कान में धारण किए जाने वाले अलंकार
त्यौहार-उत्सव इत्यादि के अवसरों पर आज भी हिंदू स्त्रियां संपूर्ण शरीर पर अलंकार धारण कर सुशोभित होती हैं । अलंकारों के कारण स्त्री का लावण्य अधिक निखरता है । विविध प्रकार के अलंकार धारण करने का उद्देश्य केवल सौंदर्य वृद्धि नहीं है । हिंदू धर्म में प्रत्येक अलंकार उस विशिष्ट स्थान पर धारण करने के पीछे अर्थपूर्ण अध्यात्मशास्त्रीय दृष्टिकोण है ।
१. महत्त्व
१. ‘यद्यपि पूर्वकाल में हिंदू धर्म में कर्ण-छेदन का आचार था, तब भी सत्ययुग के जीवों में मूलतः ही साधना एवं आचारधर्म के पालनद्वारा तेज की वृद्धि होती थी । अतः उन्हें कर्णपालि पर अलंकार धारण करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती थी । उनकी देह में साधना से निर्मित तेज से इस छिद्रद्वारा अंशतः ऊत्सर्जित रज-तमात्मक तरंगों का उसी स्थान पर विघटन किया जाता था; परंतु कलियुग में तेज धारण करने एवं तेज का संवर्धन करने की क्षमता नरदेह में शेष न रहने के कारण उन्हें विविध स्तरों पर अलंकारों की आवश्यकता प्रतीत हुई ।’
२. ‘कान के अलंकारों के कारण कर्णपालि पर दबाव पडने से बिंदुदाब के (एक्युप्रेशर) उपाय होते हैं ।
३. कान में अलंकार धारण करने से कान की सात्त्विकता बढकर सूक्ष्म-नाद ग्रहण करने की क्षमता भी बढती है ।
४. कान में धारण किए जानेवाले अलंकारों से कान के सर्व ओर चैतन्य का सुरक्षा-कवच निर्मित होता है तथा नाद तरंगों के माध्यम से आक्रमण करने वाली अनिष्ट शक्तियों से कानकी रक्षा होती है । कान में धारण किए जाने वाले कुछ अलंकारों की गतिविधि से सूक्ष्म-नाद उत्पन्न होता है । इससे कान के पट (परदे) तथा आंतरिक कार्यप्रणाली पर उपाय होकर अनिष्ट शक्तियों का कष्ट घटता है ।’
२. कर्ण कुंडल
‘कुंडल’, कान में धारण किया जाने वाला एक गोलाकार आभूषण है । पत्राकार, शंखाकार, सर्पाकार ये आकारानुसार विविध प्रकार के होते हैं । विशिष्ट देवताओं का एवं उनके कर्णकुंडलों के विशेष आकारों का संबंध भी ग्रंथोें में दिए वर्णन से ज्ञात होता है, उदा. श्रीविष्णु के कानों में मकराकार कुंडल; शिव एवं श्री गणपति के सर्पाकार कुंडल तथा उमा एवं अन्य देवियों के पत्राकार एवं शंखाकार कुंडल । संत तुकाराम महाराजजी ने पंढरपुर के श्री विट्ठल भगवान का वर्णन करते हुए एक अभंग में ‘मकरकुंडले तळपति श्रवणी ।’ (अर्थात कानों में मकरकुंडल चमक रहे हैं ।), इन शब्दों में उनके कान के मकराकार कुंडलों का उल्लेख किया है ।
महत्त्व
- ‘जीव द्वारा ब्रह्मतत्त्व से संबंध स्थापित करने के लिए अध्यात्मशास्त्र अनुसार किया जाने वाला कृत्य अर्थात कर्णकुंडलों का उपयोग करना है । जीव जब जन्म लेता है, तब वह पूर्णरूप से माया से बंधा रहता है । वह उस बंधन से मुक्त होकर निरंतर ब्रह्मचिंतन में रहे, इस हेतु कर्णभेद कर जीव को कर्णकुंडल पहनाए जाते हैं ।’
‘बालियों में (रिंग में) रिक्ति होने से उसमें निर्गुण तत्त्व की मात्रा अधिक होती है । बाली से श्वेत रंग के निराकार स्पंदन प्रक्षेपित होते हैं । इन स्पंदनों के कारण मन अंतर्मुख होता है ।’
कान में बाली (रिंग) धारण करने एवं न करने पर अनुभूत अंतर
कानमें बाली न होना | कानमें बाली होना | |
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१. कान | कानोंपर दबाव प्रतीत होना | कानोंको हलकापन प्रतीत होना |
२. गाल | गालके स्थानपर दबाव प्रतीत होना एवं लगना जैसे गालके स्नायु कडे हो गए हैं | गालके स्थानपर दबाव घट जानेके कारण हंस पाना, हंसते समय कष्ट न होना एवं गालके स्नायु शिथिल होना |
३. श्वास | श्वास लेते समय बाधा समान लगना एवं श्वासकी गति समझमें न आना | श्वास धीरे एवं एक लयमें होना और श्वासपर ध्यान केंद्रित होना |
४. थकान / प्राणशक्ति | थकान होना | प्राणशक्ति बढना |
५. मनमें आनेवाले विचारोंकी मात्रा | अधिक | अल्प |
६. मनको उत्साह लगना / न लगना | न लगना | उत्साह एवं आनंद लगना |
७. बुद्धिपर आया आवरण | ‘बुद्धिपर आवरण है’, ऐसे लगना | बुद्धिपर आया आवरण नष्ट होना |
८. अन्य | पेटमें मरोड समान होना | ऐसा प्रतीत होना कि ईश्वरीय चैतन्यका प्रवाह शरीरमें मूलाधारचक्रतक गया है |
३. झुमके (कान का लटकने वाला आभूषण)
महत्त्व
- ‘झुमके यथासंभव छोटे एवं गोलाकार हों । ऐसे झुमके धारण करने से वायुमंडल में प्रक्षेपित सकारात्मक गोलाकार नाद तरंगें कान की ओर आकर्षित होती हैं तथा घडी की सुइयों की विपरीत दिशा में प्रक्षेपित कष्टप्रद नाद तरंगों से कान की रक्षा करने में सहायता मिलती है ।’
- ‘झुमके क्रियाशक्ति धारण करते हैं । झुमकों के हिलने से वायुमंडल की क्रियाशक्ति के संक्रमण को गति प्राप्त होती है । इससे देह के सर्व ओर इन तरंगों का रजोगुणी गतिमान कवच निर्मित होने में सहायता मिलती है । झुमके हिलने से मस्तिष्कविवर(रिक्ति) का अनिष्ट शक्तियों के आक्रमणों से रक्षा होने में सहायता मिलती है ।’
झुमकों वाले कर्णाभूषण पहनने के सूक्ष्म-स्तरीय लाभ दर्शाने वाला चित्र
१. सूक्ष्म-ज्ञानविषयक चित्र में अच्छे स्पंदन
- ४ प्रतिशत’ – प.पू. डॉ. आठवले
- ‘४ प्रतिशत’ – श्रीमती योया वाले
२. ‘सूक्ष्म-ज्ञानविषयक चित्र में स्पंदनों की मात्रा : ईश्वरीय तत्त्व २ प्रतिशत, आनंद ३ प्रतिशत एवं चैतन्य ३ प्रतिशत
३. कान में आकर्षित ईश्वरीय तत्त्व : २ प्रतिशत
४. कान से प्रक्षेपित ईश्वरीय तत्त्व : १ प्रतिशत
अन्य सूत्र
१. कर्णाभूषण धारण करने से स्त्री पर सूची-दाब (एक्यूप्रेशर) पद्धति के आध्यात्मिक उपाय होते हैं एवं उसके शरीर में चैतन्य पैâलकर अनिष्ट शक्तियोंद्वारा निर्मित काली शक्ति का आवरण दूर होता है ।’
विविध प्रकार के झुमके पहनकर साधिकाद्वारा किए गए सूक्ष्म-ज्ञानविषयक प्रयोग
१. असात्त्विक कलाकृतियुक्त झुमके (रज-तम २ प्रतिशत)
- अंगूर के गुच्छे-समान कलाकृति के झुमके :
- ‘कानों में झुमके पहनने पर मेरे मन में विचार व शरीर पर काला आवरण बढ गया । मुझे अस्वस्थता होने लगी । मुझे कष्ट देने वाले मांत्रिक का प्रकटीकरण बढा ।
- झुमके के प्रत्येक गोले से नीचे की दिशा में अनेक शस्त्र जाते हुए दिखाई दिए । सर्व ओर से अनेक अस्त्र छूट रहे थे । झुमके असुरों के शस्त्र-समान अनुभव हो रहे थे ।
- कानोें से झुमके उतारने के उपरांत मेरा कष्ट घटकर मुझे हल्का लगने लगा ।’
- मोती के झुमके (रज-तम २ प्रतिशत) :
- मेरा श्वास तीव्र गति से होने लगा ।
- मुझे कुछ भी सूझ नहीं रहा था । मेरी स्थिति किंकर्तव्यविमूढ-समान हो गई एवं मेरे मन की अस्वस्थता बढ गई ।’
निष्कर्ष : झुमके की असात्त्विक कलाकृति के कारण उसमें कष्टदायक स्पंदन निर्मित हुए । इन स्पंदनों के कारण साधिका को विविध प्रकार के कष्ट हुए
२. सात्त्विक कलाकृतियुक्त झुमके
- सिकडीयुक्त स्वर्ण के झुमके (सात्त्विकता २ प्रतिशत) :
- ‘झुमके पहनते समय तीन-चार बार नीचे गिरे ।
- झुमके पहनने केउपरांत मेरा कष्ट बढ गया । मेरे मस्तिष्क की शिराएं तन गर्इं । मेरी पलकें झपकने लगीं । मेरा जी मितलाने लगा तथा पेट एवं छाती से उष्ण भाप निकलने लगी । मुझे अधिक नींद आने लगी ।
- कुछ समयोपरांत सिर, जीभ एवं गले में अच्छी संवेदनाएं प्रतीत होने लगीं । मेरा संकोच समाप्त होकर निर्भयता बढ गई । ऐसा लगा कि मुझ में क्षात्रभाव है । ‘मैं किसी से नहीं डरती’, ऐसे विचार मेरे मन में आ रहे थे ।
- मुझे झुमके हीरे के समान लग रहे थे ।
- ‘मुझमें मांत्रिक का प्रकटीकरण बढ गया था’, यह झुमके निकालने के उपरांत मुझे ज्ञात हुआ ।’
निष्कर्ष : झुमके की सात्त्विक कलाकृति के कारण उसमें सात्त्विक स्पंदन उत्पन्न हुए । इन स्पंदनों के कारण साधिका को पीडित करने वाले मांत्रिक को कष्ट हुआ ।
४. कर्णफूल
स्वर्ण के कर्णफूल (सात्त्विकता १ प्रतिशत)
- ‘२५.९.२००६ को कु. शुभांगी दीदी (सनातनकी साधिका श्रीमती शुभांगी पिंपळे) के कर्णफूलों की ओर देखकर लगा कि ‘कर्णफूल अंतर्मुख हैं’ । कर्णफूल ब्रह्मास्त्र की भांति प्रतीत हो रहे थे । मुझे लग रहा था कि उसमें ब्रह्मतत्त्व अधिक मात्रा में विद्यमान है । ऐसा लग रहा था कि ‘कर्णफूलों के प्रत्येक गोले पर काला आवरण है’ । कर्णफूल कान में धारण करने पर मुझे ग्लानि-सी हो रही थी । तदुपरांत कर्णफूल हाथ में लेने पर २ मिनट उपरांत मेरा कष्ट घट गया और बुद्धि पर आया आवरण अल्प होकर मांत्रिक का प्रकटीकरण घट गया ।
- कर्णफूल कान में धारण करने पर मेरे मन में कोई विचार नहीं था और मैं बाहर देख रही थी । मेरा मन आनंदित एवं संतुष्ट था । भूत-भविष्य का कोई विचार नहीं था और मैं अपनी वर्तमान स्थिति अनुभव कर पा रही थी । कर्णफूल धारण कर लेटने पर मेरे शरीर की क्रियाएं श्रीमती शुभांगी दीदी समान हो रही थीं । मुझे अपने सिर पर श्वेत हीरों का मुकुट दिखाई दिया ।
- साधारणतः मेरी मनःस्थिति दुविधापूर्ण रहती है । कभी-कभी कृत्य करते समय मुझ में उतावलापन रहता है । कृत्य करते समय एवं उसके उपरांत भी उस कृत्य के विषय में मेरे मन में पुनः-पुनः विचार आते हैं । मेरे मन को समाधान एवं निश्चिंति होने तक विचार आते रहते हैं । इसलिए अनमनेपन से कार्य होता है तथा उसमें अधिक समय लगता है । किसी कृत्य का विचार समाप्त होने पर तत्काल दूसरा विचार आरंभ होता है । कर्णफूल धारण करने के उपरांत ‘पहले विचार, विचारों के अनुसार आचरण तथा उस पर पुनःविचार नहीं’ ऐसी दशा हो गई । मेरे शरीर की कोई अनावश्यक गतिविधि नहीं हो रही थी । मन एवं बुद्धि के स्तर पर सर्व कृत्य अचूक लग रहे थे ।
- ‘मुझे लगा कि ‘मैं श्रीमती शुभांगी पिंपळे के समान अंतर्मुखता अनुभव कर रही हूं । मैं उनके मन की स्थिति को समझ रही हूं’ । समय-समय पर मुझे अपने स्थान पर श्रीमती शुभांगी दीदी की आकृति दिखाई दे रही थी तथा मेरा आचरण भी उसी प्रकार हो रहा था । मुझे लगा कि ‘मन में निर्गुण ईश्वर का विचार आकर उस दिशा में मेरा मार्गक्रमण हो रहा है’ । मन के स्तर की अपेक्षा बुद्धि से उचित-अनुचित समझ कर करना, इससे ध्यान मन के विचारों की अपेक्षा सेवा के कृत्य तक ही सीमित था । उसमें भी निरपेक्ष भाव था । ‘मन में विचारों की मात्रा घटकर वर्तमानकाल में रहना’, इस सहजावस्था का मुझे अनुभव हुआ । ऐसा होते हुए भी मुझे आध्यात्मिक कष्ट अनुभव हो रहा था । इसलिए मुझे आनंद अल्प मात्रा में प्रतीत हुआ । कर्णफूल उतारने पर मैं पुनः पूर्ववत स्वभाव में लौट आई ।’
निष्कर्ष
अ. संपूर्ण प्रयोग से आगे दिए अनुसार एकत्रित निष्कर्ष निकालना संभव हुआ । कर्णफूल की सात्त्विक कलाकृति के कारण उससे सात्त्विक स्पंदन निर्मित हुए । इन सात्त्विक स्पंदनों के कारण साधिका पर आध्यात्मिक उपाय हुए एवं साधिका को पीडित करने वाले मांत्रिक को कष्ट हुआ ।
आ. मन के विचारों के अनुसार हमारे स्पंदन बनते हैं और ये स्पंदन हमारे द्वारा प्रयुक्त वस्तुओं से भी प्रतीत होते हैं । इस तत्त्व के अनुसार कु. रजनी को अपने कानों में सनातन की साधिका कु. शुभांगी के कर्णफूल पहनने पर कु. शुभांगी की अंतर्मुखता अनुभव हुई तथा अन्य अच्छी अनुभूतियां भी हुर्इं ।
५. कर्णाभूषण को सिकडी लगाना
१. ‘कान के अलंकार के ऊपर और नीचे की ओर सिकडी लगाना, अर्थात कर्णाभूषण की प्रक्षेपण शक्ति में वृद्धि करना ।
२. सिकडी, तरंगों की वाहक समझी जाती है । सामान्य स्त्री को सिकडी युक्त कान के अलंकारों से अधिक लाभ होता है, जबकि साधक-जीव अपने व्यक्त भाव के कारण सिकडी रहित कान के अलंकारों से भी अपेक्षित तत्त्व का लाभ प्राप्त कर सकते हैं ।
३. सिकडी से उस विशिष्ट धातु में विद्यमान तत्त्व के अनुसार व्यक्त स्तर की सगुण तरंगों के कार्यरत होने की मात्रा अधिक रहती है ।’
४. ‘कान के सर्व ओर स्वर्ण की बेल धारण करने से बेल से प्रक्षेपित चैतन्य-तरंगों के कारण कान की रक्षा होती है तथा वे स्पंदन कान के सर्व ओर घूमते रहते हैं । स्वर्ण के कारण मन स्थिर एवं प्रसन्न होने में सहायता मिलती है ।’
६. कान के छोर पर एक से अधिक छेद कर उनमें लौंग समान अलंकार धारण करना अयोग्य
कर्णपालि की विशेषता
‘कर्णपालि मूलतः तेज का घनीकरण करने में संवेदनक्षम होती है । कर्णपालि के छिद्र से बाह्य दिशा में रज-तमात्मक तरंगें उत्सर्जित होती हैं । फलस्वरूप उन पर नियंत्रण रखने वाले स्वर्ण के अलंकार के स्पर्श से विशिष्ट स्तर का तेज कर्णपालि की त्वचा के सूक्ष्म-छिद्र में घनीभूत कर रखा जाता है ।
कान के छोर पर एक से अधिक छेद करने से होने वाली हानि
कान के छोर पर एक से अधिक छेद करने पर इसकी तेजरूपी शक्ति का व्यय होता है । इसलिए कान के सर्व ओर विद्यमान सुरक्षा मंडल का वलय भंग होता है । इससे कान की रिक्ति से देह में काली वायु के रूप में शक्ति संक्रमित करने वाली अनिष्ट शक्तियों की मात्रा बढती है । इससे सिर, गर्दन तथा गले के विकार बढते हैं । संक्षेप में, कान के छोर पर एक से अधिक छेद कर उनमें लौंग समान अलंकार धारण करने की प्रक्रिया के कारण लाभ की अपेक्षा हानि की मात्रा ही अधिक होती है ।’
७. कनककली (बुगडी) पहनना एक रूढि होना तथा इससे हानि अधिक होना
‘कनककली पहनना एक रूढि है । कान में एक ही छेद कर उसमें कर्णाभूषण धारण करने को धार्मिक आचार शुद्धता का आधार है । कान के ऊपरी छोर पर एक और छेद कर उसमें कनककली पहनना एक कनिष्ठ आचार माना गया है । कनककली धारण करने से कुछ मात्रा में कान के छोर से तेज की तरंगों का ऊत्सर्जन होने पर भी इस प्रक्रिया से तेज का व्यय होने की आशंका ही अधिक होती है । अतः कनककली धारण करने को अधिक महत्त्व नहीं दिया गया ।
अनुभूति
एक से अधिक कर्णाभूषण न धारण करने पर अधिक अच्छा लगना : ‘जनवरी २००८ में एक बार मैं प.पू. डॉक्टरजी से मिलने गई थी । उस समय मैंने कानों में अनेक कर्णाभूषण धारण किए थे । यह देखकर प.पू. डॉक्टरजी ने मुझसे कहा, ‘‘कितने कर्णाभूषण पहने हैं ! आचारधर्मानुसार एक कान में एक ही कर्णाभूषणधारण करना सात्त्विक होता है ।’’ उस समय उनके बताए अनुसार मैंने तत्काल आचरण कर अतिरिक्त कर्णाभूषण उतार दिए । इसके उपरांत ऐसा लगा कि मेरे कान हल्के हो गए हैं । कानों पर आया काली शक्ति का आवरण दूर होने से मुझे अच्छा लगने लगा ।’
संदर्भ ग्रंथ : सनातन का सात्विक ग्रंथ ‘मांगटीके से कर्णाभूषण तक के अलंकार’
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