Wednesday, 21 March 2018

 
भारतीयों को सत्य इतिहास जानना और लिखना फैलाना चाहिए

प्रिय कुशाग्र ,
जैसा मैंने बताया इतिहास लेखन वस्तुतः यूरोप में उन्नीसवीं शताब्दी ईस्वी में शुरू हुआ ( १८ वीं के अंतिम चरण में नाम मात्र को )और पूरी तरह वह बीसवीं शताब्दी ईस्वी में ही फैला है .इस कारण जो लंबी-लंबी गप्पे अटकलें और अनुमान तथा थोड़े से यूरोपीय लोगों की घुमक्कड़ी के वर्णन और अलग-अलग देशों में वहां की भाषा न जानते हुए भी उन घुमक्कड़ों के द्वारा बड़ी मेहनत से इकट्ठे किए गए किस्से हैं , उन्हें प्रामाणिक इतिहास मानना विद्वत्ता का मजाक है .
अपने यहां सरकार से पद पैसा सम्मान पाने के फेर में विश्वविद्यालयों में इतिहास के तथाकथित प्राध्यापकों ने जो किया है ,उसमें से ज्यादातर बहुत कमजोर किस्म की चीज है.
जिसने भी आंतरिक साक्ष्यों को प्रमाण माना है केवल वही इतिहासकार कहा जा सकता है .जबकि वस्तुतः सौभाग्यवश भारत में विपुल आतंरिक साक्ष्य भारतीय इतिहास के विषय में विद्यमान है .
ऐसी स्थिति में स्वयं भारत के विषय में बाहर के और भारतीय भाषाओं से अनजान घुमक्कड़ लोग जो भी किस्से रचते हैं या किसी तरह स्वयं कुछेक भारतीयों को पकड़ कर पूछ कर जो लिख मारते हैं , उसे प्रमाणिक और जिन से पूछकर उन लोगों ने लिखा , उनके अपने समाज यानी भारत के विद्वानों और ग्रंथों , इतिहास ग्रंथों आदि को काल्पनिक कहना केवल भारत में ही संभव है , वह भी तब तक जब तक विदेशों के एजेंट यहाँ सत्ता और विद्वत्ता के क्षेत्रों में आसीन हैं क्योंकि प्रथम दृष्टि में ही यह सब हास्यास्पद दिखता है .
अब बात यूरोप और अरब अफ्रीका आदि की या यूरेशिया की , तो इनमे से सधिकांश इलाके से इन यूरोपीयों का परिचय ही १९ वीं शताब्दी ईस्वी में हुआ है . इसीलिए इन क्षेत्रं के जो भी नाम ये लोग बताते हैं ,उनमें से कोई भी नाम प्रामाणिक नहीं है और पहली बार ये नाम 19वीं शताब्दी ईस्वी या बीसवीं शताब्दी ईस्वी में रखे गए हैं तथा काल्पनिकहैं .
उदाहरण के लिए तुमने byzentine और ऑटोमन साम्राज्य की बात कही. विजेंटाइन और ऑटोमन नामक कोई भी साम्राज्य कभी नहीं था .
यह 19वीं शताब्दी ईसवी में परिकल्पित शब्द हैं जिसे byzentine ये कहते हैं , वे स्वयं अपने को यवन ही कहते थे .
जहां तक ऑटोमन की बात है , वह इतनी हास्यास्पद बात है कि उस्मान नामक एक राजा को उन्होंने ऑटोमन कह कर फिर उसे ऑटोमन साम्राज्य कहना शुरू कर दिया. उस्मान को ऑटोमन जानबूझकर कहा गया था कि जिस से भ्रम पैदा हो .उस मुस्लिम राजा का नाम उस्मान था और उसका वंश कुछ समय चला .
स्वयं ग्रीक शब्द उन्होंने इसी प्रकार रखा है .शकों का यवनो से जहां युद्ध हुआ ,उस सीमा पर स्थित ग्राम को ग्राम कहां जा रहा था , जिसे कहीं से सुनकर कई शताब्दियों बाद पादरियों ने ग्राइ, ग्राइक और ग्रीक इस प्रकार परिकल्पना करके यवनों को ग्रीक कहना शुरू किया. आज तक वे लोग तो अपने को यवन या युवान या ऐल या हेला आदि सूर्य उपासक नाम से ही पुकारते हैं. स्वयं हेला का एक अर्थ सूर्य ही है . यद्यपि एल चंद्रवंशी क्षत्रिय वंश है लेकिन यह तो उनका वंश हुआ .चंद्रवंशी क्षत्रिय भी उपासना तो सूर्य की ही करते थे क्योंकि सूर्य की उपासना सनातन धर्म के सभी अनुयायी करते हैं.
अब आओ अरब पर , तीन गप्पें हैं : अरब विजय , अरबी घोड़े , अरब द्वारा इस्लाम का विस्तार , इस विषय में तथ्य जानना चाहिए .
अरब का जो भी व्यापक फैलाव है , वह सनातन धर्मी तुरुष्क या तुर्कों ने किया है , अरबों ने नहीं .अश्व सञ्चालन , अश्व विद्या और अश्वारोही सेना तो हिन्दुओं , तुर्कों ,मंगोलों और हूणों की ही विख्यात है तुर्क क्षत्रियों में से कुछ ने लूट के माल के लोभ में और व्यभिचार की अनुमति के आकर्षण में इस्लाम अपनाकर वह सब किया . क्योंकि इस्लाम के द्वारा उन्हें गनीमा अर्थात लूट का माल प्राप्त करने की छूट और अनुमति दे दी गई थी इसलिए लूट और विलासिता के लोभी लोग तेजी से इस्लाम की आड़ लेकर वह सब काम करने लगे
अरब में तो घोड़े होते भी नहीं हैं और अरबों के पास घोड़ों की कोई बड़ी तादाद कभी थी भी नहीं .उनका सारा ही व्यापार ऊंटों के जरिए ही होता था और बकरियां ही वहां पाली जाती थी .घोड़ों पर चढ़ने और चढ़कर लड़ने का ज्ञान और अनुभव तो तुर्कों और हूणों के पास ही था . उन्होंने ही इतनी बड़ी-बड़ी विजय प्राप्त की है परंतु क्यों कि मूल अरब लोग अपेक्षा कृत बहुत कमजोर थे इसलिए कूटनीतिक रूप से कमजोर को ही महत्व देने की योजना के अंतर्गत अंग्रेजों और और ईसाइयों ने इसे अरब conquest या अरब विजय कहना शुरू किया .क्योंकि हूणों , मंगोलों और तुर्कों से तो उनकी अंतरात्मा काँपती है .
तुर्कों ने कई शताब्दियों तक यूरोप के बड़े हिस्से पर राज्य किया है. इसी प्रकार हूणों ने बुरी तरह यूरोप को रौंदा है और उसके बड़े हिस्से में आज भी उनके वंशज ही बसे हुए हैं .यही कारण है कि महान योद्धा हूणों और मंगोलों को यूरोपीय लोगों ने हर प्रकार से बदनाम किया है और अविकसित बच्चे को मंगोलियन चाइल्ड जैसा भद्दा नाम दिया है .
सार यह है कि अरब विजय एक परिकल्पना है. उसी प्रकार जैसे अरब के घोड़े एक हवाई कल्पना मात्र है. वस्तुतः तुर्कों ने जो कुछ शताब्दियों पूर्व तक सनातनधर्मी यानी हिंदू थे ,उन्होंने ही उनके एक भाग ने इस्लाम को अपनाकर भयंकर मारकाट की है और इस अर्थ में वह तुर्कों की विजय है ,तुर्कों का विस्तार है, न कि अरबों का और ना ही इस्लाम का.
तुम्हारी यह बात पूरी तरह सही है कि हूण सूर्यवंशी क्षत्रिय हैं. उसी प्रकार यवन चंद्रवंशी क्षत्रिय हैं. माग्यार , अवार , गाथ , केल्ट , ड्र्यूड आदि सभी भारतवंशी क्षत्रिय जातियां ही हैं और अब तो स्वयं यूरोप में :पीपल ऑफ द यूरोप “ नामक श्रृंखला में इन सब तथ्यों को बताया जा रहा है ,परंतु इस एक अंतर के साथ कि इन्हें भारत के मूल के न कहकर मध्य एशिया के कहा जा रहा है . जैसे वहां तुर्कों की विजय के स्थान पर उन्होंने अरब विजय चला रखी है ,उसी प्रकार भारतीय क्षेत्र को वह अब दक्षिण एशिया कह रहे हैं और भारत की सभी उपलब्धियों को जहां तक हो सके ,चीन के खाते में डालने की कोशिश करते रहे हैं .यद्यपि अब यह स्थिति बदल रही है .
घूर क्षत्रियों के बारे में तुमने सही संकेत किया है .वस्तुतः घूरी क्षत्रियों की कई शाखाएं थी और उनकी ही एक शाखा बाद में स्वयं को गोर नामक जगह में बसने के कारण गोरी कहने लगी .इसी प्रकार लोदी,खिलजी, सूरी आदि सभी भारतीय मूल के ही लोग हैं और गजना तो पाल वंश के साम्राज्य का एक छोटा सा ,बहुत छोटा इलाका था. स्थानीय जागीरदारों में से एक ने इस्लाम कबूल लिया .
इस तरह भारत की मुख्य समस्या सनातन धर्म छोड़कर इस्लाम और ईसाइयत को अपनाने की समस्या है जिसे इन दिनों धर्मांतरण कहा जा रहा है यद्यपि वह वस्तुतः धर्म को त्याग कर एकपंथवाद का स्वीकार किया जाना है जो कि सनातन धर्म के सार्वभौम नियमों का परित्याग है.
भारत के शासन का यह सर्वोपरि कर्तव्य है कि वह जहां उपासना की छूट दे यानी उपासना की स्वतंत्रता सबको रहे, वहीं सार्वभौम नियमों के अनुशासन में ही सबको रखे , ऐसे नियम बनें .सबको उपासना की यह स्वतंत्रता होनी चाहिए . पर अन्य पंथों का अपमान करने ,तिरस्कार करने अथवा विनाश करने की घोषणा करने का भी अधिकार किसी को नहीं है .
अन्यों के विनाश की घोषणा करने वालों को और सबको समान और समुचित महत्व देने की भावना रखने वालों को एक कसौटी पर कसना या एक तराजू पर तौलना अधर्म है .
भारत का संविधान जहां मूल रूप में ऐसे अधर्म की कोई अनुमति नहीं देता था . वहीँ राज्य कर्ताओं में से कुछ ने उसे तोड़-मरोड़कर इसी अधर्म का संरक्षक बना डाला है ..
किसी भी श्रेष्ठ राज्यकर्ता को चाहिए कि वह तत्काल एक जांच आयोग गठित करें जिसमें संविधान की मूल भावनाओं को पूरी तरह उलट देने का अपराध करने के दोषी और जिम्मेदार लोगों की पहचान की जाए और उनके तथा उनके वंशजों के लिए कम से कम आर्थिक और सामाजिक दंड निर्धारित करे .
क्योंकि स्वयं अरब में भी सनातन धर्म का ही विस्तार था . मुहम्मद साहब की पहली लडाई तो स्वयम कुरैश वंश के सनातन धर्मियों से ही हुयी .. खुद खालिद 629 ईस्वी तक सनातन धर्म की ओर से और इस्लाम के विरुद्ध लड़ रहा था. बाद में गनीमा के लोभ से उसने इस्लाम कबूला और फिर अरब के सनातन धर्म के अनुयायियों के बारे में विस्तार से जानकारी रखने के कारण ही सनातन धर्म के उस पूर्व अनुयायी ने मुख्य अरब भूमि में इस्लाम का विस्तार किया . मोहम्मद साहब की मृत्यु के बाद ही मुख्य अरब भूमि में इस्लाम उसी पूर्व सनातनधर्मी खालिद के नेतृत्व में फैला है .
बाद में भी इसी प्रकार सनातन धर्म के पूर्व अनुयायियों ने ही अरब में इस्लाम का विस्तार किया है जिससे कि इस्लाम के पहले की वैभवशाली महान अरब सभ्यता का इतिहास आज ज्ञात ही नहीं है .
यह वह महान सभ्यता थी .
स्वयं मोहम्मद साहब को और बाद में खालिद तथा अन्य खलीफाओं को मार डालने के लिए जब-जब कुरैश उठ खड़े हुए , तब तब सनातन धर्म के ही अनुयायियों ने अपनी उदारता के कारण कहा कि छोड़ दो ,जो जिस उपासना पंथ को चाहे , स्वीकार किए रहे और उस उदारता का लाभ लेकर ही कट्टर एकपंथवादी इस्लाम अरब में फैला है .
इसलिए विश्व मानवता के हित में यह आवश्यक है कि भारत में सनातन धर्म के ऐसे मूर्ख अनुयायियों पर प्रतिबंध लगाया जाए जो सनातन धर्म की उदारता का लाभ एकपंथवाद के तमस को बढ़ाने में नियोजित करते हैं क्योंकि यह स्वयं विश्व मानवता के लिए खतरा है. पाप के प्रति असहिष्णुता सनातन धर्म में वर्जित है .
रामेश्वर मिश्र पंकज

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