Thursday, 4 February 2016

"किसी नए शुरुआत से कठिन भला क्या हो सकता है और आज समाज के सामने यही कठिन निर्णय लेने की चुनौती है ; अगर हम तैयार नहीं तो यह हमारी समस्या है क्योंकि विलम्ब समस्या को और भी जटिल बना देगा ;
स्वाधीन भारत में जनतंत्र एक औपचारिकता बनकर न रह जाए इसलिए आज यह निर्णय लेने का समय आ गया है की महत्वपूर्ण क्या होना चाहिए, राष्ट्र या राजनीति ; यह किसी नए शुरुआत से कम नहीं क्योंकि अनुकूलन की प्रक्रिया ने हमें व्यवस्था तंत्र की विकृति से इतना अभ्यस्त बना दिया है की अब न तो हमें परिवर्तन की आवश्यकता महसूस होती है और न ही हम कुछ नया सोच पाने में सक्षम हैं।
धर्म और राष्ट्रवाद एक दुसरे के पूरक हैं और किसी भी देश के व्यवस्था प्रणाली की सफलता के लिए निर्णायक भी पर जब धर्म की समझ गलत हो जाए और राजनीति ही राष्ट्रवाद का पर्याय बन जाए तो समाज mein समस्याएं स्वाभाविक होंगी।
व्यवस्था तंत्र के प्रयास की दिशा को सही करने के लिए शाशन तंत्र के नेतृत्व में परिवर्तन आवश्यक होगा क्योंकि समस्त समस्याओं के समाधान की संभावनाओं की शक्तियां संविधान ने पद के माध्यम से शीर्ष नेतृत्व को सौंपा है; ऐसे में, अगर प्रयोग का कारन ही किसी भी संसाधन की उपयोगिता सिद्ध करने में निर्णायक है तो शासन तंत्र की शक्तियों के प्रयोग का अधिकार और निर्णय भी शीर्ष नेतृत्व को प्राप्त है। अगर शाशन की उन शक्तियों के प्रयोग का समाज हित में प्रभाव व्यापक नहीं तो गलती शक्ति की नहीं बल्कि शीर्ष नेतृत्व की होगी ; जितनी जल्दी हम समझ जाएँ हमें सँभालने का उतना अधिक समय मिलेगा। "

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