कुमकुम (सौभाग्यालंकार)
बालिका से लेकर प्रौढ स्त्री तक सर्व हिंदू स्त्रियां माथेपर कुमकुम लगाती हैं । केवल विधवाएं कुमकुम नहीं लगातीं । विवाहित स्त्री के लिए ‘कुमकुम’सौभाग्यालंकार माना गया है ।
उत्तर भारत में कुमकुम लगाने की अपेक्षा मांग भरने का अधिक महत्त्व है । मांग में सिंदूर भरना सौभाग्य का प्रतीक है । यह अंतर देशकाल अनुसार है ।
१. कुमकुम लगाने का महत्त्व एवं लाभ
- ‘कुमकुम लगाते समय भ्रूमध्य एवं आज्ञाचक्र पर दबाव दिया जाता है एवं वहां के बिंदु दबाए जाने से मुखमंडल के (चेहरे के) स्नायुओं को रक्त की आपूर्ति भली-भांति होने लगती है ।
- मस्तक के स्नायुओं का तनाव घटकर मुखमंडल कांतिमय लगता है ।
- कुमकुम के कारण अनिष्ट शक्तियों को आज्ञाचक्रद्वारा शरीर में प्रवेश करने में बाधा आती है ।’
- ‘कुमकुम में तारक एवं मारक शक्तितत्त्व आकर्षित करने की प्रचंड क्षमता है । स्त्री की आत्मशक्ति जागृत होने से उस शक्तिमें भी कार्यानुरूप तारक अथवा मारक देवीतत्त्व आकर्षित करने की प्रचंड क्षमता निर्मित होती है । देवीतत्त्व के कृपाशीर्वाद हेतु स्त्री के भ्रूमध्यपर स्वयं अथवा अन्य स्त्रीद्वारा कुमकुम लगाए जाने पर स्त्री में विद्यमान तारक शक्तितत्त्व के स्पंदन जागृत होते हैं । इससे वातावरण में स्थित शक्तितत्त्व के पवित्रक (पवित्र कण) उस स्त्री की ओर आकर्षित होते हैं ।’
२. कुमकुम की सुगंध, उसका रंग एवं उसकी शक्ति
के कारण संभावित लाभ की मात्रा और जीव पर परिणाम
कुमकुम के घटक | लाभ की मात्रा (प्रतिशत) | जीव पर परिणाम |
---|---|---|
१. गंध | ५ | प्राणशक्ति में वृद्धि होना एवं देह में विद्यमान सुक्ष्म अनावश्यक वायु का विघटन होना |
२. रंग | ५ | रंगकणों से प्रक्षेपित तेज से शरीर में विद्द्यमान काली शक्ति का विघटन होना |
३. शक्ति | २० | शक्ति तरंगों के कारण आज्ञाचक्र जागृत होकर वायुमण्डल में विद्यमान सत्त्विक तरंगों के स्रोत का आवश्यकतानुसार ग्रहण एवं प्रक्षेपण होना |
कुल | ३० |
३. कुमकुम कब एवं कैसे लगाएं ?
- अपने माथे पर कुमकुम लगाना : स्नान के उपरांत दाहिने हाथ की अनामिका से माथे पर कुमकुम लगाएं । माथे पर कुमकुम चिपके, इसके लिए मोम का उपयोग करें । माथे पर प्रथम मोम लगाकर उस पर कुमकुम लगाएं ।
- अनामिका से माथे पर कुमकुम लगाने का शास्त्रीय आधार : अनामिका से प्रक्षेपित आप तत्त्वात्मक तरंगों की सहायता से कुमकुम में विद्यमान शक्तितत्त्व अल्पावधि में जागृत होकर प्रवाही बनता है और आज्ञाचक्र में संक्रमित हो जाता है ।
४. एक स्त्रीद्वारा दूसरी स्त्री के माथे पर कुमकुम लगाना
- एक स्त्रीद्वारा दूसरी स्त्री को कुमकुम लगाते समय मध्यमा के उपयोग का अध्यात्मशास्त्रीय आधार : ‘पुरुष हो अथवा स्त्री, उन्हें अन्यों को कुमकुम लगाने के लिए मध्यमा का उपयोग करना चाहिए; क्योंकि दूसरे को स्पर्श करते समय उसमें विद्यमान अनिष्ट शक्ति का संक्रमण उंगली के माध्यम से हमारी देह में हो सकता है । तेज की प्रबलतायुक्त मध्यमा के उपयोग से स्वयं की देह की रक्षा होती है ।’
अन्य सूत्र
- कुमकुम लगाने से स्त्री की ओर शक्ति के कण प्रक्षेपित होते हैं । इससे उस पर आध्यात्मिक उपाय होते हैं एवं उसकी रज-तम से रक्षा होती है । साथ ही इससे उसका मन शांत रहता है । साधक की साधना के अनुसार कुमकुम लगानेवाली स्त्री का देवता अथवा ईश्वर से १ प्रतिशत आंतरिक सान्निध्य बढ सकता है ।’
५. स्त्रियों द्वारा मांग में कुमकुम अथवा सिंदूर भरने के लाभ
- अनिष्ट शक्तियों से रक्षा : स्त्रियों का मस्तक पुरुषों के मस्तक की तुलना में कोमल एवं संवेदनशील होता है । केश में मांग का भाग मध्यभाग में होने से वह सर्वाधिक संवेदनशील होता है । इस स्थान का अनिष्ट शक्तियों से रक्षा करने के लिए मांग में सिंदूर भरा जाता है ।
- सिंदूर की अपेक्षा कुमकुम का उपयोग अधिक उचित : कुमकुम में विद्यमान मारक तत्त्व के कारण, अनिष्ट शक्तियों के आक्रमणों से स्त्री की सूक्ष्म देह की रक्षा होती है । कुमकुम के चैतन्य के कारण उसकी सूक्ष्मदेह सात्त्विकता ग्रहण करती है । इससे उसकी शुद्धि होने में सहायता मिलती है । सिंदूर में कुमकुम की तुलना में मारक तत्त्व अल्प मात्रा में होता है; इसलिए सिंदूर की अपेक्षा कुमकुम का उपयोग अधिक उचित है ।’
६. बिंदी लगाने की अपेक्षा कुमकुम लगाना अधिक योग्य क्यों ?
‘कुमकुम पवित्रता एवं मांगल्य का प्रतीक है । कृत्रिम घटकों की अपेक्षा प्राकृतिक घटकों में देवताओं की चैतन्यतरंगें ग्रहण एवं प्रक्षेपित करने की क्षमता अधिक होती है । हल्दी से कुमकुम बनता है । इसलिए बिंदी की अपेक्षा कुमकुम अधिक प्राकृतिक है । इसी प्रकार कुमकुम से प्रक्षेपित सूक्ष्म-गंधमें ब्रह्मांड में विद्यमान देवताओं के पवित्रकों को आकर्षित एवं प्रक्षेपित करने की क्षमता होती है । अतः तारक-मारक चैतन्यतरंगों के प्रक्षेपण के कारण कुमकुम लगानेवाले जीव की अनिष्ट शक्तियों से रक्षा होती है । इसलिए बिंदी लगाने की अपेक्षा कुमकुम लगाना, सात्त्विकता ग्रहण करने की दृष्टि से अधिक फलदायी है । बिंदी के पृष्ठ भाग पर लगाया जानेवाला गोंद तमोगुणी होता है । अतः वह स्वयं की ओर रज-तमात्मक तरंगें खींचता है । इन तरंगों का प्रवाह जीव के आज्ञाचक्र से शरीर में संक्रमित होता है । इससे शरीर में रज-तम कणों की प्रबलता बढती है । निरंतर बिंदी लगाते रहने के कारण उस स्थान पर अनिष्ट शक्तियों का स्थान निर्मित होने की आशंका अधिक रहती है ।’
(यह शास्त्र ज्ञात न होने के कारण, हिंदू धर्म अंतर्गत मंगल विषयों के प्रति अनास्था के कारण वर्तमान में स्त्रियां एवं लडकियां सर्वत्र कुमकुम की अपेक्षा बिंदी का ही अधिक उपयोग करती दिखाई देती हैं । – संकलनकर्ता)
अनुभूति
‘दो वर्ष पूर्व ‘बिंदी की अपेक्षा कुमकुम लगाएं’, इस आशय की सूचना‘साप्ताहिक सनातन प्रभात’में पढने के उपरांत तत्काल ही मैंने कुमकुम लगाना आरंभ किया । इन दो वर्षों में मेरी एक बार भी बिंदी लगाने की इच्छा नहीं हुई । विगत दो वर्षों से धूप में जाने अथवा वर्षा में भीगने पर भी मेरे माथे का कुमकुम कभी नहीं मिटा । यह ईश्वर की कृपा है ।’ – श्रीमती मनीषा क्षीरसागर, वर्तकनगर, ठाणे. (२००८)
७. कुमकुम लगाने के उपरांत हुई अनुभूतियां
- ‘८.११.२००७ को एक साधिका ने मुझे कुमकुम की दो पुडियां सूक्ष्मसंबंधी प्रयोग करने के लिए दीं, अर्थात उन पुडियों की ओर सूक्ष्म रूप से देखने पर क्या अनुभव होता है, यह पता करने के लिए कहा । मैंने दोनों ही पुडियों को एक-एक कर सूंघा । एक पुडिया की सुगंध से तत्काल ज्ञात हुआ कि यह ‘सनातन कुमकुम’ है । दूसरी पुडिया से उसकी तुलना में बहुत अल्प सुगंध आ रही थी । ‘सनातन कुमकुम’ माथे पर लगाने पर दिनभर मेरी आंखों में वेदना नहीं हुई । तथा मुझे ग्लानि भी नहीं हुई । (प्रायः अनिष्ट शक्तियों के कष्ट के कारण मेरी आंखों में वेदना होती है एवं सेवा करते समय मुझे समय-समय पर ग्लानि होती है ।)’- अधिवक्ता योगेश जलतारे, गोवा.
- ‘सात्त्विक मोम पर कुमकुम लगाना आरंभ करने पर एक माह में मेरी आंखों में वेदना (कष्ट) घट गई ।’ – श्रीमती अंजली गाडगीळ, गोवा. (१२.१२.२००७)
६. विधवाओं को कुमकुम क्यों नहीं लगाना चाहिए ?
अ. कुमकुम का कार्य
पति के निधन के उपरांत यह संबंध स्थूल दृष्टि से समाप्त हो जाता है । अतः इस जडत्वदर्शक शक्ति तत्त्व की आवश्यकता समाप्त हो जाती है । अब अंतःस्थ ‘वैराग्यभाव’ नामक ऊर्जा जागृत करने की आवश्यकता होती है । अतः उस स्त्री को माया त्याग, अर्थात पतिव्रता-धर्म दर्शक सौभाग्यरूपी अलंकारों का, साथ ही कुमकुम आदि शक्ति तत्त्वात्मक घटकों का त्याग करना सिखाया जाता है । इस प्रकार उसका मार्गक्रमण पति का स्मरण त्याग कर ईशतत्त्व की ओर होने के लिए इन महत्त्वपूर्ण आचारों की सहायता ली जाती है । इसलिए स्त्री ‘सर्वसंगपरित्याग’की भूमिका से ‘परित्यक्ता’ (वैराग्यसंपन्न) बनने पर उसमें वैराग्यरूपी तेज की निर्मिति होने लगती है । फलस्वरूप वह वास्तविक अर्थ से द्वैतदर्शक शिवरूप से तत्त्व स्वरूपी शिवस्वरूप में विलीन होने लगती है । इससे स्पष्ट होता है कि हिंदू धर्म के प्रत्येक आचार में ‘मोक्ष प्रधानता’ के तत्त्व को ही मान्यता है ।
‘विधवा स्त्री कुमकुम लगाती है, तो उसमें विद्यमान शक्ति कार्यरत होने की मात्रा बढती है । पति के निधन के उपरांत सर्वस्व का त्याग कर शिवरूप से एकरूप होना, इतना ही उसका पत्नी धर्म शेष रह जाता है । कुमकुम न लगाने पर उसमें विद्यमान प्रकट शक्ति, अप्रकट रूप में रहने की मात्रा बढकर उसकी उन्नति शीघ्र होती है, अर्थात अप्रकट शक्ति द्वारा उसे वैराग्य प्राप्त होता है । कुमकुम लगाते समय उसे निरंतर पति का स्मरण रहता है । इससे पति की लिंगदेह को पुनः भूलोक में आना पडता है और आगे की गति में बाधा उत्पन्न होती है ।
आजकल की बुद्धिवादी स्त्रियां पति के निधन के उपरांत कुमकुम लगाती हैं, यह सोच कर कि इसमें कोई आपत्ति नहीं है । इस कृत्य से मृत पति की एवं उस विधवा की आध्यात्मिक स्तर पर हानि हो सकती है । इसलिए ‘हिंदू धर्म के विधिवत शास्त्र शुद्ध संस्कारों के पालन में ही हमारा कल्याण है’, यह समझकर धर्म के आगे अपनी बुद्धि न चलाकर धर्मपालन की ओर गंभीरता पूर्वक ध्यान दें ।’
७. अनिष्ट शक्तियों के कष्ट से पीडित
साधिकाओं को कुमकुम लगाने के उपरांत हुई अनुभूतियां
- ‘मुझे कुमकुम लगाने का मन नहीं करता था ।’ – कु. रूचिरा, पनवेल.
- ‘पिछले आठ दिनों से मेरे माथे पर बिंदी नहीं रहती, वह बार-बार गिर जाती है । अब कुमकुम लगाना आरंभ किया है, तो वह प्रत्येक बार मिट जाता है ।’- कु. रमा, गोवा.
- ‘फाल्गुन शुक्ल पक्ष त्रयोदशी के दिन (१९.३.२००८ को) मेरे मन में अत्यधिक विचार आ रहे थे । मेरे लिए श्वास लेना भी कठिन हो रहा था । स्नान के उपरांत कुमकुम लगाने पर उससे श्वेत किरणों का प्रक्षेपण होकर मेरे मुख पर बना काली शक्ति का आवरण घटता प्रतीत हुआ और मेरे मुख पर अनुभूत दबाव भी न्यून हो गया । मेरे मन के विचार घट गए तथा मुझ में विद्यमान मांत्रिक का प्रकटीकरण घट गया । मैं श्वास भी भली-भांति ले पाई एवं हल्कापन अनुभव होने लगा ।’ – कु. रजनी, गोवा.
संदर्भ ग्रंथ : सनातन का सात्विक ग्रंथ ‘मांगटीके से कर्णाभूषण तक के अलंकार‘
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