Sunday 26 February 2017

12 अगस्त 1939 का हिन्दुस्तान टाइम्स ... हेडलाइन है --"कांग्रेस ने नेताजी सुभाष को अनुशासनहीनता की सजा दी उन्हें सभी कमेटियो से बर्खास्त किया गया और चुनाव लड़ने पर रोक लगाई गयी ..

नीचे लिखा है की ये सिपारिश नेहरु की अध्यक्षता की कमेटी ने किया था ..

सोचिये .. ये नीच देशद्रोही कांग्रेस और कामुक लम्पट नेहरु कैसे सत्ता के लिए एक एक करके सभी सेनानियों को ठिकाने लगाता गया ... भगत सिंह की फांसी का नेहरु और गाँधी ने समर्थन किया था ..नेताजी को देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया .. चंद्रशेखर आजाद को नेहरु ने मुखबिरी करके उन्हें मौत के घाट उतार दिया ..सावरकर को साजिश करके कालापानी भेजवा दिया .. और खुद गाँधी नेहरु की रंगा बिल्ला की जोड़ी देश के साथ बलात्कार करती रही
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यूं ही नहीं कोई 'सावरकर' बन जाता है

सावरकर, क्या था इस शब्द में? कुछ भी नहीं, लेकिन इस शब्द को जिस रूप में हम जान रहे हैं, वह महत्वपूर्ण विषय है। वह एक ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने साम्राज्यवाद के रथ पर काबिज होकर चलने वाले अंग्रेजों की क्रूरता की पराकाष्ठा झेली और फिर उस भारत को भी देखा जो जाति भेद की आग में जल रहा था। उनको पढ़कर बहुत सी ऐसी बातें समझीं जो यह प्रमाणित करती हैं कि उस दौर में ‘उनसे’ बेहतर विचार नहीं हो सकते थे।

विनायक दामोदर सावरकर का नाम कुछ समय पहले सुर्खियों में छाया हुआ था। भारत में एक नई परंपरा शुरू हो गई है जिसके आधार पर राजनीतिक पार्टियां क्रांतिकारियों और महापुरुषों को अपनी सुविधानुसार बांट लेती हैं और फिर उनके नाम पर जी भरकर राजनीति करती हैं...

कोई पार्टी स्वयं को सावरकर हितैषी बताकर उनके लिए भारत रत्न की मांग करती है तो कोई सावरकर को गद्दार बना देती है। इन दोनों ही विचार परिवारों के समर्थक इस बात पर जी जान लगाकर बहस करते हैं कि सावरकर देशभक्त थे अथवा गद्दार, सावरकर को भारत रत्न मिलना चाहिए अथवा नहीं। मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि कोई महापुरुष अथवा क्रांतिकारी किसी ‘दल’ विशेष का नहीं होता और महापुरुष वही होता है जो सामान्य व्यक्ति से बेहतर तरीके से समाज के प्रति स्वयं को समर्पित करे। हो सकता है उस ‘महापुरुष’ की विचारधारा हमसे 100 प्रतिशत ना मिलती हो, लेकिन क्या ऐसे में आप उससे 100 प्रतिशत असहमत हो सकते हैं?

आपका तर्क कुछ भी हो लेकिन इसका जवाब ‘नहीं’ में ही मिलेगा। समाज के विषय में सकारात्मक दृष्टिकोण से सोचने वाला प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में एक विशिष्ट विचार है। यदि आप किसी विचार से 100 प्रतिशत असहमत हैं तो इसका साफ तौर पर मतलब है कि आप उसका विरोध अज्ञानतावश अथवा द्वेषवश कर रहे हैं, और यदि आप किसी से 100 प्रतिशत सहमत होने का दावा कर रहे हैं तो इसका भी अर्थ यही है कि या तो आप अज्ञानी हैं अथवा अंधभक्त हैं। अब बात करते हैं कि आखिर आज क्यों विनायक दामोदर सावरकर जैसे दिव्य पुरुष के विषय में चिंतन करने की आवश्यकता महसूस हो रही है

एक राजनीतिक दल यह आरोप लगाता है कि पोर्ट ब्लेयर (अंडमान द्वीप) जेल से अपनी ‘काले पानी’ की सजा से रिहाई के लिए अंग्रेजों से क्षमा याचना की थी। हो सकता है ऐसा हो, लेकिन क्या ऐसा करने का उद्देश्य यह नहीं हो सकता कि सावरकर ने भी वही सोचा हो जो एक समय श्रीकृष्ण ने सोचा था, जिसकी वजह से वह रणछोड़ कहलाए। परिस्थिति का विवेचन एक सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ करें तो पाएंगे कि अपने-अपने समय में इन व्यक्तित्वों ने जो निर्णय लिए वे एकमात्र विकल्प थे। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं इसका एक कारण है, यदि हम स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान की सोच को उस दौर के क्रांतिकारियों के बारे में पढ़ कर समझने का प्रयास करेंगे तो सामने आएगा कि उस दौर के अधिकतर क्रांतिकारी जान देने के पक्ष में नहीं थे। इसका कारण यह नहीं था कि वह जान देने से डरते थे, बल्कि इसका कारण यह था कि उनको पता था कि देश की स्वतंत्रता के लिए जीवित रहकर संघर्ष करना अतिआवश्यक है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद के बीच का अंसेबली में बम फेंकने से पहले का संवाद है।

शहीद भगत सिंह से जुड़े साहित्य को पढ़ने पर पता लगता है कि जब भगत सिंह ने सांडर्स को मारकर लालाजी की मौत का बदला लेने के बाद असेंबली में बम फेंकने का निर्णय लिया तब चंद्रशेखर आजाद ने पूरी योजना तैयार की कि किसी तरह और किन रास्तों से बम विस्फोट करने के बाद निकालकर भागा जा सकता है। उन्होंने यह योजना भगत सिंह को बताई लेकिन भगत सिंह ने इस पर अमल करने से साफ तौर से मना कर दिया। भगत सिंह गिरफ्तार होना चाहते थे। इस मुद्दे पर आजाद से भगत सिंह की गर्मागर्म बहस भी हुई। भगत सिंह का कहना था, ‘हम असेंबली में बम किसी की जान लेने के लिए नहीं फेंकने वाले हैं। हमारा उद्देश्य है, लोगों को जगाना और उस उद्देश्य को मैं गिरफ्तार होकर ज्यादा बेहतर तरीके से पूरा कर सकता हूं। केस चलेगा, जिरह होगी और उस जिरह हमें अपनी बात देशवासियों तक पहुंचाने का मौका मिलेगा।’

इस पर आज़ाद का कहना था कि केस का मतलब होगा मौत की सजा। इसके बाद भगत सिंह ने आजाद से कहा, ‘मैं जान देने के लिए ही गिरफ्तार होना चाहता हूं, मैं जीवित रहकर आजादी के आंदोलन में उतना योगदान नहीं दे पाऊंगा जितना मरकर दे सकता हूं।’ भगत सिंह बोले, ‘मेरी मौत कई भगत सिंह पैदा कर देगी।’ दोनों महान क्रांतिकारियों के बीच लंबी बहस हुई लेकिन भगतसिंह अपनी जिद के पक्के थे। आखिरकार आजाद को उनके आगे हार माननी पड़ी। फिर वही हुआ जो भगतसिंह चाहते थे। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि एक क्रांतिकारी संगठन से जुड़े व्यक्ति द्वारा जीवन को व्यर्थ नष्ट कर देने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। भगत सिंह तथा उनके साथी क्रांतिकारियों का उद्देश्य साफ था कि उनकी मौत एक नए आंदोलन को खड़ा करेगी लेकिन सभी क्रांतिकारी सिर्फ अपनी जान कुर्बान कर देते तो शायद आज हम स्वतंत्र देश में सांस नहीं ले रहे होते। कुछ ऐसे ही विचार विनायक दामोदर सावरकर के भी बन गए थे। और यह विचार क्यों बने होंगे, इस बात का अंदाजा आप तब तक नहीं लगा सकते जब तक उस दौर की स्थितियों के विषय में अध्ययन न कर लें।

10 मई, 1907 को सावरकर ने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई। इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं, अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया। सावरकर भारत के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सन् 1857 की लड़ाई को भारत का ‘स्वाधीनता संग्राम’ बताते हुए लगभग एक हजार पृष्ठों का इतिहास लिखा। जून 1908 में तैयार हो चुकी पुस्तक ‘द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस-1857’ में सावरकर ने इस लड़ाई को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आजादी की पहली लड़ाई घोषित किया था। इस पुस्तक से भारत में भगत सिंह सहित कई लोगों ने प्रेरणा ली।

हो सकता है कि अब कोई यह तर्क दे कि भगत सिंह तो सावरकर के हिंदुत्व के विरोधी थे। बिलकुल थे, क्योंकि उन्होंने सावरकर के हिंदुत्व को समझा नहीं था। जब सावरकर की पुस्तक भारत में कोहराम मचा रही थी तब भगत सिंह अपने शैशव काल में थे और सावरकर उस दौर में अंग्रेजों के गढ़ में रहकर मां भारती के चरणों की जंजीरों को तोड़ने के लिए प्रयास कर रहे थे। इसे आयु आधारित अनुभव कहें तो गलत न होगा। आगे जिस रूप में भगत सिंह ने सावरकर के हिंदुत्व को समझा, अगर मैं भी वैसा ही मान लूं तो मैं भी विरोध करूंगा लेकिन वास्तविकता यह है कि सावरकर के हिंदुत्व की व्यापकता उतनी सीमित नहीं जितना प्रचारित की गई। यह बिलकुल वैसा ही था जैसे एक 13-14 साल का छोटा सा बच्चा गांधी- गांधी करते हुए एक बुजुर्ग नेता के पीछे घूमता रहता है और फिर जब वह नेता अहिंसा के नाम पर अपने आंदोलन को वापस लेने की घोषणा करता है तो बच्चा उस नेता के रास्ते को नकार कर उसके विपरीत सिद्धांत आधारित रास्ते का चुनाव कर लेता है। इस विषय में यह नहीं कहा जा सकता कि महात्मा गांधी ने अपने सविनय अवज्ञा आन्दोलन को वापस लेकर कुछ गलत किया था। इसी आधार पर सावरकर को भी सिर्फ एक व्यक्ति के दृष्टिकोण के चलते गलत नहीं माना जा सकता।

आइए, सावरकर से जुड़े कुछ विषयों का विश्लेषण करते हैं:
क्या बंगाल विभाजन के दौरान 1905 में पुणे में अभिनव भारत संगठन द्वारा विदेशी कपड़ों की होली जलाना कोई सामान्य कदम था, उस समय जब हम गुलाम थे और सोशल मीडिया जैसी कोई चीज नहीं होती थी।

क्या यह झूठ है कि लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और स्वामी दयानंद सरस्वती से प्रेरित श्यामजी कृष्ण वर्मा ने सावरकर की योग्यता, क्षमता और प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें छात्रवृत्ति दी थी।

क्या यह भी झूठ है कि भगत सिंह, राजाराम शास्त्री से कहा करते थे मुझे सावरकर जी के जीवन प्रसंगों, जैसे लंदन में रहते हुए मदनलाल ढींगरा को क्रांति की ओर प्रेरित करना, गिरफ्तारी के दौरान भारत लाए जाते समय जहाज से समुद्र में कूद पड़ऩा आदि ने बहुत प्रभावित किया है। (काशी विद्यापीठ के युवा राजाराम शास्त्री को लाला लाजपतराय जी ने द्वारका दास पुस्तकालय का प्रबंधक मनोनीत किया था। भगत सिंह से राजाराम के मैत्रीपूर्ण संबंध बन गये थे। राजाराम शास्त्री ने कई जगह अपने और भगत सिंह के संवाद का जिक्र किया है।)

क्या यह भी झूठ है कि सावरकर की प्रेरणा से ही जर्मनी में संपन्न होने वाली इंटरनैशनल सोशलिस्ट कांग्रेस में सरदार सिंह राणा और श्रीमती भीखाजी ने भारत का प्रतिनिधि बनकर वन्दे मातरम् लिखित ध्वज को फहराया।

क्या यह भी झूठ है कि वह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में दो आजीवन कारावास की सजा पाने वाले एकमात्र क्रांतिकारी हैं।

क्या यह भी झूठ है कि सावरकर ने अंडमान जेल में रहते हुए, अंग्रेजों के कानूनों के जाल में उनको ही फंसाकर कैदियों को सामान्य सुविधाएं उपलब्ध कराई थीं।

क्या यह भी झूठ है कि ‘सवर्ण’ होते हुए भी दलितों को सम्मान दिलाने के लिए उन्होंने रत्नागिरी में प्रथम प्रयास किया।

क्या यह भी झूठ है कि अस्पृश्यता निवारण के लिए जमीनी स्तर पर कार्य करते हुए सावरकर ने अपने ब्राह्मणत्व कर्म का प्रतिपालन किया।

क्या यह भी झूठ है कि ‘भाषा शुद्धि’ यानी हिंदी तथा देवनागरी के संरक्षण हेतु उन्होंने प्रयास किए।

क्या यह भी झूठ है कि सुभाष चन्द्र बोस को रासबिहारी बोस के उस पत्र से आजाद हिंद फौज बनाने की प्रेरणा मिली जो उन्होंने विनायक दामोदर सावरकर को लिखा था।

ऐसे बहुत सारे विषय हैं जो अटल जी द्वारा की गई सावरकर की व्याख्या को प्रमाणित करते हैं। स्वातंत्र्य वीर विनायक सावरकर के सिद्धांतों की वर्तमान समाज में एक विशिष्ट प्रासंगिकता इसलिए भी है क्योंकि आज भी कानूनों के आधार पर देश के प्रधान की तस्वीर के साथ छेड़छाड़ करने वाले को जेल हो जाती है और भारत की बर्बादी के नारे लगाने वाले जेल के सीकचों से बाहर ही रहते हैं। उन सिद्धांतों की प्रासंगिकता इसलिए भी है क्योंकि हमारे गांवों में आज भी ‘बिछड़े जनों’ को स्वयं से अलग ही समझा जाता है।

मेरा मानना है कि रानी लक्ष्मीबाई हों या रानी चेन्नमा, चन्द्रशेखर आजाद हों या भगत सिंह, अशफाक उल्ला खां हों या बहादुर शाह जफर, जवाहर लाल नेहरू हों या महात्मा गांधी, सभी ने अपने स्तर पर कुछ ना कुछ तो अच्छा किया है। जो अच्छा है, जो सकारात्मक है, जो अनुकरणीय है, उसे आत्मसात करने अथवा उसकी प्रशंसा करने में क्या बुराई है? हिंदुत्व शब्द से परेशानी है तो स्पष्ट समझ लें कि ‘श्रीराम को पूजना हिंदुत्व नहीं बल्कि श्रीराम को आत्मसात करना हिंदुत्व है।’




सावरकर .... कुछ तथ्य जिन्हें इतिहास से गायब कर दिया गया

1 - सावरकर दुनिया के अकेले स्वतंत्र योद्धा थे जिन्हें दो -दो आजीवन कारावास की सजा मिली ,सजा झेला ..फिर राष्ट्र जीवन में सक्रिय हो गए।

2- वे विश्व के ऐसे पहले लेखक थे जिनकी कृति 1857 का प्रथम स्वत्रंतता को दो -दो देशो ने प्रकाशन से पहले ही प्रतिबन्ध कर दिया था। 

3 -वह पहले ऐसे भारतीय राजनीतिज्ञ थे जिन्होंने सवर्प्रथम विदेशी वस्त्रों का होली जलाई।

4 -वह विश्व के पहले इन्सान थे जिनकी स्नातक की डिग्री वापस ले ली गयी थी ...उनकी स्नातक की उपाधि स्वत्रंता आंदोलन में भाग लेने के कारण अंग्रेज सरकार ने वापस ले लिया।

5 - वह पहले ऐसे विद्यार्थी थे जिन्होंने इंग्लैंड के राजा के प्रति वफादारी के सपथ लेने से मना कर दिए जिसे फलस्वरूप उन्हें वकालत करने से रोक दिया गया। मजे की बात ये की गाँधी ने इंग्लैण्ड के राजा के प्रति वफादारी की कसम खाकर ही बैरिस्टर की डिग्री ली थी

6 --वह एक ऐसे कवि थे जिन्होंने अपना कविता अंदमान के जेल की दीवारों पर कोयले से लिखी फिर उसे याद किया। इस तरह याद किया दस हजार पंक्तियों को उन्होंने जेल से निकलने के बाद पुनः लिखा।

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सावरकर के पिटिशन को पढिये ... आपके आँखों में आंसू आ जायेंगे ..अंग्रेज चाहते तो उन्हें फांसी पर लटका सकते थे .. सावरकर ने यही लिखा ..या तो यहाँ से दुसरे जेल भेजो ..या फांसी दो .. लेकिन रोज मुझे यूँ मत तडपाओ .. 14 साल से लगातार हर रोज टार्चर झेल रहा हूँ .. और यदि मुझे नही तो इस जेल में बंद मेरे साथियो को आजाद करो .. रोज नारियल की जटाओ से रस्सी बनाते बनाते मेरे हाथो से खून निकलता है .. दवा नही मिलने से घाव सड़ गया है ... फिर तीस मन सरसों का तेल खुद बैल की जगह खुद ही कोल्हू से निकालो ..

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