Saturday, 18 February 2017

एक क्रांतिकारी, जिसके लिए संशोधित करने पड़े वंदेमातरम वाली किताब ‘आनंदमठ’ के 5 एडीशंस...

1857 की लड़ाई को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा गया, वीर सावरकर ने इसको लेकर एक किताब लिखी और बताया कि ये कैसे भारतीय आजादी का पहला स्वतंत्रता संग्राम था. लेकिन फिर भी लोगों ने सवाल उठाए कि सैनिक सूअर या गाय की चर्बी वाले कारतूसों से परेशान थे और मुगल बादशाह, लक्ष्मीबाई, नाना साहेब, हजरत महल आदि अपने राज छिन जाने की वजह से परेशान थे, इसलिए ये जंग हुई. 
 
कई इतिहासकारों ने लिखा कि आम जनता इस संग्राम से नहीं जुड़ी, ऐसे में 1857 के ठीक बाद महाराष्ट्र की धरती से एक आजादी का मतवाला उठा, जिसका ना किसी राजपरिवार से कोई ताल्लुक था और ना ही महाराष्ट्र में तमाम तरह के आंदोलनों में सक्रिय रहे चितपावन ब्राह्मणों से. आर्थिक, सामाजिक और जातीय स्थिति में सबसे नीचे के तबके से उठा था वो योद्धा, जिसे अंग्रेजों ने डाकू कहा और आज की पीढ़ी उसे रॉबिनहुड से भी बेहतर पाएगी, नाम था वासुदेव बलवंत फड़के.
 
फड़के का ना पेशवा से कोई लेना देना था और ना ही शिवाजी के वंशजों से, ना ही शिवाजी और बाजीराव की तरह उसे युद्धकला विरासत में हासिल हुई थी. उसे तो उसकी मां ने योद्धा बनने पर मजबूर कर दिया, अपनी मां की वजह से वो मां भारती के करोड़ों लालों के लिए खड़ा हो गया, सब कुछ दांव पर लगाकर. उसने शिवाजी की तरह ही एक अंडरग्राउंड आर्मी खड़ी कर दी, वो भी तब जब पेशवा किनारे लग चुके थे, शिवाजी के वंशज पेंशन पर थे और अंग्रेजों का पूरे देश पर एकछत्र राज था.
 
आर्मी भी उन लोगों की जो समाज के हाशिए पर थे, भील, डांगर, कोली, रामोशी आदि जातियों के युवाओं को मिलाकर खड़ी की गई ये आर्मी. शुरू से ही वासुदेव को कुश्ती और घुड़सवारी का शौक था, यहां तक कि स्कूल छोड़ दिया हालांकि बाद में वासुदेव ने एक क्लर्क की नौकरी कर ली, पुणे के मिलिट्री एकाउंट्स डिपार्टमेंट में. मां उसे उसके नाम का अर्थ बताती थी, तो उसे लगता था कि उसकी भी अपनों के लिए कुछ जिम्मेदारी है. लेकिन एक दिन मां काफी बीमार थी, मरने से पहले अपने बेटे से मिलना चाहती थी, लेकिन अंग्रेज अफसर ने छुट्टी देने से मना कर दिया, वो अगले दिन बिना छुट्टी के घर चला गया लेकिन इतनी देर हो गई कि अंतिम वक्त में भी वो अपनी मां से ना मिल सका.
 
पहली बार उसकी समझ में आया कि गुलामी क्या होती है, जिस मां से वो वीर महापुरुषों की कहानियां सुनता था, अपना काम पूरी मेहनत से कर्तव्य की तरह करता था, उसकी मां से ही अंतिम दिन भी ना मिलने दे ये नौकरी, ये जीवन उसे सब व्यर्थ लगा. उसे लगा कि ना जाने कितनी मांएं हैं जो भारत मां की गुलामी के चलते अपने बेटों से नहीं मिल पाती होंगी. 15 साल की सरकारी नौकरी को लात मारकर उसने भारत मां को अंग्रेजी गुलामी से मुक्त करने का प्रण ले लिया.
 
मुंबई के पास है रायगढ जिला और उस जिले के पनवेल तालुका में आज तमाम फिल्म स्टार्स के फार्म हाउसेज हैं, वहीं पास के एक गांव में पैदा हुए थे वासुदेव बलवंत फड़के. जैसे शिवाजी की जिंदगी में मां जीजाबाई और समर्थ गुरु रामदास का अहम रोल था, वैसे ही वासुदेव की जिंदगी में भी उसकी मां के अलावा एक गुरु का बड़ा रोल था. जब पढ़ाई और फिर नौकरी के लिए पुणे गया वासुदेव तो वहां मुलाकात हुई क्रांतिवीर लाहूजी वस्ताड साल्वे से, एक समाज सुधारक जो दलित जातियों के युवाओं के बीच कुश्ती की ट्रेनिंग देते थे. वासुदेव का उनके ट्रेनिंग सेंटर में जाना आम हो गया, साल्वे लगातार बताते थे कि देश तब तक आजाद नहीं होगा जब तक कि आजादी की लड़ाई की कमान ऊपर के वर्गों से निकलकर दलित पिछड़े युवाओं के ऊपर नहीं आती, जब तक इतना बड़ा वर्ग आजादी की जंग से जुड़ेगा नहीं, देश गुलाम ही रहेगा. पढ़े लिखे नौजवान फड़के ने ये काम संभाल लिया और दलित पिछड़ी जाति के नौजवानों को देश के लिए बड़ी लड़ाई के लिए तैयार करने का बीड़ा उठा लिया.
 
लाहूजी ने भी युवाओं को शारीरिक और हथियारों की ट्रेनिंग देने का काम ऐसे ही नहीं शुरू किया था, अंग्रेजों से उनकी पुरानी दुश्मनी इसके लिए जिम्मेदार थी. 1817 का खड़की युद्ध, जिसमें पेशवा और अंग्रेजों के बीच भिड़ंत हुई थी, अंग्रेजी फौज ने पेशवा की तरफ से लड़ रहे लाहूजी के पिता राघोजी को मौत के घाट उतार दिया था, उसी दिन से लाहूजी ने अंग्रेजों को उखाड़कर फेंकने का इरादा कर लिया था. ऐसा नहीं है कि वो केवल वासुदेव बलवंत फड़के के ही गुरू थे, अपनी व्यायाम शाला में उन्होंने लोकमान्य गंगाधर तिलक को भी प्रशिक्षित किया था.
 
इसी दौरान वासुदेव को महादेव गोविंद रानाडे के कुछ लेक्चर्स अटैंड करने का मौका मिला, तब वासुदेव को पता चला कि कैसे अंग्रेज देश पर राज ही नहीं कर रहे हैं, देश के अमूल्य संसाधनों और दौलत को धीरे धीरे अपने देश भेज रहे हैं. 1870 में पहली बार उसने एक आंदोलन में पहली बार हिस्सा भी लिया. फिर उसने समाज के नौजवानों को पढ़ाने के लिए एक संस्था ‘एक्या वर्धिनी सभा’ भी स्थापित की. जबकि 1960 में वासुदेव ने अपने दो साथियों वामन प्रभाकर और लक्ष्मण नरहर इंद्रापुरकर के साथ मिलकर जो संस्था स्थापित की थी ‘पूना नेटिव एसोसिएशन’, वो बाद में महाराष्ट्र एजुकेशन सोसायटी बन गई, जो आज 51 एजुकेशनल इंस्टीट्यूट्स चलाती है.
 
इसी बीच अकाल ने दस्तक दी, मां की मौत से अंग्रेजों से पहले से ही खार खाए बैठे वासुदेव बलवंत फड़के ने ‘स्वराज’ का आव्हान किया, बाल गंगाधर तिलक से भी काफी पहले. वासुदेव ने नारा दिया, ‘’अंग्रेजों ने जितनी बीमारियां अब तक देश को दी हैं, उन सारी बीमारियों का एक ही इलाज है—स्वराज.‘’वासुदेव ने अकाल ग्रस्त इलाकों का दौरा किया, लोगों से स्वराज के लिए लड़ाई की अपील की, प्रभावशाली लोगों से इस लड़ाई में जुड़ने का आव्हान किया. लेकिन वासुदेव को अपेक्षित सहयोग नहीं मिला. उन दिनों एक प्रभावशाली संत हुआ करते थे, अक्कालकोट (शोलापुर) के समर्थ महाराज, वासुदेव ने उनसे सहयोग और आर्शीवाद मांगा, समर्थ महाराज ने उनसे तलवार लेकर एक पेड़ पर रख दी और कहा कि सशस्त्र क्रांति के लिए ये उपयुक्त समय नहीं है, लेकिन वासुदेव ने पेड़ से तलवार वापस उठाई और निकल गए.
 
तब उन्हें गुरू साल्वे की बात याद आई, उन्होंने स्वराज की इस लड़ाई के लिए रामोशी जाति के लड़कों को जोड़ा, बाद में भील, डांगर और कोली जाति के युवाओं को भी शामिल किया और 300 ऐसे युवाओं आर्मी तैयार की, जो देश पर जान न्यौछावर करने को तैयार थे. उन्हें लगा अंग्रेजों से उन्हीं की भाषा में बात करनी होगी, क्रांति बिना खून बहाए नहीं होगी, सरदार भगत सिंह, आजाद और बिस्मिल से सालों पहले उन्होंने ये मान लिया था कि अंग्रेजों में ये खौफ भरना होगा कि इस देश में राज करोगे तो लाशें गिनने के लिए भी तैयार रहो.
 
बहुत कम लोग ये जानते हैं कि वासुदेव बलवंत फड़के को भारतीय आजादी के इतिहास में ‘सशस्त्र क्रांति का पिता’ माना जाता है. उसने सारे युवाओं को घुड़सवारी, शूटिंग और शिवाजी की तरह गौरिल्ला वॉर की ट्रेनिंग देनी शुरू कर दी. उनका प्रण देखकर युवा रोज अपने अपने घर और नौकरी छोड़कर उनकी टीम से जुड़ते जा रहे थे, लेकिन इसी के साथ एक समस्या भी खड़ी हो गई थी कि इतनी बड़ी फौज के खर्चे कैसे उठाए जांएं, जंगल में, गावों में लम्बे वक्त तक कैसे छुपते हुए ट्रेनिंग दी जाए. तब तय किया गया कि खर्च पूरे करने के लिए अंग्रेजों की दौलत को लूटा जाएगा.
 
पहली रेड पुणे के शिरूर तालुका के धमारी गांव में डाली, सेठ बालचंद फौजमल सांकला के घर, जो अंग्रेजों के इनकम टैक्स का कलेक्शन सेंटर था, कुल पैसे मिले चार सौ रुपए. जो अपने खर्चों के लिए निकालकर बाकी अकालग्रस्त गांवों के किसानों में बांट दिए गए. अब ये रोज का काम हो गया. अकाल से पीड़ित गांवों में किसानों की सूची बनाई जाती, फिर अंग्रेजी सरकार के पैसों के कलेक्शन सेंटर्स की सूची बनती, रेड होती, अपने खर्च का पैसा निकालकर रॉबिन हुड की तरह सारा पैसा गरीबों में बांट दिया जाता, हथियार अपने पास रख लिए जाते. अंग्रेजी सरकार ने वासुदेव बलवंत फड़के को डकैत घोषित कर दिया और गांव वालों ने देवता. गांव वाले ना उन्हें अब बचाने लगे, बल्कि उनको सूचनाएं भी देने लगे, रेड डालने से पहले सबसे पहले उस टुकड़ी का संपर्क हर जगह से काट दिया जाता था ताकि जल्द कोई मदद ना मिल पाए और फिर उन पर अटैक किया जाता था.   
 
चार सौ रुपए की पहली लूट अब एक से डेढ़ लाख में तब्दील हो चुकी थी. अकाल से बदहाल गांवों की तस्वीर बदल रही थी. लोग वासुदेव को असली का वासुदेव (कृष्ण) समझने लगे, वो रॉबिनहुड की तरह मशहूर हो चुका था. लेकिन वो बड़े अंग्रेजी अधिकारियों की नजर में तब चढ़ा जब उसने कुछ दिनों के लिए कभी पेशवाओं की राजधानी रहे शहर पूना पर कब्जा कर लिया, कई दिनों तक अंग्रेजी फौज उसे हटा ना सकी. ये खबर इंग्लैंड तक जा पहुंची. इधर वासुदेव की सेना बढ़ती गई, उसने लड़ाकू रोहिल्लों को अपनी सेना में भर्ती करना शुरू कर दिया. लेकिन इसी बीच उसका एक खास आदमी दौलत राव नायक अंग्रेजों के साथ मुठभेड़ में मारा गया. मेजर डेनियल उसका काल बनकर आया, फड़के लिए ये बड़ी चेतावनी थी. उसकी गौरिल्ला वॉर अब सबके सामने आ चुकी थी. फड़के ने दक्कन की तरफ रुख किया, अपने सेना में रोहिल्लों के साथ साथ अरबों को भी भर्ती करना शुरू किया.
 
अंग्रेजों ने उसके सर पर एक बड़ी रकम का ऐलान कर दिया, अलग अलग श्रोतों में ये इनाम की रकम कहीं पांच हजार तो कहीं पचास हजार मिलती है. लेकन इतना तय है कि किसी क्रांतिकारी पर इतना बड़ा इनाम उस वक्त तक नहीं रखा गया था. उस घटना के ठीक 95 साल बाद बॉलीवुड में डाकू गब्बर सिंह को खौफनाक दिखाने के लिए उसके सर पर पचास हजार रुपए का इनाम रखा गया था. हर सात-आठ साल में भी दोगुना करेंगे तो पाएंगे कि ये कई गुना ज्यादा था. लेकिन इनाम से भी ज्यादा दिलचस्प था अगले ही दिन मुंबई की गलियों में फड़के के हस्ताक्षर वाले इश्तेहार लग जाना, जिसमें उसके सर पर इनाम का ऐलान करने वाले अंग्रेज अफसर रिचर्ड के सर पर पूरे 75000 रुपए का ऐलान किया गया था.
 
अंग्रेज इससे और ज्यादा चिढ़ गए. इतना ही नहीं फड़के ने मुंबई के अंग्रेजी गर्वनर के सर के साथ साथ हर एक यूरोपीयन की मौत पर लोगों को इनाम देने का ऐलान कर दिया. अंग्रेज हैरान थे कि इससे कैसे निपटा जाए. हैदराबाद निजाम का पुलिस कमिश्नर अब्दुल हक और अंग्रेज मेजर डेनियल हक को एक ही काम में लगा दिया गया कैसे भी फड़के को पकड़ा जाए. फिर एक गद्दार ने वो कर दिया जो लाखों की अंग्रेजी और निजाम फौज नहीं कर पाई. फड़के के कई साथी मारे या पकड़े गए थे, थके हारे फड़के अकेले पंढरपुर के रास्ते में 20 जुलाई 1879 को एक देवी मंदिर में रुके, फड़के की सूचना किसी ने डेनियल को पहुंचा दी और उसे गिरफ्तार कर लिया गया. डेनियल ने उनकी छाती पर बूट रखकर पूछा, क्या चाहते हो, फड़के ने मुस्कराकर जवाब दिया, ‘तुमसे अकेले तलवार के दो दो हाथ करना चाहता हूं’.
 
वहां से उन्हें पुणे ले जाया गया, जिला अदालत की उस बिल्डिंग में रखा गया, जहां आज महाराष्ट्र सीआईडी का मुख्यालय है. सार्वजनिक काका यानी गणेश वासुदेव जोशी ने फड़के का केस लड़ा. कहीं से भी साबित नहीं हो पा रहा था कि इतनी सैकड़ों लूट की घटनाओं के पीछे वासुदेव बलवंत फड़के का हाथ था, एक भी गवाह सामने नहीं आया. लेकिन फड़के को एक आदत थी, 15 साल क्लर्की करने के बाद उसको हिसाब डायरी में लिखने की आदत बन गई थी.
 
वैसे भी वो लूट के पैसे का पूरा हिसाब रखना चाहता था ताकि उसकी फौज में विद्रोह ना हो. वो डायरी किसी तरह डेनियल के हत्थे चढ़ गई और डेनियल के साथ साथ अंग्रेजी जज भी फड़के का कारनामे पढ़ कर दंग रह गए. जिसे वो महज एक डाकू समझ रहे थे, वो तो अंग्रेजों को भारत से ही खदेड़ने की महायोजना में जुटा था. आजीवन कारावास की सजा सुनाकर फड़के को अदन की जेल में भेज दिया गया.
 
एक बार वो जेल से भाग भी गया लेकिन जल्द ही पकड़ा गया, ये 1883 फरवरी का वाकया था. अब उसे जेल की रोटी मंजूर नहीं थी. अंदर ही अंदर कुछ कर गुजरने को फडक रहा था, 17 मील तक पैदल भागने के बाद वासुदेव को पकड़ लिया गया. पकड़े जाने के बाद वासुदेव ने जेल में भूख हड़ताल शुरू कर दी. 17 फरवरी 1883 को इसी हंगर स्ट्राइक के चलते वासुदेव बलवंत फड़के ने इस दुनियां को अलविदा कह दिया, मां भारती को आजाद करवाने के सपने के साथ ही.
 
लेकिन महाराष्ट्र का ये नौजवान 37 साल की उम्र में ही भारत माता के लिए मौत को गले लगाकर तमाम क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा बन गया, महाराष्ट्र से ज्यादा बंगाल के क्रांतिकारियों के लिए. वंदेमातरम जैसा राष्ट्रीय गीत रचने वाले महान लेखक बंकिम चंद्र चटर्जी की वो किताब ‘आनंदमठ’ जिसने पढ़ी, उसने वासुदेव बलवंत फड़के के बारे में जान लिया. 1879 में फड़के को गिरफ्तार किया गया था और 1882 में जब वो जेल में थे आनंद मठ का पहला एडीशन छपकर आया था. जबकि लंदन टाइम्स फड़के के बारे में तब से ही छाप रहा था, जब फड़के ने पुणे में पेशवा के उन दो महलों में आग लगा दी थी, जिसमें अंग्रेजी सरकार के दफ्तर थे.
 
दरअसल आनंदमठ सन्यासियों के अंग्रेजी सरकार के खिलाफ आंदोलन पर आधारित थी, लेकिन बंकिम चंद्र चटर्जी ने उस वक्त के अंग्रेजी राज के खिलाफ जेल में बंद हीरो फड़के से जुड़ी कहानियों और कार्यशैली को अपनी इस किताब में शामिल कर लिया. कई संदर्भ इस तरह के दिए गए जिससे फड़के का महिमामंडन हो रहा था. अंग्रेज सरकार ने ऐतराज जताया और ये ऐतराज ‘आनंद मठ’ के पांच एडीशंस तक चलता रहा. बंकिम चंद्र हर नए एडीशन में वासुदेव की वीरता और अंग्रेजों की नाकामी को थोड़ा थोड़ा कम करते रहे, लेकिन फिर भी जितना बचा, उसने बंगाल में क्रांति की ज्वाला जगा दी और एक दिन वंदेमातरम क्रांतिकारियों का प्रेरक गान बन गया और आनंदमठ प्रेरणा श्रोत.

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