Friday 25 September 2015

अफगानिस्तान : मरहम और खंजर के बीच-
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अफगानिस्तान जानता है कि भारत के अलावा किसी की ये प्राथमिकता में नहीं है कि अफगानिस्तान में अमन बहाली हो। लेकिन वो पाकिस्तान को झटक देने की स्थिति में भी नहीं है, क्योंकि तालिबानियों की कलाश्निकोव राइफल्स का ट्रिगर और अफगानिस्तान के बाज़ारों में मंडरा रहे आत्मघाती हमलावरों के बारूद का स्विच आईएसआई के हाथ में है। अब लड़ाई मरहम रखने वाले हाथों और कातिल के खंजर के बीच है।
-प्रशांत बाजपेई, पाञ्चजन्य
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अगस्त का दूसरा सप्ताह। अफगानिस्तान के लोग भारत को धन्यवाद दे रहे थे। खबर आ रही थी कि बहुउद्देश्यीय सलमा बाँध के पुननिर्माण का काम , जिसका बीड़ा भारत ने उठाया था, पूरा होने को है। युद्ध से जर्जर अफगानिस्तान के लिए अच्छी ख़बरें कम ही होती हैं। अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए, अफगानियों ने 100 मीटर लंबा तिरंगे को मानव श्रंखला बनाकर लहराया।
संदेश साफ़ था कि यहाँ लोग भारत से प्यार करते हैं। इसके पहले अगस्त के दूसरे हफ्ते में ही, अफगानिस्तान की राजधानी काबुल के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर भीषण आतंकी हमला हुआ। इसके पूर्व में अफगानिस्तान में कतार से बम धमाके हुए। इन दोनों घटनाओं में सीधा संबंध है। देश के द्वितीय राष्ट्रपति अशरफ घानी ने कहा "हमने अमन की उम्मीद की थी, लेकिन पाकिस्तान की जमीन से हमारे खिलाफ जंग की घोषणा कर दी गयी है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने मुझसे वादा किया था कि अफ़ग़ानिस्तान के दुश्मन पाकिस्तान के दुश्मन होंगे। हम चाहते हैं कि इस वादे का सम्मान किया जाए।"
कूटनीतिक वार्ताएं और राजनैतिक दांव-पेंच तो चलते रहेंगे, लेकिन सुरक्षा विशेषज्ञ देख पा रहे हैं कि आईएसआई ने अफगानिस्तान की राजधानी में जब चाहे तब, जैसा चाहिए वैसा, हमला करने की अपनी क्षमता का प्रदर्शन कर दिया है। इन हमलों को पेशेवराना ढंग से और भलीभांति योजनापूर्वक अंजाम दिया गया। दिमाग आईएसआई का है और हाथ पाकिस्तानी फ़ौज के खासम-ख़ास हक्कानी नेटवर्क का।
हमले के पीछे ख़ास मकसद है। पाक फ़ौज चाहती है की अफगानिस्तान के शक्ति संतुलन में अशरफ घानी भारत को महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का मौका न दें। और कोई आश्चर्य की बात नहीं कि हस्तक्षेप को अनिच्छुक ओबामा, उत्सुक चीन, तालिबानियों के बढ़ते कदम, और आईएसआई के इस शक्ति प्रदर्शन ने अशरफ घानी को विचलित करना शुरू कर दिया हो।
अमेरिका और चीन दोनों इस क्षेत्र में चल रही रस्साकशी के महत्वपूर्ण किरदार हैं। दोनों के बीच प्रतिस्पर्धा है और पाकिस्तान ने बड़ी धूर्तता से इन दोनों प्रतिस्पर्धियों के बीच संतुलन साध रखा है। पाकिस्तान अपनी सामरिक-भौगोलिक स्थिति का पूरी तरह दोहन और अफ़ग़ानिस्तान का भयादोहन कर रहा है। अफगानिस्तान में भारत का प्रभाव बढ़ना अफगानिस्तान में पाकिस्तान की साज़िशों को पलीता लगा सकता है। फिर उसका आरोप ये भी है कि भारत बेहद चतुराई से अफगानिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल बलूचिस्तान और सिंध के विस्फोटक असंतोष को उभारने में कर रहा है।
तालिबान का कुख्यात प्रमुख मुल्ला उमर दो साल पहले ही मर चुका है। 29 जुलाई 2015 को अफगान सरकार ने उमर की मौत के बारे में खुलासा किया। राष्ट्रपति भवन से जारी बयान में कहा गया की उमर कराची में छुपा हुआ था और वहीँ के एक अस्पताल में उसने आखिरी सांस ली। पाकिस्तान ने इस खबर का खंडन किया और पाकिस्तान के इशारे पर कुछ तालिबानियों ने मुल्ला उमर के जिन्दा होने का दावा किया। अब इस बात पर मंथन हो रहा है कि तालिबान प्रमुख की मौत के बाद पाकिस्तान की मध्यस्थता अफगानिस्तान सरकार-तालिबान शांतिवार्ता का भविष्य क्या होगा।
यहाँ कुछ सवाल उठते हैं। जैसे -एक तरफ अफगानिस्तान को धमाकों से दहलाकर दूसरी ओर अफगानिस्तान सरकार और तालिबान के बीच शांति समझौते के लिए मध्यस्थता करवाकर पाकिस्तान क्या हासिल करना चाहता है ? पाकिस्तान की फ़ौज़ ने काबुल तक अपना सन्देश पहुंचाने के लिए धमाके की भाषा का ही चुनाव क्यों किया ? पाकिस्तान ने मुल्ला उमर की मौत की खबर को क्यों दबाकर रखा?
सवालों के उत्तर अतीत से शुरू होते हैं। जब 80 के दशक में अफगानिस्तान में अमरीका और रूस का छाया युद्ध जारी था तब पाकिस्तान ने स्वयं को बेहद आरामदेह स्थिति में पाया। अमरीकी मदद और सउदी पैसे से आईएसआई ने अफगानिस्तान में अपनी रणनीतिक पैठ बनानी शुरू की।लड़ाई लम्बी चली। पैसा सउदी अरब दे रहा था और हथियारों का इंतज़ाम अमरीका कर रहा था।पाकिस्तान का काम जमीनी अमल करवाने का था। इस एक दशक के अनुभव में पाकिस्तान के मुंह खून लग गया और पाकिस्तान ने अफगानिस्तान के दिल में अपने नाखून गहराई से गड़ा दिए। भविष्य में अफगानिस्तान को अपनी महत्वाकांक्षाओं का चारा बनाने का फैसला लिया जा चुका था।
जब रूसी सेना अफगानिस्तान से वापिस लौटने लगी और आईएसआई का ख़ास हिकमतयार समूह अफगानिस्तान पर नियंत्रण स्थापित करने में विफल सिद्ध होने लगा ,तब आईएसआई ने इस काम के लिए तालिबान को खड़ा किया। पाक फ़ौज़ और आईएसआई ने तालिबान को आर्थिक, सैन्य सहयोग, हथियार और प्रशिक्षण दिया। जब 9/11 के हमले के बाद अफगानिस्तान के तालिबानी ठिकानों पर अमरीकी सेनाएं हमला कर रही थीं तब पाकिस्तानी सेना के विमान तालिबानियों को चुपचाप पेशावर पहुंचा रहे थे। इसमें प्रमुखता दी जा रही थी हक्कानी गिरोह को, जिसने हाल ही में अफगानिस्तान में हमले किए हैं।इस धोखेबाज़ी के लिए सालों-साल दुनिया पाकिस्तान पर उंगली उठाती रही, पाकिस्तान इंकार करता रहा , हक्कानी,तालिबानियों और अल क़ायदा को पालता भी रहा।
पाकिस्तान के पूर्व सेना प्रमुख ने इन तंजीमों को पाकिस्तान की रणनीतिक संपत्ति कहा था। इसके अपने कारण हैं। अफगानिस्तान में सक्रिय इन सब जिहादी तंजीमों की अपनी-अपनी खासियतें हैं, जिनके आधार पर पाकिस्तान इन मोहरों को अलग-अलग ढंग से इस्तेमाल कर रहा है। इसी के चलते अफगानिस्तान की शतरंजी बिसात पर कभी खूनी हमले होते है तो कभी सरकार और तालिबानियों के बीच शांति पर बात होती है। कभी अमरीकी या भारतीय दूतावास पर हमला होता है तो कभी संसद पर। आइये इन मोहरों पर एक नज़र डालते हैं।
हक्कानी नेटवर्क सोवियत सेनाओं से लड़ने के लिए सीआईए और आईएसआई द्वारा तैयार किये गए मुजाहिदीनों में से एक था, जिसने जिहादियों के बीच अच्छा नाम कमाया था। ओसामा बिन लादेन और अब्दुल अज़्ज़ाम ने अपना जिहाद का सफर हक़्क़ानी का शागिर्द बनकर ही शुरू किया था। इसका तालिबान और अल क़ायदा के साथ गठबंधन है। नेटवर्क अफगानिस्तान में अमरीका के नेतृत्व में लड़ रही नाटो सेनाओं और अफगानी सैन्य बलों पर हमले करता है। ये आईएसआई की सबसे आज्ञाकारी संतान है। साल 2011 में यूएस चेयरमैन ऑफ़ दि जॉइन्ट चीफ्स ऑफ़ स्टाफ एडमिरल माइक मुलेन ने हक़्क़ानी नेटवर्क को आईएसआई का सीधा हाथ करार दिया। उन्होंने कहा कि " ये जिहादी संगठन पाकिस्तान के प्रतिनिधि (प्रॉक्सी ) बनकर अफगान जनता -सरकार और नाटो सेनाओं पर हमले कर रहे हैं।" मुलेन ने ये भी कहा कि अमरीकी दूतावास पर हक्कानी द्वारा किये गए हमले की योजना आईएसआई ने ही बनाई थी।
गुलबुद्दीन हिकमतयार के हिज्ब-ए-इस्लामी के अलावा पाक ने अलकायदा की भी खूब सहायता की। ये दोस्ती कितनी गहरी थी इसका पता दुनिया को तब लगा जब एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन अमरीकी सील कमांडो के हाथों मारा गया। जेम्स टाउन फाउंडेशन के अनुसार एबटाबाद में पाकिस्तान की सेना ने ओसामा को पूरी सुरक्षा में रखा था जिसकी जानकारी तत्कालीन सेना प्रमुख परवेज़ मुशर्रफ और बाद में अशफ़ाक़ परवेज़ कियानी को भी थी। पाकिस्तान के ही जनरल जियाउद्दीन ख्वाजा ने भी रहस्योद्घाटन किया था की ओसामा बिन लादेन को तानाशाह परवेज़ मुशर्रफ के निर्देश पर ही एबटाबाद में रखा गया था।
तालिबान की स्थापना अफगानिस्तान में ऐसी सत्ता लाने के लिए की गई थी जो पाकिस्तानी फ़ौज के रणनीतिक लक्ष्यों को पूरा करने में उपयोगी हो। पाक फ़ौज ने आईएसआई के माध्यम से तालिबान में भारी निवेश किया और ये निवेश काफी फायदेमंद रहा। आज आईएसआई ने अपने तीन पंजों , तालिबान, हक्कानी नेटवर्क और अल कायदा के जरिये अफगानिस्तान को अपने शिकंजे में कस रखा है,और अपनी जरूरत के हिसाब से उसका खून बहाता रहता है। 1994 से 1999 के बीच लगभग 1 लाख प्रशिक्षित पाकिस्तानी लड़ाके तालिबान की तरफ से लड़े। इनमें पाक फ़ौज और आईएसआई के अफसर भी शामिल थे। लाखों लड़ाकों को अफगानिस्तान से आये पश्तून शरणार्थियों में से भर्ती किया गया था। जो भर्ती होने में अनिच्छा जताते थे उन्हें पाकिस्तान छोड़कर जाने के लिए कह दिया जाता था।
फिदायीन हमलों में मरने वाले जिहादियों और आत्मघाती बमबाजों के परिवारों पर भी पैनी नज़र रखी जाती रही है। आईएसआई ने लगातार लड़ाई से तंग आकर जिहाद छोड़ने के इच्छुक तालिबानियों को गिरफ्तार करके प्रताड़ित किया उनकी हत्याएं भी की। धूर्तता की परकाष्ठा ये कि, गिरफ्तार तालिबानियों को नाटो सेनाओं को सौपकर शाबाशी लूटी जाती थी और पैसा भी ऐंठा जाता था। न्यूयॉर्क ट्विन टावर हमले के बाद जब गठबंधन सेनाओं ने तालिबान को अफगानिस्तान से खदेड़ दिया तो आगामी एक दो वर्षों तक शान्ति रही। लेकिन 2004-05 में आईएसआई की शह पर अफगानिस्तान में तालिबानियों नें एक बार फिर भयंकर हमले शुरू कर दिए। ये सिलसिला आज तक थमा नहीं है। इस तरह अफगानिस्तान में आईएसआई की पिट्ठू तालिबान सरकार न रहने पर भी पाकिस्तान वहां की चुनी हुई सरकार को जब चाहे तब घुटनों पर लाने में सक्षम है।
पाकिस्तान अफगानिस्तान के नेतृत्व को मनचाहा आकार देने का प्रयास करता रहा है। तालिबानी सरकार तो उसकी अपनी ही सरकार थी। लेकिन जब तालिबानियों पर अमरीकी हमले शुरू हुए और ये तय हो गया कि देर सबेर मुआ उमर की सल्तनत का अंत हो जाएगा तो ऐसे सभी प्रमुख अफगानी नेताओं की हत्या का सिलसिला शुरू हो गया जिनका आने वाली सरकार में होना पाकिस्तानी इरादों के लिए खतरनाक था। सबसे महत्वपूर्ण नेता थे अहमद शाह मसूद जिन्हें अमरीका में 9/11 को हुए आतंकी हमले के दो दिन पहले ही खत्म कर दिया गया था।
हमलावर पत्रकार बनकर आये थे। उनको पाकिस्तान के लन्दन दूतावास ने वीसा प्रदान किये थे। अहमद शाह मसूद को 'पंजशीर का शेर ' के नाम से जाना जाता था। मसूद एक ऐसे व्यक्ति थे जो अफगान तालिबान,अलकायदा और पाक फ़ौज की राह का सबसे बड़ा रोड़ा थे। जीवित रहते तो निश्चित रूप से तालिबान के जाने के बाद अफगानिस्तान की सत्ता संभालते। मसूद की हत्या के बाद अब्दुल हक़ को, जिनका अफगानिस्तान के पश्तूनो में व्यापक प्रभाव था, को अगले नेता के रूप में देखा जा रहा था। अब्दुल हक़ भी धुर पाकिस्तान विरोधी थे। अब्दुल हक़ ने एक बार कहा था कि " हम अफगानी जिन्होंने आज तक कोई जंग नहीं हारी, उन पाकिस्तानियों से निर्देश कैसे ले सकते हैं, जिन्होंने आज तक कोई जंग नहीं जीती।" वे वार्ताओं में भी किसी प्रकार की पाकिस्तानी मध्यस्थता के खिलाफ थे। 26 अक्टूबर 2001 को उनकी हत्या कर दी गयी।
अब जब कि अफगानिस्तान में लोकतांत्रिक सरकार के पैर जमने लगे हैं, तो पाकिस्तान तालिबान को सत्ता का महत्वपूर्ण भागीदार बनाना चाहता है। इसीलिए अब वो अफगानिस्तान सरकार और तालिबान के बीच बातचीत का पक्षधर बन गया है। यही कारण है कि उसने मुल्ला उमर की मौत की खबर को दो सालों तक दबा कर रखा। मुल्ला उमर ऐसा नाम था जो दर्जनों तालिबानी फिरकों को इकठ्ठा रख सकता था। पाकिस्तान की बदकिस्मती से उसके मरने की खबर अफगानिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसियों तक पहुंच गयी और उन्होंने इसे सार्वजनिक कर के मजबूत तालिबानी विपक्ष खड़ा करने के पाकिस्तानी इरादों पर पानी फेर दिया।
मजेदार बात है कि कुछ ही दिन पहले मरहूम मुल्ला उमर की तरफ से बयान भी जारी हुआ था जिसमें पाकिस्तान के प्रयासों का समर्थन किया गया था। अब पाकिस्तान को मुंह छुपाते नहीं बन रहा और ओसामा के बाद मुल्ला उमर के भी पाकिस्तान में पाये जाने की खबर ने पाकिस्तान की अंतर्राष्ट्रीय ख्याति में चार चाँद लगा दिए हैं। इस खबर के बाहर आते ही तालिबानी गुटों की दरारें भी सामने आने लगीं। जंगजूं फिर बाहें चढ़ाने लगे हैं। नए तालिबान नेता मुल्ला अख्तर मुहम्मद मंसूर ने लड़ाई जारी रखने की कसम खाई है। इसी बीच अफगानिस्तान में इस्लामिक स्टेट के उभार ने परिस्थितियों को और भी जटिल बना दिया है। पाकिस्तान नए सिरे से कवायद में उलझ गया है। काबुल पर हो रहे आतंकी हमले अशरफ घानी को ब्लैक-मेल करने की कोशिश हैं कि वे भारत को अफगानिस्तान में उभरने का मौका न दें। घानी के पास विकल्प सीमित हैं ।
ज़ाहिर है, भारत के लिए चुनौती बढ़ गयी है। उधर अफगानिस्तान समझ रहा है कि भारत के अलावा किसी की ये प्राथमिकता में नहीं है कि अफगानिस्तान में अमन बहाली हो। लेकिन वो पाकिस्तान को झटक देने की स्थिति में भी नहीं है, क्योंकि तालिबानियों की कलाश्निकोव राइफल्स का ट्रिगर और अफगानिस्तान के बाज़ारों में मंडरा रहे आत्मघाती हमलावरों के बारूद का स्विच आईएसआई के हाथ में है। अब लड़ाई मरहम रखने वाले हाथों और कातिल के खंजर के बीच है।

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