, बल्कि क्या नहीं कर सकती । हालांकि "मैं भारत की बहू हूँ" और "मेरे खून की अंतिम बूँद भी भारत के काम आयेगी" आदि वे यदा-कदा बोलती रहती हैं, लेकिन यह असली सोनिया नहीं है । समूचा पश्चिमी जगत, जो कि जरूरी नहीं कि भारत का मित्र ही हो, उनके बारे में सब कुछ जानता है, लेकिन हम भारतीय लोग सोनिया के बारे में कितना जानते हैं ? (भारत भूमि पर जन्म लेने वाला व्यक्ति चाहे कितने ही वर्ष विदेश में रह ले, स्थाई तौर पर बस जाये लेकिन उसका दिल हमेशा भारत के लिये धड़कता है, और इटली में जन्म लेने वाले व्यक्ति का....)
(यदि आपको यह अनुवाद पसन्द आया हो तो कृपया अपने मित्रों को भी इस पोस्ट की लिंक प्रेषित करें, ताकि जनता को जागरूक बनाने का यह प्रयास जारी रहे)... समय मिलते ही इसकी अगली कडी़ शीघ्र ही पेश की जायेगी.... आमीन
नोट : सिर्फ़ कोष्ठक में लिखे दो-चार वाक्य मेरे हैं, बाकी का लेख अनुवाद मात्र है ।
(2) सोनिया गाँधी भारत की प्रधानमंत्री बनने के योग्य हैं या नहीं, इस प्रश्न का "धर्मनिरपेक्षता", या "हिन्दू राष्ट्रवाद" या "भारत की बहुलवादी संस्कृति" से कोई लेना-देना नहीं है। इसका पूरी तरह से नाता इस बात से है कि उनका जन्म इटली में हुआ, लेकिन यही एक बात नहीं है, सबसे पहली बात तो यह कि देश के सबसे महत्वपूर्ण पद पर आसीन कराने के लिये कैसे उन पर भरोसा किया जाये। सन १९९८ में एक रैली में उन्होंने कहा था कि "अपनी आखिरी साँस तक मैं भारतीय हूँ", बहुत ही उच्च विचार है, लेकिन तथ्यों के आधार पर यह बेहद खोखला ठहरता है। अब चूँकि वे देश के एक खास परिवार से हैं और प्रधानमंत्री पद के लिये बेहद आतुर हैं (जी हाँ) तब वे एक सामाजिक व्यक्तित्व बन जाती हैं और उनके बारे में जानने का हक सभी को है (१४ मई २००४ तक वे प्रधानमंत्री बनने के लिये जी-तोड़ कोशिश करती रहीं, यहाँ तक कि एक बार तो पूर्ण समर्थन ना होने के बावजूद वे दावा पेश करने चल पडी़ थीं, लेकिन १४ मई २००४ को राष्ट्रपति कलाम साहब द्वारा कुछ "असुविधाजनक" प्रश्न पूछ लिये जाने के बाद यकायक १७ मई आते-आते उनमे वैराग्य भावना जागृत हो गई और वे खामख्वाह "त्याग" और "बलिदान" (?) की प्रतिमूर्ति बना दी गईं - कलाम साहब को दूसरा कार्यकाल न मिलने के पीछे यह एक बडी़ वजह है, ठीक वैसे ही जैसे सोनिया ने प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति इसलिये नहीं बनवाया, क्योंकि इंदिरा गाँधी की मृत्यु के बाद राजीव के प्रधानमंत्री बनने का उन्होंने विरोध किया था... और अब एक तरफ़ कठपुतली प्रधानमंत्री और जी-हुजूर राष्ट्रपति दूसरी तरफ़ होने के बाद अगले चुनावों के पश्चात सोनिया को प्रधानमंत्री बनने से कौन रोक सकता है?)बहरहाल... सोनिया गाँधी उर्फ़ माइनो भले ही आखिरी साँस तक भारतीय होने का दावा करती रहें, भारत की भोली-भाली (?) जनता को इन्दिरा स्टाइल में,सिर पर पल्ला ओढ़ कर "नामास्खार" आदि दो चार हिन्दी शब्द बोल लें, लेकिन यह सच्चाई है कि सन १९८४ तक उन्होंने इटली की नागरिकता और पासपोर्ट नहीं छोडा़ था (शायद कभी जरूरत पड़ जाये) । राजीव और सोनिया का विवाह हुआ था सन १९६८ में,भारत के नागरिकता कानूनों के मुताबिक (जो कानून भाजपा या कम्युनिस्टों ने नहीं बल्कि कांग्रेसियों ने ही सन १९५० में बनाये) सोनिया को पाँच वर्ष के भीतर भारत की नागरिकता ग्रहण कर लेना चाहिये था अर्थात सन १९७४ तक, लेकिन यह काम उन्होंने किया दस साल बाद...यह कोई नजरअंदाज कर दिये जाने वाली बात नहीं है। इन पन्द्रह वर्षों में दो मौके ऐसे आये जब सोनिया अपने आप को भारतीय(!)साबित कर सकती थीं। पहला मौका आया था सन १९७१ में जब पाकिस्तान से युद्ध हुआ (बांग्लादेश को तभी मुक्त करवाया गया था), उस वक्त आपातकालीन आदेशों के तहत इंडियन एयरलाइंस के सभी पायलटों की छुट्टियाँ रद्द कर दी गईं थीं, ताकि आवश्यकता पड़ने पर सेना को किसी भी तरह की रसद आदि पहुँचाई जा सके । सिर्फ़ एक पायलट को इससे छूट दी गई थी, जी हाँ राजीव गाँधी, जो उस वक्त भी एक पूर्णकालिक पायलट थे । जब सारे भारतीय पायलट अपनी मातृभूमि की सेवा में लगे थे तब सोनिया अपने पति और दोनों बच्चों के साथ इटली की सुरम्य वादियों में थीं, वे वहाँ से तभी लौटीं, जब जनरल नियाजी ने समर्पण के कागजों पर दस्तखत कर दिये। दूसरा मौका आया सन १९७७ में जब यह खबर आई कि इंदिरा गाँधी चुनाव हार गईं हैं और शायद जनता पार्टी सरकार उनको गिरफ़्तार करे और उन्हें परेशान करे। "माईनो" मैडम ने तत्काल अपना सामान बाँधा और अपने दोनों बच्चों सहित दिल्ली के चाणक्यपुरी स्थित इटालियन दूतावास में जा छिपीं। इंदिरा गाँधी, संजय गाँधी और एक और बहू मेनका के संयुक्त प्रयासों और मान-मनौव्वल के बाद वे घर वापस लौटीं। १९८४ में भी भारतीय नागरिकता ग्रहण करना उनकी मजबूरी इसलिये थी कि राजीव गाँधी के लिये यह बडी़ शर्म और असुविधा की स्थिति होती कि एक भारतीय प्रधानमंत्री की पत्नी इटली की नागरिक है ? भारत की नागरिकता लेने की दिनांक भारतीय जनता से बडी़ ही सफ़ाई से छिपाई गई। भारत का कानून अमेरिका, जर्मनी, फ़िनलैंड, थाईलैंड या सिंगापुर आदि देशों जैसा नहीं है जिसमें वहाँ पैदा हुआ व्यक्ति ही उच्च पदों पर बैठ सकता है। भारत के संविधान में यह प्रावधान इसलिये नहीं है कि इसे बनाने वाले "धर्मनिरपेक्ष नेताओं" ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि आजादी के साठ वर्ष के भीतर ही कोई विदेशी मूल का व्यक्ति प्रधानमंत्री पद का दावेदार बन जायेगा। लेकिन कलाम साहब ने आसानी से धोखा नहीं खाया और उनसे सवाल कर लिये (प्रतिभा ताई कितने सवाल कर पाती हैं यह देखना बाकी है)। संविधान के मुताबिक सोनिया प्रधानमंत्री पद की दावेदार बन सकती हैं, जैसे कि मैं या कोई और। लेकिन भारत के नागरिकता कानून के मुताबिक व्यक्ति तीन तरीकों से भारत का नागरिक हो सकता है, पहला जन्म से, दूसरा रजिस्ट्रेशन से, और तीसरा प्राकृतिक कारणों (भारतीय से विवाह के बाद पाँच वर्ष तक लगातार भारत में रहने पर) । इस प्रकार मैं और सोनिया गाँधी,दोनों भारतीय नागरिक हैं, लेकिन मैं जन्म से भारत का नागरिक हूँ और मुझसे यह कोई नहीं छीन सकता, जबकि सोनिया के मामले में उनका रजिस्ट्रेशन रद्द किया जा सकता है। वे भले ही लाख दावा करें कि वे भारतीय बहू हैं, लेकिन उनका नागरिकता रजिस्ट्रेशन भारत के नागरिकता कानून की धारा १० के तहत तीन उपधाराओं के कारण रद्द किया जा सकता है (अ) उन्होंने नागरिकता का रजिस्ट्रेशन धोखाधडी़ या कोई तथ्य छुपाकर हासिल किया हो, (ब) वह नागरिक भारत के संविधान के प्रति बेईमान हो, या (स) रजिस्टर्ड नागरिक युद्धकाल के दौरान दुश्मन देश के साथ किसी भी प्रकार के सम्पर्क में रहा हो । (इन मुद्दों पर डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी काफ़ी काम कर चुके हैं और अपनी पुस्तक में उन्होंने इसका उल्लेख भी किया है, जो आप पायेंगे इन अनुवादों के "तीसरे भाग" में)। राष्ट्रपति कलाम साहब के दिमाग में एक और बात निश्चित ही चल रही होगी, वह यह कि इटली के कानूनों के मुताबिक वहाँ का कोई भी नागरिक दोहरी नागरिकता रख सकता है, भारत के कानून में ऐसा नहीं है, और अब तक यह बात सार्वजनिक नहीं हुई है कि सोनिया ने अपना इटली वाला पासपोर्ट और नागरिकता कब छोडी़ ? ऐसे में वह भारत की प्रधानमंत्री बनने के साथ-साथ इटली की भी प्रधानमंत्री बनने की दावेदार हो सकती हैं। अन्त में एक और मुद्दा, अमेरिका के संविधान के अनुसार सर्वोच्च पद पर आसीन होने वाले व्यक्ति को अंग्रेजी आना चाहिये, अमेरिका के प्रति वफ़ादार हो तथा अमेरिकी संविधान और शासन व्यवस्था का जानकार हो। भारत का संविधान भी लगभग मिलता-जुलता ही है, लेकिन सोनिया किसी भी भारतीय भाषा में निपुण नहीं हैं (अंग्रेजी में भी), उनकी भारत के प्रति वफ़ादारी भी मात्र बाईस-तेईस साल पुरानी ही है, और उन्हें भारतीय संविधान और इतिहास की कितनी जानकारी है यह तो सभी जानते हैं। जब कोई नया प्रधानमंत्री बनता है तो भारत सरकार का पत्र सूचना ब्यूरो (पीआईबी) उनका बायो-डाटा और अन्य जानकारियाँ एक पैम्फ़लेट में जारी करता है। आज तक उस पैम्फ़लेट को किसी ने भी ध्यान से नहीं पढा़, क्योंकि जो भी प्रधानमंत्री बना उसके बारे में जनता, प्रेस और यहाँ तक कि छुटभैये नेता तक नख-शिख जानते हैं। यदि (भगवान न करे) सोनिया प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुईं तो पीआईबी के उस विस्तृत पैम्फ़लेट को पढ़ना बेहद दिलचस्प होगा। आखिर भारतीयों को यह जानना ही होगा कि सोनिया का जन्म दरअसल कहाँ हुआ? उनके माता-पिता का नाम क्या है और उनका इतिहास क्या है? वे किस स्कूल में पढीं? किस भाषा में वे अपने को सहज पाती हैं? उनका मनपसन्द खाना कौन सा है? हिन्दी फ़िल्मों का कौन सा गायक उन्हें अच्छा लगता है? किस भारतीय कवि की कवितायें उन्हें लुभाती हैं? क्या भारत के प्रधानमंत्री के बारे में इतना भी नहीं जानना चाहिये!
(प्रस्तुत लेख सुश्री कंचन गुप्ता द्वारा दिनांक २३ अप्रैल १९९९ को रेडिफ़.कॉम पर लिखा गया है, बेहद मामूली फ़ेरबदल और कुछ भाषाई जरूरतों के मुताबिक इसे मैंने संकलित, संपादित और अनुवादित किया है। डॉ.सुब्रह्मण्यम स्वामी द्वारा लिखे गये कुछ लेखों का संकलन पूर्ण होते ही अनुवादों की इस कडी़ का तीसरा भाग पेश किया जायेगा।) मित्रों जनजागरण का यह महाअभियान जारी रहे, अंग्रेजी में लिखा हुआ अधिकतर आम लोगों ने नहीं पढा़ होगा इसलिये सभी का यह कर्तव्य बनता है कि महाजाल पर स्थित यह सामग्री हिन्दी पाठकों को भी सुलभ हो, इसलिये इस लेख की लिंक को अपने इष्टमित्रों तक अवश्य पहुँचायें, क्योंकि हो सकता है कि कल को हम एक विदेशी द्वारा शासित होने को अभिशप्त हो जायें !
((3))
(इस भाग में – सोनिया गाँधी का जन्म, उनका पारिवारिक इतिहास, उनके सम्बन्ध, उनके झूठ, उनके द्वारा कानून से खिलवाड़ आदि शामिल हैं)
सोनिया गाँधी से सम्बन्धित पिछले दोनों अनुवादों में हमने सोनिया गाँधी के बारे में काफ़ी कुछ जाना (क्या वाकई?) लेकिन जितना जाना उतने ही प्रश्न दिमागों में उठते गये। उन दोनो पोस्टों पर मुझे ब्लॉग पर और व्यक्तिगत रूप से कई अच्छे-बुरे मेल प्राप्त हुए, जिसका जिक्र मैंने तीसरी पोस्ट “सोनिया गाँधी की पोस्ट पर उठते सवाल-जवाब” में किया था। और जैसा कि मैं पहले ही अर्ज कर चुका हूँ, कि मेरी सोनिया गाँधी से कोई व्यक्तिगत रंजिश नहीं है और ना ही मुझे इस बात का कोई मुगालता है कि मैं कोई बहुत बड़ा “शोधक” हूँ, फ़िर भी सोनिया भक्तों (इसे कॉंग्रेस भक्तों भी पढ़ा जा सकता है) ने ईमेल-हमले लगातार जारी रखे। मैं उनसे सिर्फ़ एक-दो सवाल पूछना चाहता था (लेकिन Anonymous मेल होने के कारण पूछ ना सका), कि इतना हल्ला मचाने वाले ये लोग जानते हैं कि सोनिया गाँधी का जन्म कहाँ हुआ? उनकी शिक्षा-दीक्षा कहाँ और कितनी हुई? उनकी पृष्ठभूमि क्या है? वे किस परिवार से हैं? इसलिये डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी द्वारा लिखित इस लेख का अनुवाद “सोनिया गाँधी, भाग-३” के रूप में पेश करना मैं अपना कर्तव्य मानता हूँ (क्योंकि कई लोगों ने मुझे ईमेल से जवाब देने का मौका नहीं दिया)। बहरहाल, पेश है डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी द्वारा लिखित एक विस्तृत लेख का हिन्दी अनुवाद, जिसमें इनमें से कई प्रश्नों के जवाब मिलते हैं (और आज तक न तो सोनिया गाँधी द्वारा अथवा कॉंग्रेस भक्तों द्वारा डॉ. स्वामी पर कोई “मानहानि” (!) का मुकदमा दायर किया गया है) –
“मेरा (मतलब डॉ.स्वामी का) सोनिया गाँधी का विरोध सिर्फ़ इसी बात को लेकर नहीं है कि उनका जन्म इटली में हुआ है, क्योंकि यह कोई मुद्दा नहीं है, बल्कि इटली सहित किसी और देश में विदेशी मूल की बात का फ़ैसला वहाँ के न्यायालयों ने किया हुआ है, कि सर्वोच्च और महत्वपूर्ण पदों पर विदेशी मूल का व्यक्ति नहीं पदासीन हो सकता, लेकिन भारत में ऐसा कोई कानून नहीं है। 17 मई 2004 को 12.45 पर राष्ट्रपति ने मुझे मिलने का समय दिया था, उसी समय मैंने उनसे कहा था कि यदि सोनिया गाँधी प्रधानमंत्री बनती हैं तो मैं इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दूँगा, और “रजिस्ट्रेशन” द्वारा नागरिकता हासिल किये जाने के कारण उसे रद्द किया भी जा सकता है।
भारतीय नागरिकों को सोनिया की पृष्ठभूमि के बारे में जानकारी हासिल करना बेहद मुश्किल बात है, क्योंकि इटली के जन्म के कारण और वहाँ की भाषाई समस्याओं के कारण किसी पत्रकार के लिये भी यह मुश्किल ही है (भारत में पैदा हुए नेताओं की पृष्ठभूमि के बारे में हम कितना जानते हैं?) लेकिन नागरिकों को जानने का अधिकार तो है ही। सोनिया के बारे में तमाम जानकारी उन्हीं के द्वारा अथवा काँग्रेस के विभिन्न मुखपत्रों में जारी की हुई सामग्री पर आधारित है, जिसमें तीन झूठ साफ़ तौर पर पकड़ में आते हैं।
पहला झूठ – सोनिया गाँधी का असली नाम “सोनिया” नहीं बल्कि “ऎंटोनिया” है, यह बात इटली के राजदूत ने 27 अप्रैल 1983 को लिखे पत्र में स्वीकार की है, यह पत्र गृह मंत्रालय नें अपनी मर्जी से कभी सार्वजनिक नहीं किया। “एंटॊनिया” नाम सोनिया गाँधी के जन्म प्रमाणपत्र में अंकित है। सोनिया गाँधी को “सोनिया” नाम उनके पिता स्व.स्टेफ़ानो माईनो ने दिया था। स्टीफ़ानो माइनो द्वितीय विश्व युद्ध के वक्त रूस में युद्ध बन्दी थे। स्टीफ़ानो ने एक कार्यकर्ता के तौर पर “नाजी” सेना में काम किया था, जैसा कि कई इटालियन फ़ासिस्टों ने किया था। “सोनिया” एक रूसी नाम है न कि इटालियन। रूस में बिताये जेल के लम्हों में सोनिया के पिता धीरे-धीरे रूस समर्थक बन गये थे, खासकर तब जबकि उन समेत इटली के सभी “फ़ासिस्टों” की सम्पत्ति अमेरिकी सेनाओं द्वारा नष्ट या जब्त कर ली गई थी।
दूसरा झूठ – उनका जन्म इटली के लूसियाना में हुआ, ना कि जैसा उन्होंने संसद में दिये अपने शपथ पत्र में उल्लेख किया है कि “उनका जन्म ओरबेस्सानो में हुआ”। शायद वे अपना जन्म स्थान “लूसियाना” छुपाना चाहती हैं, क्योंकि इससे उनके पिता के नाजियों और मुसोलिनी से सम्बन्ध उजागर होते हैं, जबकि उनका परिवार लगातार नाजियों और फ़ासिस्टों के सम्पर्क में रहा, युद्ध समाप्ति के पश्चात भी। लूसियाना नाजियों के नेटवर्क का मुख्य केन्द्र था और यह इटली-स्विस सीमा पर स्थित है। इस झूठ का कोई औचित्य नजर नहीं आता और ना ही आज तक उनकी तरफ़ से इसका कोई स्पष्टीकरण दिया गया है।
तीसरा झूठ – सोनिया गाँधी का आधिकारिक शिक्षण हाई स्कूल से अधिक नहीं हुआ है। लेकिन उन्होंने रायबरेली के 2004 लोकसभा चुनाव में एक शपथ पत्र में कहा है कि उन्होंने केम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में डिप्लोमा किया हुआ है। यही झूठ बात उन्होंने सन 1999 में लोकसभा में अपने परिचय पत्र में कही थी, जो कि लोकसभा द्वारा “हू इज़ हू” के नाम से प्रकाशित की जाती है। बाद में जब मैंने लोकसभा के स्पीकर को लिखित शिकायत की, कि यह घोर अनैतिकता भरा कदम है, तब उन्होंने स्वीकार किया कि ऐसा “टाईपिंग” की गलती की वजह से हुआ (ऐसा “टायपिंग मिस्टेक” तो गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड़्स में शामिल होने लायक है)। सच्चाई तो यह है कि सोनिया ने कॉलेज का मुँह तक नहीं देखा है। वे जिआवेनो स्थित एक कैथोलिक स्कूल जिसका नाम “मारिया ऑसिलियाट्रिस” में पढने जाती थीं (यह स्कूल उनके तथाकथित जन्म स्थान ओरबेस्सानो से 15 किमी दूर स्थित है)। गरीबी के कारण बहुत सी इटालियन लड़कियाँ उन दिनों ऐसी मिशनरी में पढने जाया करती थीं, और उनमें से बहुतों को अमेरिका में सफ़ाई कर्मचारी, वेटर आदि के कामों की नौकरी मिल जाती थी। उन दिनों माइनो परिवार बहुत गरीब हो गया था। सोनिया के पिता एक मेसन और माँ एक खेतिहर मजदूर के रूप में काम करती थीं (अब इस परिवार की सम्पत्ति करोड़ों की हो गई है!)। फ़िर सोनिया इंग्लैंड स्थित केम्ब्रिज कस्बे के “लेन्नॉक्स स्कूल” में अंग्रेजी पढने गईं, ताकि उन्हें थोड़ा सम्मानजनक काम मिल जाये। यह है उनका कुल “शिक्षण”, लेकिन भारतीय समाज को बेवकूफ़ बनाने के लिये उन्होंने संसद में झूठा बयान दिया (जो कि नैतिकता का उल्लंघन भी है) और चुनाव में झूठा शपथ पत्र भी, जो कि भारतीय दंड संहिता के अनुसार अपराध भी है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुसार प्रत्याशी को उसकी सम्पत्ति और शिक्षा के बारे में सही-सही जानकारी देना आवश्यक है। इन तीन झूठों से साबित होता है कि सोनिया गाँधी कुछ “छिपाना” चाहती हैं, या उनका कोई छुपा हुआ कार्यक्रम है जो किसी और मकसद से है, जाहिर है कि उनके बारे में और जानकारी जुटाना आवश्यक है।
कुमारी सोनिया गाँधी अच्छी अंग्रेजी से अवगत होने के लिये केम्ब्रिज कस्बे के वार्सिटी रेस्टोरेंट में काम करने लगीं, वहीं उनकी मुलाकात 1965 में राजीव गाँधी से पहली बार हुई। राजीव उस यूनिवर्सिटी में छात्र थे और पढ़ाई मे कुछ खास नहीं थे, इसलिये राजीव 1966 में लन्दन चले गये जहाँ उन्होंने इम्पीरियल इंजीनियरिंग कॉलेज में थोड़ी शिक्षा ग्रहण की। सोनिया भी लन्दन चली गईं जहाँ उन्हें एक पाकिस्तानी सलमान थसीर के यहाँ नौकरी मिल गई। सलमान थसीर साहब का अधिकतर बिजनेस दुबई से संचालित होता था, लेकिन वे अधिकतर समय लन्दन में ही डटे रहते थे। इस नौकरी में सोनिया गाँधी ने अच्छा पैसा कमाया, कम से कम इतना तो कमाया ही कि वे राजीव गाँधी की आर्थिक मदद कर सकें, जिनके “खर्चे” बढते ही जा रहे थे (इन्दिरा गाँधी भी उनके उन खर्चों से काफ़ी नाराज थीं और ऐसा उन्होंने खुद मुझे बताया था जब मेरी मुलाकात ब्रांडेस विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस में उनसे हुई थी और उस वक्त मैं हार्वर्ड में वाणिज्य का प्रोफ़ेसर लगा ही था)। संजय गाँधी को लिखे राजीव गाँधी के पत्रों से यह स्पष्ट था कि राजीव, सोनिया के आर्थिक कर्जे में फ़ँसे हुए थे और राजीव ने संजय से मदद की गुहार की थी, क्योंकि संजय उनके कर्जों को निपटाने में सक्षम(?) थे। उस दौरान राजीव अकेले सोनिया गाँधी के मित्र नहीं थे, माधवराव सिंधिया और एक जर्मन स्टीगलर उनके अंतरंग मित्रों में से एक थे। माधवराव से उनकी दोस्ती राजीव से शादी के बाद भी जारी रही।
बहुत कम लोगों को यह पता है कि 1982 में एक रात को दो बजे माधवराव की कार का एक्सीडेंट आईआईटी दिल्ली के गेट के सामने हुआ था, और उस समय कार में दूसरी सवारी थीं सोनिया गाँधी। दोनों को बहुत चोटें आई थीं, आईआईटी के एक छात्र ने उनकी मदद की, कार से बाहर निकाला, एक ऑटो रिक्शा में सोनिया को इंदिरा गाँधी के यहाँ भेजा गया, क्योंकि अस्पताल ले जाने पर कई तरह से प्रश्न हो सकते थे, जबकि माधवराव सिन्धिया अपनी टूटी टाँग लिये बाद में अकेले अस्पताल गये। जब परिदृश्य से सोनिया पूरी तरह गायब हो गईं तब दिल्ली पुलिस ने अपनी भूमिका शुरु की। बाद के वर्षों में माधवराव सिंधिया सोनिया के आलोचक बन गये थे और मित्रों के बीच उनके बारे में “कई बातें” करने लगे थे। यह बड़े आश्चर्य और शर्म की बात है कि 2001 में माधवराव की मृत्यु और उनके विमान दुर्घटना की कोई गहन जाँच नहीं हुई, जबकि उसी विमान से मणिशंकर अय्यर और शीला दीक्षित भी जाने वाले थे और उन्हें आखिरी समय पर सिंधिया के साथ न जाने की सलाह दी गई थी।
राजीव गाँधी और सोनिया का विवाह ओर्बेस्सानो में एक चर्च में हुआ था, हालांकि यह उनका व्यक्तिगत लेकिन विवादास्पद मामला है और जनता को इससे कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन जनता का जिस बात से सरोकार है वह है इन्दिरा गाँधी द्वारा उनका वैदिक रीति से पुनः विवाह करवाना, ताकि भारत की भोली जनता को बहलाया जा सके, और यह सब हुआ था एक सोवियत प्रेमी अधिकारी टी.एन.कौल की सलाह पर, जिन्होंने यह कहकर इन्दिरा गाँधी को इस बात के लिये मनाया कि “सोवियत संघ के साथ रिश्तों को मजबूत करने के लिये यह जरूरी है”, अब प्रश्न उठता है कि कौल को ऐसा कहने के लिये किसने उकसाया?
जब भारतीय प्रधानमंत्री का बेटा लन्दन में एक लड़की से प्रेम करने में लगा हो, तो भला रूसी खुफ़िया एजेंसी “केजीबी” भला चुप कैसे रह सकती थी, जबकि भारत-सोवियत रिश्ते बहुत मधुर हों, और सोनिया उस स्टीफ़ानो की पुत्री हों जो कि सोवियत भक्त बन चुका हो। इसलिये सोनिया का राजीव से विवाह भारत-सोवियत सम्बन्धों और केजीबी के हित में ही था। राजीव से शादी के बाद माइनो परिवार के सोवियत संघ से सम्बन्ध और भी मजबूत हुए और कई सौदों में उन्हें दलाली की रकम अदा की गई । डॉ.येवेग्निया अल्बाट्स (पीएच.डी. हार्वर्ड) एक ख्यात रूसी लेखिका और पत्रकार हैं, वे बोरिस येल्तसिन द्वारा सन 1991 में गठित एक आयोग की सदस्या थीं, ने अपनी पुस्तक “द स्टेट विदिन अ स्टेट : द केजीबी इन सोवियत यूनियन” में कई दस्तावेजों का उल्लेख किया है, और इन दस्तावेजों को भारत सरकार जब चाहे एक आवेदन देकर देख सकती है। रूसी सरकार ने सन 1992 में डॉ. अल्बाट्स के इन रहस्योद्घाटनों को स्वीकार किया, जो कि “हिन्दू” में 1992 में प्रकाशित हो चुका है । उस प्रवक्ता ने यह भी कहा कि “सोवियत आदर्शों और सिद्धांतों को बढावा देने के लिये” इस प्रकार का पैसा माइनो और कांग्रेस प्रत्याशियों को चुनावों के दौरान दिया जाता रहा है । 1991 में रूस के विघटन के पश्चात जब रूस आर्थिक भंवर में फ़ँस गया तब सोनिया गाँधी का पैसे का यह स्रोत सूख गया और सोनिया ने रूस से मुँह मोड़ना शुरु कर दिया। मनमोहन सिंह के सत्ता में आते ही रूस के वर्तमान राष्ट्रपति पुतिन (जो कि घुटे हुए केजीबी जासूस रह चुके हैं) ने तत्काल दिल्ली में राजदूत के तौर पर अपना एक खास आदमी नियुक्त किया जो सोनिया के इतिहास और उनके परिवार के रूसी सम्बन्धों के बारे में सब कुछ जानता था। अब फ़िलहाल जो सरकार है वह सोनिया ही चला रही हैं यह बात जब भारत में ही सब जानते हैं तो विदेशी जासूस कोई मूर्ख तो नहीं हैं, इसलिये उस राजदूत के जरिये भारत-रूस सम्बन्ध अब एक नये दौर में प्रवेश कर चुके हैं। हम भारतवासी रूस से प्रगाढ़ मैत्री चाहते हैं, रूस ने जब-तब हमारी मदद भी की है, लेकिन क्या सिर्फ़ इसीलिये हमें उन लोगों को स्वीकार कर लेना चाहिये जो रूसी खुफ़िया एजेंसी से जुड़े रहे हों? अमेरिका में भी किसी अधिकारी को इसराइल के लिये जासूसी करते हुए बर्दाश्त नहीं किया जायेगा, भले ही अमेरिका के इसराइल से कितने ही मधुर सम्बन्ध हों। सम्बन्ध अपनी जगह हैं और राष्ट्रहित अलग बात है। दिसम्बर 2001 में मैने दिल्ली हाईकोर्ट में एक याचिका दायर करके सभी दस्तावेज प्रस्तुत कर, केजीबी और सोनिया के सम्बन्धों की सीबीआई द्वारा जाँच की माँग की थी, जिसे वाजपेयी सरकार द्वारा ठुकरा दिया गया। इससे पहले तत्कालीन राज्य मंत्री वसुन्धरा राजे सिंधिया ने 3 मार्च 2001 को इस केस की सीबीआई जाँच के आदेश दे दिये थे, लेकिन कांग्रेसियों द्वारा इस मुद्दे पर संसद में हल्ला-गुल्ला करने और कार्रवाई ठप करने के कारण वाजपेयी ने वसुन्धरा का वह आदेश खारिज कर दिया। दिल्ली हाईकोर्ट ने मई 2002 में सीबीआई को रूसी सम्बन्धों के बारे में जाँच करने के आदेश दिये। सीबीआई ने दो वर्ष तक “जाँच” (?) करने के बाद “बिना एफ़आईआर दर्ज किये” कोर्ट को यह बताया कि सोनिया और रूसियों में कोई सम्बन्ध नहीं है, लेकिन सीबीआई को FIR दर्ज करने से किसने रोका, वाजपेयी सरकार ने, क्यों? यह आज तक रहस्य ही है। इस केस की अगली सुनवाई होने वाली है, लेकिन अब सोनिया “निर्देशक” की भूमिका में आ चुकी हैं और सीबीआई से किसी स्वतन्त्र कार्य की उम्मीद करना बेकार है।
............ जारी ..... है (भाग-४ शीघ्र ही), जिसमें हम पायेंगे कई अनसुलझे और बेचैन करने वाले प्रश्न.... तब तक प्रिय आलोचकों, "मेरा मेल बॉक्स खुला है खुला ही रहेगा, तुम्हारे लिये..."
((4))
राजीव से विवाह के बाद सोनिया और उनके इटालियन मित्रों को स्नैम प्रोगैती की ओट्टावियो क्वात्रोची से भारी-भरकम राशियाँ मिलीं, वह भारतीय कानूनों से बेखौफ़ होकर दलाली में रुपये कूटने लगा। कुछ ही वर्षों में माइनो परिवार जो गरीबी के भंवर में फ़ँसा था अचानक करोड़पति हो गया । लोकसभा के नयेनवेले सदस्य के रूप में मैंने 19 नवम्बर 1974 को संसद में ही तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी से पूछा था कि “क्या आपकी बहू सोनिया गाँधी, जो कि अपने-आप को एक इंश्योरेंस एजेंट बताती हैं (वे खुद को ओरियंटल फ़ायर एंड इंश्योरेंस कम्पनी की एजेंट बताती थीं), प्रधानमंत्री आवास का पता उपयोग कर रही हैं?” जबकि यह अपराध है क्योंकि वे एक इटालियन नागरिक हैं (और यह विदेशी मुद्रा उल्लंघन) का मामला भी बनता है”, तब संसद में बहुत शोरगुल मचा, श्रीमती इन्दिरा गाँधी गुस्सा तो बहुत हुईं, लेकिन उनके सामने और कोई विकल्प नहीं था, इसलिये उन्होंने लिखित में यह बयान दिया कि “यह गलती से हो गया था और सोनिया ने इंश्योरेंस कम्पनी से इस्तीफ़ा दे दिया है” (मेरे प्रश्न पूछने के बाद), लेकिन सोनिया का भारतीय कानूनों को लतियाने और तोड़ने का यह सिलसिला यहीं खत्म नहीं हुआ। 1977 में जनता पार्टी सरकार द्वारा उच्चतम न्यायालय के जस्टिस ए.सी.गुप्ता के नेतृत्व में गठित आयोग ने जो रिपोर्ट सौंपी थी, उसके अनुसार “मारुति” कम्पनी (जो उस वक्त गाँधी परिवार की मिल्कियत था) ने “फ़ेरा कानूनों, कम्पनी कानूनों और विदेशी पंजीकरण कानून के कई गंभीर उल्लंघन किये”, लेकिन ना तो संजय गाँधी और ना ही सोनिया गाँधी के खिलाफ़ कभी भी कोई केस दर्ज हुआ, ना मुकदमा चला। हालांकि यह अभी भी किया जा सकता है, क्योंकि भारतीय कानूनों के मुताबिक “आर्थिक घपलों” पर कार्रवाई हेतु कोई समय-सीमा तय नहीं है।
जनवरी 1980 में श्रीमती इन्दिरा गाँधी पुनः सत्तासीन हुईं। सोनिया ने सबसे पहला काम यह किया कि उन्होंने अपना नाम “वोटर लिस्ट” में दर्ज करवाया, यह साफ़-साफ़ कानून का मखौल उड़ाने जैसा था और उनका वीसा रद्द किया जाना चाहिये था (क्योंकि उस वक्त भी वे इटली की नागरिक थीं)। प्रेस द्वारा हल्ला मचाने के बाद दिल्ली के चुनाव अधिकारी ने 1982 में उनका नाम मतदाता सूची से हटाया। लेकिन फ़िर जनवरी 1983 में उन्होंने अपना नाम मतदाता सूची में जुड़वा लिया, जबकि उस समय भी वे विदेशी ही थीं (आधिकारिक रूप से उन्होंने भारतीय नागरिकता के लिये अप्रैल 1983 में आवेद दिया था)। हाल ही में ख्यात कानूनविद, ए.जी.नूरानी ने अपनी पुस्तक “सिटीजन्स राईट्स, जजेस एंड अकाऊण्टेबिलिटी रेकॉर्ड्स” (पृष्ठ 318) पर यह दर्ज किया है कि “सोनिया गाँधी ने जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल के कुछ खास कागजात एक विदेशी को दिखाये, जो कागजात उनके पास नहीं होने चाहिये थे और उन्हें अपने पास रखने का सोनिया को कोई अधिकार नहीं था।“ इससे साफ़ जाहिर होता है उनके मन में भारतीय कानूनों के प्रति कितना सम्मान है और वे अभी भी राजतंत्र की मानसिकता से ग्रस्त हैं। सार यह कि सोनिया गाँधी के मन में भारतीय कानून के सम्बन्ध में कोई इज्जत नहीं है, वे एक महारानी की तरह व्यवहार करती हैं। यदि भविष्य में उनके खिलाफ़ कोई मुकदमा चलता है और जेल जाने की नौबत आ जाती है तो वे इटली भी भाग सकती हैं। पेरू के राष्ट्रपति फ़ूजीमोरी जीवन भर यह जपते रहे कि वे जन्म से ही पेरूवासी हैं, लेकिन जब भ्रष्टाचार के मुकदमे में उन्हें दोषी पाया गया तो वे अपने गृह देश जापान भाग गये और वहाँ की नागरिकता ले ली।
भारत से घृणा करने वाले मुहम्मद गोरी, नादिर शाह और अंग्रेज रॉबर्ट क्लाइव ने भारत की धन-सम्पदा को जमकर लूटा, लेकिन सोनिया तो “भारतीय” हैं, फ़िर जब राजीव और इन्दिरा प्रधानमंत्री थे, तब बक्से के बक्से भरकर रोज-ब-रोज प्रधानमंत्री निवास से सुरक्षा गार्ड चेन्नई के हवाई अड्डे पर इटली जाने वाले हवाई जहाजों में क्या ले जाते थे? एक तो हमेशा उन बक्सों को रोम के लिये बुक किया जाता था, एयर इंडिया और अलिटालिया एयरलाईन्स को ही जिम्मा सौंपा जाता था और दूसरी बात यह कि कस्टम्स पर उन बक्सों की कोई जाँच नहीं होती थी। अर्जुन सिंह जो कि मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं और संस्कृति मंत्री भी, इस मामले में विशेष रुचि लेते थे। कुछ भारतीय कलाकृतियाँ, पुरातन वस्तुयें, पिछवाई पेंटिंग्स, शहतूश शॉलें, सिक्के आदि इटली की दो दुकानों, (जिनकी मालिक सोनिया की बहन अनुस्का हैं) में आम तौर पर देखी जाती हैं। ये दुकानें इटली के आलीशान इलाकों रिवोल्टा (दुकान का नाम – एटनिका) और ओर्बेस्सानो (दुकान का नाम – गनपति) में स्थित हैं जहाँ इनका धंधा नहीं के बराबर चलता है, लेकिन दरअसल यह एक “आड़” है, इन दुकानों के नाम पर फ़र्जी बिल तैयार करवाये जाते हैं फ़िर वे बेशकीमती वस्तुयें लन्दन ले जाकर “सौथरबी और क्रिस्टीज” द्वारा नीलामी में चढ़ा दी जाती हैं, इन सबका क्या मतलब निकलता है? यह पैसा आखिर जाता कहाँ है? एक बात तो तय है कि राहुल गाँधी की हार्वर्ड की एक वर्ष की फ़ीस और अन्य खर्चों के लिये भुगतान एक बार केमैन द्वीप की किसी बैंक के खाते से हुआ था। इस सबकी शिकायत जब मैंने वाजपेयी सरकार में की तो उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया, इस पर मैंने दिल्ली हाइकोर्ट में जनहित याचिका दाखिल की। हाईकोर्ट की बेंच ने सरकार को नोटिस जारी किया, लेकिन तब तक सरकार गिर गई, फ़िर कोर्ट नें सीबीआई को निर्देश दिये कि वह इंटरपोल की मदद से इन बहुमूल्य वस्तुओं के सम्बन्ध में इटली सरकार से सहायता ले। इटालियन सरकार ने प्रक्रिया के तहत भारत सरकार से अधिकार-पत्र माँगा जिसके आधार पर इटली पुलिस एफ़आईआर दर्ज करे। अन्ततः इंटरपोल ने दो बड़ी रिपोर्टें कोर्ट और सीबीआई को सौंपी और न्यायाधीश ने मुझे उसकी एक प्रति देने को कहा, लेकिन आज तक सीबीआई ने मुझे वह नहीं दी, और यह सवाल अगली सुनवाई के दौरान फ़िर से पूछा जायेगा। सीबीआई का झूठ एक बार और तब पकड़ा गया, जब उसने कहा कि “अलेस्सान्द्रा माइनो” किसी पुरुष का नाम है, और “विया बेल्लिनी, 14, ओरबेस्सानो”, किसी गाँव का नाम है, ना कि “माईनो” परिवार का पता। बाद में सीबीआई के वकील ने कोर्ट से माफ़ी माँगी और कहा कि यह गलती से हो गया, उस वकील का “प्रमोशन” बाद में “ऎडिशनल सॉलिसिटर जनरल” के रूप में हो गया, ऐसा क्यों हुआ, इसका खुलासा तो वाजपेयी-सोनिया की आपसी “समझबूझ” और “गठजोड़” ही बता सकता है।
इन दिनों सोनिया गाँधी अपने पति हत्यारों के समर्थकों MDMK, PMK और DMK से सत्ता के लिये मधुर सम्बन्ध बनाये हुए हैं, कोई भारतीय विधवा कभी ऐसा नहीं कर सकती। उनका पूर्व आचरण भी ऐसे मामलों में संदिग्ध रहा है, जैसे कि – जब संजय गाँधी का हवाई जहाज नाक के बल गिरा तो उसमें विस्फ़ोट नहीं हुआ, क्योंकि पाया गया कि उसमें ईंधन नहीं था, जबकि फ़्लाईट रजिस्टर के अनुसार निकलते वक्त टैंक फ़ुल किया गया था, जैसे माधवराव सिंधिया की विमान दुर्घटना के ऐन पहले मणिशंकर अय्यर और शीला दीक्षित को उनके साथ जाने से मना कर दिया गया। इन्दिरा गाँधी की मौत की वजह बना था उनका अत्यधिक रक्तस्राव, न कि सिर में गोली लगने से, फ़िर सोनिया गाँधी ने उस वक्त खून बहते हुए हालत में इन्दिरा गाँधी को लोहिया अस्पताल ले जाने की जिद की जो कि अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AAIMS) से बिलकुल विपरीत दिशा में है? और जबकि “ऐम्स” में तमाम सुविधायें भी उपलब्ध हैं, फ़िर लोहिया अस्पताल पहुँच कर वापस सभी लोग AAIMS पहुँचे, और इस बीच लगभग पच्चीस कीमती मिनट बरबाद हो गये? ऐसा क्यों हुआ, क्या आज तक किसी ने इसकी जाँच की? सोनिया गाँधी के विकल्प बन सकने वाले लगभग सभी युवा नेता जैसे राजेश पायलट, माधवराव सिन्धिया, जितेन्द्र प्रसाद विभिन्न हादसों में ही क्यों मारे गये? अब सोनिया की सत्ता निर्बाध रूप से चल रही है, लेकिन ऐसे कई अनसुलझे और रहस्यमयी प्रश्न चारों ओर मौजूद हैं, उनका कोई जवाब नहीं है, और कोई पूछने वाला भी नहीं है, यही इटली की स्टाइल है।
[आशा है कि मेरे कई “मित्रों” (?) को कई जवाब मिल गये होंगे, जो मैंने पिछली दोनो पोस्टों में जानबूझकर नहीं उठाये थे, यह भी आभास हुआ होगा कि कांग्रेस सांसद “सुब्बा” कैसे भारतीय नागरिक ना होते हुए भी सांसद बन गया (क्योंकि उसकी महारानी खुद कानून का सम्मान नहीं करती), क्यों बार-बार क्वात्रोच्ची सीबीआई के फ़ौलादी (!) हाथों से फ़िसल जाता है, क्यों कांग्रेस और भाजपा एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं? क्यों हमारी सीबीआई इतनी लुंज-पुंज है? आदि-आदि... मेरा सिर्फ़ यही आग्रह है कि किसी को भी तड़ से “सांप्रदायिक या फ़ासिस्ट” घोषित करने से पहले जरा ठंडे दिमाग से सोच लें, तथ्यों पर गौर करें, कई बार हमें जो दिखाई देता है सत्य उससे कहीं अधिक भयानक होता है, और सत्ता के शीर्ष शिखरों पर तो इतनी सड़ांध और षडयंत्र हैं कि हम जैसे आम आदमी कल्पना भी नहीं कर सकते, बल्कि यह कहना गैरवाजिब नहीं होगा कि सत्ता और धन की चोटी पर बैठे व्यक्ति के नीचे न जाने कितनी आहें होती हैं, कितने नरमुंड होते हैं, कितनी चालबाजियाँ होती हैं.... राजनीति शायद इसी का नाम है...]
Posted by Suresh Chiplunkar 

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