Tuesday, 13 March 2018


मूर्ति पूजा विकसित बुद्धि का चेतना सोपान है
इस्लाम और ईसाइयत के प्रभाव से हिंदुओं के कुछ संप्रदाय भी बड़े उत्साह से मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं और कुछ इस भाव से करते हैं मानो वे किसी उच्चतर आध्यात्मिक चेतना से संपन्न है ,परंतु सत्य इस से नितांत विपरीत है.
सत्य यह है कि धार्मिक रूप से समृद्ध सभी समाजों में और अनेक राष्ट्रों में मूर्तियों की प्रतिष्ठा रही है :मिस्र , चाल्डिया यवन आदि सभ्यताओं और राज्य में तथा सभी बौद्ध राष्ट्रों में और हिंदुओं में मूर्ति पूजा प्रचलित रही है. मेक्सिको की मय सभ्यता और पेरू की इंका सभ्यता में भी मूर्ति पूजा विस्तार से प्रचलित थी .
हिंदुओं के प्रभाव से समस्त मध्य एशिया और उत्तरी अफ्रीका में तथा पूर्व एशिया में सर्वत्र मूर्ति पूजा होती रही है और आज भी ईसा से 10000 वर्ष पूर्व तक के मंदिर पाए गए हैं जहां मूर्ति पूजा होती थी
दूसरी ओर अनेक अविकसित कबीले मूर्ति पूजा से अनजान रहे हैं .एस्किमो और टैटू जैसे अविकसित समाजों में मूर्ति पूजा अज्ञात रही है .
जी डी अल वियेला ने लेफितन के हवाले से कहा है अधिकांश आरंभिक समाजों में मूर्तिपूजा अज्ञात रही है क्योंकि मूर्ति पूजा पर्याप्त धार्मिक चेतना के बाद ही संभव है.
यह आकस्मिक नहीं है कि भारत में धार्मिक संवेदना वाले समूहों और प्रतिभाओं ने ही मूर्ति पूजा को बढ़ावा दिया है अथवा मूर्तियां बनाई हैं क्योंकि यह मूर्तियां वस्तुतःआंतरिक यथार्थ को यथासंभव अपने अनुरूप बाहरी रूपों में व्यक्त करने वाली प्रतिमाएं हैं जो विकसित संवेदना और विकसित आध्यात्मिक चेतना के द्वारा ही रची जा सकती हैं.
उदाहरण के लिए सभी जानते हैं कि बौद्ध दर्शन अत्यंत विकसित है. वहां चित्त भूमियों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म भेद वर्णित और विश्लेषित किए गए हैं . शोभन चित्त और मलिन चित्त में क्या अंतर है ,इसका सूक्ष्म विश्लेषण और विभाजन बौद्ध धर्म में हुआ है ..
बौद्ध दर्शन बताता है कि शोभन चित्त के 25 धर्म हैं: श्रद्धा ,स्मृति, अलोभ . अद्वेष, सम्यक वाणी, ऋजुता , सम्यक कर्म , पाप से विरति , शांति , कर्मण्यता. करुणा , प्रज्ञा ,मुदिता ,मोह हीनता आदि ..
बौद्ध दर्शन के अनुसार सामान्य धर्म सात हैं :स्पर्श , वेदना, संज्ञा. चेतना, एकाग्रता , जीवितेंद्रिय तथा मनसिकार .
इसी प्रकार प्रकीर्ण चित्त धर्म छः है :वितर्क, विचार ,प्रीति, वीर्य ,संकल्प और अधिमोक्ष .
दूसरी ओर अकुशल चित्त के 14 धर्म हैं : लोभ , मोह , द्वेष , विपरीत दृष्टि ,मान, ईर्ष्या ,मात्सर्य , पछतावा आदि.
इस प्रकार चित्त का और चित्त के धर्मों का बौद्ध दर्शन में गहरा विश्लेषण है .
ऐसे प्रचंड पुरुषार्थी, परम विकसित , बुद्धि के द्वारा साध्य बौद्ध धर्म में मूर्तियों की श्रेष्ठतम परंपराएं रही हैं .
चित्त की काम भूमि ,रूप भूमि, अरूप भूमि और लोकोत्तर भूमि की विशद और गहरी मीमांसा बौद्ध दर्शन में है .
स्वयं रूप की भी वहां उच्च कोटि की मीमांसा है .,समस्त रूपों और उनके भेदों के परे का जो बोध है उसकी साधना का पुरुषार्थ बौद्ध धर्म में निर्देशित है .
इससे प्रकट है कि मूर्ति पूजा विकसित बुद्धि का चेतना सोपान है .
किसी भी समृद्धि पूर्ण बौद्धिक स्तर वाले समाज में अपने द्वारा बनाई गई किसी मूर्ति को ही परम सत्ता का वास्तविक रूप समझ लेना असंभव है .जिन लोगों को मूर्तियां रचने और उनमें प्राण प्रतिष्ठा करने तथा उन के माध्यम से ध्यान करते हुए बोध के सूक्ष्मतर और उच्चतर सोपानों तक पहुंचने की प्रक्रिया का ज्ञान नहीं होता, ऐसे मूर्ख लोग ही यह समझते हैं कि अमुक समाज मूर्ति में ही ईश्वर देखता है . परंतु जैसा हमने बौद्ध दर्शन के उदाहरण से बताया ,जो दर्शन चित्त के सूक्ष्म से सूक्ष्म स्पंदनों और क्रियाओं का ऐसा गहरा विश्लेषण करता है ,वह किसी स्थूल रूप को परम सत्ता कैसे मान सकता है?
वह भी जब उसे पता है कि मूर्तियां हमने स्वयं बनाई हैं अर्थात चेतना के जिस स्तर से मूर्ति बनती है और अपने सूक्ष्म रूप में वह चेतना के जिस स्तर का संकेत करती है, इसे जानने वाला व्यक्ति स्वयं मूर्ति को परमसत्ता कैसे मान सकता है ?
इसलिए जो लोग समझते हैं कि मूर्तिपूजक समाज ,मूर्ति को ही परमात्मा या देवता मानता है ,वे वस्तुतः अपनी स्थूल बुद्धि से ही दूसरों को देख पाते हैं.
ऐसे मूर्ख लोग ही यह मानते हैं कि अगर हमने किसी समाज की मूर्तियां तोड़ दी, तो वह समाज हम को ही परम शक्तिशाली दिव्य सत्ता मान लेगा . परंतु जो समाज मूर्तियां बनाकर उन्हें स्वयं विसर्जित करता रहता है और इसकी नियमित प्रक्रिया से भली भांति अवगत है, वह किसी मूर्ति को परम सत्ता मान ले ,यह असंभव है .
इसका बाहरी और प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि आज तक किन्ही भी निष्ठावान हिंदुओं ने किसी भी मूर्तिभंजक आततायी को श्रेष्ठ व्यक्ति तक नहीं कहा है ,उन्नत सत्ता कहना तो बहुत आगे की बात है.
सच यह है कि मूर्ति पूजा की महिमा में हिन्दू समाज के डूबे रहने का सारा गायन भारत जैसे देशों में हिंदुत्व के विरोधी कम्युनिस्टों और सेकुलरिस्टों ने इस रूप में किया है कि वह मूर्तिभंजक का बहुत गौरव बताते रहते हैं परंतु यह तो अपने हमसफर और अपने जैसे विचार रखने वालों की निराधार प्रशंसा मात्र है.
ऐसा लगता है कि भारत के सेकुलर और कम्युनिस्ट जो भीतर से बहुत कायर हैं और जिन में यह साहस नहीं है कि वह स्वयं हिंदुओं की मूर्तियां तोड़ दें ,वे इस्लाम आदि के मूर्ति भंजकों की प्रशंसा करके एक आत्म संतोष पाते हैं .इसका अर्थ है कि वे अत्यधिक कायर और नैतिक तथा आत्मिक रुप से कमजोर लोग हैं .
ईसाइयत और इस्लाम दोनों ने संसार में सबसे अधिक मूर्तियां तो भगवान बुद्ध की और बौद्ध धर्म के अन्य सिद्धों , संतो तथा भिक्षुओं की ही तोड़ी हैं. सीरिया, तुर्की, ईरान, अफगानिस्तान और इराक सहित अनेक देशों में बुद्ध भगवान की करोड़ों मूर्तियां तोड़ी गई हैं और उनके मलबे से हजारों की संख्या में मजहबी इबादतगाह बनाई गई हैं.
जबकि सभी जानते हैं कि कम से कम बौद्धों ने तो कभी भी किसी भी मूर्ति को भगवान नहीं माना ..
इससे भी यह स्पष्ट है कि तथाकथित मूर्तिभंजकों द्वारा यह प्रचार किया जाना असत्य है कि वे मूर्तियों को ईश्वर मानने के अंधविश्वास का विरोध करने के कारण मूर्तियां तोड़ते हैं .
सच तो यह है कि यह मूर्तिभंजक लोग स्वयं इस भ्रम में थे कि मूर्ति में ही कोई दिव्य सत्ता है और किसी प्रकार हम मूर्ति को तोड़ देंगे तो हिंदू समाज कमजोर पड़ जाएगा .लेकिन हजारों मंदिर और लाखों मूर्तियां तोड़े जाने के बावजूद हिंदू समाज की मुख्यधारा ने आज तक मुसलमानों के समक्ष समर्पण नहीं किया और मूर्ति पूजा तथा मंदिर निर्माण कभी भी नहीं छोड़ा .यह अवश्य है कि हिंदुओं ने आज तक विचार करके मूर्ति भंजकों के इबादतगाह को तोड़ने का कोई संकल्प नहीं लिया है पर हिन्दू तो नया करने के लिए स्वतंत्र हैं क्योंकि वे किसी एक पुस्तक से नहीं बंधे हैं . उनके मूल शास्त्र सूत्र संकेत देते हैं जिनसे विपुल अर्थ ध्वनित होते हैं अतः नया कुछ करने में हिन्दुओं को कोई बाधा नहीं है
यह मानवता के हित में है कि कम से कम अब इस्लाम और ईसाइयत के समर्थक मूर्ति भंजन के अपने पाप को गरिमा मंडित करना पूरी तरह त्याग दें क्योंकि अगर उन्होंने यह पाप नहीं त्यागा तो हिंदू और बौद्ध कभी भी उनसे प्रेरणा लेकर उनके साथ भी इबादतगाहों को तोड़ने वाला बर्ताव कर सकते हैं .
यह न तो इस्लाम और ईसाइयत के लिए अच्छा होगा और ना ही मानवता के लिए.
अपने किसी काम की प्रशंसा करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि अगर वही काम दूसरे ने हम से प्रेरणा लेकर किया तो उस का हम पर क्या असर होगा और तब हमें कैसा अनुभव होगा .
मूर्ति भंजन का ज्यादा गौरवगान करने से और बारंबार यह दर्शाने से कि हम तुम्हारे आराध्य स्थलों और प्रतिमाओं को तोड़ते रहे हैं , संबंधित समाजों को भी यह प्रेरणा मिल सकती है कि हम इनके ही इबादतगाहों को ध्वस्त कर दें.
आज तक मूर्तिभंजक लोग मूर्ति पूजकों से अधिक वीर ,आक्रामक, बलवान और साहस संपन्न प्रमाणित नहीं हुए हैं .इसलिए विश्व शांति के लिए यह आवश्यक है कि मूर्ति भंजन जैसे निरर्थक काम का गौरव बताना बंद कर दिया जाए और केवल ऐसे ही कामों का यश गाया जाए जिससे दूसरे समाज भी प्रेरणा ले सकें और उससे मानव समाज में सुख और शांति रहे.
मूर्ति भंजन का गौरव गान करने वाले ध्यान नहीं रख पाते कि अगर उनसे प्रेरणा लेकर हमारी इबादतगाहों को भी हिंदुओं और बौद्धों ने उसी प्रकार से तोड़ना शुरू कर दिया तो हमारा क्या होगा ? दूसरों के मंदिर और पूजा स्थल नष्ट करना घृणा, विद्रोह, बर्बरता , असभ्यता, आतंकवाद एवं पैशाचिकता है .अतः इसका त्याग मानवता के हित में है .
अब यह प्रमाणित हो चुका है कि मूर्ति भंजन करने वाले लोग वस्तुत अपने से भिन्न समाज के स्वभाव और पूजा विधि से, उसकी स्वाधीनता और आत्म गौरव से घृणा करते रहे हैं अथवा उसके प्रति भेदभाव करते रहे हैं इसलिए उनको असली जलन और विद्वेष इन समाजों से था ना कि उनके द्वारा पूजित मूर्तियों से .
इस प्रकार अन्य धर्मों की मूर्तियां तोड़ना पैशाचिक और बर्बर कर्म है, बर्बरता है तथा दंडनीय अपराध है .
मूर्ति भंजन करने वाले सभी लोग अपने प्रिय नेता की साधारण फोटो या छवि को रौंदा जाना पसंद नहीं करते जबकि उनके अनुसार उसका कोई आध्यात्मिक अर्थ और महत्व नहीं होता .जो लोग नितांत भौतिक वस्तुओं को भी तोडा जाना पसंद नहीं करते , उन्हें कभी भी दूसरों के द्वारा पूजित मूर्तियों को तोड़ने की सोचना ही नहीं चाहिए. . यदि वे ऐसा कुछ सोचते हैं तो यह उनके बर्बर और अविकसित होने का प्रमाण है.
इसका एक रोचक पक्ष है :मूर्तिभंजक लोग अक्सर मूर्तियों का यह कहकर मजाक उड़ाते हैं कि वे तो गूंगी और बहरी हैं तथा कुछ कर नहीं सकती . परंतु हम देखते हैं कि मूर्तिपूजक अपनी मूर्तियों का इतना अधिक स्मरण नहीं करते जितना कि यह तथाकथित मूर्तिभंजक लोग दूसरों की मूर्तियों का स्मरण करते हैं. सभी तथाकथित मूर्ति भंजक लोग मूर्तियों के प्रति ऐसा आकर्षण क्यों रखते हैं ? क्या उन्हें मूर्तियों से डर लगता है जो उन्हें नष्ट कर देना चाहते हैं? क्या उन्हें लगता है कि यह मूर्तियां हमें नष्ट कर देंगी यानी अपने अनजाने में मूर्तियों को वे एक वास्तविकता मानते हैं और उससे भयभीत रहते हैं ?इसका अर्थ है कि अपने अंतकरण में वे इन मूर्तियों को एक वास्तविक यथार्थ मानते हैं
इस प्रकार मूर्तियों के असली भजनकर्ता तो ये लोग ही हैं जो स्वयं को मूर्तिभंजक बताते हैं अन्यथा ये मूर्तियों को नष्ट करने की ओर इतना ज्यादा ध्यान नहीं देते .
रामेश्वर मिश्र पंकज

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